सड़के
सड़कें कितनी लावारिस होती हैं
बिल्कुल आवारा सी दिखती हैं
बिछी रहती हैं, पसरी रहती हैं, चलती रहती हैं
कभी सीधी, कभी टेढ़ी-मेढ़ी तो कभी टूटी-फूटी
कहीं जाकर घूम जाती हैं, कहीं-कहीं पर
जाकर तो बिल्कुल खत्म हो जाती हैं
चौराहे पर आपस में मिल जाती हैं सड़के
कौन होता है इन सड़कों का
कोई भी तो नहीं होता है
कोई होता है क्या
रोज़ाना कुचली जाती हैं पैरों और गाड़ियों से
देखती हैं कितने जुलूस, भीड़, आतंक
सहती हैं खून-खराबा और कफ्यू
खाँसती हैं धुएँ में और खाँसते-खाँसते
सड़कें बूढी हो जाती हैं, तपती हैं तेज़ धूप में
बारिश कर देती है पूरी तरह तरबतर
ठिठुरती हैं ठंड में और गुम हो जाती हैं कोहरे में
सुबह से शाम, शाम से रात और फिर रात से सुबह
सड़कें होती हैं, अकेली, चुपचाप, खामोश
सच तो यह है कि
यही सड़के कितने ही बेघर लोगों का घर बन जाती हैं
सड़के कभी सुस्ताती नहीं
भीड़ में और भीड़ के बाद भी रहती हैं ये सड़कें
सम्पर्क सुशीला रेसिडेंसी अपार्टमेंट, फ्लैट न. 303, मछली गली, राजा बाजार, पटना-800014, बिहार