समय-सन्दर्भ - क्या इन्कलाब भी अहिंसक हो सकता है?- विनोद शाही

विनोद शाही  - वरिष्ठ समाज-चिंतक एवं आलोचक। सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में नियमित लेखन


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    'सशस्त्र प्रतिरोध' के रूप में ही इन्कलाब की धारणा को समझ पाने की वजह है-आधुनिक ज्ञान मीमांसा का वह बुनियादी 'एपेस्टीम'-जो सत्ता और ज्ञान को एक-दूसरे के पूरक की तरह ही ग्रहण कर पाता है। इस 'एपेस्टीम' को हीगेल और मार्क्स से लेकर फूको, सईद, देरिदा या लाकां तक सब कहीं, सभी में बड़ी गहराई व अनिवार्यता में देखा जा सकता है। इसका ताल्लुक 'सत्ता' व 'इतिहास' की बाबत उस आधुनिक ष्टि से है, जो उत्पादनमूलक आर्थिक रिश्तों की समाज वैज्ञानिक समझ को भी 'बेहतर शस्त्रबल और सामर्थ्य' की कसौटी पर कस कर, उसे वहाँ ले जाती है, जहाँ 'वर्चस्व' और 'सार' एक-दूसरे के पर्याय हो जाते हैं। एंगेल्स जब राजनीति को सामाजिक व्यवहारों की 'उच्चतम गतिविधि' का नाम देते हैं, तो इस दृष्टि की प्राथमिकताओं का फैसला तो हो ही जाता है, आर्थिक उत्पादन बेहद विकासगत कारगुजारी दिखाते हुए जो मुनाफा (सरप्लस) करते हैं, वह मुनाफा तभी 'टिकाऊ' सिद्ध होता है, जब उस उत्पादन मूलक गतिविधि को और बेहतर व मारक शस्त्रबल' को उत्पादित करने के लायक भी बनाया जा सकता हो


    इसलिए शस्त्रबल पर आधारित व स्थापित सभ्यताओं, वर्चस्वों व सत्तासमीकरणों वाले आधुनिक उत्तर-आधुनिक दौर में, इंकलाबों को भी अगर आना है तो 'सशस्त्र प्रतिरोध' के बिना वह कैसे आ सकते हैं? अत: 'सशस्त्र इंकलाब' का एक सर्वस्वीकृत धारणा बन जाना सहज व तर्कसंगत लगता है, यों सामंती कालों में भी शस्त्रबल की सामर्थ्य ही आखिरी फैसला करती थी, परंतु तब और अब में फर्क, यंत्र और वैज्ञानिक विधियों या तकनीकी व उच्च तकनीकी का है, जिसने मनुष्य की मौजूदगी की अनिवार्यता नहीं रहने दी है। मनुष्य देह की जगह मनुष्य के ज्ञान ने लेनी प्रारम्भ कर दी है, जो खास अमूर्त व परोक्ष किस्म की मौजूदगी रखता है। सामंती दौर में आमने-सामने के युद्ध में जब मनुष्य के हाथों दूसरे मनुष्य के मारे जाने की घटना घटती थी, तो यह एक प्रत्यक्ष अनुभव वाला बोध था, जिसमें वैराग्य के जन्म की संभावना भी उतनी ही थी जितनी बैर विरोध से पुष्ट होने वाले अहंकार की, इसलिए उस दौर का सत्ता का ज्ञानतंत्र वैराग्य और अहंकार के ध्रुवों के बीच डोलता है, पर आधुनिक दौर के परोक्ष अस्त्र-संचालन में मारने वाला, मौत के घटित होने के वास्तविक अनुभव-बोध को कभी उपलब्ध नहीं होता। मौत दूर कहीं घटने वाली चीज होती है, जो एक खबर की तरह मारने वाले तक पहुँचती है। हिरोशिमा-नागासाकी पर एटम बम गिराने वालों के लिए लाखों लोगों का एक साथ मर जाना, एक दूर से देखा गया क्षणिक बिम्ब मात्र है। इराक युद्ध के आँखों देखे प्रसारण भी आदमी की मौत को दूर घटने वाले दृश्य-बिम्ब से ज्यादा कुछ नहीं थे, जिससे शस्त्रास्त्र-बल के परिणाम एक परोक्ष घटना के संवेदनविहीन बोध से ज्यादा गहरे में उतरने लायक _नहीं रह जाते। ऐसे में गाँधी का रास्ता ज्यादा अर्थपूर्ण मानवीय संभावना के करीब लगता है, जिसका मुख्य कार्यक्षेत्र है- मनुष्य के चित्त का हिंसा-भाव, इसका रूपांतर करना है और __इसकी मंजिल है- शस्त्रास्त्र बल पर आधारित मानव विरोधी भौतिकवादी सभ्यता के विकल्प के रूप में एक अहिंसक समाज की नई सभ्यता का विकास-जो शस्त्रबल को बढ़ाते चले जाते हुए उसके वर्जक (डेटरेंट) किस्म के इस्तेमाल द्वारा संभव नहीं, और न ही वह मृत्यु-रूप से कांपते हुए कमजोर लोगों के समाज की उपज हो सकता है, क्योंकि भय और हिंसा एक ही सिक्के के दो पहलू होते हैं। गाँधी अहिंसा को निर्भयता का दर्शन मानते हैं, परंतु जब तक इस धारणा की समाज- वैज्ञानिक रूप में व क्रमिक ऐतिहासिक विकास-चरणों की शिनाख्त करते हुए व्याख्या न की जाएगी, तब तक विकल्प अमूर्त और अध्यात्म या रहस्य-जैसी वस्तु बना रहेगा, जिससे सामूहिक तालमेल व रिश्ता बनाना सहज- सरल नहीं हो सकेगा।


