डॉ. अमृता - जन्म : 11 नवम्बर 1974, हाथरस, उत्तरप्रदेश शिक्षा : परास्नातक (अंग्रेजी, हिन्दी, संस्कृत), पी-एच.डी. (गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय, हरिद्वार) अध्यापन : २०११ से कन्या गुरुकुल (द्वितीय परिसर, गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय, हरिद्वार) के हिन्दी विभाग में असिस्टेन्ट प्रोफेसर (तदर्थ)। सम्प्रति : असिस्टेण्ट प्रोफेसर, इलाहाबाद विश्वविद्यालय लेखन : 12 शोध पत्र विभिन्न शोध पत्रिकाओं में प्रकाशित।
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सृष्टि के प्रारम्भ में मनुष्य ने जब खगवृंद के कलकंठ से निकले स्वर को आत्मसात किया होगा तो उसके कोमल भाव गीत के रूप में थिरकने लगे होंगे। बहती नदी के जल का कल-कल स्वर, भ्रमर की गुंजार, फूलों की हँसी, कोयल की तान, किसान के श्रम-बिन्दु, बादलों की गरज, सभी में तो गीत विद्यमान है। प्राचीनकाल से ही मनुष्य की आशा-निराशा, सुख-दुःख की अभिव्यक्ति का माध्यम गीत ही रहा है। गीत में अभिव्यक्त सुख-दु:ख न जाने कब हमारे हृदय को स्पर्श कर उस भाव-भूमि पर पहुँचा देता है जहाँ पहुँचकर हमें वह भाव अपना लगने लगता है। “गीत अपने लयात्मक और रागात्मक सौन्दर्य के कारण एक शाश्वत विधा के रूप में आदिकाल से लोकप्रिय रहा है और मनुष्य की संवेदनात्मक अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने का सबसे सशक्त माध्यम भी रहा हैइसके रूपाकार चाहे जो भी रहे हों, गीत ने मनुष्य के अहसासों और धड़कनों में सदैव अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है। गीत ने मनुष्य की आदिम प्रवृत्तियों को सदैव आंदोलित एवं संप्रेषित किया है। इसीलिए गीत की अनुगूंज जीवन के हर क्रिया कलाप में सदैव से महसूस की जाती रही है।'
देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र' की रचना-यात्रा सन् १९६० के बाद शुरू होती है। वे नवगीतकार हैं। उन्होंने अपने गीतों से अपनी पीढ़ी के गीतकारों को तो प्रभावित किया ही है, साथ ही परवर्ती पीढ़ी के रचनाकारों को भी अपने रचना कर्म से आकृष्ट किया है। निरंतर लेखक कर्म से जुड़े रहने वाले देवेन्द्र जी का साहित्य विपुल मात्रा में है। उनके पन्द्रह नवगीत संग्रह, छ: गजल-संग्रह, चार दोहा-संग्रह, कालजयी खण्डकाव्य, मेघदूत का काव्यानुवाद, छ: समीक्षात्मक ग्रन्थों के अतिरिक्त बहुत सा अप्रकाशित साहित्य मौजूद है।'११
भारत जब पराधीनता की बेड़ियों से मुक्त हुआ, उस समय जनमानस को बहुत उम्मीदें थीं। लेकिन आमजन की आशाएं, निराशा में बदल गई। जिस लोकसत्ता पर देश व समाज का दायित्व था, वह निरंतर खोखली एवं जनविरोधी होती गई। भ्रष्टाचार इस तरह पनपा कि आमजन के अपने अधिकारों से वंचित होता गया। निरन्तर नए-नए घोटाले, बढ़ता कॉर्पोरेट इस बात का प्रमाण है। ऐसे समय में आजादी मूल्यहीन लगने लगी। आज भी गरीबी रेखा से नीचे जीवन-यापन करने वालों की संख्या इस बात का प्रमाण है। देश की इस स्थिति का प्रभाव उस समय