उत्तराखंड की तराई के जनजीवन की कहानियों का दस्तावेज - डॉ. नेहा भाकुनी
क्राति के मूक स्वर' कृष्ण कुमार भगत की चौदह कहानियों का संग्रह है। उत्तराखंड का नाम सुनते ही हमारे दिमाग में पहाड़ों की पृष्ठभूमि को केंद्र में रखकर लिखी गई कुमाऊँनी या गढ़वाली लोगों के जनजीवन को प्रस्तुत करतीकहानियाँ उभरती हैं लेकिन इस कहानी-संग्रह में शामिल अधिकांश कहानियाँ उत्तराखंड की तराई की पृष्ठभूमि लिए हुए हैं। तराई को 'मिनी हिंदुस्तान' या विभिन्न संस्कृतियों व जातियों/संप्रदायों का 'गुलदस्ता' कहा जाता है। देश आज़ाद होने के बाद उत्तराखंड की तराई के जंगलों को काटकर वहाँ पश्चिमी पाकिस्तान से आए पंजाबी शरणार्थियों के अलावा देश के अन्य हिस्सों से पहाड़ी, पुरबिया, जाट आदि समुदाय के लोगों को सरकार द्वारा बुला-बुला कर बसाया गया और कृषि तथा आवास के लिए भूमि आबंटित की गई। बाहर से आकर तराई में बसे इन लोगों ने तराई का विकास करने में अपना योगदान दिया है। वहाँ के गांवों और कस्बों में लेखक ने जो जनजीवन देखा है, उसी से ये कहानियाँ उठाई गई हैं। इन लोगों में ही एक समुदाय 'ओड' समुदाय के लोग भी भारत-पाक विभाजन के बाद तत्कालीन पश्चिमी पाकिस्तान से उजड़कर शरणार्थियों के रूप में यहाँ आकर बसे थे। 'राशन' शीर्षक कहानी इसी ओड-समुदाय के लोगों के एक परिवार के जीवन से जुड़ी कहानी है। उजड़ कर आए हुए इन लोगों को कृषि-भूमि आबंटित हुई या नहीं या फिर हुई तो कितनी हुई? यह तो कहानी से स्पष्ट नहीं है पर यह जरूर वर्णित है कि इन लोगों को कभी वन-विभाग ने अतिक्रमणकारी दिखलाकर उजाड़ा तो कभी बरसात में अपने उफान पर आने वाली उन नदियों ने, जिनके किनारों पर इन लोगों ने अपने घर-बार बसा लिए थे। जो भी कृषि-भूमि इन लोगों के परिवारों के पास थी, वह पीढ़ी-दर-पीढ़ी इन परिवारों के सदस्यों की संख्या बढ़ते जाने के फलस्वरूप आपस में बंटने से कम होती चली गई जिसके फलस्वरूप ये लोग अन्य व्यवसायों की ओर आकृष्ट हुए; जैसे : गधे हाँकने का काम, कहीं पत्थर तराशने का काम तो कहीं मिट्टी ढोने का काम या इसी तरह के छोटे-मोटे काम। ओड समुदाय का एक व्यक्ति बंसी और उसके परिवार-जन मरणासन्न पिता की बीमारी से बहुत परेशान हैं। एक सुबह बंसी जब यह पाता है कि उसके पिता की नब्ज़ बहुत हल्की चल रही है तो वह उनके बिस्तर के तकिये से ही उन का गला दबाकर उन्हें मार डालता है। हम बंसी के इन शब्दों के साथ कहानी का अंत होता हुआ पाते हैं, 'बापू चले गए हमें छोड़कर ! भगवान के घर सबने एक दिन जाना है........रोना-पीटना बाद में कर लेंगे, पहले जाकर डीलर से राशन ले आएं, नहीं तो कॉलोनी वाले क्या खाएँगे और बापू का चौथा कैसे होगा?' यह कहानी ओड समुदाय की जिंदगी के श्वेत-स्याह रंगों की तस्वीरें हमारे सामने प्रस्तुत करती है।
' नरभक्षी दौर' तथा 'निर्जीव देशराज के पक्ष में' शीर्षक कहानियाँ पुलिस द्वारा लोगों का उत्पीड़न करने से जुड़े विषयों पर लिखी गई कहानियाँ हैं। इन कहानियों में दिखलाया गया है कि पुलिस आमजन के प्रति किस हद तक अमानवीय हो जाती है।
'माल्ली की तरह' शीर्षक कहानी में गांवों के कथित विकास की कलई खोली गई है। 'स्वयंवर' कहानी नारीजागृति की कहानी है। 'सजा' कहानी का दयाशंकर ग्रामीण क्षेत्र के एक डाकघर में पोस्टमास्टर है। वह मनीऑर्डर के रूप में बांटने के लिए आई हुई रकम से जुआ खेल जाता हैऔर मणिराम की पत्नी के नाम आए मनीऑर्डर को उस तक नहीं पहुंचाता। पति द्वारा भेजे गए रुपये समय पर न मिलने के कारण समुचित इलाज के अभाव में उसकी पत्नी दम तोड़ देती है। उसकी मृत्यु के बाद घटित नाटकीय - घटनाक्रम के बाद पोस्टमास्टर दयाशंकर गहरे अपराध-बोध से घिर जाता है और स्वयं के लिए एक अलग किस्म की सजा मुकर्रर कर लेता है। 'क्रांति के मूक स्वर' कहानी में युवा पीढ़ी में जन्म ले रही बिल्कुल नई सोच के कदमों की आहट सुनाई देती है जो कि समय के साथ-साथ समाज की सोच में होने वाले परिवर्तनों का संकेत है। 'एक याद' शीर्षक कहानी में डॉक्टर कुलदीप को लेकर लेखक द्वारा बहुत ही भाव-भीनी स्मृतियों का चित्रण किया गया है। । । ०।
संग्रह की अन्य कहानियाँ 'बलि का बकरा', 'कोहरा', 'तुम ठीक हो सांची', 'दो पहलू', 'शब्दों के अंगारे' व 'जीवनापूर्ति' में समाज के विभिन्न आयामों, विकृतियों, उभरती हुई नई प्रवृत्तियों के दर्शन हमें होते हैं। संग्रह की कई कहानियों की भाषा में हमें खुरदुरापन मिलता है। ऐसा शायद इसलिए है कि लेखक ने खुरदुरे विषयों को लेकर लेखनी चलाई है।
समीक्षित पुस्तक : 'क्रांति के मूक स्वर' (कहानी - संग्रह), लेखक : कृष्ण कुमार भगत, सजिल्द संस्करण, मूल्य : २५० रुपए), प्रकाशक : आधारशिला प्रकाशन, हल्द्वानी (उत्तराखंड)
सम्पर्क: असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, बागेश्वर-263642, उत्तराखंड