कहानी - प्रवचन - जयप्रकाश कर्दम
शहर में चारों ओर स्वामी स्वरूपानंद के पोस्टर लगे थे। सभी प्रमुख सड़क, रास्ते और स्थान स्वामीस्वरूपानंद के वडे- बड़े होल्डिंग, बेनर और पोस्टरों से अटे पड़े थे। धार्मिक लोगों स्वामीस्वरूपानंद की समरसतावादी कथा-वाचक और तत्व- मर्मज के रूप में बडी प्रसिद्धि थी। उनके बारे में विख्यात था कि वह न केवल बहुत रोचक ढंग से धर्म-कथा सनाते थे अपित धर्म की मानवीय व्याख्या करते थे। बड़ी संख्या में लोग उनके प्रवचन और धर्म कथाएँ सुनने के लिए आते थे, जिनमें समाज के सभी वर्गों, जातियों, सम्प्रदायों के लोग शामिल होते थे। उन्हें धर्म का साक्षात रूप समझा जाता था। देश के कई शहरों में उनके आश्रम थे. इसलिए किसी एक जगह पर नहीं रहकर वह कभी यहाँ और कभी वहाँ आते-जाते रहते थे। जिस शहर में भी वह जाते थे वहीं _पर उनके दर्शन करने और प्रवचन सुनने वालों का तांता लग जाता था। दिल्ली के पास गुड़गाँव में भी उनका एक आश्रम था। आजकल स्वामी स्वरूपानंद गुड़गाँव आए हुए थे और प्रतिदिन अपने आश्रम आने वाले भक्तों को धर्म का प्रवचन देते थे।
असीम कुमार गुड़गाँव स्थित एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी में काम करता था। कम्प्यूटर साइंस में बी.टेक. करते हुए ही अन्य बहुत से युवाओं की तरह उसकी भी ऑन केम्पस प्लेसमेंट हो गई थीभी इसलिए वह अभी बहत यवा था और कम्पनी के अपने दो अन्य साथियों सुजीत और क्षितिज के साथ किराए के एक फलेट में रहता थासुजीत और क्षितिज दोनों धार्मिक प्रवृत्ति के थे और स्वामीस्वरूपानंद के भक्त थे। जब भी स्वामी स्वरूपानंद गुडगाँव में होते थे तो प्रायः प्रत्येक रविवार को वे स्वामी सच्चिदानंद के दर्शन करने और उनके प्रवचन सुनने के लिए उनके आश्रम में जाते थे। वे असीम कुमार से भी अपने साथ चलने का आग्रह करते थे, किंतु असीम कुमार धार्मिक भक्ति-भावना से मुक्त, खुली सोच का व्यक्ति था। उसकी बाबाओं के प्रवचन आदि सनने में कोई रुचि नहीं थी। वह किसी न बहाने सुजीत और क्षितिज के आग्रह को टाल देता थाएक दिन सुजीत और क्षितिज स्वामी स्वरूपानंद के आश्रम जाने के लिए तैयार हए तो सजीत ने असीम कमार से भी साथ चलने का आग्रह करते हए कहा, 'तुम भी चलो न साथ, यहीं क्या करोगे?'
असीम कमार ने उसे टालते हए कहा, 'नहीं, मैं बिलकल भी वोर नहीं होऊंगा। मेरी चिंता मत करो। तुम लोग निश्चिन्त होकर जाओमुझे कुछ ज़रूरी काम है, वह निपटाना है।'
इस वार क्षितिज ने आग्रह किया, 'काम तो हमेशा रहते हैं। लेकिन स्वामीस्वरूपानंद जी जैसे बड़े महात्मा के प्रवचन सुनने के अवसर हमेशा नहीं मिलते। बहुत अच्छा प्रवचन देते हैं वह। मन को बड़ी शान्ति और आध्यात्मिक सुख मिलता है उनके प्रवचन सुनकर। सुना है बहुत सी जगहों पर तो उनके प्रवचन सुनने की अच्छी खासी फीस लगती हैलेकिन संयोग से यहाँ पर कोई फीस नहीं हैयह एक अलग फायदा है कि यहाँ उनके प्रवचन सुनने का लाभ मुफ्त में मिल रहा है।'
असीम कुमार ने पूर्ववत टालते हुए कहा, 'लेकिन यार, तुम लोग जानते हो धार्मिक कथा या प्रवचन आदि में मेरी कोई रुचि नहीं है। तुम लोगों की रुचि है, तुम लोग अवश्य जाओ और उनके प्रवचन का लाभ लो। मैं यहीं पर ठीक हूँ।'
