कविता - पुनर्जन्म के बारे में - राहुल कुमार बोयल
तुम्हारी हँसी ने ही रची होंगी दन्तकथाएँ
तुम्हारे कण्ठ से ही जन्मा होगा भाषा का सौन्दर्य
तुम्हारी धूप से ही संधानित हुआ होगा इन्द्रधनुष
यदि ऐसा कुछ कहता जाऊँ
तो तुम कहोगी, ये भाषा का अतिरेक है
ये कोरी कल्पना और विरह-विवेक है
मेरी कल्पनाओं में भी ना!
जाने क्या-क्या चला आता है
तुम बताओं प्रेम की इन विचित्र गाथाओं का क्या?
क्या लौटकर नहीं आता है सब
अपनी ही तरफ़, अपना ही बनकर
जानती हो, एक ऐसी भाषा है
जिसमें प्रतिपदा को वीज कहा जाता है
बीज फूटकर भले ही नया आकार लेता हो
मगर आखरि दुनिया से बीज, बीज बनकर ही तो जाता है।
यदि प्रारम्भ की तीन पंक्तियों में
तुम्हारी जगह मैं उस स्त्री को रख दूं
जो बच्चे को सुलाने के लिए लोरी गाती है
या उस गौरैया को, जो तिनका देखकर भी चहक जाती है
या कि उस उलाहना को जो पिता, पुत्र को देता रहता है
तो क्या तब भी तुम्हारा भाव-कौमार्य भंग नहीं होगा?
कविताएँ कच्ची कैरियों सी होती हैं
झनझनाहट उत्पन्न कर देती हैं
इसलिए इनको उम्र के संग कमजोर होते
दाँतों से कुतरना नहीं चाहिए
यदि तुम्हारा मन कच्चा रह गया है
तो कविता के पकने का इन्तजार नहीं करना चाहिए
तुमने उन लोगों के बारे में कभी सुना है!
जिन्होने लौटकर जीवन की व्याख्या की हो
हम शान्ति की प्रतीक्षा में
जीवन को यातना देने का कोई अवसर नहीं छोड़ते
और जीवन हमें गन्तव्य तक पहुँचाने में कोई कसर नहीं छोड़ता
तुम बताओ!
इन ठोकरों को भला-बुरा कहना मुनासिब है क्या?
प्रेम अपने ही भीतर लौटाता है हमें
तुम पुनर्जन्म के बारे में और भी कुछ सोचती हो क्या?
राहुल कुमार बोयल - मो.नं. : ७७२६०६०२८७