समय-सन्दर्भ - गाँधी की मनोभूमि - राजीव रंजन गिरि

राजीव रंजन गिरि - बिहार के एक गाँव भादा (पूर्वी चम्पारण) में 19 दिसम्बर 1978 को जन्म। शुरुआती शिक्षा गाँव में। जेएनयू नई दिल्ली से हिन्दी साहित्य में एम.ए. एवं एम.फिल. । दिल्ली विश्वविद्यालय से पी-एच.डी.। गांधी स्मृति एवं दर्शन समिति, राजघाट, नई दिल्ली के हिन्दी-अंग्रेजी जर्नल अनासक्ति दर्शन के 'भूदान विशेषांक' का सम्पादन। गांधी दर्शन की मासिक पत्रिका अन्तिम जन का तीन वर्षों तक सम्पादन। आलोचनात्मक लेखन के लिए विद्यापति सम्मान।


                                                                       -------------------------


      दक्षिण अफ्रीका प्रवास के दौरान मोहनदास करमचन्द गांधी ने रंगभेद का दंश भोगा। महसूस भी किया और पहचाना कि यह दंश, महारोग का एक लक्षण मात्र है। उसका सहज एक परिणाम। असल महारोग है- रंग-द्वेष। इस महारोग की शिनाख् के पश्चात गांधी ने मन-ही-मन सोचा कि मेरा कर्त्तव्य क्या है? मुझे यहाँ रहकर अपने हक और हकूक के लिए संघर्ष करना चाहिए? या अपने मुल्क लौट जाना चाहिए? अथवा अपमान का दंश सहकर भी अपना काम (मुकदमा) खत्म करके, अपने देश वापस जाना चाहिए?


    गांधी ने संघर्ष की राह चुनी। इस निर्णय के बाद, वे सार्वजनिक जीवन की तरफ कदम-दर-कदम बढ़ने लगे। लोगों से जुड़ते गए। लोगों को जोड़ते गएसंस्था बनाई। संगठन बनाया। 'इंडियन ओपीनियन' निकाला। दोहरी चुनौती थी गांधी के सामने। एक, रंगभेदी निजाम की नीतियों के खिलाफ संघर्ष। इससे सम्बद्ध एक चुनौती और भी थी। रंग-भेद की मारफत, जिन्हें विशेषाधिकार हासिल था, उनके नजरिए से संघर्ष। दो, दक्षिण अफ्रीका में रहनेवाले भारतीय जो रोजब-रोज रंगभेद का दंश झेलते हुए इसे वैध, सहज एवं स्वाभाविक मान चुके थे, उनकी मानसिक बुनावट से संघर्ष। इन्हें रंगभेद की अमानवीयता का अहसास कराना, यह समझाना कि रंगभेद की मुखालफत में एकजुट होकर संघर्ष करना हमारा फर्ज है; कि इससे निजात पाया जा सकता है।


    संघर्ष के पक्ष में लोगों को बनाए रखने और संघर्ष को अपने नजरिए के हिसाब से जारी रखने के साथ-साथ जिससे संघर्ष कर रहे थे, उसे अपना पक्ष समझाने के लिए गांधी को भाषण करने और लेख लिखने पड़ते थे। नतीजतन, दक्षिण अफ्रीका में हुए संघर्ष में, गांधीजी केन्द्रीय शख्सियत के रूप में उभरेवकालत का पेशा छोड़ सार्वजनिक जीवन में गांधी ने जो कदम बढ़ाए, आगे बढ़ते गए1


    अपनी सोच को अमली रूप देने के लिए, गांधीजी ने कई 'प्रयोग' किए। जो सोचा, अपने विचार जाहिर किए, उस मार्ग पर पहला कदम खुद बढ़ाया। अपने मूल दृष्टिकोण सत्य और अहिंसा का पक्ष अनेक मौकों पर स्पष्ट किया। इसकी अहमियत पर अनेक दफे प्रकाश डाला। गांधी की लड़ाई जिनके पक्ष में थी, उनसे संघर्ष के रास्ते और मकसद की बाबत वाद-संवाद किया। उन्हें संकीर्ण नहीं होने देने के लिए बार-बार चेताया। उनसे भी खुले व उदार दिल से संवाद किया, जिनके विरुद्ध लड़ रहे थे। उन्हें समझाने का भरपूर प्रयास किया कि वे एक नई सभ्यता की रचना के लिए संघर्ष कर रहे हैं। कोई उनका दुश्मन नहीं है।


    अपने विचार को जाहिर करने के लिए गांधी ने 'हिन्द स्वराज' रचा। इस किताब में हिन्दुस्तान की वास्तविक दशा बताई और अपने विचार की दिशा भी दिखाई। यह किताब, गांधी की चेतना व चिंतन की बुनियाद भी है और बुलन्दी भी।


    भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान औपनिवेशिक दासता से जूझते हुए, जो वैचारिक सरणियाँ सामने आईं, उनमें गांधी कहाँ खड़े थे? तत्कालीन नेताओं, बुद्धिधर्मियों, दार्शनिकों के बीच गांधी का रिश्ता किस वैचारिक जमीन से था? समझने की सहूलियत के लिए, शिक्षा-प्राप्ति के आधार पर, अगर कोटि विभाजन करें तो पहली कोटि बनेगी उनकी, जिन्होंने अंग्रेजी शिक्षा जिसे हम 'आधुनिक शिक्षा' के नाम से भी जानते हैं, पाई थी। दूसरी कोटि उन लोगों की, जो इससे वंचित थे। अलबत्ता इन दोनों कोटियों के अन्दर भिन्न-भिन्न वैचारिक सरणियाँ समाहित थीं। लिहाजा ये दोनों कोटियाँ भी निर्दोष और एक रेखीय नहीं हैंइन कोटियों के अन्दर मौजूद आवाजों की बहुलता और मुख्तलिफ प्रवृत्ति, दोनों कोटियों को, जटिलता प्रदान करती हैं। आशय यह कि अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त लोगों की कोटि के भीतर मौजूद बहुस्वर कभी एक-दूसरे को काटते हैं तो कभी एक-दूसरे में समाते दिखते हैं। यही हाल दूसरी कोटि अंग्रेजी शिक्षा से वंचित का है; इसमें भी मौजूद विविध स्वर कभी एक-दूसरे से संगति करते हैं, तो कभी सामना।


    इस सन्दर्भ में, गांधी की मिसाल सामने रखने पर, पता चलता है कि वे पहली कोटि में आते हैं। परन्तु अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त तत्कालीन बुद्धिधर्मियों, विचारकों, नेताओं, दार्शनिकों से निहायत अलहदा सोचते हैं। गांधी के शब्द और कर्म जो विचार-दर्शन प्रस्तावित व स्थापित करते हैं, वे इस कोटि के अन्य लोगों की सोच में नहीं समाते। लिहाजा, इस कोटि से सम्बद्ध होने के बावजूद गांधी इसका अतिक्रमण करते हैं।


    ___ 'हिन्द स्वराज' की रचना के बाद से साफ होने लगा था कि गांधी की शख्सियत के प्रति अभिभूत-सरीखा भाव रखने वाले, उनके वरिष्ठ और कनिष्ठ पीढ़ी के आधुनिक शिक्षा में दीक्षितों ने, इनकी अवधारणा की अहमियत को नहीं समझा था। गांधी के 'राजनैतिक गुरु' गोपालकृष्ण गोखले ने उम्मीद जाहिर की थी कि हिन्दुस्तान में कुछेक साल रहने के बाद, गांधी खुद ही इसमें निहित धारणाओं को खारिज कर देंगे। गोखले की उम्मीद के विपरीत, गांधी का विश्वास 'हिन्द स्वराज' पर दृढ़तापूर्वक बरकरार रहा। गोखले की मानिंद दूसरे लोगों ने भी, गांधी की अवधारणाओं पर, इसी से मिलता-जुलता मत इजहार किया था। इन लोगों द्वारा प्रयुक्त शब्दों में भले ही हेर-फेर हो, परन्तु उससे अभिव्यक्त आवाज की अर्थवत्ता समान-सी थी।


    सवाल उठता है कि गांधी के व्यक्तित्व को असाधारण मानवीय मौजूदगी माननेवाले क्यों नहीं समझ पा रहे थे, इनके शब्द और कर्म से अभिव्यक्त होते चिन्तन-दर्शन? आशीष नंदी के अध्ययन से इसका जवाब मिलता है। नंदी ने बताया है कि भारतीय जमीन पर औपनिवेशिक असर की मुखालफत के, ऊपरी तौर पर सीधे और सरल प्रतीत होने वाले, तौर-तरीकों के अन्दरूनी पहलू पेचिदगियों से सम्पूरित थे। उस दौर में, भारतीय समाज में मौजूद परम्परा प्रदत्त जड़ता और औपनिवेशिक जकड़बंदी से संघर्ष करना फिर भी आसान था; बनिस्बत उन औपनिवेशिक मूल्यों के जो, इस संघर्ष के दौरान ही अन्त:सलिला की तरह, हमारे भीतर अपनी पैठ बना रहे थे।


    सिक्के का एक पहलू था भारतीय मानस का पारम्परिक जड़ताओं और औपनिवेशिक जकड़नों से, सकर्मक रूप से जूझना; और दूसरा पहलू था कि इस संघर्ष के साथ ही वह औपनिवेशिक मूल्यों को आत्मसात करता जा रहा था। भारतीय मानस में उपनिवेशवादी मूल्यों के पैठ बनाने और स्वीकृति पाने वाली प्रक्रिया से संघर्ष बेहद मश्किल उपक्रम था।


