समीक्षा - हिंसक दुनिया के राजनीतिक ‘एंटीडोट’ - डा. विद्यानिधि छाबड़ा

हिंसक दुनिया के राजनीतिक 'एंटीडोट' - डा. विद्यानिधि छाबड़ा


 


     हिमाचल की ग्रामीण धरती की उपज एस. आर. हरनोट ऐसे कथाकार हैं जिनका सृजन आज देश में ही नहीं, विश्व में भी पढ़ा, समझा और सराहा जा रहा है। देशी-विदेशी कई भाषाओं में इनकी कहानियों के अनुवाद हो रहे हैं, अनेक विश्वविद्यालयों में इन्हें पाठ्यक्रम में शामिल किया जा रहा है। कई विद्यार्थी इन पर शोध कर रहे हैं तो कई रंगकर्मी इन्हें मंच पर खेल रहे हैं। आखिर ऐसा क्या है इन कहानियों में कि वे हिमाचल की मिट्टी से निकलकर विश्व-साहित्य की धरोहर बन रही हैं?


    माना, ये लोक-जीवन की कहानियां हैं और लोकसंस्कृति सबको आकृष्ट करती है। यह भी माना कि ये कहानियां राजनीतिक-सामाजिक व्यवस्था द्वारा दबाए जा रहे, आर्थिक रूप से पिछड़े, धर्म-भीरू, काफी हद तक अंधविश्वासी, आम ग्रामीण व्यक्ति की जिंदगी बयां करती हैं। इसलिए विश्व के प्रगतिशील पाठक को अपनी ओर खींचती हैं। लेकिन इन कहानियों की असली खासियत यह है कि ये इस आम ग्रामीण जन की दुर्बलताओं पर आंसू नहीं बहाती, उसके अंधविश्वासों को जायज़ नहीं ठहराती, उसके पिछड़ेपन पर गर्वोक्ति नहीं करती बल्कि इस ग्रामीण जन को एक ऐसे साहसी, सशक्त, विचारवान और आशावान रूप में प्रतिष्ठित करती हैं जो सिर्फ गांव, शहर और देश की राजनीति को ही नहीं समझता, इस राजनीति को निर्धारित करने वाले उत्तरआधुनिक ग्लोबल युग के हालात और दबावों को भी समझता है। इतना ही नहीं, यह आम ग्रामीण जन अपनी जागरूकता और संवेदना के चलते मीडिया, बाज़ार, अर्थव्यवस्था, धर्म और राजनीति की नई भ्रामक परिभाषाओं का सच जान पाता है और झूठ के खिलाफ सच की लड़ाई में विजयी होकर दिखाता है।


    संघर्ष का उसका ढंग अद्भुत है। वह उस लोक-आस्था से संबल ग्रहण करता है जो शहरी अभिजात व्यक्ति के लिए रूढ़ियां हैं। हैरानी की बात यह है कि उसके तथाकथित अंध-विश्वास, पुराने रीति-रिवाज और दकियानूसी परंपराएं उत्तरआधुनिकता की स्वार्थी, बाजारू संरचनाओं की बेड़ियां काटने में मददगार होती हैं। यही हरनोट जी का जादुई कथासंसार है। अपनी घुमक्कड़ प्रवृत्ति के कारण वह हिमाचल के दूरदराज़ और दुर्गम अंचलों से लोक-आस्था की जादुई किस्से खोजकर लाते हैं, रूढ़ियों-अंधविश्वासों और लोक-प्रतीकों के क्रांतिकारी निहितार्थ निकालते हैं और उन्हें समसामयिक जीवन-संदर्भो के साथ इस तरह जोड़ देते हैं कि वे आधुनिक दुनियावी मसलों पर एकस्पष्ट, सुसंगत क्रांतिकारी राजनीतिक वक्तव्य बन जाती हैं।


      कथा-संग्रह की मुख्य कहानी 'कीलें' की ही बात करें तो वह लोक-आस्था से शुरू होकर तार्किक सोच पर समाप्त होती है। जादुई संकेतों और प्रतीकों से भरी हुई यह कहानी कलयुग के भयावह काठ के देवता पर कीलें ठोकती है। ये स्वार्थ की कीलें हैं जो सारे मानवीय रिश्तों पर ठोकी जा रही हैं- विश्वासघात और अनिष्ट की बद्दुआओं के साथ - अपने बेहद आत्मीय रिश्तों में भीलेखक ने कीलों में सब कुछ समेट लिया है - जातिगत भेदभाव को, दलीय राजनीति को, सांप्रदायिक उन्माद को, हिंसा और प्रतिशोध को, देशों के आपसी संघर्ष को।


