आलेख - नामवर सिंह और इलाहाबाद - कुमार वीरेन्द्र

जन्म : 20 दिसम्बर 1974 स्नातक से डी.फिल. तक की शिक्षा इलाहाबाद विश्वविद्यालय से। ढाई वर्षों तक जी.एल.ए. कॉलेज, नीलांबर-पीतांबर विश्वविद्यालय, मेदिनीनगर, पलामू में हिन्दी-अध्यापन और चार वर्षों तक पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग के प्रभारी। पांच पुस्तकें प्रकाशित। भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, राष्ट्रपति निवास, शिमला में तीन वर्षों तक एसोसिएट। संप्रति : हिन्दी एवं आधुनिक भारतीय भाषा विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर।


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डॉ. नामवर सिंह का नाम आते ही हिन्दी आलोचना का वह पूरा दौर सामने उपस्थित हो जाता है, जिसे साहित्य का नामवर युग' कहा जा सकता है क्योंकि इस दौर में किसी एक खास रचना की जगह एक व्यक्ति के रूप में नामवर जी ही छाए रहे। हिन्दी आलोचना में वह संवाद और विवाद दोनों के पर्याय रहे। अक्सर उनकी बातें और स्थापनाएं संवाद और विवाद, सहमति और असहमति के लिए गुंजाइश पैदा करतींयों तो वे दिल्ली में रह रहे थे, लेकिन उन्हें जिन दो शहरों से गहरा आत्मिक और बौद्धिक लगाव था उनमें पहला बनारस और दूसरा इलाहाबाद। इलाहाबाद नामवर जी बार-बार आए। इलाहाबाद भी उनको बार-बार सुनता रहा, पढ़ता रहा और उनसे बीच-बीच में टकराता रहा। बकौल प्रो. संतोष भदौरिया 'सन् २०१० में इलाहाबाद स्थित महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के क्षेत्रीय केन्द्र में केदारनाथ अग्रवाल व्याख्यान देते हुए नामवर जी ने स्वीकार किया था कि मैं इलाहाबाद जब भी आता हूँ तो एक वर्ष की आयु मुझे और मिल जाती है।' सन् १९५२ में नामवर जी की पहल पर तीन दिनों का एक अभूतपर्व साहित्यिक सम्मेलन काशी में हुआ था, परन्तु सुखद आश्चर्य यह कि उसकी सारी तैयारी उन्होंने इलाहाबाद में दस दिनों तक रहकर की थी। वह त्रिलोचन के साथ इलाहाबाद आए और नेमिचंद्र जैन, सर्वेश्वर, धर्मवीर भारती, शमशेर बहादुर सिंह, नरेश मेहता, केदारनाथ अग्रवाल, विजय देव नारायण साही, ओंकार शरद आदि से मिलकर काशी में होने वाले आयोजन की उन्होंने रूपरेखा तैयार की। इलाहाबाद में की गई इस मुकम्मल तैयारी के साथ उन्होंने काशी में ९-१० मार्च १९५२ को तीन दिवसीय बड़ा साहित्यिक सम्मेलन करवाया, जिसमें इलाहाबाद के प्रायः सभी महत्वपूर्ण साहित्यकार उपस्थित थे। यह सम्मेलन इस मामले में भी उल्लेखनीय था कि पहली बार इतने सारे महत्वपूर्ण लेखकों के बीच उन्होंने व्याख्यान दिया था। इसके बाद मई १९५२ में इलाहाबाद में प्रगतिशील लेखक संघ का एक बड़ा समारोह हुआ था, जिसमें नामवर जी की राजेन्द्र यादव से पहली बार भेट हुई थी। प्रयाग संगीत समिति के हॉल में हुए इस समारोह में 'अनुभूति और विचारधारा' पर बहस चल रही थी, इसमें पहली बार नामवर जी ने जोरदार भाषण दिया, जिसकी खुब चर्चा हुई थीउनका यह जुमला उस समय खुब चर्चित हुआ था- 'यहाँ कोण पर ज्यादा जोर है, दृष्टि गायब है।' दिसम्बर १९५७ में इलाहाबाद में एक ऐतिहासिक' लेखक सम्मेलन हुआ था, इसके प्रस्तावकों में नामवर जी भी शामिल थे, प्रकाश चंद्र गुप्त, श्रीकृष्ण दास, भैरव प्रसाद गुप्त, श्रीपत राय, त्रिलोचन शास्त्री, अमृतराय, मार्कण्डेय, कमलेश्वर, केदारनाथ सिंह, अमरकांत और शेखर जोशी के साथ। इस सम्मेलन का संचालन नागार्जुन ने कियाथा।


      नामवर जी ने इलाहाबाद को हमेशा गंभीरता से लियाऔर पर्याप्त आदर भी दिया। भैरव प्रसाद गुप्त के संपादन में प्रकाशित 'नई कहानियाँ पत्रिका में मार्कण्डेय द्वारा जो लिखा जा रहा है' स्तंभ अंतर्गत लिखे गए लेखों का संग्रह 'कहानी की बात' शीर्षक से १९८४ में छपा था। इस पुस्तक के संबंध में स्व. भैरव प्रसाद गुप्त की प्रथम पुण्य तिथि (७ अप्रैल १९९६) को (जनवादी लेखक संघ और स्टूडेण्ट फेडरेशन ऑफ इंडिया द्वारा संयुक्त रूप से इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रसंघ भवन में आयोजित स्मृतिसभा में) डॉ. नामवर सिंह ने अपने व्याख्यान के दौरान विनम्रतापूर्वक कहा था कि वह एक दुधमुंहा प्रयास था जो मेने अपनी गिताब 'कहानी नयी कहानी' में कहानी चर्चा में कुछ लेख लिखे, और संयोग कि वह छप भी गई। लेकिन मुँह देखी नहीं कहता-'कहानी की बात' नामक किताब में छपे जो बड़े व्यवस्थित, योजनाबद्ध और बेहतर लेख हैं, कहानी के बारे में, कहानी की आलोचना के बारे में निर्विवाद रूप से महत्वपूर्ण लेख हैं।'


    नामवर जी इलाहाबाद में प्रायः श्रीकृष्ण दास, ओंकार शरद, मार्कण्डेय, प्रो. राजनाथ के घर ठहरते, कभी-कभार अतिथि गृह में ठहर जाते। वह भैरव प्रसाद गुप्त के घर तो नहीं ठहरे, पर भैरव प्रसाद गुप्त के साथ प्रायः बैठते-उठते। इलाहाबाद से भैरव प्रसाद गुप्त ने मई १९६० से जनवरी १९६३ के तीन वर्षों में नई कहानियां' का ऐतिहासिक संपादन किया, जिसके कारण कहानी को हिंदी साहित्य में पहली बार केन्द्रीय विधा का स्थान मिला और सबसे बड़ी बात यह हुई कि भैरव जी ने इस पत्रिका के माध्यम से एक अभूतपूर्व कहानी-आलोचक का निर्माण किया यानी नामवर सिंह का। कहानी : नयी कहानी' में नामवर जी ने एकाधिक बार कहा है कि मैं कविता का पाठक रहा हूँ। कविता के क्षेत्र से घसीट कर उन्हें कहानी का पाठक-आलोचक बना देना, भैरव जी द्वारा संपादित नई कहानियां' का ही काम था।' भैरव प्रसाद गुप्त ने नामवर जी की क्षमता-संभावना को पहचानकर नई कहानियां' में उनसे 'हाशिये पर' नामक स्तंभ लिखवाया। 'हाशिये पर' नामवर जी की विनम्रता का द्योतक था तो भैरव जी के आत्मविश्वास का भी। 'हाशिये पर' की टिप्पणियों की व्यापक प्रतिक्रिया होती। भैरव जी नामवर जी के विरूद्ध प्रतिक्रियाओं को भी समुचित महत्व देकर छापते। उस व्यापक वाद-विवाद से कहानी और नयी कहानी का रूप और अंतर काफी स्पष्ट हुआ। नामवर जी की पुस्तक 'कहानी नयी कहानी' का आधार 'हाशिये पर' लिखे गए या कहें कि इलाहाबाद के भैरव प्रसाद गुप्त द्वारा लिखाए गए लेख ही हैं- 'नये गगन में नया सूर्य जो चमक रहा है। मेरी भी आभा है इसमें।' 'कहानी नयी कहानी' भैरव जी को समर्पित है। बकौल विश्वनाथ त्रिपाठी कविता के पाठक और आलोचक, पृथ्वीराज रासो की भाषा पर शोध-प्रबंध प्रस्तुत व वाले, छायावाद, इतिहास और आलोचना, आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियां के लेखक कहानी की ओर कैसे उन्मुख हुए इस पर नामवर जी ने कोई प्रकाश नहीं डाला है। कमलेश्वर ने लिखित रूप से और मार्कण्डेय ने वाचिक रूप से प्रकाश डाला है। कमलेश्वर का कहना है कि हमें एक आलोचक की जरूरत थी और नामवर जी को हम कहानीकारों ने कहानी-आलोचक बनाया। मार्कण्डेय इसका श्रेय तत्कालीन इलाहाबादी शुभचिंतकों को देते हैं। जिन्होंने नामवर जी को सूत्र दिए, किताबें मुहैया कराई और कहानी पर गंभीर विचार-विनिमय किया। भैरव जी भी कुछ इसी प्रकार की बात करते थे। हालांकि कहानी : नयी कहानी' की स्थापनाओं से भैरव जी या इलाहाबाद के अन्य लोग कितने सहमत थे, कितने असहमत-एक स्वतंत्र बहस का विषय है। हालांकि नामवर जी विरूद्धों को साधने में ऐसे सिद्धहस्त थे कि मुस्कुराहट से असहमत को भी सहमत कर लेते थे। यही कारण है कि बनारसी पान से ललियाए अपने होठों की मुस्कुराहट के बूते इलाहाबाद की गहराई भी ताउम्र नापते रहे। नामवर के निमित्त कार्यक्रम में इलाहाबाद के हिन्दुस्तानी एकेडेमी में उन्होंने स्वतः स्वीकार किया था कि 'इलाहाबाद ने मुझे मालामाल कर दिया है। इस शहर को मैं कभी नहीं भूल सकता। इस शहर ने सदैव मेरे लिए चुनौतियां खड़ी की हैं। यहाँ तो हम ऊर्जा लेने आते हैं। जिन शहरों ने मुझे गढ़ा, बनाया, इलाहाबाद भी उनमें से एक है।' विजयदेव नारायण साही और प्रो. रामस्वरूप चतुर्वेदी के साथ उनके मतभेद, विवाद को हर कोई जानता है, पर हर कोई यह भी जानता है कि उनका सबसे ज्यादा संवाद इन्हीं से रहा। नामवर और साही की जोड़ी आलोचना लेखन और गोष्ठियों में बहुचर्चित रही है। दोनों एक प्रकार के वाद-प्रतिवाद के रूप में सामने आते हैं। दोनों की अध्ययनशीलता और तर्क-प्रणाली एक दूसरे के टक्कर में रही यद्यपि दोनों की बुनियादी मान्यता एक है कि रचना को आलोचना के केन्द्र में रहना है। रामस्वरूप चतुर्वेदी की मानें तो 'भगवती चरण वर्मा के 'दो बाँके' ऐन लड़ाई के वक्त कतरा जाते हैं, जबकि आलोचना' के दो बाँके बराबर जोर करते और उलझते रहे, यह ठीक है कि इस क्षेत्र में लाश बिछने का प्रश्न नहीं उठता।'


