कविता- थकी हुई औरत - प्रबोध नारायण सिन्हा
थकी हुई औरत
थकी हुई औरत
आज देखा
एक थकी हुई औरत
जो थामें थी
अपने लड़की की हाथ
उस औरत के
चेहरे पर
भरपूर थकान थी
यह प्रश्न कोधता था
कि
यह उसकी मजबूरी है
या
सामाजिक समूह की खामी
पर वह हारती हैं थी
और नंगे पैर
और नंगे पैर
वह बच्चों को लिए
लगातार चली जा रही थी
यह न सीरिया की कहानी है
यह न अलेप्पो शहर की कहानी है
यह तीसरी दुनिया की कहानी है
यह तो यहाँ की
कहानी है
वह और मेरे कविता की
पात्र बन जाती है
उसकी यह मजबूरी
उसे कविता का चरित्र बना देता है
मुझे नहीं मंजूर
ऐसी कोई भी ताकत
जो लोगों का मजाक बना दे
मुझे ऐसे लोग
मंजूर हैं
जो लोगों के सूरतें हाल बदलें
ऐसे लोग अस्वीकार हैं
जिनकी आत्मा मर चुकी है
ऐसे लोग अस्वीकार हैं
जो संवेदन शून्य हैं
जो चलते फिरते लाश हैं
मुझे वह औरत का
चेहरा
अभी भी
नजर आ रहा है
यह तो है
बड़ा दर्दविदारक
वह औरत तो
भूलती ही नहीं......
प्रबोध नारायण सिन्हा, सम्पर्क : ७८ जाफरा बाजार, (लालाटोली), गोरखपुर, उत्तर __ प्रदेश मो.नं. : ९७९२००६३६९