    यहाँ पहली बात यह समझने लायक है कि गाँधी का यह अहिंसक इंकलाब केवल साम्राज्यवाद विरोधी राष्ट्रीय आंदोलन की नीति का एक पहलू भर नहीं है, अपितु यह एक सभ्यतामूलक रूपांतर जैसी व्यापक, वैश्विक व मानवीय धरातल वाली वस्तु है।


    दूसरी बात है-इसका सत्ता-ज्ञान के दायरे से बाहर खड़े होने के लिए 'आत्म-सत्ता' वाली धारणा को परंपरागत आत्म-तत्व के नवविकल्प की संभावना की तरह सामने लाना और उसके आधार पर एकदम नए और मौलिक ज्ञानतंत्र के विकास के लिए प्रयास करना।


    भारत के सांस्कृतिक परिदृश्य में एक बड़ी मौलिक बात यह दिखाई देती है कि यहाँ सामंती दौर के आरम्भ से ही 'सत्ता का प्रतिरोध करने वाली आत्म-चेतना' का निर्माण व विकास दिखाई देने लगता है। यह विश्व इतिहास का सबसे अलहदा व अनूठा पहलू है और यही वह बात है जो भारत को भारत बनाती है। गाँधी और इकबाल औपनिवेशिक दौर में 'भारत की सभ्यता' के 'मिट न सकने वाले पहलू' पर जोर देते हैं और 'कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी'-के सवाल का जवाब खोजते हैं। गाँधी इसका जवाब 'हिंद स्वराज' की भूमिका के शुरुआती आधार-लेखन में इस रूप में देते हैं कि “जिस दिन भारत की पवित्र भूमि पर बंदूकें बनाने वाले कारखाने खड़े होंगे, उस दिन इसकी राष्ट्रीय विशिष्टता खत्म हो जाएगी, क्योंकि भारत भारत नहीं रह जाएगा।" (प्रस्तावना : टालस्टाय के 'हिन्दू के नाम पत्र' की, से.गां. वा. की-१०/४) यहाँ गाँधी के चिंतन की दिशा व सरोकार तो स्पष्ट हैं, परंतु इससे 'अहिंसा के लिए समाज-सांस्कृतिक स्पेस बनाने' की उनकी कोशिश इस सवाल का जवाब नहीं देती कि अंग्रेजकाल से पहले जब भारत में धनुष-वाण और त्रिशूल-तलवारों की ढलाई व निर्माण के काम चल रहे थे तो भारत को भारत बनाए रखने वाली वस्तु कौन सी थी? इस सवाल का जवाब खोजते हुए अगर वे भारत के समूचे सांस्कृतिक इतिहास का . पुनर्पाठ व पुनर्मूल्यांकन करते तो पाते कि वह चीज थी-सत्ता के खिलाफ खड़ी हो सकने वाली मनुष्य की मानवीय और अहिंसक विकसित होते रहने के हालात व आत्म-चेतना के लगातार क्षमता का जमीनी यथार्थ। और यह बात वाकई रेखांकित करने लायक है कि इस प्रतिरोधी आत्मचेतना को भारत ने ईसा से सात शताब्दियों पूर्व गौतम बुद्ध और महावीर वर्धमान जैसे सत्ता से बाहर जा खड़े होने वाले राजपुत्रों ने ही जमीनी हकीकत में नहीं बदला, इसी की बदौलत यहाँ का वैष्णव साहित्य भी 'सत्ता से वनवास' पाए राजपुत्रों की संघर्षगाथाएँ बन कर, भारत के सामान्यजन की अंतश्चेतना का पर्याय हो जाता है। आगे चलकर तेरहवीं-चौदहवीं सदी में भारत में सत्ता पर काबिज इस्लाम को भीतर से बदलते हुए अनेक सूफी भी यहाँ ऐसी ही हिम्मत जुटाते हुए सत्ता के बाहर खड़े होकर जनता की आत्मा की वाणी' (रूह की आवाज) हो जाते हैं। उसी परंपरा में खड़े होने की वजह से महत्वपूर्ण होते हैं गाँधी-एक विराट रूपांतर व विकल्प के आधुनिक गोमुख का रूप लेते हुए।