    उपनिवेशवादी मूल्य आधुनिक शिक्षा, आधुनिकता और इससे उत्पन्न विभिन्न विचारधारात्मक संरचनागत निर्मितियों की मारफत, औपनिवेशिक हुकूमत से संघर्ष करने वाले भारतीयों की मानसिक बुनावट में, जगह बना रहे थे। इतनी बारीकी और निर्दोष-भाव से यह प्रक्रिया घटित हो रही थी कि ज्यादातर लोग इसकी जद में आते जा रहे थे और इसका पता भी नहीं चल पा रहा था। जिन कुछेक लोगों की बौद्धिकता ने जटिलताओं में छिपी इस प्रक्रिया की पहचान की, उनमें कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर और मोहनदास करमचन्द गांधी प्रमुख थे। यह दीगर बात है कि इस शिनाख्त के बाद, टैगोर और गांधी अलग-अलग वैचारिक जमीन गढ़ते हैं। 


    आधुनिकता की पूरी संकल्पना को गांधी मानव- विरोधी समझकर इसके भौतिक आधार और सांस्कृतिक आध्यात्मिक अधिरचना को खारिज करते हैं। पार्थ चटर्जी ने बताया है कि बंकिम, टैगोर और बांग्ला नवजागरण के अगुआ आधुनिकता जनित भौतिक आधार को आवश्यक मानते हैं, परन्तु आध्यात्मिक मामले को आधुनिकता से स्वायत्त रखना चाहते हैं। टैगोर को उन्नति की आधुनिक-संकल्पना जनित राहें स्वीकार हैं, लिहाजा इस दिशा में होने वाले हस्तक्षेप भी। टैगोर भौतिक क्षेत्र और आध्यात्मिक क्षेत्र को एक-दूसरे से निहायत अलहदा रखना चाहते हैं। इसलिए यह प्रस्तावित करते हैं कि भौतिक मामले में हस्तक्षेप के बावजूद आध्यात्मिक क्षेत्र को स्वायत्त रखा जा सकता है और ऐसा भारत के लिए जरूरी है।


    गांधी के मुताबिक आधुनिकता की समूची संकल्पना मानव-विरोधी हैगांधी भौतिक और आध्यात्मिक क्षेत्र को एक-दूसरे से काटकर नहीं देखते। आधुनिकता की संकल्पना जिस मनुष्य का निर्माण करती है, उसमें स्वायत्त अध्यात्म के लिए जगह नहीं। 'सम्पूर्ण मनुष्य' की रचना के लिए भौतिक विकास के साथ ही आध्यात्मिक उन्नति भी आवश्यक है। सवाल यह है कि आधुनिकता जनित भौतिक विकास जिस भू-राजनीतिक आर्थिक-सामाजिक वातावरण का निर्माण करता है, क्या उसमें स्वायत्त अध्यात्म के लिए जगह रहती है। कहना होगा कि उस वातावरण में अध्यात्म स्वायत्त नहीं रह सकता, जैसा टैगोर मानते हैं।


    भारतीय स्वाधीनता-आन्दोलन के दौरान गांधी महज देश की आजादी के लिए प्राण-पण से नहीं जुटे थे, अपितु इसके साथ ही अपने आदर्श के अनुकूल लोगों का मानसिक बुनावट रचने का भी प्रयास कर रहे थे। गांधी प्रयासरत थे, एक ऐसे सम्पूर्ण मनुष्य की रचना में, जो भौतिक और आध्यात्मिक रूप से विकसित हो। ऐसे मनुष्यों से ही एक नई सभ्यता की संरचना निर्मित हो सकती थी। आध्यात्मिक रूप से श्रेष्ठ मनुष्य की रचना, गांधी के मुताबिक, आधुनिकसभ्यता में मुमकिन नहीं। इसीलिए गांधी ने आधुनिक सभ्यता के बरअक्स हर पहलू के बारे में सोचा और चिन्तन इजहार किया। बड़े-बड़े कल-कारखानों के समानान्तर छोटे-छोटे उद्योग-धन्धे और नगर केन्द्रित विकास की बजाय गाँव को केन्द्र में रखकर विकेन्द्रित विकास के ढाँचा का प्रस्ताव, इसी मकसद का परिणाम था।


    गांधी ने अपने मत के पक्ष में वाद-विवाद-संवाद किया, शत्रुता नहीं। भारतीय स्वाधीनता-संग्राम में गांधी ने जितने कदम उठाए, अपनी दार्शनिक अवधारणा को पूर्णता में पाने के प्रयोग-सरीखे थे। इसीलिए गांधी, जहाँ जरूरी लगा, अपना मत-परिवर्तन करने से घबराए नहीं। उनका चिन्तन एक जगह ठहरा हुआ नहीं, कदम-दर-कदम बढ़ता गया है; इस शर्त पर कि उनके आदर्शों पर आधारित नई मानवीय सभ्यता की . रचना हो सके।


