कविता - माँ - जुगेश कुमार गुप्ता
माँ
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वो मेरी मां है जो कल भूँख से मुझे कर गयी तनहा,
मैं रहा लाचार आँखों में लिए आँसू ।
खुशी अपनी उधारी कर, मेरे दामन चली भर के,
सही तक़लीफ पीकर आँसुओं के घूँट जीवन भर,
तमन्ना थी करूँगा दूर मैं कल के अन्धेरे को,
उजाले को लिए दिल में, अन्धेरे में रही हर पल।
गरीबी की चपेटों ने सोख ली खून आंचल के,
दिए दिल जलाई चमन भी चढ़ाई,
किया फाकाकसी दुख में भी वो हँसी,
हुआ बेबस बहुत आज आती शरम,
नही कर सका तेरे हित के लिए मैं,
पास करके सभी इंतहा इस जहाँ के,
एक रोटी का टुकड़ा नही दे सका,
आख़िरी वक़्त मै दिल का टुकड़ा तेरा।
अब नहीं होता गुज़ारा, ऐसे घुटती हुई फिज़ा मे,
ये बेबस आँख में घुटते सिमटते ख्वाब को रौंदा किसी ने,
क्यों हमारा हक़ कोई ले छीन जाता हाथ से,
कब तलक़ माँ भूख से ऐसे आँचल भिगाती ही रहेगी,
वो सपना छीन लेना है जो मां ने थे सजाए,
भूख से कोई जहां मे अब कहीं मरने न पाए,
ये बैठा हुआ हुक्मरानों का जमघट,
चलो मिल के उसकी हवेली ढहाए,
बने है जो मालिक ग़रीबों अलम के,
उन्हें उनकी चाराग़री में फिराए,
ये सत्ता के लोभी, वतन किराया करते है,
ये दंगे मचाकर अमन बेचते है,
नहीं देखना इनका सपना पुराना,
ये लाशों की सिसकी आंचल का क़फ़न बेचते हैं
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जुगेश कुमार गुप्ता, शोध छात्र, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, 9369242041