हिन्दी विभाग में आवाजाही


    नामवर जी के मन में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग को लकर गहरा आकर्षण, बौद्धिक लगाव और ऊष्मा भरी आत्मीयता का भाव था, यही कारण था कि वे बार-बार आए-कभी परीक्षक के रूप में तो कभी वक्ता के रूप में। छोटे भाई काशीनाथ सिंह को लिखे पत्रों से प्राप्त जानकारी के अनुसार २० अक्टूबर १९७३ को वह पहली बार डी.फिल. की एक मौखिक परीक्षा लेने विभाग आए थे और यहाँ से बनारस चले गए थे। १३ जुलाई १९७८ को डी.फिल. की मौखिक परीक्षा लेने के लिए वह पुनः विभाग आए, फिर २ जून १९८६ को भी विभाग पहुँचकर उन्होंने डी.फिल. की मौखिकी ली। बतौर परीक्षक वह अन्य तिथियों पर भी विभाग आए, पर उसका ठीक-ठीक विवरण जुटा पाना तत्काल संभव नहीं है। वक्ता के रूप में भी नामवर जी हिन्दी विभाग में बार-बार आए और अपनी विद्वता से सबको प्रभावित किया। हिन्दी विभाग की ओर से एक संगोष्ठी हिन्दुस्तानी एकेडेमी के सभागार में आयोजित की गई थी, जिसमें शिव कुमार मिश्र, रमेश कुंतल मेघ, काशीनाथ सिंह के साथ अज्ञेय और नामवर सिंह सम्मिलित थे। जिस सत्र की अध्यक्षता अज्ञेय कर रहे थे, उसके बाद के सत्र में रमेश कुंतल मेघ और नामवर सिंह ने अज्ञेय की कड़ी आलोचना की। गोष्ठी के प्रारंभ में अज्ञेय द्वारा की गई टिप्पणियों में से कुछ को आधार बनाकर नामवर जी ने अज्ञेय की आलोचना की और कहा कि मैं अज्ञेय का सक्रिय पाठक रहा हूँ।' अज्ञेय ने अध्यक्षीय वक्तव्य में इसकी नोटिस ली और कहा कि नामवर जी मेरे सक्रिय पाठक ही नहीं सक्रिय श्रोता भी हैं। मैंने जो नहीं कहा था, वह भी उन्होंने सुन लिया। राम कमल राय ने इस बात को विस्तार से बताते हुए 'स्मृतियों का शुक्ल पक्ष' नामक पुस्तक में इस गोष्ठी के एक और रोचक प्रसंग का जिक्र किया है। इस गोष्ठी में अपने व्याख्यान के दौरान रमेश कुंतल मेघ ने अज्ञेय की आलोचना की थी। अज्ञेय ने अध्यक्षीय वक्तव्य में चुटकी लेते हुए कहा कि 'जब मैं डॉ. कुन्तल मेघ को सुन रहा था तो मेरे मन में एक शरारत भरा विचार आयामुझे लगा कि नाई की कृपा से डॉ. कुन्तल मेघ के शिर से कुन्तल तो कभी-कभी छंट जाता होगा, परन्तु उनके चिन्तन पर जो मेघ छाया रहता है, वह कभी नहीं छूटता है।' इस पर नामवर जी ने धीमे स्वर में कहा था कि रमेश कुंतल मेघ जैसे लोगों से तो अज्ञेय जी वैसे ही क्रीड़ा कर सकते हैं, जैसे बच्चे गेंद के साथ करते हैं।


      दरअसल यह गोष्ठी क्या थी, चार दिवसीय जन्मशती समारोह था। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिन्दी और उर्दू विभागों के संयुक्त तत्वावधान में २१, २२, २३, २४ फरवरी १९८० को हिन्दुस्तानी एकेडमी सभागार में चार दिवसीय प्रेमचन्द जन्मशती समारोह का आयोजन किया गया था, जिसे इलाहाबाद के साहित्यिक आयोजनों की परम्परा में एक विशिष्ट कड़ी और सार्थक अनुभव के रूप में जाना जाता रहा है। पहले दिन समारोह के उद्घाटन भाषण में अज्ञेय ने कहा कि 'रचनाओं में समाजालोचन के बावजूद, प्रेमचंद इंशा अल्ला खाँ की किस्सागो परम्परा के कथाकार हैं। सामाजिक यथार्थवाद जैसी लड़ाई उन्हें लेकर इधर लड़ी जा रही है किन्तु उनकी मूल चिंता नैतिकता है और उनकी विशिष्टता संघर्ष के बजाए संवेदना या 'महाकरुणा' में है।' श्रीमती महादेवी वर्मा की अध्यक्षता में संपन्न हुए इस उद्घाटन समारोह में अज्ञेय ने आगे यह भी कहा कि 'प्रेमचंद के कृतित्व में वह सघन संरचना नहीं है जिसे आज का विदग्ध पाठक हूँढता है। वे इकहरे हैं, जैसे भारतीय समाज अपनी तमाम जटिलताओं के बावजूद इकहरा हैं।' अज्ञेय ने उन आलोचकों की भत्र्सना की जो वैसे तो निजी सम्पत्ति के अधिकार के खिलाफ बोलते हैं, मगर प्रेमचंद को अपने बाड़े में घसीटना चाहते हैं।


    दूसरे दिन समारोह की दूसरी गोष्ठी प्रतिक्रियात्मक आक्रामकता और उफनते बौद्धिक तेवर के कारण गर्म हो गई। 'प्रेमचंद की दृष्टि और कला रचना' विषय का प्रवर्तन करते हुए डॉ. नामवर सिंह ने उन तमाम सवालों को भी नए सिरे से उठाया जो उद्घाटन भाषण में अज्ञेय ने खड़े किए थे। नामवर जी ने अत्यंत प्रभावी तरीके से अज्ञेय से असहमत होते हुए कहा कि जिस युग में स्वछन्द कल्पना का बोलबाला था, उसी समय प्रेमचंद अपनी रचनाओं में जनजीवन के यथार्थ को व्यक्त कर रहे थे। यह इतिहास की समझ का नतीजा है।' नामवर जी ने प्रेमचंद को विश्व स्तर पर उभरती हुई नई उपनिवेशवाद विरोधी राष्ट्रीय जन चेतना के संदर्भ में देखे जाने का आग्रह किया। उन्होंने प्रेमचंद को 'आधुनिक' न माने-जाने पर भी आश्चर्य व्यक्त किया, क्योंकि विवेक अनुभवशीलता, यथार्थ, धर्मनिरपेक्षता, अंध विश्वासों से मुक्ति और ऐहिकता-तमाम सन्दर्भो में वे आधुनिक थे। साहित्यिक दृष्टि को मात्र नैतिक दृष्टि मानने को 'संकुचनवाद' का नाम देते हुए नामवर जी ने यह भी कहा कि नैतिकता और सौंदर्य बोध दोनों ही अलग-अलग तरह के होते हैं। शोषक और शोषित की नैतिकताएं, परस्पर विरोधी होती हैं वैसे ही जैसे भद्रलोक और किसान के सौंदर्य बोध। उपन्यास के योरोपीय विन्यास को तोड़ने वाली प्रेमचंद की कृतियाँ पारम्परिक अर्थों में कलात्मक और मधुर नहीं हैं किन्तु यथार्थ और सम्पूर्णता की शर्तों पर कलात्मक होने के लिए प्रेमचंद तैयार न थे।


    नामवर जी के वक्तव्य की तर्क संयतता से गोष्ठी में एक सन्नाटा खींच गया और लोग सकते में आ गए। इस सत्र में डॉ. जगदीश गुप्त, डॉ. रमेश कुंतल मेघ, डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी, गिरिराज किशोर ने भी अपने विचार व्यक्त किए। परंतु इस सत्र की अध्यक्षता कर रहे अज्ञेय ने नामवर सिंह द्वारा किए गए वार को खाली नहीं जाने दिया और अध्यक्षीय भाषण करते हुए अपने उद्घाटन भाषण को तोड़ने मरोड़ने का आरोप नामवर सिंह पर लगाते हुए कहा कि बहुत से लोग भविष्य का आश्वासन देकर मनुष्य का दोहन करते हैं-सारी राजनीति यही है। लेकिन वर्तमान में अपनी प्रतिष्ठा का आधार देखना ज्यादा जरूरी है। प्रेमचंद ने यही किया। अतीत और भविष्य दोनों का अर्थ वर्तमान में है।' अज्ञेय ने यह भी कहा कि किसी लेखक को अगर आप बड़ा मानना या मनवानाचाहते हैं, तो इसका आशय नहीं कि आप उसकी आलोचना का भी अधिकार नहीं देंगे।'


    तीसरे दिन प्रथम सत्र कीगोष्ठी का विषय था- 'सामाजिक संरचना और वर्गीय जटिलताएँ' जिसकी अध्यक्षता करते हुए नामवर सिंह ने कहा कि इंग्लैण्ड के अधकचरे पूँजीवाद के दबाव में भारतीय सामंतवाद, उपनिवेश और देशी पूँजीवाद के संबंधों की पड़ताल की जानी चाहिए। उन्होंने 'ईंदगाह' और 'लाटरी' कहानियों के आधार पर वर्गीय जटिलताओं को व्याख्यायित किया। इस सत्र में नंद किशोर नवल, अकील रिजवी, सत्य प्रकाश मिश्र और रामजी राय ने अपने विचार व्यक्त किए थे।


    आधुनिक कविता की समालोचना के लिए विभाग में सन् १९६३ से 'निराला व्याख्यानमाला' की शुरुआत हुई, जिसके तहत पहला व्याख्यान ५-६ मार्च १९६३ को विजयनगरम हॉल में दिल्ली के तत्कालीन सहायक मंत्री डॉ. प्रभाकर माचवे ने 'निराला के काव्य दर्शन एवं उसके पुनर्मूल्यांकन' पर दिया था। इसका संयोजन डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी ने किया था। इस वर्ष विभाग की चर्चा राष्ट्रीय स्तर पर इस कारण से भी हो रही थी कि डॉ. राम कुमार वर्मा को भारत सरकार द्वारा 'पद्मभूषण' की उपाधि से विभूषित किया गया था। निराला व्याख्यानमाला विभाग की अत्यंत प्रतिष्ठित व्याख्यानमाला रही है, जिसके तहत अब तक सुमित्रानंदन पंत, महादेवी वर्मा, डॉ. देवराज, विजयदेव नारायण साही, केदारनाथ अग्रवाल, विपिन कुमार अग्रवाल, अज्ञेय, अशोक वाजपेयी, श्रीलाल शुक्ल, त्रिलोचन, केदारनाथ सिंह आदि के महत्वपूर्ण व्याख्यान हो चुके हैं। इसी कड़ी में २२-२३ अप्रैल १९८९ को डॉ. नामवर सिंह ने 'कविता के नये प्रतिमान : एक पुनर्विचार' विषय पर बहुत महत्वपूर्ण व्याख्यान दिया। दूधनाथ सिंह के संयोजन और प्रो. रामस्वरूप चतुर्वेदी की अध्यक्षता में संपन्न इस दो दिनी व्याख्यान के पहले दिन 'कविता के नये प्रतिमान' में आधुनिकता' के सन्दर्भ में चर्चा प्रारम्भ करते हुए नामवर जी ने कहा कि विचारधारा कविता की दुश्मन है। कविता में महत्वपूर्ण तत्व है-अनुभूति की प्रासंगिकता। कविता में जब विचार प्रवेश करता है तो वह विचार नहीं रह जाता बल्कि वह बिम्ब, प्रतीक तथा मिथक के रूप में बाहर आता है। हिन्दी आलोचना की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि हिन्दी आलोचना हिन्दी साहित्य के इतिहास का अंग नहीं है, बल्कि हिन्दी साहित्य का इतिहास हिन्दी आलोचना का अंग है। उन्होंने कहा कि आज जो लोग हिन्दी साहित्य में दूसरी परम्पराओं का विरोध कर रहे हैं, उन्हें यह स्मरण करना चाहिए कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कहा था कि इस देश में परम्परा नहीं बल्कि परंपराएं हुआ करती हैं। उन्होंने व्यंग्य करते हुए कहा कि वास्तव में जिन्हें इतिहास में स्थान नहीं मिला वे ही ऐसी स्थापना का विरोध कर रहे हैं। वास्तविकता तो यह है कि आज से पहले हिन्दी आलोचना का इतिहास लिखा जाता था और रामविलास शर्मा को कोई घास नहीं डालता था। 


