राहुल कुमार बोयल - जन्म : 23.06.1985 जन्म स्थान : जयपहाड़ी, जिला-झुन्झुनूं (राजस्थान) सम्प्रति : राजस्व विभाग में कार्मिक पुस्तक : समय की नदी पर पुल नहीं होता (कविता - संग्रह)
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मैं जानता हूँ
मैं उस किसान को जानता हूँ
जिसके खेत में इतनी कपास होती है
कि रेशे से जिसके फांसी का फंदा बनता है।
मैं उस लुहार को जानता हूँ
जो लोहे पर हथौड़े चलाकर उकता गया है
और अब निहाई पर अपनी किस्मत पीटता है।
मैं उस बच्चे को जानता हूँ
जिसकी आँखों के गीलेपन का फ़ायदा उठाकर
बेमुरव्वत ताकतों ने उनमें बंदूकें उगा दी हैं।
मैं उस सिपाही को जानता हूँ
जिसके सीने से इंकलाब जैसे शब्द मिटा दिए गए हैं।
और थोप दिए गए हैं मज़हब के गलत मायने।
मैं उस औरत को जानता हूँ
जिसकी अस्मत पे उंगलियाँ उठ जाती हैं
वो जब भी अपना हक लेने घर से निकलती है।
मैं उस सुराही को जानता हूँ
जिसकी गर्दन में गंगा का पानी है
मगर पेंदों पर तेजाब की तलछट जमी है।
मैं उस मजदूर को जानता हूँ
जो दिन भर जीने की कवायद में काम करता है
और हर रात पीकर खुद को मार लेता है।
मैं उस मोची को जानता हूँ
जिसने ताउम्र सिले हैं हजारों जूते-चप्पल
मगर अपनी फटी बिवाइयाँ सीने में नाकाम रहा है।
मैं उस बड़े आदमी को जानता हूँ
जो भूख मिटाने के बदले गोश्त और खून माँगता है
ऐसे हताश आदमी को भी पहचानता हूँ मैं
जिसे रोटी के बदले ईमान बेचना पड़ता है।
मैं उस पण्डित को जानता हूँ
जिसने इस धरती पर दो बार जन्म लिया
और बीसियों बार कत्ल कर दिया गया
मैं उस मौलवी को जानता हूँ
जिसे पता था इबादत और तक्वा का सही अर्थ
मगर मुँह खोलते ही वो काफ़िर करार दे दिया गया।
मैं ऐसे गांव को जानता हूँ
जिसकी सड़कों की अंतड़ियाँ निकाल ली गई हैं
ऐसे शहर से भी वाकिफ़ हूँ मैं
जिसकी आस्तीन में बारूद की फ़सल होती है।
ऐसे तलबगारों से भी हुआ हूँ रूबरू
गालियाँ जिनके लिए अभिव्यक्ति का अधिकार है
मैं ऐसे सरफ़रोश को जानता हूँ
जिसकी बहादुरी का ईनाम गद्दारी का तमगा लगाकर दिया
गया।
मगर...................
मैं ऐसे भारत को भी जानता हूँ
जो सत्तर साल भार ढोकर भी बूढ़ा नहीं हुआ
मैं ऐसे भारतवासी को भी जानता हूँ
जो चिथड़ों में पड़ा है मगर आंसा नहीं हुआ।
इसलिए..............
मैं धरती की मटमैली देह पर
पानी के नीले निशानों की वकालत करता हूँ
मैं इस देश के हर बाशिन्दे के पैरों की मिट्टी
और बदन के पसीने की वकालत करता हूँ।
जो झूठे आश्वासनों के बाद चैन से सोता है
मैं ऐसे नेता की धोती खोलने की वकालत करता हूँ
जो जनता का दर्द लाल फीतों में बाँध के नहीं रखता
मैं उस अफ़सर की हुकूमत की वकालत करता हूँ।
मैं उन सब जिन्दगियों की ख़िलाफ़त करता हूँ
जो बेवजह भीड़ का हिस्सा हो जाती हैं।
मैं उन तमाम मौतों से मुहब्बत करता हूँ
जो खाद बनकर खेतों की शान हो जाती हैं।
मैं ऐसी बंदूक की तलाश में हैं
जिसकी दुनाली का मुँह खौफ़ की तरफ़ हो
मैं ऐसी बारूद का हिमायती हूँ
जो बदन पर छिटकते ही भस्म बन जाती हो।
मैं ऐसे दिलों की तलाश में निकला हूँ
जो मिट्टी की सुगन्ध से बहलते हैं
मैं ऐसे होंठों को चूमने की तमन्ना करता हूँ
जो मुल्कपरस्ती के गीतों पर ठुमकते हैं।
मैं ऐसी आँखों की तलहटी में सोना चाहता हूँ
जो मुहब्बत में सरहद के उस पार भी निकल जाती हैं
मैं ऐसी हथेलियों को कांधों पर रखना चाहता हूँ
जिनकी थाप से इंसाफ की शहनाई के सुर निकलते हैं।
मैं उन सीखचों का हमेशा अहसानमंद रहूंगा
जिन पर मेरे विचारों को भूनकर पकाया गया
मैं उन भट्टियों का भी कर्जदार रहूंगा
जिनमें मेरे भीतर के कुरा को पिघला दिया है।
मुझे ऐसे अखबार में अपनी तस्वीर देखनी है
जिसकी काली छपाई में सच सहमा हुआ न हो
जिसकी काली छपाई में सच सहमा हुआ न हो
मुझे ऐसे चैनल पर सुननी है मेरी मौत की खबर
जिसकी कड़वाहट पर रिश्वतों की मिठास न हो
मैं भारत के केसरिया लिबास में
दंगों की आग नहीं, बदलाव की भंगवासा चाहता हूँ
मुझे हर हाथ की ताकृत बनना है
न कि टूटे हुए जिस्मों पर झूठमूठ का दिलासा चाहता हूँ।
मैं हर बच्चे, बूढे और जवान के हाथ की
वो एक खास कृलम बन जाना चाहता हूँ।
जो बदगुमान सरकार की गर्दन पर चलते ही
किसी चाकू या खंजुर की नोंक बन जाती है।
जब बाहर की खामोशी और भीतर का भूकम्प
मिलकर एक नई इंसानी कौम को जन्म देंगे
तब सफेदपोश कालिख पोतकर
कानून के कटघरे में लाए जाएंगे।
मैं सचमुच का भारत बन जाना चाहता हूँ
भारत जिसकी आरजू आजाद ने की होगी
वही भारत जो भगतसिंह का महबूब है
वही भारत जो तेरा-मेरा गुरूर है, रौब है, वजूद है।
[कुरा : वह गाँठ जो पुराने ज़ख्म में पड़ जाती है। इसमें पीब जमा रहता है और नासूर हो जाता है। भंगवासा : हल्दी]
सम्पर्क : मो.नं. : 7726060287