'अकेले पड़े क्या करोगे यहाँ पर? बोर ही तो होवोगे। इससे अच्छा है हमारे साथ चलो तुम भी। .... ठीक है तुमको बाबाओं के प्रवचन पसंद नहीं हैं। लेकिन एक बार चलकर देखो तो सही तुम..तुम ही तो कहते हो हमेशा कि किसी भी व्यक्ति या विचार के बारे में स्वयं देखकर, सुनकर और अनुभव करके ही कोई राय बनानी चाहिए। कवल सुनी सुननाई बातों के आधार पर नहीं। स्वामी स्वरूपानंद से भी तुम्हें अवश्य मिलना चाहिए और कम-से-कम एक-दो बार उनके प्रवचन सुनने चाहिए। उसके पश्चात जैसा तुमको लगे उसके अनुसार उनके बारे में अपनी राय बना लेना। क्या पता तुम्हें भी स्वामी स्वरूपानंद और उनका प्रवचन अच्छा लगे। और यदि तुमको पसंद नहीं आए तो दोबारा मत जाना। तब हम भी तुमसे वहाँ चलने के लिए नहीं कहेंगे।' क्षितिज ने जोर देते हुए कहा।
क्षितिज से यह सुन असीम कुमार कुछ समय के लिए उसकी ओर देखता हुआ सोचने लगा कि जब क्षितिज और सुजीत इतने प्यार और आग्रह से कह रहे हैं साथ चलने को तो उसे उनकी बात मानकर उनके साथ चल देना चाहिए। एक बार जाने में कोई बुराई नहीं है। इस बहाने स्वामी स्वरूपानंद का यथार्थ को भी देखने का मौका मिलेगा। 'यहाँ होता या नहीं होता लेकिन वहाँ स्वामी स्वरूपानंद का प्रवचन सुनकर अवश्य बोर होऊँगा मैं। लेकिन तुम लोग इतना कह रहे हो तो चलो, आज चलता हूँ तुम्हारे साथ।' इतना कहकर वह जल्दी से तैयार हुआ तथा सुजीत और क्षितिज के साथ स्वामीस्वरूपानंद का प्रवचन सुनने के लिए उनके आश्रम की ओर चल दिया1
आश्रम भक्तों से खचाकर भरा था। आश्रम के अंदर बड़े से खाली मैदान में कपड़े के शामियाने के नीचे एक ओर लकड़ी के तखूत के ऊपर रखे एक बड़े से गद्देदार सोफे पर बैठे स्वामी स्वरूपानंद प्रवचन दे रहे थे और उनके सामने पंक्तिबद्ध बैठे भक्त पूरी श्रद्धा और भक्ति से प्रवचन सुनने में लीन थे। सुजीत, क्षितिज और असीम कुमार भी भक्तों के बीच एक पंक्ति में जाकर बैठ गए थे। स्वामी स्वरूपानंद पुराणों की एक कथा सुना रहे थेकथा को रोचक बनाने के लिए वह कथा के बीच-बीच में समाज और राजनीति आदि की घटनाओं से लेकर किस्से, कहानी और सिनेमा के गीतों तक का रोचक ढंग से उल्लेख करते हुए मनोरंजन का तड़का भी लगाते जा रहे थेइससे श्रोता बोर नहीं हो रहे थे और प्रवचन का भरपूर आनंद ले रहे थे। प्रवचन के नाम पर घिसी पिटी कथा और ऊपर से किस्से-कहानियों के माध्यम से हास-व्यंग्य में असीम कुमार को कोई आनंद नहीं आ रहा थास्वामीस्वरूपानंद का प्रवचन सुनकर उसके मन में यह प्रश्न उठ रहा था कि 'यहाँ लोग प्रवचन सुनने आते हैं या चुटकुले सुनने के लिए?' उसका मन हो रहा था कि वह खड़ा होकर अपने मन की यह बात स्वामीस्वरूपानंद से कह दे, किंतु उपस्थित लोगों को इस चुटकुलेबाज़ी में आनंद लेते देख उसने कुछ नहीं कहना उचित समझा तथा एक मूक श्रोता और दर्शक बना बैठा रहा।