के साहित्य और संस्कृति पर भी पड़ा। इस समय के साहित्य में मूल्यहीनता, असंतोष, घृणा, ईष्र्या, संघर्ष, टकराव, टूटन, बिखराव, नैराश्य भाव, वेदना, अनास्था, कुंठा, सत्रास, आदि के दर्शन सहज रूप में हो जाते हैं। ऐसे दौर में देवेन्द्र जी की रचनाएं हमें नए अहसासों से भरकर तरोताजा कर देती हैं। वो अहसास जो कवि ने ज्ञानेन्द्रिय के माध्यम से अपने आस-पास महसूस किए थे उसी अनुभूत को, अमूर्त को गीतों में मूर्तता प्रदान कर दी। ''कविता के लिए चित्रभाषा की आवश्यकता पड़ती है, उसके शब्द सस्वर होने चाहिए, जो बोलते हों, सेब की तरह जिसकी मधुर लालिमा भीतर न समा सकने के कारण बाहर तक झलक पड़े, जो अपने भाव को अपनी ही ध्वनि में आँखों के सामने चित्रित कर सके, जो झंकार में चित्र और चित्र में झंकार हो।'१२
नवगीत की सबसे बड़ी विशेषता भावाभिव्यक्ति की नवीनता है। यह नवीनता बिम्ब प्रयोग से आती है। *शंभुनाथ सिंह के अनुसार ''नवगीत पूर्णतः बिम्ब धर्मी काव्य है..........। किन्तु उसके बिम्ब पूर्ववर्ती कविता के समान अलंकृत, अनुकृत, रूढ़ अथवा काल्पनिक नहीं हैं। उसमें या तो ऐसे प्रतिभा बिम्बों का प्रयोग हुआ है जो पश्यन्तीवाक के स्वर से अभिव्यक्त होने के कारण सर्वथा नवीन, अछूते और अकल्पनीय हैं, या उसमे अधिकतर यथार्थ जगत के अनुद्घाटित आयामों के अप्रयुक्त बिम्ब प्रयुक्त हुए हैंजैसे- वैज्ञानिक बिम्ब और औद्योगिक क्षेत्र के जीवन बिम्ब, ठेठ ग्रामीण अंचलों एवं वन-पर्वतों के आदिम तथा मिथकीय बिम्ब, भोगी हुई जीवनानुभूतियों के संश्लिष्ट बिम्ब उस चेतना के अंधकार में निहित वासनाओं के छद्म रूपों के खण्डित एवं प्रतीकात्मक बिम्ब तथा राजनीतिक, सामाजिक विसंगतियों और विडम्बनाओं के सांकेतिक एवं छन्दात्मक बिम्ब, इन बिम्बों की पहचान है, नवगीत न केवल समृद्ध बिम्बों का काव्य है, बल्कि नवगीतकार के बिम्बों की मौलिक विशेषता भी है, जो उसके काव्यशिल्प की मौलिकता का आधार है। इसी कारण नवगीत विधा की सर्जना में वह यांत्रिक समानता नहीं, जो उसकी अन्य सामयिक काव्यधाराओं में है।''
चाक्षुष बिम्ब- चक्षु का सूक्ष्म विषय रूप होने के कारण इसे रूप बिम्ब या दृश्य बिम्ब भी कहते हैं। इस बिम्ब में आकृति का निर्माण होता है। बिम्ब मानसिक प्रतीति हैं जो इन्द्रियों के माध्यम से होती है। कवि अपनी काव्य शक्ति से अनभत को बिम्बायित करता है। जब काव्य को पढ़ते, देखते या सुनते समय हमारे समक्ष क्रिया व्यापार स्थिति, आकार, रंग, गति आदि के चित्र उपस्थित हो जाएं, तो यह दश्य बिम्ब है। देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र' का काव्य संसार मौलिक दृश्य-बिम्ब से भरा हुआ है। 'पथरीले शोर' नवगीत संग्रह में फाल्गुन माह में जब प्रकृति नए रंगों से सराबोर होने लगती है, तब उस मादक दशा का चित्रण इस प्रकार किया है -
होली के रंग भरे
भूली सुधि सुधि से उभरे
फागुनी आकाश तले रतनारे बादल
दूर-दूर खेतों में
गंधाकुल रेतों में
लहराता पवनकम्प- सरसों का आँचल ।१3