    गाँधी की इस विराट रूपांतर-विकल्प की ओर इशारा करती उनके चिंतन व आचरण की भीतरी संभावनाएँ, उन्हें मार्क्स, फूको और सईद जैसे महान् चिंतकों की तुलना में ज्यादा गहराई में उतरने वाला साबित करती हैं। वे वर्गविहिन समाज की ओर होने वाले मानवजाति के संभावित रूपांतर को एक समग्र समाज-सांस्कृतिक इकाई की तरह आगे बढ़ाने वाली चेतना से मुक्त नजर आते हैं और इस तरह मार्क्स को अपने तरीके से आत्मसात करते हैं। फूको और सईद के सांस्कृतिक व सामंतीय प्रतिरोध वाले रूपांतर की संभावनाओं को गाँधी का चिंतन एक परिप्रेक्ष्य देता है - एक सांस्कृतिक इतिहास-धारा में उसे जोड़ता हुआ एक जमीनी हकीकत से बदलता मालूम पड़ता है।


    भारत में गौतम बुद्ध के काल से अहिंसा को परमधर्म का नाम देते हुए एक ऐसे सभ्यतामूलक प्रश्न की तरह उठा लिया गया, जो राजसत्ताओं के उदयकाल में उनके हिंसाआधारित व्यवस्थापकों के खिलाफ उठ खड़ा हुआ, मनुष्य की परम स्वतंत्र और मानवीय आत्म चेतना को बचाने से जुड़ा सवाल था। गौतम बुद्ध ने राजसत्ता के उदय की स्थितियों का अपने एक उपदेश में, एक कथा की तरह बयान किया और उसे लोगों के जान और माल की हिफाजत करने के नाम पर खड़ी की गई हिंसा की व्यवस्था (या संस्था) का नाम दिया है, परन्तु जनसामान्य के लिए अहिंसा ही परमधर्म और समाज का बुनियादी व्यवस्था का आधारमंत्र है, इन विचारों से प्रभावित कई ब्राह्मण-ग्रंथ भी हिंसा को राजा के आपद्-धर्म' के अधिकार की तरह ही स्वीकृति देते हैं। बाद के सामंतीय सत्ताविमर्श धीरे-धीरे हिंसा के आपद्-धर्म वाले अधिकार का विस्तार करते हुए उसे आत्मसत्ता की कसौटी पर जायज ठहराने की कोशिश करते हैं। आधुनिक सत्ताविमर्शों में आत्मरक्षा के लिए हिंसा को न्यायोचित व वैधानिक रूप में स्वीकार कर लिया गया और अंतराष्ट्रीय नीति-निर्देश के तौर पर दूसरे मुल्कों में 'डेटरेट' के तौर पर 'अनाक्रमण के लिए जरूरी भय' के आधार के रूप में 'शस्त्रबल के संतुलन के लिए जगह बना ली गई है। इस तरह यह जो अब तक का पूरा सत्ताविमर्श है, वह अपने 'हिंसा की व्यवस्था' होने के भाव को चरितार्थ करता है और अपने मकसद के रूप में जनसामान्य के लिए अहिंसक बने रहकर सामाजिक व्यवस्था बनाए रखने के लिए तथा शांति के हालात में विकास करने के लिए मददगार होने का दावा पेश करता है, परंतु जैसा कि मानवजाति ने सामंती कालों से लेकर अपने मौजूदा आधुनिक-उत्तर आधुनिक समयों तक व्यावहारिक रूप में यही देखा है कि राजसत्ताएँ अपने हिंसा की व्यवस्था के अधिकार को जनदमन के अधिकार में बदल लेती हैं और अहिंसक समाज की व्यवस्था के अपने मकसद से, बिना किसी अपवाद के 'हमेशा' चूकती रहती हैं।


