लघुकथा - सत्संगवाली आशा - डॉ. पूरनसिंह
आशा जी बहुत सुन्दर थीं। पाँच बच्चों की मां थी जिनमें चार बेटियाँ और एक बेटा था उनका। उनका कहना था कि पंद्रह-सोलह साल की उम्र में उनकी शादी हो गई थी। जल्द-जल्दी बच्चे हो गए इसलिए वे इतनी बड़ी दिखाई देती हैं। पति प्लंबर था उनका। खब अच्छा कमाता-धमाता था। दारू भी नहीं पीता था। परेशान भी नहीं करता था। मेरी पत्नी की सहेली है वे। भजन, कीर्तन, सत्संग में दोनों साथ-साथ जाती थीं। घर भी आती थी। कई बार उन्हें देखकर मेरी लार भी चुई थी1
मेरी पत्नी बताती थी कि आशा जी पर माता की सवारी भी आती है। जब वे और उनकी सहेलियाँ मां के भजन गाती हैं। उस समय उनसे जो भी मांगो,मिलता है। व्यक्ति पर आए दुखों को भी मां की सवारी दूर कार देती है। भजन, कीर्तन और सत्संगवाली सहेलियों में आशा जी का बहुत सम्मान था।
__ एक दिन मैं ऑफिस से घर आया तो पत्नी रुआंसी बैठी थी। मैंने पूछा, 'क्या हुआ।'
'क्यों।' वे बोलीं।
'सड़ी बैठी हो।' मैंने चिढ़ाया। तो बोली, 'बस ऐसे ही।'
'क्यों, बच्चों ने तंग किया।' कहने को तो बच्चे अब बच्चे नहीं रहे। ग्रेजुएशन में थे लेकिन अपनी मां को तंग करते रहते थे।
'नहीं।'
'तो फिर।'
'आशा।'
'आशा जी, अरे क्या हुआ उन्हें। वे ठीक तो हैं।' मैं बिलबिलाया
'भाग गई।'
'किसके साथ।'
'दो बच्चों का बाप हैउसी के साथ।' पत्नी ने पूरी बात बता दी तो थोड़ी सी शांत दुखी थीं।
'लेकिन वे तो धर्म-कर्म वाली महिला थी। क्या धर्म, कर्म, सत्संग, कीर्तन वाले ऐसे होते हैं।' मैं बोला था1
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