    कहानी का मुख्य पात्र मासूम कलमू स्वार्थ, अनिष्ट और विनाश के रास्ते पर चल रही इस हिंसक दुनिया का 'एंटीडोट' है। उसमें काठ के देवता के प्रति आस्था है, लेकिन वह अंधी नहीं है। उसके पास तर्क हैं। उसके पास उलझनें हैं। पाकिस्तान के पेशावर में आतंकवादियों द्वारा स्कूली बच्चों की निर्मम हत्या ने कलमू की जिंदगी और नज़रिए को बदल दिया है। हिंसा का सच्चा 'एंटीडोट' तो वह बांसुरी का संगीत है जो कलमू की उंगलियों, ओठों और मन से निकलता है। यह एक भोले-स्नेहिल, निश्छल-मासूम बालक के संवेदनशील मन से निकलने वाला समरसता का संगीत है जो कीलों के समस्त आघात को तोड़ देता है।


    'पत्थर का खेल' भी ऐसी ही कहानी है जिसमें सती मैया के चौरे पर दीवाली के दूसरे दिन होने वाले पत्थर के खेल के परंपरागत लोक-पर्व को आधार बनाकर वर्तमान हिंदू सांप्रदायिक राजनीति पर प्रहार किया गया है। हिमाचल में धामी के एक छोटे-से गांव में काली मां के मंदिर में दो टोलियों के बीच पत्थर मारने का एक सांकेतिक खेल सदियों से खेला जाता है। एक-दूसरे को पत्थर मारे नहीं जाते, हवा में उछाले भर जाते हैं। पत्थर लगने से जो खून निकल आए, उसे देवी के मंदिर में चढ़ाकर खेल बंद हो जाता है। फिर दोनों टोलियां मिलकर मेले का मज़ा लेती है। न तो यह युद्ध है, न किसी रंजिश का नतीजा, बस मिलन और मनोरंजन का एक खेल है।


    आज खेल के मायने भी बदल गए हैं और खेलने वालेभी। अब टोलियां धर्म और जाति के आधार पर बनती हैं। मेले-बाजार का वैश्वीकरण हो गया है। लोक-संस्कृति गायब है और सामाजिकता की जगह अराजकता है। कहानी में हिंदुत्ववादी विभाजनकारी शक्तियों द्वारा इस खेल को हिंदू- मुस्लिम के असली खून-खराबे में बदलने का षड्यंत्र रचा जाता है। यहां भी सीतू नाम का छोटा-निश्छल बालक है जो अपनी मासूम आंखों से अपने पिता को इस दंगे की योजना बनाते हुए देखता है तो उलझनों और भय से भर जाता है। उसके सामने हिंदुत्व के दोनों पक्ष हैं। पहला आदर्श, उदात्त, दार्शनिक हिंदुत्व है, जिसकी छवि वह 'देवता के दीवां' अपने दादा में देखता है और दूसरा कट्टर दंगापरस्त हिंदुत्व है, जो उसके गांव के प्रधान' पिता द्वारा त्रिशूल, नुकीले हथियारों, शराब और गुंडे-मवालियों की मदद से फैलाया जा रहा है। इनके बीच सीतू का लोक-आस्था से भरा मन है जो गांव को खून-खराबे से बचाने के लिए काली मां के सामने अपनी बलि देने को तैयार हो जाता है और खुद अपने सिर पर पत्थर मार लेता है जिससे खेल रुक जाए। इस तरह देवी में उसकी श्रद्धा और आस्था भयावह युद्ध की 'एंटीडोट' बन जाती है।