क्योंकि जैसा गाँधी देख पाए, हिंसा से हिंसा और अहिंसा से अहिंसा का विस्तार होता है, जैसा कि उन्होंने बारबार समझाने का प्रयत्न किया कि साधनों के हिंसक होने से कभी नतीजे-अहिंसक नहीं हो सकते?


      इसलिए गाँधी का अहिंसा का सवाल केवल पश्चिम की साम्राज्यवादी दमनकारी नीतियों को निरस्त करने तक रुका-ठिठका सवाल नहीं है, वह बड़े व्यापक अर्थबोध के साथ पूरे मानव समाज के अब तक के सत्ताविमर्शों की हिंसा की व्यवस्था हो सकने की गुत्थी को फिर से खोलकर नए सिरे से सुलझाते हुए, सभ्यता के विमर्श तक पहुँचने की कोशिश करता हुआ सवाल है। बेशक ऐसे बड़े सवालों के साथ सहमत होने के बावजूद यह शंका भी इसके साथ सदा चिपकी रहती है कि क्या यह संभव है? क्या सत्ता के किसी ऐसे रूप की कल्पना व्याहारिक रूप में की जा सकती है, जो अहिंसक हो? इस सवाल के जवाब में एक बात तो अवश्य कही जा सकती है कि राष्ट्रीय स्तर पर या दुनियां के मुल्कों में विभाजित बने रहने तक तो शायद ऐसी सत्ताव्यवस्था की परिकल्पना संभव मालूम नहीं पड़ती, परंतु यहीं यह सवाल भी इसी के भीतर से जन्म लेता है कि क्या सत्ता-व्यवस्था के बुनियादी रूप और चरित्र के अंतर्राष्ट्रीय हो जाने पर, एक विश्व-सरकार के वजूद में आ जाने की स्थिति में, यह मुमकिन है? बेशक तब यह ज्यादा व्यावहारिक संभावना बन जाती है, परन्तु वास्तव में यह मुमकिन तभी हो सकती है, जब मनुष्य के चित्त का 'सामाजिकीकरण' उस ऊंचे मानवीय स्तर पर पहुँच जाएगा, जब वह अहिंसक व्यवहार को अपनी सहज अभिव्यक्ति मानेगा। मार्क्स जिस वर्गविहीन किस्म के सामाजिक रूपांतर का सपना देखते हैं, उसमें समानता, भाईचारा, आत्मगौरव व सभी के लिए न्याय व विकास के अवसरों के अधिकार देने वाले शांति-मैत्रीपूर्ण हालात भी गहराई में इस तरह के व्यवहारों के सहज मानवीय व्यवहार हो जाने का नतीजा होते हैं। यह मनुष्य और मनुष्य के बीच के रिश्तों के 'प्राकृतिक अभिव्यक्ति वाले श्रमसृजन या उत्पादनमूलक रिश्तों' का पर्याय हो जाने से ताल्लुक रखने वाली बात हैसत्ता-संबंध चूंकि अधिरचनाएँ हैं, इसलिए उन्हें ऐसे व्यवहारों का नतीजा होना चाहिए, न कि सशस्त्र इंकलाब के द्वारा हासिल की गई सत्ता के हिंसक-चरित्र के द्वारा अहिंसक समाज की स्थापना वाले उल्टे चलन द्वारा उन्हें 'शार्टकट' से आने की कोशिश की जानी चाहिए। गाँधी इसीलिए अधैर्य को रूपांतर के बड़े दुश्मनों में से एक मानते हैं। मकसद की एकता होने की वजह से यहाँ हम हम कह सकते हैं कि गाँधी से बेहद धैर्यवान मार्क्स हैं, जो इंकलाबी परिणाम ही नहीं चाहते, इंकलाब के 'साधनों' के तल तक भी नीचे को जमीनी हकीकत में बदलने की इच्छा रखते हैं।


