कविता -  प्रतीक्षा और प्रतिफल  -राहुल कुमार बोयल 

 


प्रतीक्षा और प्रतिफल


 


हम हँसने के तमाम मौकों से चूकते गए


ए जानते हुए कि हँसना झुर्रियों से लड़ना है।


या तो हम प्रशिक्षित हँसोड़ हैं या असहाय योद्धा


हम तय नहीं कर पा रहे, हमें क्या-क्या बनना है।


हमें श्रृंगार की कविताएँ याद रहती हैं


मगर हम मुस्कुराने के नुस्खे भूल जाते हैं।


वीरता पर समीक्षाएँ लिखने के चक्कर में


दुर्बल पल में खुद ही रस्सी पर झूल जाते हैं।


 


वो बारिश गायब है जिसमें मन हँसता था


वो ख्वाहिश गायब है जिससे तन हँसता था


वो हँसी जो आईने में झाँक लेती थी, कृत्ल हो गई


वो हँसी जो दुख ढाँप लेती थी, कुत्ल हो गई


कातिल की तलाश जारी है, कवि मन पुलिसिया हो गया है


जिसकी हँसी गई, उसका मन एक हँसिया हो गया है


हँसिया मन किसी और के हाथ लग गया है


जो फ़सल की जगह हमारे होंठों पर लग गया है


गर्दने अना से अकड़ गई हैं, वो सकते में पड़ गई हैं


उधर कोई नहीं जाता, जिधर भावनाओं की जड़ गई हैं।


 


कहते हैं हँसने से उम्र दराज होती है


जबकि हमारी दवाएँ दराज़ होती हैं।


पेड़ समुद्र के नमक में डूब जाना चाहते हैं।


आदमी उनके नमक का कर्ज भूल गया है


नाव बंधी रह गई हैं नदियों के तटों पर


मल्लाह जबसे अपनी हँसी भूल गया है


सूरज रो रहा है, लोग अब तक सो रहे हैं।


उसे लगता है, वो सपने में चरस बो रहे हैं।


पृथ्वी का नृत्य अब दुखों की लरजशि है


पत्तों का उड़ना बस एक वर्जिश है


कौनसा भ्रम छल गया है दुनिया को


कि हँसता बच्चा भी खुल गया है दुनिया को।


 


तुम्हारी हँसी किसकी प्रतीक्षा कर रही है


क्या वह किसी अच्छे का कर रही है?


नहीं, प्रतीक्षा प्रेम की विडम्बना होती है, प्रतिफल नहीं


बिना हँसे यह जीवन किञ्चित भी सफल नहीं


आओ! बैठो पुल पर, पानी को बहते हुए देखो


इस जल में मेरी परछाई को हँसते हुए देखो


तुम हँसने की कला में निपुण हो जाओ


मेरी आत्मा में कोई सद्गुण हो जाओ।


 


                                                                                                                                                   सम्पर्क : मो.नं. : 7726060287