बीसवीं सदी अन्तविरोध की सदी है। टकराव व उसकी भयावहता को पर्वत से निकलती आग की नदी, तपते रेत में तड़पती मछली के माध्यम से उजागर किया गया है -
ताँबे से पिघलने लगी
पर्वत से आग की नदी
तपती रेत में तड्पे
मछली-सी बीसवीं सदी।
घ्राण बिम्ब- काव्य में किसी प्रकार की गंध का वर्णन इस तरह किया जाए कि पाठक की नासिका को उस गंध की सहज अनुभूति होने लगे तो उसे घ्राण बिम्ब कहते हैं। यह बिम्ब अमूर्त होता है। शब्द के द्वारा घ्राणेन्द्रिय के सम्मुख गंध उद्दीप्त करना घ्राण बिम्ब है। पुष्प के वर्णन में दृश्य बिम्ब व घ्राण बिम्ब एक साथ उपस्थित होते हैं। दृश्य बिम्ब में पुष्प की पंखुड़ी, तना, पत्ते, रंग, पराग आदि का वर्णन होगा, जबकि घाण बिम्ब में गंधपरक शब्दों का ही प्रयोग होगा। इतना अवश्य है कि गंध-गंध में भिन्नता हो सकती है।
आज हमारे समाज में छल, प्रपंच, झूठ, मक्कारी इतनी बढ़ गई है कि अच्छाई ढूंढना मुश्किल हो गया है। इन सभी के मध्य कभी-कभी एक आशा की किरण नजर आने लगती है। देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र' के शब्दों में-
इन कंटीली
और विषधर झाड़ियों के बीच में
गंध चंदन की
कहाँ से आ रही है।
खिले हुए फूल की खुशबू का बिम्ब जो संसार में कुछ भी स्थाई नहीं है को अभिव्यक्त करता-
वह नवल मधुमास की
पल्लवित शाखा का सुमन
देखते ही देखते
निर्गन्ध बासी हो गया।६
आज परिस्थितियों ने
जीवन को इस तरह प्रभावित किया है कि उसमें जीवन्तता तो है, पर वह उसी तरह है जैसे- चंदन का स्वाभाविक गुण शीतलता है, उसे परिस्थिति ने तप्त कर दिया है लेकिन फिर भी उसने गंध नहीं छोड़ी।
धूप बुनकर
अग्नि- गांछों पर
दहकता दिशाओं में
तप्त चंदन- सा महकता
नाग पाशों से बिंधा घायल हरापन हूँ।
स्पर्श बिम्ब- गीला-सूखा कोमल- कठोर, गर्म, ठण्डा आदि अनुभूतियां त्वचा द्वारा जब महसूस की जाती हैं तो इसे स्पर्श कहते हैं। सामान्य मनुष्य का व्यवहार स्पर्श के द्वारा संचालित होता है। लेकिन कुछ समय में ही वह उस छुअन को भूल जाता है। कवि इसके विपरीत होता हैवह जिस स्पर्श की अनुभूति करता है उसे शब्दों के रूप में संचय करता है व काव्य में उसे अभिव्यक्त कर देता है, यही स्पर्श बिम्ब है। पंख कटी महराबें' नवगीत संग्रह में किरणों की उँगली पकड़कर धुएँ के समुद्र को पार करने का बिम्ब हृदयग्राही है -
धुएँ के समुन्दर को तैरते रहे
बुझी हुई किरणो की उँगली पकड़े।
शांत पेड़ों के पत्तों को किस तरह मंद-मंद बहती हवा ने गति प्रदान की ऐसा लगा कि पत्तों का आँचर खीच लिया हो -
बौराया
ढीठ पवन
मादक मधु-
अंध नयन
खींच रहा पातों का
आँचर रतनार।
आस्वाद्य बिम्ब - आस्वाद्य बिम्ब में जिह्वा को तृप्ति देने की क्षमता होती है। 'रस' जिह्वा का विषय है। खट्टा- मीठा, कड़वा, फीका आदि स्वाद की अनुभूति जिह्वा ही करती है। कवि अपनी अनुभूतियों में रमणीयता व तीव्रता । से आस्वाद्य बिम्ब का निर्माण करता है। आस्वाद्य बिम्ब का साहित्य में अभाव पाया जाता है। देवेन्द्र जी के साहित्य में भी आस्वाद्य बिम्ब कम ही हैं। एक बिम्ब दृष्टव्य है -