    इसी व्याख्यान के क्रम में दूसरे दिन यानि २३ अप्रैल को नामवर जी ने कविता की दूसरी परंपरा की खोज के संदर्भ में मुख्य रूप से आधुनिक काल पर चर्चा की और रामस्वरूप चतुर्वेदी जी की स्थापनाओं से कड़ी असहमति व्यक्त की। उन्होंने कहा कि 'कविता के नये प्रतिमान में जिन मित्रों से हमारा संवाद रहा है, उनमें प्रो. रामस्वरूप चतुर्वेदी भी एक हैं। चतुर्वेदी जी ने 'हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास' लिखकर बहुत ही मूल्यवान कार्य किया है। इसमें मेरी दुष्टि जब प्रगतिवादी कवियों पर जाती है तो मैं देखताहूँ कि साहित्य अकादमी ने त्रिलोचन को पुरस्कार के योग्य मान लिया लेकिन बन्धुवर चतुर्वेदी जी ने उन्हें इस योग्य नहीं माना कि उन्हें अपनी पुस्तक में स्थान दे सकें। आगे उन्होंने नागार्जुन के बारे में लिखा है कि नागार्जुन बहुचर्चित कवि हैं, खुदा करे आप भी चर्चा किया करें, यह नहीं माना कवि हैं, खुदा करे आप भी चर्चा कि वो अच्छे कवि हैं, बल्कि बहुचर्चित हैं। आगे लिखते हैं कि नागार्जुन ने जो कविताएँ लिखी हैं, वह प्रायः निराला से पहले से मिल रही हैं 'हग मंहगा प्रहा' तथा 'नये पत्ते' वाली कविताएं निराला में भी मिलती हैं। चलिए नागार्जुन बहुचर्चित हुए। अब मैं साँस साध कर देखने लगा कि हे राम, प्रगतिवादियों में अब किसकी बारी है, तो देखता हूँ कि केशव को कवि हृदय नहीं मिला, लेकिन चतुर्वेदी जी को केदार में कवि हृदय नजर आया और वो केदार की जिस कविता का उदाहरण देते हैं, वह है - * भूल सकता में नहीं वह खुले दिन/होंठ से चूमे गए उजले धुले दिन।' यह लिखकर आगे लिखते हैं कि इन शब्दों में कविता का रस बढ़िया अनुपात में सधता है तथा ग्राहस्थ में रोमांस प्रस्तुत करता है। चतुर्वेदी जी को यही एक कविता केदार की पसंद आई, - 'मैंने उसको जब-जब देखा, लोहा देखा/लोहे जैसा तपते देखा,' नहीं पसंद आई। दरअसल लोहे से थोड़ा डर लगता है। मैं देखता हूँ कि चतुर्वेदी जी को केदार पसन्द हैं, राम विलास शर्मा को भी केदार पसन्द हैं और हम लोग खामखा में बाहर खड़े हैं और अंत में नामवर जी ने स्वीकार किया कि आज जबकि त्रिलोचन, शमशेर, केदार, नागार्जुन का जो साहित्य छनकर सामने आया है, उसको देखते हुए इन्हें नए सिरे से स्थापित करने की आवश्यकता है। इस दृष्टि से मेरा 'कविता के नये प्रतिमान' अधूरा है, उसमें संशोधन की आवश्यकता है। नामवर जी के व्याख्यान के बाद लोगों ने उनसे प्रश्न पूछे। प्रश्न पूछनेवालों में जगदीश गुप्त, रामस्वरूप चतुर्वेदी, सत्य प्रकाश मिश्र और देवी प्रसाद मिश्र प्रमुख थे। हिन्दी कविता के इतिहास की दृष्टि से महत्वपूर्ण इस व्याख्यान के अवसर पर रघुवंश, ब्रजेश्वर वर्मा, मार्कण्डेय, नीलकांत, शेखर जोशी, अजय तिवारी सरीखे साहित्यकार उपस्थित थे।


    हिन्दी विभाग में विभिन्न विमर्शो को केन्द्र में रखकर अक्टूबर २००१ में पुनश्चर्या पाठ्यक्रम आयोजित हुआ, जिसका उद्घाटन ८ अक्टूबर को डॉ. नामवर सिंह ने किया और छायावाद विमर्श को केन्द्र में रखकर उल्लेखनीय व्याख्यान दिया1


    नामवर जी ७५ के हुए तो देश भर में प्रभाष जोशी के संयोजकत्व में 'नामवर के निमित्त कार्यक्रम हुए। इलाहाबाद में हिन्दी विभाग और लोकभारती के संयुक्त तत्वावधान में २० । जनवरी २००२ को हिन्दुस्तानी एकेडेमी सभागार में 'नामवर के निमित्त कार्यक्रम आयोजित किया गया, जिसमें नामवर जी को विभाग की ओर से सम्मानित भी किया गयाकार्यक्रम में स्वागत भाषण प्रो. राजेन्द्र कुमार ने तथा संचालन प्रो. सत्य प्रकाश मिश्र ने किया। इस अवसर पर प्रभाष जोशी ने सेहत ठीक न होने के बावजूद अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कराते हुए नामवर के निमित्त कार्यक्रम की परिकल्पना और उद्देश्यों पर अपने विचार साझा किएइस मौके पर अकील रिजवी, अशोक वाजपेयी, लाल बहादुर वर्मा, मार्कण्डेय, दूधनाथ सिंह, अली अहमद फ़ातमी, मुश्ताक अली, बद्री नारायण आदि ने अपने विचार प्रकट किए। इस कार्यक्रम में प्रो. मुश्ताक अली के यह कहने के बाद कि 'नामवर जी पर कार्यक्रम हो और दूधनाथ जी मौजूद हों, तब भी कार्यक्रम में गहरी उदासी छाई रहेगी, इसकी तो मैंने कल्पना भी नहीं की थी- हलचल मच गई और दूधनाथ जी ने अपने वक्तव्य की शुरुआत ही इस घोषणा के साथ की- 'अब मैं भरभंड करूँगा' और दूधनाथ जी ने नामवर जी को देवता की तरह पूजे जाने की कोशिशों की कड़ी आलोचना की। दूधनाथ जी के वक्तव्य का तीखापन लंबे समय तक इलाहाबाद के वातावरण में सरसराता रहा।


    दिसम्बर २००६ में विभाग में हिन्दी आलोचना का लोकतंत्र' विषयक दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया था, जिसका संयोजन प्रो. शैल पांडेय ने कियाथा। इस विषय पर मुख्य अतिथि और मुख्य वक्ता के रूप मेंनामवर जी विभाग में पधारे थे। इसमें अशोक वाजपेयी और अरुण कमल की उपस्थिति भी विशेष महत्व की थी।


    प्रो. सत्य प्रकाश मिश्र ने मार्च २००७ में हिन्दी विभाग और दुनिया को सदा के लिए अचानक अलविदा कर दियाविभाग और साहित्य के लिए उनकी सक्रिय तत्परता को स्मरणीय बनाए रखने तथा उनकी आलोचना-दृष्टि को वृहत्तर समाज तक पहुँचाने के उद्देश्य से विभाग में २००८ से 'प्रो. सत्य प्रकाश मिश्र स्मृति व्याख्यानमाला' की शुरुआत की गई, जिसके अंतर्गत तीसरा व्याख्यान २२ फरवरी २०१० को निराला सभागार में डॉ. नामवर सिंह ने 'अज्ञेय का काव्य-चिन्तन' विषय पर दिया। डॉ. सूर्य नारायण सिंह के संयोजकत्व में संपन्न इस व्याख्यान की शुरुआत करते हुएडॉ. नामवर सिंह ने प्रो. सत्य प्रकाश मिश्र के साथ अपनी आत्मीय स्मृतियों को साझा किया और अज्ञेय की काव्य दृष्टि के साक्ष्य के रूप में अज्ञेय की कविताओं का मर्मोद्घाटक पाठ किया। प्रो. सत्य प्रकाश मिश्र स्मृति व्याख्यानमाला के अंतर्गत व्याख्यान देने की अपने मन की साध को खोलते हुए नामवर जी ने अज्ञेय के साहित्य चिन्तन पर पुस्तक लिखने और उसे प्रो. सत्य प्रकाश मिश्र को समर्पित करने की अपनी इच्छा व्यक्त की। हालांकि नामवर जी के मन की वह साध पूरी न हो पाई।


    प्रो. गोविन्द चंद्र पाण्डेय जब भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला के अध्यक्ष थे, तब संस्थान के सौजन्य से इलाहाबाद में भी प्रायः संगोष्ठियां होती थीं। ऐसी ही तीन दिवसीय एक राष्ट्रीय संगोष्ठी २८-३० मार्च, २००४ को भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, इलाहाबाद संग्रहालय और हिन्दी विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय के संयुक्त तत्वावधान में 'साहित्य और समाज' विषय पर संग्रहालय-सभागार में आयोजित हुई, जिसमें बतौर अतिथि वक्ता डॉ. नामवर सिंह पधारे। उद्घाटन सत्र में बतौर मुख्य वक्ता नामवर जी ने कहा कि 'साहित्य बताता है कि समाज से हमारा क्या रिश्ता है। साहित्य से समाज के रिश्ते पर चर्चा करने से पहले समाज से साहित्यकार के रिश्तों पर विचार कर लेना चाहिए।' उन्होंने कहा कि साहित्य का सीधा संबंध जीते जागते इंसान से हुआ करता है, जबकि समाज एक अमूर्त सी संज्ञा हैउन्होंने साहित्य के समाजशास्त्र को अमूर्त अवधारणा बताते हुए उसे सिरे से खारिज किया और कहा कि समाजशास्त्र में 'सोसाइटी' शब्द बहुत पुराना नहीं है। सही मायने में आज समुदाय की बात की जाती है, समाज की नहीं। साहित्य और समाज पर विचार करते हुए एक कड़ी 'व्यक्ति' छूट जाता है। जबकि व्यक्ति वह प्रिज्म है, जिससे साहित्य समाज का रूप धारण करता है। उन्होंने शमशेर व रघुवीर सहाय की कविताओं के जरिए बताया कि कुछ कविताएँ इतना कह जाती हैं कि साहित्य और समाज पर लिखे कई लेख भी नहीं कह पाते। ऐसी कविताएँ साहित्य और समाज का रिश्ता बताती हैं। उन्होंने बताया कि कैसे कभी-कभी चरम व्यक्तिवादिता परम सामाजिकता बन जाती है और प्रश्न उठाया कि इस तरह का साहस साहित्यकार नहीं करेगा तो कौन करेगाउन्होंने साहित्य से समाज के रिश्ते के साथ समाज से साहित्यकार के रिश्ते को भी रेखांकित किया और कहा कि भाषा के जरिए एक नया इंसान या दुनिया रचना उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना कि व्यावहारिक जीवन में नई दुनिया बसाना। इन्हीं अर्थों में साहित्यकार को प्रजापति भी कहा गया है। २९ मार्च, २००४ को तीसरे सत्र में नामवर जी की ही अध्यक्षता में 'अभिरुचि, दृष्टि और सामाजिक चिंतन' विषय पर संगोष्ठी हुई। तीन दिवसीय संगोष्ठी के विभिन्न सत्रों में प्रो. अमर सिंह, प्रो. राजेन्द्र कुमार, प्रो. कमला प्रसाद, डॉ. प्रेमशंकर त्रिपाठी, प्रो. जयप्रकाश, प्रो. मैनेजर पांडेय, गिरिराज किशोर आदि ने भी विचार व्यक्त किए। 'साहित्य, जनता और चित्तवृत्ति' विषय पर आधारित सत्र की अध्यक्षता प्रो. मैनेजर पांडेय ने की थी। अध्यक्षीय वक्तव्य के प्रारंभ में जब मैनेजर पांडेय ने कहा कि इस देश में कई ऊँची नाक वाले लेखक हैं' - नामवर जी ने तत्काल अपनी नाक पर हाथ रखा, हॉल में ठहाके लगे। फिर प्रो. पांडेय ने कहा कि यह बात मैं नामवर जी को छोड़कर कह रहा हूँ।' फिर ठहाके लगे और सब अपनी-अपनी नाक देखने लगे।


    इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में नामवर जी ने पहला व्याख्यान १९८० में दियाकुछ ही वर्षों के बाद इसी विभाग में हिन्दी साहित्येतिहास लेखन' विषय पर आयोजित सात दिवसीय संगोष्ठी में नामवर जी ने कई महत्वपूर्ण बातें कही थीं। वह संगोष्ठी डॉ. राजकुमार जी को ठीक से याद है और यह भी याद है कि नामवर जी ने अपने व्याख्यान में दो खास बातें कही थीं। एक बात तो उन्होंने यह कही कि इतिहास लिखने की आवश्यकता तब होती है जब कोई अन्तराल दिखाई पड़ता है या कोई कड़ी टूटी हुई लगती है। इस अंतराल की व्याख्या के लिए या टूटी हुई कड़ी को जोड़ने के लिए इतिहास की आवश्यकता पड़ती है। दूसरी बात उन्होंने यह बताई कि किसी समकालीन मुद्दे को भी यदि किसी अतीत के प्रसंग के माध्यम से व्यक्त किया जाए तो उसमें एक आकर्षण पैदा हो जाता है, दूरी आपको आकृष्ट करती है। बात वही है, लेकिन उसी बात को अतीत के प्रसंग से कहें तो उसमें दूसरी के कारण आकर्षण पैदा हो जाता है। जैसे पुराने आभूषण। पुराने होने से उनकी कीमत बढ़ जाती है। इस प्रसंग में उन्होंने बेश्ट के कुछ नाटकों का उल्लेख किया जहाँ लोक-कथाओं के सहारे किसी समकालीन समस्या को उठाया गया है।'


    बालकृष्ण राव, उमा राव ने इलाहाबाद में विवेचनागोष्ठी के जो महत्वपूर्ण आयोजन किए, उसमें नामवर जी की कई रूपों में सहभागिता रही, विवेचना की गोष्ठियों में इलाहाबादियों से उनकी रार और तकरारें भी खूब हुई और संवाद भी खूब हुए।


    विवेचना-गोष्ठी प्रसंग : एक साहित्यिक की डायरी, न कि एक साहित्यिक डायरी


    गजानन माधव मुक्तिबोध की कृति 'एक साहित्यिक की डायरी' पर डॉ. नामवर सिंह ने दिवंगत कवि के अस्थि प्रवाह दिवस, २० सितम्बर १९६४ को एनी बेसेंट मेमोरियल हॉल, इलाहाबाद में बालकृष्ण राव की अध्यक्षता में आयोजित 'विवेचना की गोष्ठी में, समीक्षात्मक निबंध प्रस्तुत किया।


    निबंध-पाठ के पूर्व, दुख व्याप्त सभा में अध्यक्ष बालकृष्ण राव ने कहा कि यह विलक्षण संयोग है कि पहले से आयोजित इस गोष्ठी के दिन ही त्रिवेणी-संगम में स्वर्गीय कवि मुक्तिबोध की अस्थियाँ विसर्जित हुई। वास्तव में मुक्तिबोध की मृत्यु के तुरंत बाद उनके कृतित्व और व्यक्तित्व पर तटस्थ समीक्षा प्रस्तुत करने के लिए यह अवसर बहुत उपयुक्त नहीं प्रतीत होता। अतः उनके विषय में आज जो कुछ विचार-विनिमय हम करेंगे, वह एक प्रकार से उनके प्रति श्रद्धांजलि के रूप में ही होगा। इस अवसर पर संयोग से अतिथि रूप में यशपाल, कुँवर नारायण, हरिशंकर परसाई और स्वर्गीय कवि के चिरंजीव रमेश मुक्तिबोध भी उपस्थित थे।


    तत्पश्चात् अध्यक्ष बालकृष्ण राव के अनुरोध पर डॉ. नामवर सिंह ने निबंध पाठ किया, जिसमें उन्होंने कहा कि 'कुछ लोग दुनिया से बहस करते हैं तो कुछ सिर्फ अपने से, किन्तु कुछ थोड़े से लोग ऐसे भी होते हैं जो दुनिया से बहस करने की प्रक्रिया में अपने आप से भी बहस चालू रखते हैं। मुक्तिबोध ऐसे ही थोड़े-से लोगों में थे और उनकी 'एक साहित्यिक की डायरी' ऐसी ही जीवंत बहस का सर्जनात्मक दस्तावेज है जिसमें भाग लेने का लोभ संवरण करना कठिन है। अपने आप से या किसी दूसरे से चाहे कभी-कभी वह अपना ही एक हिस्सा क्यों न हो-बात करते हुए मुक्तिबोध पाठक को कुछ इस प्रकार उस वार्तालाप का साझीदार बना लेते हैं कि नि:संग रह जाना कठिन हो जाता है। यह अपनापा संक्रामक है : स्वयं से अस्वयं होना है।' नामवर सिंह ने इस बात को भी रेखांकित किया कि इस डायरी की सबसे बड़ी उपलब्धि एक विलक्षण व्यक्तित्व है जो अंततः पूरी डायरी से उभरकर सामने आता है। जिस तरह प्लेटो के डॉयलॉग्स' की सबसे बड़ी उपलब्धि 'सुकरात' जैसा व्यक्तित्व है, उसी तरह एक दूसरे स्तर पर मुक्तिबोध की डायरी की सबसे बड़ी उपलब्धि एक कवि-व्यक्तित्व है जिसके साथ आगे चलकर अनेक प्रकार की किंवदंतियों के जुड़ जाने की सारी संभावनाएँ मौजूद हैंअनिवार्यतः यह व्यक्तित्व स्वयं मुक्तिबोध का ही हो, कोई आवश्यक नहीं, किन्तु है यह निश्चय ही इस आत्मसजग युग का सबसे आत्मसजग व्यक्तित्व। एक गहरे अर्थ में राजनीतिक, जिसके बिना आज के युग में कोई भी लेखक सार्थक साहित्यकार नहीं हो सकता।'


    डॉ. नामवर सिंह ने अंतत: कहा कि यह एक साहित्यिक डायरी नहीं, एक साहित्यिक की डायरी है और इसमें केवल साहित्य को रखना अन्याय होगा। डॉ. सिंह ने इस पुस्तक के प्रकाशन के बारे में एक आपत्ति उठाते हुए कहा कि इसका संपादन गलत ढंग से हुआ हैइसमें रचनाओं का क्रम ठीक से नहीं रखा गया है। डायरी में तिथिक्रम का भी उल्लेख होना चाहिए, अन्यथा मूल्यांकन में अंतर पड़ सकता है।


    डॉ. नामवर सिंह के निबंध-पाठ के बाद वातावरण के अनुकूल विचार-विमर्श हुआ, जिसमें क्रम से गंगा प्रसाद पांडेय, विश्वम्भर 'मानव' शमशेर बहादुर सिंह, नरेश मेहता और बालकृष्ण राव ने भाग लिया।


    इस गोष्ठी में डॉ. नामवर सिंह से मतभेद प्रकट करते हुए गंगा प्रसाद पांडेय ने कहा कि इस कृति को आद्योपांत पढ़ने के बाद यह आभासित नहीं हुआ कि इस डायरी में 'वर्ग चेतना' का उभार है।'


    इसका जवाब देते हुए नामवर सिंह ने कहा कि यह पुस्तक एक साहित्यिक की डायरी है, न कि एक साहित्यिक डायरी। इसमें केवल साहित्य को रखना अन्याय होगा। आधुनिक साहित्य के बारे में मुक्तिबोध जी ने जोर देकर कहा है कि दो वर्ग हैं जो साहित्य रचना कर रहे हैं। 'ढेबरी में सूरज' वाली बात उन्होंने जोर देकर कही है।


    उपर्युक्त संगोष्ठी में निबंध पढ़ने के लिए नामवर जी इतने उत्सुक थे कि उन्होंने २ जुलाई १९६४ को कलकत्ते से पत्र लिखकर काशीनाथ जी से पूछा कि 'इलाहाबाद (माध्यम)से श्रीमती उमाराव का कोई पत्र आया होगा-विवेचना-गोष्ठी में मुक्तिबोध पर निबंध पढ़ने के सिलसिले में कौन सी तिथिउन्होंने निश्चित की है? जल्दी की तिथि हो तो खबर देना।


      विवेचना गौष्ठी प्रसंग : गिरिजा कुमार माथुर भाषा के धरातल पर असफल कवि


      २५ अक्टूबर, १९६६ को एनी बेसेंट हॉल में साढे पाँच बजे सायं 'विवेचना' की गोष्ठी हुई, जिसमें गिरिजाकुमार माथुर के कविता संग्रह 'शिला पंख चमकीले' पर बालकृष्ण राव ने समीक्षा प्रस्तुत की। इसमें जगदीश गुप्त, दूधनाथ सिंह, बच्चन सिंह, रघुवंश, विजयदेव नारायण साही, रामविलास शर्मा और लक्ष्मीकांत वर्मा उपस्थित थे। इसकी अध्यक्षता नामवर सिंह ने की थी। इस गोष्ठी में बालकृष्ण राव द्वारा प्रस्तुत की गई समीक्षा पर जगदीश गुप्त, दूधनाथ सिंह, बच्चन सिंह, रघुवंश, रामविलास शर्मा और लक्ष्मीकांत वर्मा ने तो अपने-अपने मत प्रकट किए परंतु विजयदेव नारायण साही ने कोई भी टिप्पणी करने से यह कहते हुए इनकार कर दिया कि मैंने सुना है कि मेरा कविता-संग्रह गिरिजा कुमार माथुर को समीक्षार्थ दिया गया है, अतः मेरे सामने कठिनाई उपस्थित है। मैं माथुर के इस संग्रह पर कुछ नहीं बोलूंगा।' हालांकि आगे चलकर १४ जून, १९६८ की 'विवेचना' की गोष्ठी में गिरिजा कुमार माथुर ने नहीं बल्कि नागेश्वर लाल ने विजय देव नारायण साही के काव्य संग्रह 'मछलीघर' की विवेचना प्रस्तुत की थी, जिसकी अध्यक्षता डॉ. हरदेव बाहरी ने की थी।