__स्वामीस्वरूपानंद प्रवचन देते हुए कह रहे थे, 'हर जगह, कण-कण में परमात्मा हैहर चीज, हर चप्पे पर परमात्मा की छाप है। इस मायारूपी संसार में मनुष्य इधर से उधर भटकता है। यह पा लूँ, वह पा लूँ। यह नहीं मिला, वह नहीं मिला। इन्हीं सब के बंधनों में जकड़ा रहता हैमनुष्य दुनियाँ में खाली हाथ आता है और खाली हाथ ही सबको इस दुनियाँ से चले जाना है। फिर इतनी हाय-तौबा, मारा-मारी किस लिए? खूब सारा धन मिल जाए लेकिन परमात्मा की कृपा न हो तो उससे भी उसे सुख नहीं मिलता। व्यक्ति निर्धन हो और परमात्मा से लौ लग जाए तो वह आनंद से भर जाता है। उसके लिए परमात्मा को छोड़कर बाकी सब चीजें _महत्वहीन और मिट्टी हो जाती हैं। सुख धन, सम्पदा या संसाधनों में नहीं, संतोष में है। व्यक्ति कम में संतोष कर ले। जो कुछ भी उसके पास है, जैसा भी है, उसे सहज रूप में वैसा ही स्वीकार कर ले तो मनुष्य का जीवन सुख से भर सकता है। संतोष परम सुख है। मनुष्य को संतोष करना चाहिए। जो मिल जाए उसमें संतोष करे, कुछ नहीं मिले तो भी संतोष करे कि उस दाता ने, ईश्वर ने कुछ सोचकर ही _कम दिया होगा या नहीं दिया होगा। सब ईश्वर पर छोड़ दो। ईश्वर की भक्ति और आराधना करो, उससे बड़ा सुख और आनंद कहीं नहीं है। जिसने यह सुख पा लिया समझो उसका जीवन सफल हो गया।' इतना कहकर स्वामीस्वरूपानंद ने अपनी वाणी को विराम दिया और एक कृपापूर्ण दृष्टि सामने बैठे भक्तों पर डालते हुए बोले, 'आज इतना ही। ईश्वर आप सबका कल्याण करें।'
प्रवचन समाप्त कर स्वामीस्वरूपानंद ने अपने दोनों हाथ आकाश की ओर उठाए और साक्षात धर्म के अवतार की मुद्रा में उपस्थित भीड़ को सम्बोधित करते हुए बोले, 'बोलो धर्म की जय हो।
भक्तों की भीड़ ने स्वामी स्वरूपानंद का अनुसरण करते हुए पूरी श्रद्धा और भक्ति से दोनों हाथ ऊपर उठाए और उच्च स्वर में उनके शब्दों को दोहराया, 'धर्म की जय हो।'
स्वामी स्वरूपानंद ने पुनः उदघोष किया, 'अधर्म का नाश हो।'
इसके पश्चात स्वामी स्वरूपानंद अपने आसन से उठे तथा _अपने दोनों हाथों से भक्त-जनों को आशीर्वाद लुटाते हुए प्रवचन स्थल से नीचे उतरे। मंच के पास खड़ी आश्रम की एक सेविका तत्काल सहायता के लिए आगे बढ़ी। स्वामी स्वरूपानंद ने अपने एक हाथ से सेविका के कंधे का सहारा लेकर पैरों में खड़ाऊँ पहनी तथा सेविका के साथ अपने कक्ष की ओर चल दिए।
प्रवचन समाप्त होते ही बहुत से श्रद्धालु अपने स्थान से उठ स्वामीस्वरूपानंद के पास जाकर आशीर्वाद लेने के लिए उनके पैर छूने लगे। इसके लिए भी श्रद्धालुओं में होड़ सी लगी थी। सुजीत और क्षितिज भी स्वामी स्वरूपानंद का आशीर्वाद लेने के लिए भीड़ के बीच से रास्ता बनाते हुए उनकी ओर चल दिए थे। असीम कुमार बहुत देर से स्वामी स्वरूपानंद के पास जाकर अपनी जिज्ञासा व्यक्त करने के लिए कुलबुला रहा था। सुजीत और क्षितिज स्वामी जी की ओर चले तो उनके साथ-साथ वह भी स्वामीस्वरूपानंद की ओर चल दिया तथा उनके पास पहँचकर विनम्र स्वर में बोला, 'स्वामी जी, आपसे कछ जानना चाहता हूँ, यदि आप बुरा ना मानें तो।'
धीमे-धीमे कदमों से चलते हुए स्वामी स्वरूपानंद ने अपने कदमों को हल्का सा विराम दिया तथा असीम कुमार पर एक दृष्टि डालते हुए बोले, 'हाँ-हाँ, क्यों नहीं। पूछो क्या जानना चाहते होभक्तों की शंकाओं का समाधान करना तो हमारा धर्म है।'
असीम कुमार ने अत्यंत सहजता और सम्मान के साथ पूछा, 'स्वामी जी, अभी आपने कहा धर्म की जय हो। मैं यह जानना चाहता हूं कि धर्म क्या है?'
