सत्या शर्मा कीर्ति'
लघुकथा - वक्त - सत्या शर्मा कीर्ति'
वक्त
सत्या शर्मा कीर्ति' बन्द मुट्ठी में सहमे से चन्द रूपये और भीड़ के बीच का फासला कम होता जा रहा था
ये वही रुपये थे जिसे पाने के लिए उसने हत्या की थी। हाँ, हत्या ही तो थी अपने आत्मसम्मान की, बचपन से सीखे संस्कारों की।
___रुपये जैसे मन की ताप से पिघल-पिघल कर आँखों के रास्ते बह रहे थे।
मात्र कुछ ही दिनों खोमचे वाले से बेरोजगार और फिर चोर गया था नवीन बन गया था नवीन।
नगर सौंदर्गीकरण के नाम पर नगरपालिका के सफाई अभियान ने सड़क किनारे के सारे ठेले वाले, खोमचे वाले और फुटपाथ के किनारे लगाने वाले सारे छोटे दूकान को हटवा दिया था यह आश्वाशन दे कर की जल्द ही नगर में एक जगह दे कर सभी को बसाया जाएगा।
और फिर देखते-देखते क्षण-भर में उसके जैसे तमाम लोग बेरोजगार हो गए।
पर भरे पेट के अफसर समझ नहीं पाए सिर्फ आश्वासन खाकर भूख नहीं मिटाई जा सकती ।
भूख तो जैसे मौके की तलाश में होती है बच्चों की पेट में अपने करतब दिखने लगी और एक असहाय सा पिता चोर बन बैठा ....
पास आती भीड़ के क्रोध और आत्मग्लानि के कारण उसने अपने हाथों में जकड़े रुपयों को भीड़ की तरफ ही उछाल दिया और फिर देखते ही देखते कुछ दिनों से हुए सैकड़ों वेरोजगार पिता चोर को भल उन चंद रुपयों में अपने बच्चों की मस्कान ढंढने ट पडे।
सम्पर्क : डी-२, सेकेंड फ्लोर, महाराणा अपार्टमेंट, पी.पी. कम्पाउंड, रांची-८३४००१, झारखण्ड