    गिरिजा कुमार माथुर के काव्य संग्रह की बालकृष्ण राव द्वारा की गई विवेचना और अन्य लोगों की टिप्पणियों, मत-मतांतरों को सुनने-गुनने के बाद अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए नामवर सिंह ने माथुर को भाषा के धरातल पर एक असफल कवि करार देते हुए कहा कि हालांकि बालकृष्ण राव ने माथुर के काव्य संग्रह पर जो निबंध पढ़ा, वह प्रशंसनीय है फिर भी 'इधर १०-११ वर्षों में नए कवियों ने जो रचनाएं की हैं उन्हें देखते हुए माथुर की कविताओं में रुचि की कोई गुंजाइश नहीं रह जातीमाथुर विचारों के धरातल पर आशावादी, बहिर्मुखी, सामाजिक चेतना और वैज्ञानिक प्रगति के प्रति जागरूक हैं और आधुनिक सभ्यता के उपकरणों को काव्यात्मक रूप देते हैं।.... परंतु माथुर मुझे मूलतः ऐंद्रिय बोध के धरातल पर रहने वाले कवि लगे। अनुभूतियों का उनमें अभाव है। उन्होंने बिंब, चित्रों की सजावट की, जैसे अलंकारवादी कवि किया करते थे, परंतु ये कुल मिलाकर किसी भाव से आपका स्पर्श करा सकते हों, ऐसा बहुत कम होता है। माथुर की लंबी कविताएँ वर्णनात्मक हैं। उनमें भी चित्रों से कोई विचार व्यक्त नहीं होते। आधुनिक विज्ञान के प्रति जो कुतूहल या जिज्ञासा है, उसका वायवी रूप तो उन्होंने खड़ा किया परंतु कुल मिलाकर लगा कि वह स्पर्श नहीं कर पाती। आज की कविता पर सबसे कम प्रभाव माथुर का है।


    भाषा के धरातल पर वे अत्यंत असफल हैं। शब्द शिल्प के रूप में अज्ञेय की देन उनसे कहीं अधिक है। 'तार सप्तक' की कविताओं के बाद माथुर का विकास हुआ ही नहीं। उनका व्यक्तित्व अनेक शाखाओं में बँटता हुआ दिखाई देता है। अकविता में उनकी परिणति देखकर दुख होता है। २० वर्ष के५ कवियों में भी उनका नाम नहीं लिया जाएगा।'


    विवेचना गोष्ठी प्रसंग : पुराने आलोचक से एक नए आलोचक के बोध का औसत स्तर ऊँचा है


    'विवेचना' का एक वर्ष पूरा हुआ और इस उपलक्ष्य में शनिवार १० अप्रैल १९६५ को सायंकाल ६ बजे एनी बेसेंट हॉल में एक विशेष गोष्ठी का आयोजन हुआ। आयोजन को वार्षिकोत्सव का रूप दिया गया। इस विशेष गोष्ठी की अध्यक्षता की डॉक्टर देवराज ने और डॉक्टर रामदरश मिश्र ने निर्धारित विषय 'हिन्दी आलोचना की वर्तमान स्थिति' पर निबंध प्रस्तुत किया। डॉक्टर रामदरश मिश्र के निबंध पाठ के बाद जो विचार-विमर्श आरंभ हुआ, उसमें गंगा प्रसाद पांडेय, विश्वभर मानव, सावित्री सिन्हा, अमृत राय, रामस्वरूप चतुर्वेदी, बालकृण राव, सुमित्रानंदन पंत और नामवर सिंह ने हिस्सा लिया।


     डॉक्टर नामवर सिंह ने कहा कि 'आलोचक उस समय अपने को संकट में पाता है जब वह सीधे 'आलोचना' पर बात करता है। मैं भी अपने को उसी स्थिति में पा रहा हूँहिन्दी-आलोचना की वर्तमान स्थिति के संबंध में हमें अब स्पष्ट हो ही जाना चाहिए कि वर्तमान आलोचना बहुत आगे बढ़ी है। जो लोग साहित्य के दायरे के प्रायः बाहर हैं, उन्हें ही आलोचना की वर्तमान स्थिति दयनीय दिखाई पड़ती है।


    किंतु जो इस क्षेत्र से संबद्ध है उन्हें मालूम होगा कि पुराने आलोचक से एक नए आलोचक के बोध का औसत स्तर ऊँचा है। पुरानी आलोचना 'भाव-पक्ष' और 'कला पक्ष' में बँटी हुई थी। बीच में राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियों का भी यांत्रिक विधि से आलोचना मेंसमावेश किया जाने लगा था। किन्तु आज के आलोचक ने भाषा और उसके अर्थ को इतना गहरा और संवेदनशील बना दिया है कि आलोचना का एक समग्र रूप विकसित हो गयाहै, और उसी के द्वारा कृति के भाव-पक्ष, कला-पक्ष आदि को टुकड़ों में न बाँटते हुए संपूर्ण रचना को उसके ऐतिहासिक संदर्भ के साथ रख देता है।


    'यह द्रष्टव्य है कि पहले हिन्दी आलोचना केवल काव्य समीक्षा तक सीमित रही। उस समय के आलोचक मूलतः काव्य समीक्षक थे। आज कविता के अलावा नाटक और कहानी की नए ढंग से आलोचना शुरू हुई है। इस प्रकार अब संपूर्ण साहित्य की समीक्षा का बोध हुआ है। पहले की समीक्षा एकांगी थी, आज उसका सांगोपांग विकास हुआ है।


    'एक ओर हमारी दृष्टि जहाँ हिन्दी आलोचना के विकास पर जाती है, वहीं हमें उसकी खामियों पर भी विचार करना चाहिए। बहुत दिनों से 'प्रतिमान' की तलाश होती रही है। वस्तुतः 'प्रतिमान' महत्वपूर्ण नहीं होता, 'पद्धति' महत्वपूर्ण होती है। आज इसे ही विकसित होना है। आवश्यकता है 'आलोचना' के अर्थ को निर्धारित करने की। इसके साथ ही, “आलोचना' की भाषा पर विचार होना चाहिए। आचार्य पंडित रामचंद्र शुक्ल ने आलोचना में भावप्रवण शब्दों के द्वारा एक भव्यता निर्मित की थी जो आज की बौद्धिकता में निरर्थक प्रतीत होती है। मूल रचना से उस भव्यता का अब कोई संबंध नहीं रह गया है। अतः आज निश्चित अर्थ देने वाले शब्दों की आवश्यकता है। वर्तमान आलोचना में भी ऐसे शब्द प्रचलित हो गए हैं जो मात्र वाग्जाल प्रतीत होते हैं। इन्हें समाप्त कर देना चाहिए।


    नामवर जी के उपर्युक्त मंतव्य से मतभेद प्रकट करते हुए विश्वभर मानव ने कहा कि समय-समय पर सिद्धांत नहीं बदला करते। कविता की वही व्याख्या, व्याख्या मानी जाएगी, जो वाल्मीकि से लेकर मलयज तक की कविता की व्याख्या कर सके। क्योंकि मूल चेतना तो एक ही है। यह नहीं हो सकता कि पुरानी कृतियों के लिए आलोचना के मानदण्ड पुराने हों और नए के लिए दूसरे। मानव जी ने यह भी कहा कि 'प्रामाणिक पाठ', 'पुस्तक समीक्षा', 'भूमिका' या वक्तव्य' का संबंध आलोचना से नहीं माना जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त, आवेशपूर्ण शैली में लिखी गई आलोचना को भी आलोचना नहीं माना जा सकता। आज हम 'नव लेखन' और नए प्रकार की आलोचना की बात करते हैं, किन्तु खेद की बात है कि पूरे चौंसठ वर्षों में आचार्य शुक्ल के 'हिन्दी साहित्य का इतिहास' को छोड़कर कोई ऐसा प्रामाणिक ग्रंथ नहीं आ सका जो सर्वांगपूर्ण हो।


    डॉक्टर सावित्री सिन्हा ने भी नामवर जी के वक्तव्य से असहमति जताई और कहा कि डॉक्टर नामवर सिंह ने पुरानी आलोचना को नहीं माना है। वस्तुतः पुरानी आलोचना ने ही विकसित होकर नए को जन्म दिया है। दो मताग्रहों के बीच आज की आलोचना फँस गई है। हर युग में साहित्य के कुछ ऐसे तत्व होते हैं जो उस समय के समाज से ग्रहण किए जाते हैं। आज के संदर्भ में 'रस' की शास्त्रीय मान्यता आवश्यक नहीं है, लेकिन आज नए और पुराने का समीकरण अवश्य होना चाहिए। यह समीकरण आज नहीं हो रहा है।'


    नामवर जी के वक्तव्य पर अमृत राय ने कहा कि 'नामवर जी ने नई आलोचना के संबंध में ढेर सा प्रमाण पत्र दिया है। लेकिन नया आलोचक स्वयं इस बुरी तरह से अपने ही वाग्जाल में फंस गया है कि वह क्या कह रहा है, उसे स्वयं नहीं मालूम रहता। ऐसा लगता है कि आज के आलोचक की सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन-दृष्टि साफ नहीं है, धूमिल हो गई है। वह आगे देखने में असमर्थ है। समीक्षक पाठक को एक दिशा देता है। इसके लिए समीक्षक की दृष्टि साफ होनी चाहिए। दुर्भाग्य की बात है कि आज हम जिस सामाजिक जीवन में हैं, वह विच्छिन्न हो चका है।


    बालकृष्ण राव ने नामवर जी की बात का समर्थन किया और कहा कि 'शब्द का कथ्य से संपृक्त होना या ऐसे नए शब्दों का प्रयोग, जैसे परिप्रेक्ष्य', आयाम आदि यह सिद्ध करता है कि आज की आलोचना प्रबुद्ध और महत्वाकांक्षणी है, क्योंकि इन नए शब्दों का प्रयोग इसका प्रमाण है।.... वहपूर्ववर्ती आलोचना से कई कदम आगे बढ़ गई है।


    डॉक्टर देवराज ने अध्यक्षीय भाषण देत हुए नामवर जी के वक्तव्य पर भी टिप्पणी की और कहा कि 'डॉक्टर नामवर सिंह ने आधुनिक आलोचना की ठीक ही प्रशंसा की है।'


    रामदरश मिश्र ने अतिरिक्त वक्तव्य दिया और कहा कि 'नामवर जी का यह कथन बड़ा सटीक है कि आज की आलोचना सिर्फ काव्य तक सीमित न रहकर कथा साहित्य की परीक्षा भी कर रही है।'