      इस अहिंसक मानवीय सभ्यता-दर्शन के सत्ताविमर्श का स्वरूप है-मनुष्य मात्र में विकेंद्रित केन्द्र के रूप में किसी भूमण्डलीय सत्ता का वर्चस्व ऐसी भूमण्डलीय सत्ता का नीति-निर्देशक विधान 'मनुष्य' को सर्वोपरि मानने की वजह से, विविधताओं के प्रति स्वीकार-भाव रखने वाला होगा, जिन्हें 'स्व' व 'अन्य' में विभाजित नहीं किया जाएगा, मनुष्यों में प्रकट होने वाली असामाजिक हिंसक प्रवृत्तियों को मिटाने की बजाए उनके 'रूपांतर' के लिए प्रयास करना उसकी मानवीय भूमि की कसौटी होगी। गाँधी का 'हृदय का रूपांतर'। इस व्यापक सामाजिकीकरण वाले रूपांतर की शुरुआती भूमिका भर बन कर रह जाएगा, इस लिहाज से भावी समाजों को गाँधी से आगे बढ़ने की जरूरत होगी, गाँधी अपने समय की सीमाओं की उपज थे, परन्तु वे अपने समय से बहुत आगे की बात देख और सोच पा रहे थे। उनका 'धर्म' मनुष्य के व्यापक सभ्यतामूलक रूपांतर के तौर पर, 'परंपरागत धर्म' से अलहदा नया, आधुनिक और व्यापक रूप में मानवीय अर्थ तो पाता है, परन्तु इसे अनिवार्य रूप में 'मनुष्य के सामाजिकीकरण' की प्रक्रिया के रूपांतरकारीचरणों के रूप में तर्कसंगत व्याख्या प्रदान नहीं कर पाता।