    गांधी की अगुआई में भारतीय स्वाधीनता-आन्दोलन की प्रकृति और संस्कृति बदलीगांधी ने आजादी की लड़ाई से लोगों को जोड़ा। आन्दोलन का नेतृत्व भी लोगों से जुड़ा। अपने चिन्तन-दर्शन को वैचारिक और संगठनात्मक स्तर पर लागू करने के लिए, स्वराज प्राप्ति के लिए, गांधी ने गाँव को केन्द्रीय इकाई बनाया।


    गांधी के शब्द और कर्म में 'स्वराज' का खास स्थान है। राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान गांधी स्वतन्त्रता की बजाय स्वराज प्राप्ति की बात करते थे'स्वतन्त्रता' शब्द के स्थान 'स्वराज' शब्द-प्रयोग सिर्फ शब्द-चयन का मामला नहीं था। 'स्वराज' में निहित है, गांधी की चेतना, चिन्ता, चिन्तन और ख्वाहिश का निचोड़। यह गांधी का वैचारिक-दार्शनिक प्रत्यय है। गांधी ने कई मौकों पर 'स्वराज' को व्याख्यायित और परिभाषित किया है। अपने बीज-ग्रन्थ 'हिन्द-स्वराज' के चौथे अध्याय 'स्वराज क्या है' के आखिर में, गांधी (सम्पादक) कहते हैं, "स्वराज को समझना आपको जितना आसान लगता है, उतना ही मुझे मुश्किल लगता है। इसलिए फिलहाल मैं आपको इतना ही समझाने की कोशिश करूँगा कि जिसे आप स्वराज कहते हैं, वह सचमुच स्वराज नहीं है।''


     


        ___'हिन्द स्वराज' की भूमिका में, इस किताब के बारे में बताते हुए, गांधी ने लिखा है कि "मैं पाठकों को एक चेतावनी देना चाहता हूँ। वे ऐसा न मान लें कि इस किताब में जिस स्वराज की तस्वीर मैंने खड़ी की है, वैसा स्वराज कायम करने के लिए आज मेरी कोशिशें चल रही हैं। मैं जानता हूँ कि अभी हिन्दुस्तान उसके लिए तैयार नहीं है। ऐसा कहने में शायद ढिठाई का भास हो, लेकिन मुझे तो पक्का विश्वास है कि इसमें जिस स्वराज की तस्वीरें मैंने खींची है, वैसा स्वराज पाने की मेरी निजी कोशिश जरूर चल रही है।"


    हिन्द स्वराज' में 'पाठक' का पक्ष सुनकर, गांधी (सम्पादक) ने कहा, "इसका अर्थ यह हुआ कि हमें अंग्रेजी राज्य तो चाहिए, पर अंग्रेज (शासक) नहीं चाहिए। आप बाघ का स्वभाव तो चाहते हैं, लेकिन बाघ नहीं चाहते। मतलब यह हुआ कि आप हिन्दुस्तान को अंग्रेज बनाना चाहते हैं और हिन्दुस्तान जब अंग्रेज बन जाएगा तब वह हिन्दुस्तान नहीं कहा जाएगा, लेकिन सच्चा इंग्लिस्तान कहा जाएगा। यह मेरी कल्पना का स्वराज नहीं है।"


    'स्वराज' के सन्दर्भ में गांधी ने उपरोक्त तीन उद्धरणों में जो विचार इजहार किया है, उसके आधार पर, गांधी की स्वराज सम्बन्धी कल्पना के बारे में अन्दाजा लगाया जा सकता है। दो उद्धरणों में, इन्होंने साफ किया है कि 'पाठक' जिसे स्वराज समझते हैं, वास्तव में वह स्वराज है ही नहीं। गांधी तो यहाँ तक कहते हैं कि वे निजी स्तर पर जिस स्वराज को पाने की कोशिश कर रहे हैं, उसके लिए फिलहाल हिन्दुस्तान तैयार नहीं है।