स्वामी स्वरूपानंद असीम कुमार की ओर देखते हुए उपदेशात्मक स्वर में बोले, 'यह तो बड़ी सामान्य सी बात है बच्चा! सत्य बोलना, चोरी नहीं करना, नैतिकता और सदाचार का पालन करना, बड़ों का आदर और सेवा करना, बीमार और दीन-दुखियों की सेवा-सहायता करना, व्यभिचार न करना और भगवान का नाम लेना, उसके भजन करना, यही सब धर्म है।'
और अधर्म क्या है स्वामी जी?' असीम कुमार ने अगला प्रश्न किया।
स्वामीस्वरूपानंद पूर्ववत उपदेशात्मक स्वर में बोले, 'झूठ बोलना, चोरी, व्यभिचार करना, किसी को सताना, हिंसा करना, अनैतिक आचरण करना, बड़ों का सम्मान नहीं करना, पाप कर्म करना और भगवान का नाम नहीं लेना अधर्म है।'
असीम कुमार के इस प्रश्न पर स्वामीस्वरूपानंद सहसा कुछ असहज हुए, किंतु तत्काल स्वयं को सहज करते हुए बोले, अस्पृश्यता वैसे तो लोक व्यवहार का विषय है। लेकिन तुम धर्मअधर्म के सम्बंध में पूछ रहे हो तो मैं कहूँगा कि अस्पृश्यता अधर्म
___'आपने आह्वान किया कि अधर्म का नाश हो। यदि अस्पृश्यता अधर्म है तब तो अस्पृश्यता का नाश होना चाहिए। अस्पृश्यता करने वालों का भी नाश होना चाहिए।' यह कहते हुए असीम कुमार ने प्रश्नसूचक दृष्टि सेस्वामीस्वरूपानंद की ओर देखा।
असीम कुमार के इन शब्दों पर स्वामीस्वरूपानंद ने कोई शाब्दिक प्रतिक्रिया व्यक्त न कर एक मौन दृष्टि उसके चेहरे पर डाली तथा धीरे से अपनी गर्दन हिला दी।
असीम कुमार ने उनकी मौन की भाषा को बहुत सहजता से पढ़ और समझ लिया था। स्वामी स्वरूपानंद के मौन से उसे उनकी प्रतिक्रिया मिल गयी थी और उसे विश्वास हो गया था कि इस तरह के सामाजिक व्यवहार के प्रश्नों पर कोई स्पष्ट प्रतिक्रिया देने से वह बचना चाहते हैं। तथापि, यह जानते हुए भी उसने अगला प्रश्न किया, 'स्वामी जी, जातिगत भेदभाव धर्म है या अधर्म है?'
स्वामी स्वरूपानंद ने असीम कुमार के प्रश्न पर फिर से स्वयं को असहज महसूस किया, किंतु अपनी असहजता को छिपाते हुए वह बोले, 'किसी के साथ भेदभाव करना अधर्म है।'
असीम कमार ने पर्ववत स्वामी स्वरूपानंद की ओर प्रश्नसचक दृष्टि से देखते हुए कहा, 'तब तो जाति का नाश होना चाहिए और जातिगत भेदभाव करने वालों का भी।'
___ असीम कुमार के इन शब्दों पर भी स्वामी स्वरूपानंद पूर्वत मौन रहे और तीक्षण दृष्टि से असीम कुमार की ओर देखते रहे।
असीम कुमार स्वामी स्वरूपानंद के हाव-भाव देखकर अच्छी तरह समझ रहा था कि उसके प्रश्नों से वह असहज और अप्रसन्न थे, किंतु आस-पास खड़े और उनकी बात सुन रहे भक्तों की भीड़ को कोई गलत संदेश नहीं जाए इस कारण से वह कोई शाब्दिक प्रतिक्रिया नहीं दे रहे थे। तीक्षण दृष्टि से देखने का उनका संकेत भी यही था कि इस तरह का और कोई प्रश्न उनसे नहीं पूछा जाए। किंतु, इसके उपरांत उसने स्वामी स्वरूपानंद से अगला प्रश्न किया, स्वामी जी, जातियों की उत्पत्ति वर्गों से ही हुई है। यदि जातिगत भेदभाव अधर्म है तो वर्णों का भेद भी तो अधर्म ही होगा न? तब तो यह भी कहना चाहिए न कि वर्ण-व्यवस्था का नाश हो? तथा वर्ण-व्यवस्था को मानने और उसका पोषण करने वालों का भी नाश हो?'