    ग़ालिब अफ़साना


      संपादन में दखल नहीं देने की कार्यनीति अपनाएरखकर भी नामवर जी 'परिकथा' पत्रिका के सलाहकार संपादक बने रहे। हालांकि कभी-कभार उनकी राय संपादक शंकर द्वारा अवश्य ली जाती थी। एक प्रसंग इलाहाबाद में रह रहे उर्दू के वरिष्ठ आलोचक शर्खरहमान फ़ारूखी साहब की कहानी के प्रकाशन का है। 'परिकथा' के संपादक शंकर लिखते हैं कि 'युवा आलोचक कृष्णमोहन जो उस समय इलाहाबाद विश्वविद्यालय में थे, नामवर जी को 'परिकथा' के लिए शर्मुरहमान फारूखी साहब की कहानी 'ग़ालिब अफ़साना' दे गए थे। नामवर जी ने मुझे कहानी दी थी तो मैंने विनम्रता के साथ कहा था, 'नवलेखन अंक की संपादकीय टिप्पणी में मैं उर्दू के जदीदियत मूवमेंट पर अपनी प्रतिकूल राय दर्ज कर चुका हूँ। शम्सुर्रहमान फ़ारूकी साहब ने जदीदियत मूवमेंट को तरक्की पसंद अफसाने की काट में खड़ा किया था। ऐसी स्थिति में फ़ारूकी साहब की कहानी को छापना क्या उचित होगा? नामवर जी ने राय दी थी, 'कहानी को पढ़कर देखो। यदि छापने लायक लगे तो फ़ारूकी साहब पर प्रतिकूल टिप्पणी देकर छापो। दरअसल प्रगतिशील चिंतन में जड़ता की गुंजाइश नहीं होती है। यदि कोई बदलाव दिखे तो उसका स्वागत होना चाहिए।' शर्खरहमान फ़ारूकी साहब की कहानी छापने लायक लगी थी और वह 'परिकथा' के सितम्बर-अक्टूबर २००९ अंक में इस टिप्पणी के साथ छपी थी : 'आश्चर्यजनक रूप से यह कहानी अपने मिजाज और तेवर में जदीदियत दौर के अफ़सानों से बिल्कुल अलग है। इस कहानी में सन् १८५७ के समय और उर्दू शायरी की समझ के कुछ पैमानों की भी झलक मौजूद है। इस कहानी में काव्य भाषा को लेकर भी कुछ प्रश्न उठे हैं।' 


कथाकारों का नाम लिया. पर उन पर लिखा नहीं


    नामवर जी ने भले ही फ़ारूकी साहब की एक कहानी 'गालिब अफ़साना' को टिप्पणी के साथ छापने की सलाह 'परिकथा' के संपादक को दी हो, परंतु सच्चाई यह है कि इलाहाबाद के कथाकारों पर उन्होंने कभी मन से बातें नहीं की। इलाहाबाद के कथाकारों का नाम वह कभी-कभार लेते रहे, पर उन पर उस तरह से नहीं लिखा, जिस तरह से औरों पर वे लिखते रहे। कथालोचना की आधारभूमि तैयार करने के लिए उन्होंने निर्मल वर्मा, द्विजेन्द्रनाथ मिश्र 'निर्गुण' आदि की कहानियों पर खुलकर बातें की, विवेचन-विश्लेषण किया। लेकिन उसी दौर में इलाहाबाद में सक्रिय महत्वपूर्ण कथाकारों, मसलन अमरकांत, भैरव प्रसाद गुप्त, मार्कण्डेय, शेखर जोशी, शैलेश मटियानी आदि को नजरअंदाज कर दिया। यहाँ तक कि पारिवारिक रिश्तों में समधी लगनेवाले दूधनाथ सिंह की कहानियों की भी कुछ खास नोटिस उन्होंने नहीं ली और न ही दिल खोलकर मिलने वाले नीलकांत जी की कहानियों पर कुछ खास लिखा। इलाहाबाद के जो कथाकार जिए-भोगे यथार्थ के अलावा वस्तुगत यथार्थ को कहानी में ला रहे थे, उनको लेकर नामवर जी के मन में क्या चल रहा था, यह तो नामवर जी ने कहीं ढंग से प्रकट नहीं किया, पर इलाहाबाद के मन में नामवर जी को लेकर प्रश्न थे, हैं और वाजिब हैं।


    महाबली का पतन


    इलाहाबाद के अध्यापक-आलोचक सत्य प्रकाश मिश्र ने नामवर जी की स्थापनाओं से असहमति व्यक्त करते हुए 'महाबली का पतन' शीर्षक से लंबा आलोचनात्मक लेख सन् ७२ के आस-पास 'नई कहानी' (सं. सतीश जमाली) के दूसरे अंक में लिखा था। यह आलेख सत्य प्रकाश जी की पुस्तक 'आलोचक और समीक्षाएँ' में संकलित है और यही आलेख 'कृति विकृति संस्कृति' नामक पुस्तक में 'नामवर सिंह' शीर्षक से प्रकाशित है। यह दिलचस्प बात है कि सत्य प्रकाश मिश्र जी के निधन के बाद प्रकाशित कृति विकृति संस्कृति' नामक पुस्तक (सं. डॉ. विनोद तिवारी) का लोकार्पण ५ सितम्बर २०१० को हिन्दी साहित्य सम्मेलन सभागार में नामवर जी के कर कमलों से ही संपन्न हुआ। नामवर जी असहमति का कितना सम्मान करते थे, यह यहाँ जाहिर है। लोकार्पण समारोह में डॉ. विनोद तिवारी ने कहा कि 'यह जानते हुए भी कि इस पुस्तक में सत्य प्रकाश जी का उनके (नामवर जी के) विरूद्ध लिखा गया आलेख  भी संकलित है, नामवर जी ने इसके लोकार्पण के लिएकृपापूर्वक अपनी सहमति दी। नामवर जी की यह महानता है।' सत्यप्रकाश मिश्र ने आलेख में लिखा है कि डॉ. नामवर सिंह हिन्दी आलोचना में उस दूसरी परम्परा के रचनाकार हैं। जिसका उत्खनन उन्होंने खुद किया है। चल रहे या चलाए जा रहे प्रतिमानों के समान्तर प्रतिमानों और स्थापनाओं के द्वारा उन्होंने हिन्दी आलोचना में एकस्वरता या रीतिवाद को तोड़ने का प्रयत्न किया है। लेकिन बकौल सत्य प्रकाश मिश्र 'नामवर की सैद्धांतिक आलोचना और प्रायोगिक आलोचना में विरोध है। माक्र्सवादी सिद्धांत और निराला की तुलना में पंत तथा प्रसाद और प्रगतिशील कहानीकारों की तुलना में निर्मल वर्मा के कहानी संग्रह 'परिन्दे'। इसका प्रमाण हैं। सत्यप्रकाश जी ने आगे लिखा कि 'वस्तुतः नामवर की संवेदना के मूल में नई कविता का संस्कार इतना प्रबल था कि द्वन्द्वात्मकता के प्रभाव के बाद भी वे उसी से जुड़े रहे। ..... नामवर ने अन्य रचनाकारों की भाँति नई कहानी के संदर्भ में उठाए गए स्वस्थ दृष्टिकोण की चर्चा को मजाक में उड़ा दिया क्योंकि उन्होंने स्वयं ही कामू, काफ्का, एलेन-पो और सात्र आदि का उल्लेख किया है। निर्मल वर्मा के 'परिन्दे संग्रह की गद्गद् भाव से प्रशंसा और कामू तथा काफ्का की कहानियों की भाषिक विशिष्टता का ललक के साथ वर्णन किसी भी प्रकार से मेल नहीं खाता है।' सत्य प्रकाश मिश्र ने आरोप लगाया कि मानवीकृत वास्तविकता को तिलांजलि देकर नामवर मार्कण्डेय, शेखर और अमरकांत की कहानियों में दूसरे स्तर पर प्राप्त उस अन्विति की प्रशंसा नहीं करते हैं जिसे हेगेल ने वस्तुतत्व में बदलता हुआ रूप और रूप में बदलता हुआ वस्तु तत्व कहा है। विशिष्ट चरित्रों के माध्यम से उद्घाटित होती हुई 'इहपक्षता' नामवर के लिए उतनी मूल्यवान नहीं जितनी निर्मल की 'आत्मपक्षता'।


    हालांकि इतनी काट-पीट के बावजूद सत्य प्रकाश मिश्र ने आलेख के समापन पर नामवर को हिन्दी का महाबली स्वीकार किया- 'नामवर और साही दोनों ऐसे आलोचक हैंजिनकी आलोचना में मूल्यांकन और व्याख्या के माध्यम से प्राप्त रचना सुख के अतिरिक्त चिन्तनशीलता का एक ऐसा सुख भी मिलता है जिसमें राजनीति, संस्कृति, इतिहास आदि की संकेतात्मकता होती है। इसीलिए वे महाबली हैं।' इस लेख के प्रथम प्रकाशन पर साहित्य जगत में भले तूफान खड़ा हुआ हो पर नामवर जी ने इसे अत्यंत संयम से स्वीकार किया। इस स्वीकार का ही परिणाम था कि सत्य प्रकाश जी नामवर जी को बार-बार इलाहाबाद बुलाते रहे और वह बारबार आते रहे। कभी राष्ट्रीय संग्रहालय में, कभी हिन्दी विभाग में, कभी हिन्दी साहित्य सम्मेलन में।


  बीच बहस में कबीर


    कबीर भारतीय समाज और साहित्य दोनों के बीच बहस और विमर्श के केन्द्र रहे हैं। गाँव और शहर, सुपढ़ और अनपढ़ सबके बीच कबीर की उपस्थिति की व्यापकता है। कबीर को लेकर आचार्य रामचंद्र शुक्ल और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की दृष्टि और कोण में फर्क से सभी परिचित हैं। कबीर को लेकर इलाहाबाद के रामस्वरूप चतुर्वेदी और दिल्ली के नामवर सिंह के बीच भी जबर्दस्त बहस चली, जो कि काफी तल्ख, गर्म और नुकीली मानी जाती है। 'जनसत्ता' के रविवारी पृष्ठ पर १७ अक्टूबर १९९९ को रामस्वरूप चतुर्वेदी का एक लेख 'विरासत' स्तंभ के अंतर्गत 'यहाँ से कबीर को देखिए' शीर्षक से प्रकाशित हुआप्रो. चतुर्वेदी ने लिखा कि 'कबीर भाषा के समूचे वैविध्य विस्तार का उपयोग करते हैं। सामान्य भाषा के सप्तरंग में एक ओर गाली है- भाषा का सबसे स्थूल रूप। तो दूसरी ओर कविता है-सबसे सूक्ष्म रूप। गाली के सीमांत पर भाषा खत्म हो जाती है, मारपीट शुरू हो जाती है। कविता के सीमांत पर भी भाषा चुक जाती है और फिर मंत्र का क्षेत्र आ जाता है। यों गाली और कविता के बीच भाषा के अनेक रंग हैं जिन्हें 'कासी का जोलहा' भली भांति पहचानता है 'ब्राह्मजन' जाने न जाने। और फिर कबीर का रचनात्मक आत्मविश्वास वहाँ देखने को मिलता हैं। जहाँ वे भाषा-सतरंग के दोनों सिरों-गाली और कविता को एक-दूसरे से मिला देते हैं'सुनति कराह तुरूक जौ होना तौ औरति कों का कहिए/अरध सरीरी नारि न छूटे तातै हिंदू रहिए।' भाषा के सांकेतिक प्रयोग में 'अरध सरीरी' जरूरी आता है। अर्द्धनारीश्वर की विराट परिकल्पना के लिए जहाँ भी कवि नारी के महत्व को रेखांकित करते हुए कहता है कि 'तुरूक' होने के लिए औरत को तो छोड़ा नहीं जा सकता, अत: हिंदू बने रहना ही श्रेयस्कर है- 'तातें हिंदू रहिए' इस स्थापना के बाद चतुर्वेदी जी ने अपने लेख का समापन करते हुए लिखा कि 'तातें हिंदू रहिए', इस पर कबीर का बल है, जहाँ निष्ठा के साथ आत्मालोचन की बराबर प्रखर संभावना है, भाषा में कविता और गाली का सहअस्तित्व है और कबीर का होना सिर्फ इसी परंपरा में संभव है।' चतुर्वेदी जी ने यह भी जोड़ा कि 'भाषा-साहित्य का किसी धर्म विशेष से अनिवार्य संबंध नहीं होता, संस्कृति से होता है, जिसे धर्म का सत कह सकते हैं। महत्वपूर्ण यह है कि धार्मिक रूढ़ियों का कबीर ने सर्वत्र जम कर खंडन किया, वहीं सूक्ष्म धर्म-चेतना उनमें बराबर अंतर्याप्त रही, प्रह्लाद, सुदामा, अजामिल, गज, गणिका जैसे लोक प्रचलित पौराणिक संदर्भो सहित। फिर इनसे ऊपर उठकर , कवि के लिए अपने प्रति ईमानदारी सबसे बड़ा मूल्य है और निष्ठा परिवर्तन सबसे बड़ा पाप।'