    इस संदर्भ में, 'यंग इंडिया' में छपा गांधी का एक लेख काबिलेगौर है। इस लेख में गांधी ने स्वतंत्रता और स्वराज की तुलना की है। स्वराज के मायने समझाते हए गांधी लिखते हैं, "मेरा यह भी दावा है कि स्वराज के ध्येय से सबको सव पूरा संतोष मिल सकता है। हम अंग्रेजी पढ़े-लिखे हिंदुस्तानी अनजाने में यह मान लेने की भयंकर भूल अक्सर किया करते हैं कि अंग्रेजी बोलनेवाले मुट्ठी-भर आदमी ही समूचा हिन्दुस्तान हैं।" आगे गांधी कहते हैं कि "मैं हर किसी को चुनौती देता हूँ कि 'इंडिपेंडेंस' के लिए, वे एक ऐसा सर्व सामान्य भारतीय शब्द बतलाएँ, जो जनता भी समझती हो। आखिर हमें अपने ध्येय के लिए कोई ऐसा स्वदेशी शब्द तो चाहिए, जिसे तीस करोड़ लोग समझते हों।" गांधी, को ऐसा शब्द दिखता है-स्वराज। बकौल गांधी, स्वराज शब्द का "राष्ट्र के नाम पर पहले-पहल प्रयोग दादाभाई नौरोजी ने किया था। यह शब्द स्वतन्त्रता से काफी कुछ अधिक का  द्योतक है। यह एक जीवंत शब्द है। हजारों भारतीयों के आत्म-त्याग से यह शब्द पवित्र बन गया है।" गांधी जिस तरह की आजादी चाहते थे, उसे व्यक्त करने के लिहाज से 'स्वतन्त्रता' शब्द तंग था। गांधी की कल्पना के अर्थवृत्त का इजहार करने में यह शब्द अपर्याप्त था।


    गांधी अंग्रेजी हुकूमत से महज राजनीतिक आजादी नहीं चाहते थे। उन्हें यह गवारा नहीं कि शासन की पद्धति, सोचने का तरीका और सारा ढाँचा तो बरकरार रहे, फर्क आए तो सिर्फ शासन करने वालों में। राजनीतिक स्वाधीनता हासिल कर, अंग्रेजों की गद्दी पर हिन्दुस्तानी बैठ जाएं और उसी हिसाब से शासन सँभालें, जैसा अंग्रेज करते थे; इसे 'स्वराज' नहीं कहा जा सकता। गांधी को बखूबी अहसास था कि अंग्रेजी शासन के दौरान अंग्रेजीयत रच-बस गई है, भारतीय मन-मस्तिष्क में। अंग्रेजी शासक के खिलाफ लड़ने वाले लोगों में अंग्रेजीयत के प्रति गहरा मोह था। अंग्रेजीयत ने भारतीय दिल-दिमाग में गहरी पैठ बना ली थी, इससे संघर्ष बेहद कठिन था। राजनीतिक आजादी प्राप्ति के बावजूद औपनिवेशिक शासन के दौरान, पल्लवित पुष्पित हुए वैचारिक धरातल को, चुनौती नहीं दी जा रही है, बल्कि इसे कायम रखना जरूरी समझा जा रहा है; गांधी यह देख-समझ रहे थे। यह विडम्बना गांधी के लिए तकलीफदेह थी, जिसमें आजादी हासिल कर भी हिन्दस्तान को हारना थाकहना होगा कि उपनिवेशवाद के दोनों हि हाथ में लड्डू थे। जब तक हिन्दुस्तान गुलाम रहेगा, अंग्रेजी शासन के रूप में उपनिवेश की जीत थी। परन्तु स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात उपनिवेश का खात्मा होने पर भी उपनिवेशवाद की हार नहीं होनी थी। ऊपरी तौर पर दिखने वाली हार में भी उसकी भावी जीत निहित थीभारतीय जनमानस में रच-बस गया था-अंग्रेजी शासन का ढाँचा, सोचने-समझने का तरीका, कायदे-कानून, रंग-गंध, रुचि और सांस्कृतिक संरचना। यानी उपनिवेश हारकर भी जीत रहा था और हिन्दुस्तान जीतकर भी हार। ऐसे हालात में हिन्दुस्तान का इंग्लिस्तान बनना निश्चित था। यही हिन्दुस्तान की सच्ची हार थी।


    गांधी की ख्वाहिश थी, राजनीतिक आजादी पाने के साथ-साथ हिन्दुस्तान की इस हार पर जीत हासिल करना। कारण कि इस हार से निजात पाने के बाद ही शब्द के सच्चे अर्थों में औपनिवेशिक प्रभुत्व समाप्त होता; उसका असर खत्म होता। तभी मुमकिन होता गांधी का स्वराज। अलबत्ता गांधी समझ रहे थे कि हिन्दुस्तान की जनता स्वाधीनताआन्दोलन के जरिए जिस मकसद के लिए संघर्ष कर रही है, गांधी का स्वराज उससे, कई कदम आगे है। हिन्दस्तानी जनता की मानसिक तैयारी उतने कदम आगे बढ़ाने के लिए, नहीं दिख रही थी; 'हिन्द स्वराज' के रचनाकाल तक तो बिलकुल नहीं। इसीलिए वे अपने सपने का स्वराज पाने के लिए निजी कोशिश कर रहे थे, और हिन्दुस्तानी जनता के इच्छानुसार 'पार्लियामेंटरी ढंग का स्वराज' पाने के लिए सामूहिक प्रयास।