स्वामी स्वरूपानंद ने असीम कुमार के इस प्रश्न पर भी कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की तथा एक तीक्षण दृष्टि से असीम कुमार की ओर देख, अपने साथ चल रहे एक सेवक को, जो उनका सुरक्षाकर्मी भी था, कुछ संकेत कर आगे बढ़ गए। सेवक ने तत्काल अपने एक हाथ से असीम कुमार को स्वामी स्वरूपानंद के साथ चलने से रोका तथा क्रोधपूर्ण स्वर में बोला, 'देख नहीं रहे हो स्वामी जी कितने थके हुए हैं? सवाल पर सवाल पूछकर उनको परेशान किए जा रहे हो ।ज्ज चलिए, अलग हटिए यहाँ से। स्वामी जी अब विश्राम करेंगे। उनसे फिर बात करना।'
असीम कुमार ने उसके कहने का आशय समझ लिया था। उस सेवक से कोई प्रतिवाद न कर वह वहीं रुक गया1
__ स्वामी स्वरूपानंद अपने कक्ष के अंदर चले गए तो भक्तों की भीड़ आश्रम से बाहर निकलने लगी। असीम कुमार भी क्षितिज और सुजीत के साथ आश्रम से बाहर आ गया। अब तक दोपहर का समय हो गया था।
घर पहुँचते ही उन्होंने एक रेस्टोरेंट को फोन कर वहाँ से खाना मँगवाया तथा खाना खाकर अपने-अपने कमरों में चले गए। असीम कुमार अपने कमरे में आकर बिस्तर पर लेट गया किंतु उसका मस्तिष्क स्वामी स्वरूपानंद के इर्द-गिर्द घूम रहा था। वह सोच रहा था कि जनता कितनी भोली है कि भगवा वस्त्रधारी किसी भी व्यक्ति को सत्पुरुष समझ बैठती है और अज्ञानतावश उनके द्वारा कहे गए शब्दों को आप्त-वचन की तरह मानती है. जैसेकि वे साक्षात ईश्वर का रूप हों। और स्वरूपानंद जैसे बाबाओं द्वारा कितने कुटीलतापूर्ण ढंग से धर्म के नाम पर अंधविश्वास और पाखंडों को बढ़ावा देकर ब्राह्मणवाद का पोषण तथा मानवीय समानता, प्रेम और भ्रातृत्व का गला घोटा जाता है। बाबाओं का यह प्रभाव समाज वैज्ञानिक चेतना के प्रसार में बहुत बड़ी बाधा है। इन बाबाओं के ज्ञान के आडंवर और उनकी चेतना के यथार्थ को जनता के सामने बेपर्दा किया जाना आवश्यक है ताकि उनकी अन्धभक्त बनी जनता का मोह उनसे भंग हो और वे अज्ञानता की जडता से मक्त होकर यथार्थ को समझ सकें। उसने मन ही मन यह तय किया कि वह धर्म का साक्षात रूप बने स्वामी स्वरूपानंद के यथार्थ को जनता के समक्ष लाएगा कि धर्म के आवरण के अंदर वह कितना वर्णवादी, जातिवादी और असमानवादी है।
पहले दिन वह सुजीत और क्षितिज के आग्रह पर स्वामीस्वरूपानंद का प्रवचन सुनने के लिए गया था। किंतु यह सोचकर कि 'आज उनसे ईश्वर तथा धर्म-अधर्म आदि के बारे में भी पूछूगा', आज उसने स्वयं सुजीत और क्षितिज से स्वामी स्वरूपानंद के आश्रम चलने के लिए कहा।
असीम कुमार में अचानक आए इस परिवर्तन को देख वे दोनों हतप्रभ थे। सुजीत को उसकी बात पर जैसे विश्वास नहीं हो रहा था। वह आश्चर्य व्यक्त करते हुए बोला, 'क्या कहा तुमने? ...तुम स्वामी स्वरूपानंद का प्रवचन सुनने के लिए जाना चाहते हो?'
