कविता -    कछुए  - लक्ष्मण प्रसाद गुप्ता 

 


कछुए


इनकी पीठ


शताब्दियों बाद भी


बिल्कुल तनी रहती है


जबकि ये घेरते हैं


पृथ्वी पर सबसे कम जगह


अपने सम्पूर्ण जीवनकाल में!


2


सभ्यता के विकास में


इनके पदचिह्न भुलाए नहीं जा सकते


पानी, मिट्टी, रेत


चाहे कुछ भी क्यों न हो


इन्होंने सबको सुख पहुंचाया है


कठोरपन में कोमलता को


कोमलता पर कठोरपन को


कुछ कुछ वैसे ही साधा है


जैसे एक माँ साधती है


जीवन और वात्सल्य!


3


सुना है अब इसकी उम्र


पहले से आधी हो गई है


सुना है अब इसकी पीठ पर


पहले से कम ठहरता है भार


सुना है अब इसकी साँसों में


पहले से कम अटती है हवा


सुना है अब इसकी गति


पहले से मंथर हो चली है


 


सुना है अब इसका मांस


पहले से अधिक बिक रहा है!


4.


जिन्होंने हमेशा से


मिट्टी, रेत, पानी को मिठास दी


दिया अपना रंग


मनुष्य को


आसमान को शक्ति दी


पर्वतों को लंबी आयु


आज ही की बात है


पूरी के तट पर


लंबी यात्रा के बाद


उन्होंने सामूहिक आत्महत्या की


पूरे के पूरे एक सौ पचास की तादाद में


अब समय आ गया है


दाएं-बाएं झांकने के बजाए


हम अपने घरों में जाएं


आईने पर पड़ी धूल साफ़ करें


थोड़ी देर देखें खुद को


शायद, मुजरिम वहीं कहीं हो!


 


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