    स्वराज प्राप्ति के लिए-गांधीजी के मुताबिक तो हर काम के लिए-सत्य और अहिंसा की राह पर चलना अपरिहार्य है। कुछेक प्रसंगों में, इन्होंने यह परखने का प्रयास किया है कि सत्य और अहिंसा कितना कारगर है? नतीजा के तौर पर, गांधी ने पाया है कि यह मार्ग सर्वाधिक कारगर है। गांधी ने अपने साथियों की परीक्षा भी ली है-सत्य और अहिंसा की कसौटी पर; कि वे कितने खरे साबित होते हैं। दूसरे शब्दों में, अपने समक्ष आए अलग-अलग चुनौतियों के दौरान, गांधी ने सत्य और अहिंसा की परीक्षा ली है और इस श्रेष्ठता की तस्दीक की है। साथ ही ही, खुद को व अपने साथियोंकार्यकर्ताओं को जाँचा है कि वे सत्य और अहिंसा की राह पर, जाते हैंकब तक और कितनी दूर तलक. जाते हैं1


    स्वराज पाने के लिए, सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलते हुए, 'पुरुषार्थ' आवश्यक है। गांधी-विचार-दर्शन में 'पुरुषार्थ' पुरुष-सत्तात्मक पद नहीं है। यह पितृसत्ता का पोषक प्रत्यय भी नहीं है। गांधी इस शब्द का प्रयोग करते थे-बहादुरी के अर्थ में। बड़ा काम के मायने में। बगैर पुरुषार्थ के स्वराज सम्भव नहीं। पुरुषार्थ के साथ-साथ, गांधीजी त्याग पर भी जोर देते थेगांधी-दर्शन, उनकी चेतना व चिंतन में त्याग-वृत्ति का खास स्थान है। गांधी प्रस्तावित करते हैं कि त्याग भी अपने आपमें पुरुषार्थ है। बशर्ते त्याग समाज के लिए हो। देश के लिए हो। 


    सच्चाई और अहिंसा के रास्ते पर, बगैर पुरुषार्थ और त्याग-भावना के, चलना मुश्किल है। सत्य, अहिंसा, पुरुषार्थ और त्याग को मिलाने से हासिल होगा-स्वराज। इन चारों के समुच्चय से प्राप्त होगा, स्वराज।


    स्वदेश वापसी के साथ ही गांधीजी ने देश-भ्रमण करना शुरू कर दिया था। अब वे किसी पहचान के मोहताज नहीं थेउनकी सार्वजनिक शख्सियत बन चुकी थी। जहाँ जाते, लोगों से मिलते। आजादी के लिए चल रही गतिविधियों की जानकारी प्राप्त करते। लोग भी उनकी बातें दिलचस्पी के साथ सुनते। गांधी की बातों में लोगों को निर्दोष ईमानदारी महसूस होती थी


    गांधी के सार्वजनिक जीवन में, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में, १९१६ में किया गया भाषण बेहद अहम है। इस भाषण में, गांधी के विचार अपने तेज के साथ अभिव्यक्त हुए थे। जिन मुद्दों को इन्होंने उठाया, श्रोताओं के दिल छुए थे। मातृभाषा में शिक्षा का सवाल उठाते हुए गांधी ने समझाने का प्रयास किया कि किसी भी भाषा में महान विचार अभिव्यक्त हो सकते हैं। श्रेष्ठ, _तार्किक या वैज्ञानिक विचारों कीअभिव्यक्ति के लिहाज से किसी भी भाषा को कमतर मानने- समझने वाली मानसिकता का इन्होंने खंडन किया। मातृभाषा की महत्ता, माध्यम के तौर पर भाषाओं को एक-समान समझने की सिफारिश करते हुए, गांधी ने राष्ट्रभाषा का प्रश्न भी उठाया। तत्कालीन शिक्षा की भाषा, शिक्षितों और देश के अवाम के बीच दूरी पैदा कर रही थी। पढ़े-लिखे लोग अपने ही देश में विदेशियों की तरह अजनबी होते जा रहे थे। यह प्रवृत्ति राजनीतिक व सांस्कृतिक तौर पर घातक थी; स्वराज के मार्ग में बाधक भी।