इससे पहले कि असीम कुमार कुछ कह पाता, क्षितिज बोल उठा, 'मैं कहता था न कि तुम सुनोगे तो तुमको भी स्वामी जी का प्रवचन अच्छा लगेगा। वही हुआ न? ...कल तक तुम वहाँ जाने से मना किया करते थे। कल भी तुम हमारे साथ आधे-अधूरे मन से ही वहाँ गए थे। और आज देखो खुद वहाँ जाने के लिए कह रहे हो।'
असीम कुमार ने महसूस किया कि क्षितिज इसे उस पर अपनी वैचारिक विजय के रूप में देख रहा था। उसका मन किया कि वह क्षितिज की इस बात का प्रतिकार करे और बताए कि वह वहाँ क्यों जाना चाहता है। किंतु अपने मन की बात को दबाते हुए क्षितिज के कथन पर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त न करते हुएउसने कहा, 'प्रवचन सुनने से अधिक मेरी रूचि स्वामी स्वरूपानंद से मिलने में है। मेरी जिज्ञासा उनसे धर्म के बारे में विस्तार से जानने की है। कल मैंने उनसे कुछ बातें जानने की कोशिश की थी। उनसे मिलकर कुछ और बातें जानना चाहता हूँ मैं।'
_ 'जिज्ञासा व्यक्त की थी? ....अरे भाई तुमने तो सवालों के गोले दागे थे। आज मिसाइल दागने का इरादा है क्या?' सुजीत ने परिहास करते हुए कहा।
'हाँ, आज मिसाइल ही दागूंगा।' असीम कुमार ने भी परिहास का रूप देते हुए अपने मन की बात कह दी
'चलो, ठीक है। दागो तुमको जो भी दागना है। हम तो तुम्हारे साथ हैं भई।' असीम कुमार से यह कहते हुए सुजीत ने क्षितिज की ओर देखा और बोला, 'चलो क्षितिज, आज खुद असीम बाबू कह रहे हैं स्वामी स्वरूपानंद के आश्रम चलने के लिए तो हो जाओ तैयार जल्दी से। पहले पहुँचेंगे तो आगे की लाइन में जगह मिल जाएगी नहीं तो बहत पीछे बैठना पडेगा। वहाँ से न ठीक से कछ दिखायी देता है और न कानों में ठीक सुनाई पड़ता है।'
'चलाना तो होगा ही। धार्मिकता विरोधी असीम के अंदर भी धार्मिकता का उदय हो रहा है। यह तो एक तरह से सेलिब्रेशन का अवसर है।' यह कहते हुए क्षितिज भी स्वामी स्वरूपानंद के आश्रम चलने के लिए तैयार होने लगा1
उनकी आश्रम से द्वार पर, आश्रम के अंदर प्रवेश करने वालों की कई लम्बी लाइनें लगी थीं। आश्रम के सुरक्षाकर्मी एवं अन्य कर्मचारी संतष्ट होने पर अंदर भेज रहे थे। सजीत और क्षितिज के साथ असीम कुमार भी एक लाइन में लगा था। लाइन धीरे-धीरे आगे बढ़ रही थी। किंतु जैसे ही असीम कुमार आश्रम के द्वार तक पहुँचा, वहाँ तैनात कर्मियों ने उसे अंदर जाने से रोक दिया, 'आप अंदर नहीं जा सकते।'
असीम कुमार को सुरक्षाकर्मी की बात पर बहुत आश्चर्य हुआवह बोला, 'लेकिन क्यों भाई?'
सुरक्षाकर्मी ने बहुत सहजता से जवाब देते हुए कहा, 'आप अजनबी व्यक्ति हैं और कुछ संदिग्ध लगते हैं।'
सुरक्षाकर्मी से यह सुन वह घोर आश्चर्य में डूब गया और अपना आश्चर्य व्यक्त करते हुए बोला, 'मैं संदिग्ध लगता हूं? कैसे भाई? ...यह क्या कह रहे हो तुम?'
सुरक्षाकर्मी ने पूर्ववत जवाब दिया, 'इसके बारे में मैं कुछ नहीं कह सकताहमको जो आदेश मिला है हम उसका पालन कर रहे हैं
_ 'यह लीजिए मेरा परिचय-पत्र। ...और क्या पहचान चाहिए आपको मेरी?' यह कहते हुए असीम कुमार ने अपना परिचय-पत्र निकालकर सुरक्षाकर्मी की ओर बढ़ाया।
परिचय-पत्र की ओर न देखकर सुरक्षाकर्मी उपेक्षापूर्ण स्वर में बोला, 'परिचय-पत्र ही काफ़ी नहीं होता है। सरकारी इमारतों में जाकर हमला करने वाले आतंकवादियों के पास भी परिचय-पत्र होते हैं। परिचय-पत्र के अलावा भी बह भी बहत चीजें देखनी होती हैं।'
__असीम कुमार को सुरक्षाकर्मी का व्यवहार बहुत चौंका रहा था। कल उसे बहुत सहजता से आश्रम के अंदर जाने दिया था और आज नहीं जाने दिया जा रहा था। वह समझ नहीं पा रहा था कि कल और आज में ऐसा क्या अंतर आ गया है। वह सुरक्षाकर्मी से तर्क करते हुए बोला, 'लेकिन मैं तो कल भी आया था। मेरे ये दोनों मित्र नियमित रूप से आश्रम में आते हैं। इनको आप लोग पहचानते होंगे। कल भी इनके साथ आया था मैं और आप लोगों को कोई आपत्ति नहीं हुई थी। आज ऐसा क्या हो गया है जो मेरे प्रवेश पर आप लोगों को आपत्ति हो रही है?'
