कविता -शहर चीखता है - सुशान्त मिश्र

कविता - शहर चीखता है -सुशान्त मिश्र


 


शहर चीखता है


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भेड़चाली दौर से निपटकर दिन
जब शाम की गोद में चल पड़ता है आराम फरमाने
जब भेड़ें सुस्त होकर ले रही होतीं है अपनी पहली नींद की ऊंघाई
कहीं दूर,कोसों दूर किसी चरवाह के बाड़े में


जब उल्लू और चमगादड़ मनाने लगते हैं
उनके हिस्से का सवेरा होने का जश्न
वे चल पड़ते हैं भूख मिटाने की तलाश में


जब सियार ले रहे होतें हैं मज़े
खेत मे किसी अधसोये किसान के डर का
वे करते हैं अपनी सामूहिक सामर्थ्य का प्रदर्शन
हुक़्क़ी-हुवा, हुक़्क़ी हुवा की आवाज़ करते हुये


तब
जब मैं समूची दुनिया के साथ
नींद की आगोश में अधमरा होता हूं
रात के ठीक बारह बजने के बाद
जब शहर भर के लोग समझते हैं कि शहर शांत है


ठीक उसी समय
मुझे सुनाई पड़ती है एक चीख़
मैं अचानक निकल आता हूं 
बाहर खाली पड़ी  सूनसान गली में


मैं देखता हूं,
जो ज़िस्म अभी नींद की मार से मर चुके हैं
उनकी आत्मायें
दहाड़-दहाड़ कर नोंच रहीं थी किसी को
उसकी चीखों से आनन्दित हो रहीं थी
वह कराह रहा था
कर रहा था मिन्नतें कि उस पर रहम किया जाये
कोई नहीं सुन रहा था उसकी गिड़गिड़ाहट
आत्मायें,
मतलब की भूख से बहरी हो चुकीं थी


उन आत्माओं की भीड़ में
एक आत्मा थी सबसे क्रूर,सबसे निर्दयी
वह मैं था,


और


जो चीख रहा था,वह था शहर
हम सबका शहर..
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                                                                                                                 सुशान्त मिश्र