    स्वाधीनता आन्दोलन में सक्रिय संगठनों के प्रस्ताव पारित करने, कागजी कार्रवाई करने मात्र से स्वराज हासिल नहीं होगा; इस पर जोर देते हुए गांधी ने आचरण पर बल दिया और ठोस कार्यक्रमों के निर्धारण तथा उस पर अमल करने अत्यावश्यक बताया। स्वराज और इसे पाने के लिए चल रहे आन्दोलन, अपनी संरचना में महाआख्यान थे; लिहाजा छोटी-छोटी समझे जानेवाली बातों की उपेक्षा हो जाती थी, इसकी विराटता में। गांधी ने इन प्रश्नों को स्वराज प्राप्ति से जोड़ा। मसलन, गंदगी का प्रश्न। बनारस स्थित विश्वनाथ मन्दिर के आसपास की गलियों में गंदगी हो, रेल के डब्बों या किसी भी सार्वजनिक स्थान की गंदगी हो; गांधी के मुताबिक ये सभी मामले भारतवासियों की मानसिकता और आचरण को उजागर करते थे। इनका रिश्ता स्वराज-आन्दोलन से बिलकुल जुदा नहीं था। गंदगी का प्रश्न उठाकर, गांधी ने सफाई को स्वराज प्राप्ति का हथियार बनाया। दरअसल, वे गंदगी फैलानेवाले को श्रेष्ठ और उसे साफ करने वाले को हेय समझने वाले दिलोदिमाग को बदलने का प्रयास कर रहे थे। जो गंदगी फैलाता है, साफ करने की जिम्मेवारी भी उसी की है; न कि किसी और तबके की। भारतीय सामाजिक संरचना में सफाई को लेकर, व्याप्त भेदभावमूलक मानसिकता से, जद्दोजहद की जरूरत के अहसास से पनपे थे ये विचार।


    बनारस के भाषण में, गांधी ने विलासमय जीवन जीनेवाले लोगों द्वारा की जानेवाली गरीबी की चर्चा की सीमाओं का उल्लेख किया। कहनेवाले की बात का असर तब तक सामने वाले पर नहीं पड़ता, जब तक कि खुद आचरण में उसे नहीं उतारे। जिनके शरीर खुद जेवरात से लदे हों, उनके द्वारा गरीबी की चर्चा, गरीबी और गरीबों का क्रूर मजाक के सिवा क्या है ! ऐसी चर्चा बौद्धिक शगल के अलावा कुछ नहीं। शब्द और कर्म की एकरूपता में यकीन रखने वाले गांधी को यह हरगिज स्वीकार नहीं हो सकता था।


    गांधी की अगुआई से पहले, भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन में आम अवाम की भागीदारी न के बराबर थीआजादी की लड़ाई में मलाईदार तबके ही सक्रिय थे। यह स्वाधीनता-आन्दोलन की एक बड़ी सीमा थी। गांधी ने साफसाफ शब्दों में कहा कि जिस देश के पचहत्तर प्रतिशत से भी अधिक लोग किसान हैं, उनकी भागीदारी के बगैर आजादी मुमकिन नहीं। वकील, डॉक्टर और सम्पन्न जमींदार ही जब तक स्वाधीनता आन्दोलन से जुड़े रहेंगे, आजादी दूर ही रहेगी। गांधी ने तो यहाँ तक कहा कि यदि हम किसानों के परिश्रम की सारी कमाई दूसरों को उठाकर ले जाने दें तो कैसे कहा जा सकता है कि स्वराज की कोई भी भावना हमारे मन में है। यह इजहार कर, गांधी एक तरफ, स्वाधीनता आन्दोलन के पाट को विस्तृत और व्यापक करने को जरूरी बता रहे थे । उनके शख्सियत-निर्माण में, इसका कोई योगदान नहीं था?


    ___ गांधी ने जीवन में कई ऐसे फैसले किए, जिससे तत्कालीन कई महत्त्वपूर्ण लोगों की (जिन्हें गांधी भी आदर करते थे) रजामंदी नहीं थी; परन्तु उनके प्रति बगैर किसी कटुता के , गांधी अपनी राह पर डटे रहे। असहयोग आंदोलन गांधी का ऐसा ही एक फैसला था। असहयोग आन्दोलन के दौर में ही राष्ट्रीय शिक्षा के लिए विद्यालयों-महाविद्यालयों की स्थापना की आवश्यकता महसूस की गई। परिणामस्वरूप, गुजरात विद्यापीठ, काशी विद्यापीठ, तिलक महाविद्यालय पूना जैसे संस्थानों की स्थापना हुई।


      गुजरात महाविद्यालय के उद्घाटन के अवसर पर, गांधीजी ने शिक्षा सम्बन्धी अपने मत का इजहार किया। राष्ट्रीय शिक्षा के लिए इन्होंने पारम्परिक प्रतिमानों को खारिज कर, नया मेयार स्थापित करने की बात कही। अन्य महाविद्यालयों से अलग कसौटी बनाने और उस पर इन राष्ट्रीय महाविद्यालयों को जाँचने का प्रस्ताव रखा। गांधी ने कहा कि इनके लिए नई कसौटी होगी-चरित्र। चरित्र की कसौटी पर जाँचने पर नए महाविद्यालय खरा साबित होंगे। यही इनकी सार्थकता और सफलता है। गांधी का मानना था कि अंग्रेजी राज में भारतीय आत्मा शुष्क हो गई है और देश निस्तेज तथा ज्ञानहीन। आलम यह है कि हमारी आत्मा भी अंग्रेजों के अधीन हो गई है, यह सबसे दुःखद बात है; सबसे बड़ी हार है। इस पराजय से मुक्ति में गांधीजी राष्ट्रीय विद्यालयों की प्रासंगिकता देखते थे।