      स्वाभाविक है इस पर प्रतिक्रिया होनी थी, सो हुई और सबसे तीखी प्रतिक्रिया नामवर सिंह ने की। प्रसिद्ध साहित्यिक विचार पत्रिका 'आलोचना' का अप्रैल-जून २००० अंक फासीवाद विमर्श पर केन्द्रित था, जिसमें अंतिम खंड कबीर विषयक लेखों के लिए था। इस खंड का अंतिम लेख प्रधान संपादक नामवर सिंह का है। जनसत्ता में कबीर के एक पद के डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी द्वारा किए गए उपयुक्त पाठ और कबीर को हिन्दू सिद्ध किए जाने की कोशिश का नामवर सिंह ने 'कबीर को भगवा' शीर्षक लेख लिखकर तीखा खंडन किया। नामवर जी ने लिखा कि 'जिस यात्रा का प्रस्थान बिंदु साहित्य की स्वायत्ततता है उसकी आखिरी मंजिल यही भगवा है, भले ही इसके पथिक इसे स्वीकार न करें।' नामवर जी ने कबीर के पद को पूरा उद्धृत करते हुए आग्रह किया कि कबीर को वहाँ से नहीं, यहाँ से देखिए।'


    नामवर जी के लेख के आलोचना में प्रकाशित होते ही हलचल तेज हो गई और रामस्वरूप जी ने ३० जुलाई सन् २००० ई. के जनसत्ता (रविवारी) में पढ़त-पढ़त केते दिन बीते' शीर्षक से लेख लिखकर अपने पूर्व मत को पुनः पुष्ट करते हुए नामवर जी को पश्चिमी काट का सैकुलर सिद्ध किया। रामस्वरूप जी ने नामवर जी पर हमला बोलते हुए लिखा कि 'मजे की बात यह है कि कबीर की दुहाई वे पश्चिमी काट के सैकुलर दे रहे हैं जो उपनिवेशवादियों की परम्परा में हिन्दू-मुसलमानों को लगातार अलग-थलग किएरहते हैं और जिनकी रुचि न हिंदुत्व में है और न इस्लाम में, रुचि है सिर्फ पश्चिमीकरण में, वह चाहे मास्को से परिचालित हो चाहे वाशिंगटन से।'


    रामस्वरूप चतुर्वेदी के उपर्युक्त लेख के बाद नामवर जी ने 'जनसत्ता' में 'कबीर को अगवा' शीर्षक से पुनः लिखकर चतुर्वेदी जी के मत का खंडन किया। लेकिन रोचक बात यह कि इन वैचारिक मतभेदों के बावजूद नामवर जी और रामस्वरूप जी के व्यक्तिगत संबंध सदैव अच्छे रहे।


    नयी कविता' पत्रिका में नामवर सिंह की कविताएँ


    इलाहाबाद से सन् १९५४ में नयी कविता' पत्रिका निकली, जिसका संपादन जगदीश गुप्त, रामस्वरूप चतुर्वेदी और विजय देव नारायण साही ने किया था। इसके कुल आठ अंक निकले थे। इसके पहले अंक (१९५४) में नामवर सिंह की दो कविताएँ - 'हरित फौव्वारों सरीखे धान' और 'फागुनी शाम' प्रकाशित हुई थी।


      १. हरित फौव्वारों सरीखे धान


        हाशिए सी विन्ध्य मालाएँ


        नम्र कंधों पर झुकीं तुम प्राण,


        सप्तपर्णी केश फैलाए


        जोत का जल पोंछती सी छाँह


        धूप में रह-रह उभर आए


        स्वप्न के चिथड़े नयन-तल आह


        इस तरह क्या पोंछते जाए?


      २. फागुनी शाम


      अंगूरी उजास


      बतास में जंगली गंध का डूबना।


      ऐठती पीर में


      दूर, बराह से


      जंगलों के सुनसान का कैंथना।


      बेघर बेपहचान


      दो राहियों का


      नतशीश न देखना-पूछना।


      शाल की पंक्तियों वाली


      निचाट सी राह में


      घूमना घूमना घूमना।


नामवर विचार कोश


      नामवर सिंह ने हिन्दी को बहुत दिया है, जितना लिखित, उतना या उससे ज्यादा वाचिक। इलाहाबाद के महेन्द्र राजा जैन ने नौ सौ पृष्ठों का नामवर विचार कोश' तैयार किया है, जो प्रकाशित हो चुका है। महेन्द्र राजा जैन ने नामवर सिंह की प्रत्येक पुस्तक की एकएक पंक्ति पढ़कर विविध विषयों पर उनके विचारों का संकलन कर उन्हें विषयानुसार अकारादि क्रम में इस प्रकार सजाया है कि कोई भी व्यक्ति 'नामवर विचार कोश देखकर किसी भी विषय पर उनके विचार मिनटों में जान सकता है।


कॉफी हाउस का मोह


      नामवर जी जब भी इलाहाबाद आते तो कॉफी हाउस जरूर जाते, सच पूछा जाए तो कॉफी हाउस के प्रति उनका मोह, लगाव जगजाहिर था। वे कॉफी हाउस में कॉफी की चुस्कियों के साथ घंटों साहित्यिक चर्चाओं में लीन होते थे। उनके साथ होते थे शहर के साहित्यकार, पत्रकार व करीबी साथी, कभी-कभी लोक भारती के दिनेश ग्रोवर और रमेश ग्रोवर भी। कॉफी हाउस उनका पसंदीदा स्थान था, ठीक वैसे ही जैसे बनारस के दिनों में अस्सी के पप्प की चाय की दुकान। नरम-गरम बहसें नामवर जी ने यहाँ भी की, वहाँ तो करते ही रहे थे। असल में इलाहाबाद की बहसों, सुझावों ने ही तो उनको कहानी-आलोचक के तौर पर विकसने में मदद पहुँचाई।


और ऐसे भी आए


    १३ जुलाई १९५९ को नामवर जी ने लोलार्क कुंड से काशीनाथ सिंह को पत्र लिखकर सूचित किया कि 'कल दोपहर को इलाहाबाद होते हुए सागर से लौटा। कल यानि १२ जुलाई १९५९ को इलाहाबाद में उन्होंने क्या किया, किनसे भेंट-मलाकातें कीं, पत्र में जिक्र नहीं किया।


    वर्ष २००९ में महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विवावधात और हिन्दुस्तानी एकेडेमी के न्योते पर 'हिन्दी चिट्ठाकारी कीदुनिया' पर सेमिनार में आए। पहले दिन एकेडेमी में उद्घाटन किया और दूसरे दिन हिन्दी विश्वविद्यालय के क्षेत्रीय केन्द्र में व्याख्यान दिया 1


     मार्च २०११ में मीरा फाउंडेशन की ओर से उत्तर  मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र में आयोजित मीरा स्मृति सम्मान समारोह की अध्यक्षता नामवर जी ने की।


      सन् २०१२ में महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय और हिन्दुस्तानी एकेडेमी के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित सआदत हसन मंटो जन्मशताब्दी समारोह में नामवर जी बतौर मुख्य अतिथि हिन्दुस्तानी एकेडेमी सभागार में उपस्थित हुए।


      १३ मार्च २०१२ को नामवर जी कथाकार अमरकांत को ज्ञानपीठ पुरस्कार देने इलाहाबाद आए। सम्मान समारोह इलाहाबाद संग्रहालय में आयोजित किया गया था। उल्लेखनीय है कि वर्ष २००९ का प्रतिष्ठित ज्ञानपीठ सम्मान अमरकांत और श्रीलाल शुक्ल को संयुक्त रूप से दिया गया था। वैसे तो अमरकांत शहर के पाँचवें साहित्यकार थे, जिन्हें यह सम्मान मिला था, लेकिन ज्ञानपीठ पुरस्कार के इतिहास में यह पहला मौका था जब किसी लेखक को सम्मानित करने के लिए न्यायपीठ न्यास उनके शहर पहुँचा हो। नामवर जी के साथ रवीन्द्र कालिया और न्यायमूर्ति प्रेम शंकर गुप्त जी इस समारोह में उपस्थित थे। नामवर जी सन् ९५, ९६, ९८ और अन्य वर्षों में भी इलाहाबाद किसी न किसी कार्यक्रम में आए।


      सन७ अक्टूबर १९९९ को इलाहाबाद संग्रहालय में साहित्य अकादमी की ओर से सुमित्रानंदन पंत जन्मशतवार्षिकी समारोह के तहत राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित की गई थी, उस समारोह में नामवर जी ने महत्वपूर्ण व्याख्यान दिया था। उस समारोह में तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री गोविन्द चंद्र पाण्डेय भी उपस्थित डॉ. मुरली मनोहर जोशी और प्रो. थे1


    सन् २०१२ में नामवर जी साधना सदन में संपन्न हुए रामविलास शर्मा शताब्दी समारोह में शरीक हुए थे।


      सत्य प्रकाश मिश्र स्मृति न्यास की ओर से सत्य प्रकाश मिश्र व्याख्यानमाला के तहत पहला व्याख्यान 'रीति काव्य : पुनर्विचार' विषय पर नामवर जी ने इलाहाबाद संग्रहालय में एक मार्च सन् २००८ को दिया था।


      २९ दिसम्बर २०१४ को हिन्दी विश्वविद्यालय के स्थापना दिवस समारोह के मुख्य अतिथि के रूप में नामवर जी इलाहाबाद आए थे, इलाहाबाद का उनका यह अंतिम दौरा था। फिर तो सन् २०१५ से २०१९ तक वे इलाहाबाद नहीं आए। फरवरी २०१९ में स्मृतियां ही आई।


      पुस्तकों का लोकार्पण भी कर गए


      “वर्तमान साहित्य के कहानी महाविशेषांक के लोकार्पण के लिए इलाहाबाद पधारे नामवर जी ने कहा थाकि 'यह हिन्दी कहानी की पुनर्वापसी है।'


      सन् १९९१ ई. में उन्होंने इलाहाबाद के सेंट जोसेफ कॉलेज सभागार में बोधिसत्व के काव्य संग्रह 'सिर्फ कवि नहीं' का लोकार्पण किया था।


      ५ अक्टूबर २००५ को हिन्दुस्तानी एकेडेमी सभागार में विवेक निराला के काव्य संग्रह 'एक बिंब है यह' के लोकार्पण के लिए नामवर जी इलाहाबाद आए।


      वर्ष २००२ में नामवर जी ने कैलाश गौतम के काव्य संग्रह 'सिर पर आग' का लोकार्पण किया था और कहा था- 'कैलाश को सुनना धूमिल को छंद में सुनने जैसा है।'


      वर्ष २००८ में नामवर जी ने गोपीकृष्ण गोपेश कीपुस्तक 'विपदा के मारे' का लोकार्पण किया था।