    गाँधी के 'धर्म' और 'आत्मचेतना' की अवधारणाओं की एक नई समाज वैज्ञानिक व्याख्या की जा सकती है और वह हमारे समय की जरूरतों के भीतर से एक पुरजोर माँग की तरह प्रकट भी हो रही है, इसके दो कारण हैं। एक यह कि हमारे समय तक आते-आते उत्तर-पूँजीवादी या वित्तीय पूँजीवादी हालात में 'पूँजी' और 'पर्यावरण' दोनों, प्राकृतिक संसाधनों के उत्पादन-पुनरुत्पादन से जुड़ी मुनाफावादी विकास-स्पर्धाओं की जकड़बंदियों से, एक हद तक आजाद होने की कोशिश कर रहे हैं। उनकी यह 'सापेक्ष आजादीउनके सामने मौजूद, उनके भयावह रूप में संकटग्रस्त हो जाने के हालात का दूसरा पहलू है। प्राकृतिक संसाधनों की एक सीमा है, जिसके पार उनके दोहन-शोषण का मतलब हैपर्यावरण के प्राकृतिक संतुलन व वजूद को खतरे में डाल देना, इसी तरह 'पूँजी के मुनाफावादी सरलता' की भी सीमा है, जिसके पार स्पर्धा का मतलब है-विश्व की अर्थव्यवस्था संतुलन को बिगाड़ना और युद्धों में शस्त्रबल की श्रेष्ठता को साबित करके अपने पलड़े को भारी बनाना। दूसरी ओर वह जो पूँजी व 'पर्यावरण' की सापेक्ष आजादी है, वह मनुष्य के तल पर 'निजी जीवन जी सकने की आजादी' देती है और विविध समाजों के तल पर 'स्थानीय आधार पर प्राकृतिक संसाधनों के आत्मशोधी व आत्मोत्पादक (रीसायकल्ड एवं रीजेनेरेटिवरूपों को खोजकर अंत:निर्भर आर्थिक रिश्तों को खोजने की आजादी है। इस तरह हम देख सकते हैं कि आधुनिक, उत्तरआधुनिक आर्थिक-राजनैतिक सत्ताव्यवस्थाओं ने जिस तरह के समाज को संरचित किया, उसमें 'मनुष्य' अथवा 'मनुष्य देह' के दमनशोषण को सार्वजनिक या सामूहिक कारणों परोक्ष स्वीकृति दी गई और इस लोभ-स्वार्थ व भोगवाद संचालित व्यवस्था के असल चेहरे को ढाँपने के लिए उसी मनुष्य के लिए 'निजी' धरातल पर व्यक्ति घेरने की आजादीको भी एक 'सामाजिक स्पेस' दे दी गई-जिसे 'कल्याणकारी राज्यों ने अपना 'मानवीय चेहरा' बताया और जिसे अनुत्पादक होने पर विकास के लिए जरूरी शिक्षा व स्वास्थ्य के क्षेत्रों व काम के दौरान छुट्टियों व पेंशन आदि की रियायतों रूप में प्रचारित किया गया, इस तरह इस आधुनिक, उत्तरआधुनिक सभ्यता व्यवस्था में मनुष्य' धर्म और सियासत से लेकर श्रम-रोजगार व स्त्री-पुरुष के प्रेम-काम संबंधों तक में, सार्वजनिक एवं निजी दुनियाओं में अंतर्विभाजित हो गया यानी मनुष्य को 'मनुष्य' होने की मोहलत केवल आंशिक 'निजी दुनिया' वाले हिस्से के तहत ही दी गई। ऐसा मनुष्य के अधूरे, अप्राकृतिक व अमानवीय किस्म के 'सामाजिकीकरण' की व्यवस्था को, सामूहिक सार्वजनिक व्यवस्था के नाम पर, ले आने की वजह से हुआ। यानी पूँजीवादी-उत्तरपूँजीवादी मुनाफावाद व भोगवाद के दोहन-शोषण करने की अनिवार्य जरूरत के कारण हुआ। पर एक अच्छी बात यह हुई कि आधे अधूरे या आंशिक रूप में ही सही, मनुष्य के 'मनुष्य' हो सकने के निजी अधिकार-क्षेत्र का विकास-विस्तार हुआ और पहली दफा सामूहिक रूप में मनुष्य अपने बारे में इतना 'सामाजिक तौर पर सजग' हो पाया। मध्यकाल तक भले मनुष्य के 'मनुष्य होने' और 'उस रूप में जीने' की स्थितियाँ अंतर्विभाजित न होने से, प्राकृतिक रूप में व अखण्ड तौर पर, खुली व उपलब्ध थीं, परंतु वहाँ उन समयों में इस बारे में 'सजगता' का इतना अभाव था कि संतो-बुद्धों-भक्तों आदि को इसके लिए बार-बार 'वैराग्य', 'क्षणिकता' व 'पशुता या जड़ता' से ऊपर उठने के उपदेशों के द्वारा 'साधने लायक वस्तु' बनाना पड़ता था। गाँधी इसी मध्यकालीन चेतना के साथ ' ' मनुष्य को अपने 'मनुष्य' होने के प्राकृतिक अधिकार की बाबत सजग बनाते हुए, सीधे आधुनिककाल में एक छलाँग ही लगाते हैं और मनुष्य के मौजूदा दौर के अंतर्विभाजन को आधुनिक सभ्यता की विकृति व पतनशीलता का लक्षण मानते हैं। यह बात तो समझ में आ जाती है, पर इसमें दिक्कत यह है कि विकास और समय के अग्रप्रवाह को पीछे लौटा ले जाना संभव नहीं, इसलिए मनुष्य-केंद्रित सत्ता व समाज-व्यवस्था को लाने के लिए जो करना होगा, उसे इसी सभ्यता की विकृतियों को निरस्त करते हुए करना होगा।