सुरक्षाकर्मी ने असीम कुमार के साथ खड़े सुजीत और क्षितिज की ओर देखते हुए कहा, 'हाँ, हम इनको जानते हैं। ये अंदर जा सकते हैं। .....और आपको कल अंदर जाने दिया तो इसका यह मतलब नहीं है कि उसके आधार पर आपको आज भी अंदर जाने दिया जाए।'
_ 'हम काफ़ी समय से यहाँ आ रहे हैं। अब से पहले तो ऐसा कभी नहीं देखा कि किसी को अंदर जाने से रोका गया हो। यह पहली बार देख रहे हैं कि किसी को अंदर जाने से रोका जा रहा है। आखरि, इसके अंदर जाने में दिक्कत क्या है?' सुजीत ने हस्तक्षेप करते हुए सुरक्षाकर्मी से पूछा।
__ 'नहीं, हम आपके सवालों के जवाब नहीं दे सकते। आप दोनों को अंदर जाना है तो आप लोग जाइए। लेकिन ये अंदर नहीं जा सकते।' सुरक्षाकर्मी ने बेरूखी से जवाब दिया।
सुरक्षाकर्मी के व्यवहार में बेरूखापन देख सुजीत ने उससे ज़्यादा बात करना उचित नहीं समझा और असीम को समझाते हुए बोला, 'कोई बात नहीं असीम। जब ये नहीं जाने दे रहे हैं तो इनसे क्या बहस करनी बेकार में। चलो चलते हैं यहाँ से। हम लोग भी अंदर नहीं जाएँगे।'
असीम कुमार की रुचि अव स्वामीस्वरूपानंद से धर्म-अधर्म के बारे में कुछ और प्रश्न करके उसका सत्य जानने से बढ़कर इस बात में हो गयी थी कि उसे अंदर क्यों नहीं जाने दिया जा रहा है। वह सुजीत और क्षितिज से बोला, 'ठहरो ज़रा।' और फिर सुरक्षाकर्मी से बोला, 'आपको कोई संदेह है किसी प्रकार का और परिचय-पत्र काफ़ी नहीं है तो आप इसके अलावा जो कुछ भी मुझसे पूछना चाहें पूछ सकते हैं।'
___ 'नहीं-नहीं, हमारे पास इतना समय नहीं हैआप अलग हटिए. अन्य भक्तों का रास्ता मत रोकिए। उनको अंदर आने दीजिए।' यह कहते हुए सुरक्षाकर्मी ने लगभग धकेलते हुए असीम कुमार को लाइन से अलग कर दिया।
सुरक्षाकर्मी के इस अपमानजनक व्यवहार से असीम कुमार क्रोध से तमतमा उठा। उसने अपने एक हाथ से सुरक्षाकर्मी के हाथ को पकड़कर झटके से अपने शरीर से अलग किया और दूसरे हाथ की अंगुली से उसे चेतावनी देते हुए बोला, 'तेरी हिम्मत कैसे हुई धक्का देने की। यह जगह जहाँ मैं खड़ा हूँ। किसी के बाप की नहीं है। यह सार्वजनिक जगह है।
सुरक्षाकर्मी का यह व्यवहार सुजीत और क्षितिज को भी बहत विचित्र और आपत्तिजनक लगा। उन दोनों ने एक स्वर में सुरक्षाकर्मी के व्यवहार का प्रतिकार करते हुए कहा, 'यह क्या बदतमीज़ी है तुम्हारी। इस तरह धक्का क्यों दे रहे हो तुम?' इतना कहने के साथ असीम कुमार को पकड़कर वहाँ से अलग ले जाते हुए बोले, 'चलो असीम, इसके मुँह मत लगो। यह आदमी बात करने लायक नहीं है।'