हिन्दी साहित्य सम्मलेन का सम्मान


      नामवर जी ने वर्ष २००१ में पणजी में हुए हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अधिवेशन का प्रतिनिधित्व किया था और उन्हें सम्मेलन की ओर से ५१ हजार रुपए का डॉ. प्रभात शास्त्री सम्मान दिया गया था। इसके पूर्व नामवर जी ने सन् १९९४ ई. में मुंबई में हुए हिन्दी साहित्य सम्मेलन के साहित्य परिषद का सभापतित्व किया था।


  हिन्दुस्तानी एकेडेमी सम्मान और गोष्ठियां


      हिन्दुस्तानी एकेडेमी की एक महत्वपूर्ण परंपरा रहीहै किसी साहित्यकार को सम्मान प्रदान करने की। उस परंपरा में जयशंकर प्रसाद, प्रेमचंद, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, कुँवर नारायण, लक्ष्मीकांत वर्मा सम्मानित किए गए थे। जब रामकमल राय एकेडेमी के अध्यक्ष बने तो सम्मान के लिए नामवर जी का नाम सर्वसम्मति से तय किया गया। सन् १९९७ ई. में यह निर्णय हुआ। इसी वर्ष नामवर जी की तबीयत ज्यादा ख़राब होने लगी। सम्मान के लिए गठित चयन समिति के सदस्य थे पं. विद्यानिवास मिश्र, डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी, लक्ष्मीकांत वर्मा, डॉ. अक़ील रिजवी और डॉ. सत्य प्रकाश मिश्र। नामवर जी तबीयत खराब होने की वजह से इलाहाबाद नहीं आ पा रहे थे, सम्मान समारोह की तिथि स्थगित की गई। बकौल राम कमल राय यह तय किया गया कि दिल्ली में समारोह करके नामवर जी को ऐकेडेमी सम्मान प्रदान किया जाए लेकिन डॉक्टर उन्हें किसी समारोह में घर से बाहर जाने की अनुमति नहीं दे रहे थे। फिर ३० नवम्बर, १९९७ को सायंकाल नामवर जी के घर पर सादा सा सम्मान समारोह सम्पन्न हुआ। जनेश्वर मिश्र ने नामवर जी को सम्मान प्रदान करते हुए कहा कि 'गंगा बहती रहती है। उसके किनारे कहीं घाट बनाकर, कहीं पत्थर लगाकर लोग अपने नाम को ज़िन्दा रखने का प्रयास करते हैं। गंगा के यश में उससे क्या फर्क पड़ता है? उसी प्रकार जिस साहित्य की धारा को नामवर जी जैसे लोग प्रवाहित कर रहे हैं, उसके तट पर ये सम्मान समारोह घाट जैसे ही है।'


      नामवर जी ने कहा कि हिन्दुस्तानी एकेडेमी सम्मान मेरे लिए असाधारण महत्व का सम्मान है। यह सम्मान जिस रूप में मुझे मिला है, वह भी मेरे लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है। इसमें मेरा पूरा परिवार शामिल हो सका है। मेरी बेटी, बेटा, जामाता, पुत्रवधू, पत्नी सभी। कहीं भी यह समारोह होता तो ये सारे के सारे लोग शामिल नहीं हो पाते। इस अवसर पर प्रभाष जोशी, केदारनाथ सिंह, निर्मला जैन, अशोक वाजपेयी, सत्य प्रकाश मिश्र, विजयदान देथा, विभूति मिश्र और मैनेजर पांडेय आदि उपस्थित थे।


    सन् १९८१-८४ तथा १९८७-९० में हिन्दुस्तानी एकेडेमी की जो कार्यपरिषद डॉ. राम कुमार वर्मा की अध्यक्षता में गठित हुई, उसमें सदस्य के रूप में डॉ. नामवर सिंह भी शामिल थे।


    हिन्दुस्तानी एकेडेमी में वार्षिक परिसंवादों की एक विशिष्ट श्रृंखला रही है। २८ मार्च १९७१ को एकेडेमी के हॉल में सायं साढ़े चार बजे प्रो. एहतेशाम हुसैन की अध्यक्षता में 'रचना की प्रासंगिकता का निकष' विषय पर राष्ट्रीय परिसंवाद आयोजित किया गया, जिसमें वक्ता के रूप में नामवर जी जोधपुर से आए थेनामवर जी ने अपनी बात रखते हुए कहा था कि 'रचना की प्रासंगिकता का निकष इकहरा नहीं हो सकता क्योंकि वह रचना की ही प्रासंगिकता का निकष है, किसी और चीज़ का नहीं। रचना वह प्रासंगिक है जिसकी रचनात्मकता काव्य-संस्कृति के मूल्यों के स्तर पर भी प्रासंगिक हो। इसके साथ ही साथ रचना वह प्रासंगिक है जो अपने समय की मानवीय सच्चाइयों का उनकी पूरी जटिलता में साक्षात्कार करती हो। यह दोहरी प्रासंगिकता रचना की राह में हर अवरोध को, हर रचना द्रोही परिस्थिति को तोड़ने वाली होगी और मनुष्य मात्र की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने वाली होगी। जाहिर है कि यह तभी हो सकता है जब रचना-मात्र समसामयिक ही न हो, बल्कि मनुष्य की स्वतंत्रता को कुण्ठित करने वाले हर खतरे को सँघ लेने वाली हो। अतीत की वर्तमानता को भी पहचानने वाली  हो। बिना ऐतिहासिक बोध के यह कैसे संभव होगा? संक्षेप में प्रासंगिक रचना वह है जो सार्च के शब्दों में मनुष्य की मानवीय नियति की चिन्ता बुनियादी तौर पर करती हो चाहे इसके लिए रचनाकार मार्मिक दृष्टि को प्रासंगिक समझे, चाहेवर्ग-चेतना की दृष्टि को। जरूरत इस बात की है कि रचना में आलोचना का खुलापन भी हो।'


    २९ मार्च, १९७१ को एकेडेमी हॉल में डॉ. बाबू राम सक्सेना की अध्यक्षता में भारतीय संस्कृति की समकालीन व्याख्या' विषय पर राष्ट्रीय परिसंवाद आयोजित हुए, जिसमें बतौर वक्ता डॉ. नामवर सिंह (जोधपुर) ने कहा कि “आज हमें संस्कृति की व्याख्या नहीं बल्कि इसकी अवधारणा पर विचार करना चाहिए।' उन्होंने यह भी कहा कि मध्य वर्ग की स्थिति जब पश्चिम में संकट की स्थिति में आ गई तो पश्चिम में 'बियांड कल्चर' नामक पुस्तक लिखीगई। कल्चर से भी दुर्गन्ध आने लगी। पश्चिम में जहाँ यह शब्द छोड़ा जा रहा है, यहाँ हम इसे बड़ी ममता से पकड़े हुए हैं।'


    ३-४ मार्च, १९७३ को एकेडेमी हॉल में महादेवी वर्मा की अध्यक्षता में वर्तमान युग में काव्यभाषा की समस्याएँ' विषय पर राष्ट्रीय परिसंवाद आयोजित हुआ, जिसमें वक्ता के रूप में शामिल डॉ. नामवर सिंह ने कहा कि 'कामकाज की भाषा ही बुनियाद है और वही काव्य भाषा की भी बुनियाद है। सृजनशीलता कविता का धर्म नहीं है बल्कि सृजनशीलता मनुष्य का धर्म है। प्रत्येक बोलने वाला अपनी भाषा का कवि है। लोक कवियों ने कोई भाषा या व्याकरण नहीं पढ़ा, अब उनका मूल्यांकन हम कैसे करेंगे। इसलिए बोलचाल की भाषा को नकारा नहीं जा सकता।'


    रामकमल राय जी के अध्यक्ष रहते 'भाषा और राष्ट्रीय अस्मिता' व्याख्यानमाला के तहत व्याख्यान देने नामवर जी एकेडेमी आए तो इतने तल्ख-तेवर में थे कि आधा समय उन्होंने इस बात पर खर्च किया कि राष्ट्रीय अस्मिता क्या होती है ? और भाषा से इसका भला क्या संबंध? अध्यक्षता कर रहे रामस्वरूप चतुर्वेदी ने टिप्पणी की कि जिस अस्मिता शब्द से नामवर जी अपना इतना अपरिचय बतला रहे हैं, वह तो हिन्दी जगत में उन्हीं के लेख से जाना जाता है। कविता के नए प्रतिमान में मुक्तिबोध पर लिखे आलेख का शीर्षक ही हैं- 'अंधेरे में : अस्मिता की खोज।'


      एकेडेमी में निराला शती समारोह का उद्घाटन नामवर जी ने किया था। निराला शती समारोह में नामवर जी का उद्घाटन भाषण सभी दृष्टियों से स्तरीय और प्रभावशाली था। नामवर जी के अधिकांश व्याख्यानों में एक प्रकार की तानाशाही का पुट भी रहा है। ऐसा लगता कि वे अपने ज्ञान और तर्क शास्त्र के बल पर अपना दृष्टिकोण श्रोताओं से मनवा रहे हैं। परंतु कभी-कभी वे पूरी निष्ठा और विश्वास से बोलते थे। वैसे व्याख्यानों में उनकी निष्ठा, ज्ञान, दृष्टि और तर्क सभी एकाकार हो जाते थे। राम कमल राय की मानें तो 'निराला शती समारोह का उद्घाटन भाषण उन्हीं में एक था।'


      इस प्रकार नामवर जी इलाहाबाद बार-बार आते ही रहे। इलाहाबाद को उन्होंने स्वीकारा और इलाहाबाद ने उन्हें।


    संदर्भ


1    काशी के नाम, नामवर सिंह, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण, सन् २००६


2.    स्मृतियों का शुक्ल पक्ष, राम कमल राय, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण, सन् २००२


3.    नामवर होने का अर्थ, भारत मायावर, किताब घर प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण, सन् २०१२ ।


4.    कौमुदी, सं. डॉ. राजेन्द्र कुमार, हिन्दी परिषद्, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, १९७९-८०


5.    कौमुदी, सं. जगदीश प्रसाद श्रीवास्तव, स.सं. सुधीर कुमार सिंह, हिन्दी परिषद्, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, सन् १९८९


6.    विवेचना संकलन-१, २, ३, उमा राव, भारती भंडार, लीडर प्रेस, इलाहाबाद, सन् १९७१


7.    अमर उजाला, इलाहाबाद, सोमवार, २९ मार्च २००४


8.    कृति विकृति संस्कृति, सत्य प्रकाश मिश्र, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम संसकरण २०१०


9.    परिकथा, सं. शंकर, नामवर सिंह स्मृति अंक, मई-जून २०१९


10.    कथादेश, मई २०१९


11.    स्मृति में रहें वे, शेखर जोशी, साहित्य भंडार, इलाहाबाद, २०१४


12.    भैरव जी, विश्वनाथ त्रिपाठी, नया पथ, अक्टूबर-दिसम्बर २०१८


13.    हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास, रामस्वरूप चतुर्वेदी, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, १९९४


14.    जनसत्ता, रविवारी, दिल्ली, १७ अक्टूबर, १९९९


15.    आलोचना, अप्रैल-जून, २०००


16.    जनसत्ता, दिल्ली, ३० जुलाई २०००


17.    अमर उजाला, प्रयागराज, २१ फरवरी २०१९,


18.      हिन्दुस्तान, प्रयागराज, २१ फरवरी २०१९


19.    दैनिक जागरण, प्रयागराज, २१ फरवरी २०१९


20.    हिन्दुस्तानी एकेडेमी का इतिहास, रविनन्दन सिंह, प्रथम संस्करण २०१९