      गाँधी अपने चिंतन के इस अधूरेपन से वाकिफ हैं और 'हिंद स्वराज' में औद्योगिक विकास के तत्कालीन चरण को देखते हुए यह कहते हैं कि यंत्र-आधारित सभ्यता में उद्योगों व रेलगाड़ियों आदि के आ जाने से भले ही मानवजाति का सभ्यताकरण के मामले में बहुत बड़ा नुकसान हआ है, पर यथार्थ स्थिति का तकाजा यह है कि अब यंत्रों, उद्योगों व रेलगाड़ियों को नष्ट नहीं किया जा सकता। अत: मानवजाति को सोचना यह होगा कि किस तरह इन चीजों के 'अमानवीय प्रयोगों' को दूर करते हुए 'मानवीय इस्तेमाल' के रास्ते निकाले जाएं? किन्तु ऐसा करने लायक होने के लिए 'स्वराज' या 'स्वशासन' पहली शर्त है, गाँधी उस पहली शर्त के लिए की जाने वाली जद्दोजहद में ताउम्र उलझे रहे, अत: उसके बाद, वहाँ से शुरू होने वाले असल कार्य को यानी सभ्यतामूलक, नवनिर्माण को गाँधी-अपने जीवनकाल में पर्याप्त गहराई व व्यावहारिक नक्शे प्रदान नहीं कर पाए। हमारे समय को इसी नवनिर्माण की समस्या का समाधान खोजने की जरूरत है।


    कहना मुश्किल है कि अगर गाँधी जी जीवित होते तो अपने सरोकारों को व्यावहारिक बनाने के लिए एक सभ्यतामूलक नवनिर्माण के लिए अपने अहिंसक इंक़लाब को क्या दिशा प्रदान करते? तथापि कुछ बातों का यहाँ रेखांकित अवश्य किया जा सकता है, जो मेरे मतानुसार-गाँधी-दर्शन के भीतर से विकसित होती है (और जिनसे मतभेद की पूरी गुंजाइश व स्वतंत्रता दी जानी चाहिए) गाँधी के 'स्वशासन' का एक सिरा 'सत्ता के मनुष्य केंद्रित रूप' में तो दूसरा सिरा ग्रामीण पंचायती इकाइयों की आत्मनिर्भर आर्थिकता में सत्ता के मनुष्य केंद्रित रूप का विस्तार मानवजाति को एक 'भूमण्डलीय सत्ता केन्द्र' की ओर ले जाएगा, जो सारे विश्व के शस्त्रबल का अंतर्राष्ट्रीयकरण (राष्ट्रीयकरण का अगला चरण) करके उस पर एकाधिकार रखेगा और उसके प्रयेग के लिए अंतर्राष्ट्रीय कानून के अंतर्गत काम करेगा। यू.एन.ओ. को वास्तविक शक्ति केन्द्र में बदलते हुए राष्ट्रीय अंतर्विभाजनों को 'मानव केंद्रित समाजव्यवस्था' के पक्ष में कामचलाऊ व्यवस्था की तरह रहने देगा, ताकि विविधताओं की रक्षा सम्भव हो, पर गाँवों को इकाई मानने से शहर-केंद्रित अर्थव्यवस्था का ढाँचा अवश्य चरमरा जाएगा। बड़ी औद्योगिक इकाइयों वाले शहरों को गाँवों की तर्ज पर प्राकृतिक संसाधनों के संतुलित इस्तेमाल करने वाले एवं आत्मनिर्भर आर्थिकता वाले ब्लाकों या खण्डों के रूप में काम करने के तरीके ईजाद करने होंगे और मनुष्य व प्रकृति के रिश्तों की पूरकता और समरसता के एकमात्र 'धर्म' के रूप में विकसित करना पड़ेगा, ताकि आत्मचेतना के अंतर्विकास के लिए वही एकमात्र स्रोत के रूप में हमारी दृष्टि नैतिकता और आचरण के बुनियादी नियमों को जन्म देने वाला एवं जीवंत बनाने वाला हो सके। 'मनुष्य' और 'प्रकृति' को सत्ता व उत्पादन-प्रणालियों का आधार बनाने से ही एक वर्गविहीन विश्व समाज का अहिंसक इन्क़लाब चरितार्थ हो सकता है।