पर्वतों के घर
जनम उसने लिया
दूध उसने
बदलियों का है पिया
बीसवीं सदी, गद्य की सदी है -
गद्यमय वातावरण है इस सदी का
पी लिया है रेत ने पानी नदी का।११
श्रव्य बिम्ब-किसी भी ध्वनि को हम केवल कर्णेन्द्रिय से ही सुन सकते हैंसुनने की प्रक्रिया किसी अन्य इन्द्रिय से संभव नहीं। ध्वनियां अमूर्त होती हैं। कवि अपनी काव्य प्रतिभा से उन्हीं ध्वनियों को बिम्बित करता हैकेवल ध्वनि का नामोल्लेख ही बिम्ब का निर्माण करता है। कुत्ते का भौंकना, गाय का रम्भाना, भौरे का गुजारना, शेर का दहाड़ना, नदी व झरने का कल-कल स्वर आदि से साहित्य में श्रव्य बिम्ब का निर्माण होता है -
पींजरे में कैद
मैना फड़फड़ाती विवश पाँखें
हम खड़े निरुपाय
कोने में विवश
यह देखते हैं।१२
संश्लिष्ट बिम्ब - शब्दों का वह संगठन जिसमें एक से अधिक बिम्ब निहित हों, उसे संश्लिष्ट बिम्ब कहते है। अलिगुजित उपवन का बिम्ब संश्लिष्ट बिम्ब का उदाहरण है। संश्लिष्ट बिम्ब से पूर्णता का आभास होता है। बसन्त ऋतु की मादकता का एक बिम्ब दृष्टव्य है -
मधु ऋतु ने कितने मोहक मंत्र पढ़े
फूलों के धनु पर कितने तीर चढ़े
सरसों कितनी
पियराई खेतों में
गंध को
हवा ने मुँघरू पहनाए।
धरती सिहरी नभ के भुज-पाशों में
खिल उठे मूक रोमांच पलाशों में।१३
संदर्भ सूची
1. नवगीत और उसका युगबोध, सं. राधेश्याम बंधु, पृष्ठ -१०
२. पल्लव (प्रवेश), सुमित्रानन्दन पंत, पृष्ठ-२६
3. पथरीले शोर में, 'देवेन्द्र शर्मा इन्द्र', राजेश प्रकाशन, दिल्ली, १९७६, पृष्ठ-२३
4. कुहरे की प्रत्यंचा, देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र', राजेश प्रकाशन, दिल्ली १९७६, पृष्ठा-३६
5. गंध मादन के अहेरी, देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र', अनुभव प्रकाशन, गाजियाबाद २००३, पृष्ठ-१०५
6. गंध मादन के अहेरी, देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र', अनुभव प्रकाशन, गाजियाबाद, २००३, पृष्ठ-५३
7. एक दीप देहरी पर, देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र', पृष्ठ-६७
8. पंखकटी महराबें, देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र', अनुराग प्रकाशन, दिल्ली, १९७८, पृष्ठ-४४
9. आँखों में रेत-प्यास, देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र', प्रीति मंदिर प्रकाशन, दिल्ली १९८८, पृष्ठ-२०
10.गंध मादन के अहेरी, देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र', अनुभव प्रकाशन, गाजियाबाद, २००३, पृष्ठ-६८
11. एक दीपक देहरी पर, देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र', पृष्ठ-३४
12. अनंतिमा, देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र' राजेश प्रकाशन, दिल्ली, २०००, पृष्ठ-२८
13. आँखों में रेत प्यास, देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र', प्रीति मंदिर प्रकाशन, दिल्ली, १९८८, पृष्ठ-२१
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