असीम कुमार ने आश्रम के अंदर की ओर नज़र घुमाई तो उसने देखा आश्रम के अंदर कुछ कदम की दूरी पर स्वामी स्वरूपानंद का वही सेवादार खड़ा आश्रम के द्वार की ओर देख रहा था कल प्रवचन के पश्चात उनके साथ चल रहा था और उसने उनसे प्रश्न करने से रोक दिया था। असीम कुमार को यह समझने में देर नहीं लगी का उस सेवादार के निर्देश पर ही सुरक्षाकर्मी उसे अंदर नहीं जाने दे रहा है। उसे यह समझने में दिमाग के घोड़े नहीं दौड़ाने पड़े कि उसको क्यों आश्रम के अंदर नहीं जाने दिया जा रहा है। वह आक्रोश से लगभग चीखते हुए सुरक्षाकर्मी को सम्बोधित करते हुए बोला, 'मैं जानता हूं क्यों अंदर नहीं जाने दिया जा रहा है मुझे। ज्ज. मत जाने दो मुझे अंदर। कह देना अपने स्वामी स्वरूपानंद से कि जिन प्रश्नों को सुनने और उनके जवाब देने से वह बच रहा है, वे प्रश्न हमेशा उसका पीछा करेंगे। वर्ण-व्यवस्था, जातिवाद और अस्पृश्यता पर कोई बात करने से बचकर या लीपापोती करके वह इनका समर्थन और पोषण कर रहा है। और भोली-भाली जनता को भक्ति का रस पिलाकर मूर्ख बना रहाँ है। यह धर्म नहीं है, धर्म की आड़ में एक ढोंग है। यह ढोंग बहुत दिन तक रहेगा नहीं, इसका पर्दाफ़ाश अवश्य होगा और बहुत जल्दी होगा।'
__ असीम कुमार की बातें वहाँ लाइनों में लगे लोग अच्छी तरह सुन रहे थे। उसकी बातें अनेक लोगों को आकर्षित कर रही थीं। कई लोग, जो लाइन में बहुत पीछे थे और उन तक असीम कमार की आवाज़ ठीक से नहीं पहुँच रही थी, वे लाइन से निकलकर असीम कुमार के पास आकर खड़े हो गए। सुरक्षाकर्मियों ने पहले असीम कुमार को आश्रम के द्वार से दूर भेजने की कोशिश की, किंतु उसके आसपास लोगों की भीड़ जमा होते देख उन्होंने अपनी यह कोशिश छोड़ दी और असीम कुमार को सम्बोधित करते हुए बोले, 'आपको जो भी कहना या करना हो, करें। लेकिन कृपया यहाँ से थोड़ा सा अलग हटकर खड़े हो जाएँ, ताकि आश्रम में प्रवेश करने वालों को कोई बाधा नहीं पहुँचे।'
___ 'अवश्य। हट जाता हूं यहाँ से। मैं किसी के रास्ते का बाधक नहीं बनाना चाहता।' सुरक्षाकर्मी से इतना कह, असीम कुमार आश्रम के द्वार से अलग हटकर सड़क पर आकर खड़ा हो गया और अपने आपसपास खड़े लोगों को सम्बोधित करते हुए बोला, यह स्वामीस्वरूपानंद नहींमिथ्यानंद और पाखंडानंदहै। धर्म के नाम पर बड़ी-बड़ी बातें करता है। परलोक, पुनर्जन्म और स्वर्ग-सुख सपने दिखाता है। अध्यात्म का पाठ सिखाता है। किंतु इस लोक और इस जन्म में लोगों के दुख, शोषण और अन्याय से मुक्ति बारे में कुछ नहीं कहता। मनुष्य मनुष्य में भेदभाव और ऊँचनीच पैदा करने वाली वर्ण-व्यवस्था, जातिवाद और अस्पृश्यता के विरुद्ध एक शब्द भी नहीं बोलता। यह स्वामी या संत नहीं, ढोंगी, पाखण्डी और ब्राह्मणवाद का पोषक महा-ब्राह्मणवादी व्यक्ति है। वह जो कुछ बोलता और करता है, वह धर्म नहीं अधर्म है। क्या लाभ है ऐसे ढोंगी लोगों के निरर्थक प्रलाप सुनने से।'
___इतना कहकर असीम कुमार ने सुजीत और क्षितिज के हाथ पकड़े और वहाँ से चल दिया। उनके साथ-साथ वहाँ पर खड़े बहुत से अन्य लोग भी आश्रम के अंदर न जाकर वहाँ से वापस चल दिए थे।
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