    सा विद्या या विमुक्तये-सूत्र गांधी को पसन्द आया था। विद्या का मतलब और मकसद, जो इस सूत्र से जाहिर होता था, पसन्दगी का कारण था। जिससे मुक्ति मिले, वही विद्या हैमुक्ति भी दो तरह की। एक, ऐसी विद्या जो देश को पराधीनता से मुक्त करे। इसी में अंतर्निहित है, भारतीय आत्मा द्वारा स्वीकृत औपनिवेशिक वर्चस्व से मुक्ति। असहयोग आन्दोलन के अलावा भी कुछेक अवसर ऐसे आए, जब गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर और चिंतक आनन्द कुमारस्वामी जैसी महान शख्सियतें गांधी से असहमत थीं। खास बात है कि इससे आपसी रिश्ते में कोई कड़वाहट पैदा नहीं हुई। मित्रता का माधुर्य कायम रहा। ऐसे सन्दर्भो के बारे में, यह उल्लेखनीय है कि गांधीजी हर प्रसंग को राष्ट्रीय आन्दोलन के परिप्रेक्ष्य में आँकते थे। उपयोगितावादी नजरिए का ही परिणाम था, कभी-कभार कला और साहित्य के खिलाफ इनकी राय। गांधीजी की ऐसी मान्यताओं से इत्तेफाक रखना सम्भव नहीं। दो, ऐसी विद्या जो सदा के लिए मुक्ति प्रदान करे। यानी, मोक्ष जिसे परम-धर्म भी कहते हैं। इसे पाने के लिए सांसारिक मुक्ति अनिवार्य है। भयों में रहने वाला मनुष्य मोक्ष नहीं पा सकता। इसीलिए गांधीजी ऐसी विद्या को त्याज्य मानते थे, जिससे मुक्ति नहीं मिले। गांधीजी के मुताबिक ऐसी विद्या धर्म-विरुद्ध भी है।


    गांधी-मार्ग पर चलना, व्रत पालन करने सरीखा है। इसके लिए आत्मा शुद्ध और मनोबल मजबूत होना चाहिएगांधी ने सत्याग्रहियों और असहयोग करने वालों के लिए कुछ शर्ते बताई थीं। असहयोग आन्दोलन के दौर में, उन्होंने कहा था कि जिन्हें ये शर्ते स्वीकार हों, वहीं इस आन्दोलन में हिस्सा लें। शान्ति को अपने हृदय में लिखकर रखें। न शान्ति भंग करें, न किसी को गाली दें, न गुस्सा करें, न किसी को तमाचा मारें और न शर्म-शर्म की आवाज लगाएँ। अगर किसी ने इसका पालन करने में भूल की हो तो उसे अपनी भूल स्वीकार कर, पश्चाताप करना चाहिएभूल स्वीकारने, पश्चाताप करने और इससे सीख लेने वाले को गा गांधीजी सच्चा बहादुर मानते थे।


      गांधी के स्वराज की राह में बाधा 'शैतानी सभ्यता' के प्रति मोहभाव रखनेवाले थे। इससे भी बड़ी बाधा पेश कर रहे थे-प्राचीन संस्कृति के नाम पर समाज में अस्पृश्यता और देवदासी जैसी घिनौनी प्रथा के समर्थक। साथ ही मंदिर में पूजा और मस्जिद में इबादत करने वालों के बीच दुश्मनी मानने -फैलाने वाले।


      गांधी इन दोनों तरह के लोगों के कृत्य को धर्म विरोधी मानते थे ऐसे लोगों के खतरनाक रवैए के प्रति सचेत रहने के लिए प्रेरित करते थे। प्राचीन संस्कृति के पुनरुद्धार के एक प्रसंग में इन्होंने कहा था कि आप प्राचीन संस्कृति के उन सभी तत्वों का उपादानों का ही तो पुनरुद्धार करना चाहेंगे, जो उच्चादर्शपूर्ण हैं और जिनका स्थायी महत्त्व है। आप किसी भी ऐसे उपादान का पुनरुद्धार तो कर ही नहीं सकते, जो इनमें से किसी भी धर्म के विरुद्ध पड़ता हो।


                                                                                   सम्पर्क : राजधानी कॉलेज (दिल्ली विश्वविद्यालय) मो.नं.: 9868175601