    'आग' कहानी में भी लेखक ने शिक्षा के राजनीतिक भगवाकरण की प्रक्रिया से जूझ रहे गांव के स्कूल मास्टर शास्त्री वेदराम का संघर्ष दिखाया है जो जन्म, कर्म और आचरण से हिंदू हैं, वेदों के ज्ञाता हैं, साहित्य के विद्वान् हैं, यज्ञ-हवन इत्यादि के भी जानकार हैं लेकिन राजनीतिक हिंदुत्व का नया एजेंडा स्वीकार नहीं कर पाते हैं। उनके देखते-देखते पूरा पाठ्यक्रम भगवा हो गया है। अब 'अ' से 'अनार' नहीं 'अयोध्या' होता है और 'इ' से 'इमली' नहीं, 'इस्लाम' होता है। 'ह' से 'हिंदू', 'र' से 'राम' और 'स' से 'संघ' होता है। दुनिया का ककहरा भी बदल गया है। कहीं गोरक्षा के नाम पर मुसलमानों का कत्ल है, तो कहीं असहिष्णुता के नाम पर गौरी लंकेश, पंसारे और कलबुर्गी जैसे बुद्धिजीवियों की हत्या। एक मुसलमान बच्चे के सवाल 'हिंदू क्या होता है' का उनके पास जवाब नहीं है। वह अपनी लायब्रेरी के सारे वेद-पुराण-शास्त्र, साहित्य और इतिहास की तमाम किताबें पढ़ डालते हैं लेकिन न तो उन्हें हिंदू का यह अत्याधुनिक सांप्रदायिक और हिंसक अर्थ कहीं मिलता है और न ही कुरान में अल्लाह के नाम पर कोई आतंकी जिहाद। कबीर, नानक, मुक्तिबोध, गांधी, नेहरू, जिन्ना, सावरकर को सालों से पढ़ते आ रहे शास्त्री जी-यह जानते हुए भी कि उनकी रिटायरमेंट के कुछ ही महीने बचे हैं और व्यवस्था से कोई पंगा लिए बिना यह वक्त चुपचाप काट लेना चाहिए-खुद को रोक नहीं पाते और नफरत की हवा फैलाने वाले नए हिंदुत्ववादी पाठ्यक्रम को आग के हवाले कर देते हैं।


'लोहे का बैल' ग्रामीण परिवेश की जातिगत ईष्र्या से लड़ रहे एक ऐसे ईमानदार किसान की कहानी है जिसका अपना शहरी बेटा ही उसे दगा दे जाता है। कहानी में शहर और गांव दोनों की अति-आधुनिक स्वार्थी मनोवृति पर व्यंग्य है। एक तरफ अपने-पराए वे लोग हैं जो रिश्तों की भाषा नहीं समझते तो दूसरी तरफ बैल और शोभा का वह आत्मीय संबंध हिमाचल है जो एक-दूसरे की अनकही भाषा भी बूझते हैं। लोकजीवन की अपनी विसंगतियां हैं लेकिन बदलती अर्थव्यवस्था के बीच अब किसान अनपढ़ नहीं रहा। इसलिए शोभा अपने बेटे के विश्वासघात से हार नहीं मानता और आजीविका के लिए लोहे का बैल खरीद लाता है।


    भागादेवी का चाय घर उत्तर आधुनिकता के बाजारवाद पर लिखी गई कहानी है। बाजार अब पहाड़ों की निर्जन एकांत चोटियों तक पहुंच चुका है। अपने छोटे-से चाय घर में चाय बेचने वाली भागादेवी सेटेलाईट मोबाइल-कंपनियों के बाज़ार में विज्ञापन बनकर बिकने से मना कर देती है। वह प्रकृति का साकार रूप है-*'बुरांश की तरह रम्य, बर्फ की तरह कठोर ओर कोमल, बाघ की तरह बलिष्ठ और खुखार, कौए की तरह चालाक ओर आभी चिड़िया की तरह निश्चल, फुर्तीली।'' वह प्रकृति के संरक्षण के प्रति समर्पित है क्योंकि वह जानती है कि प्रकृति के बचे रहने में ही मानव का बचा रहना निहित है। इसलिए वह इन मोबाइल कंपनियों के विज्ञापन के बैनर अपनी छाती, कमर जैसी 'प्राइम लोकेशन' पर लगाने से मना कर देती है। उसकी छातियां पहाड़ों को बाजारी पांव से रौंद रही कंपनियां के इश्तहार के लिए नहीं हैं, शिकारियों द्वारा मार डाली गई मादा भालु के रूई के फाहे जैसे नन्हें बच्चे को भींच लेने के लिए बनी है।


    सुखद बात तो यह है कि हरनोट जी की कोई भी कहानी हालात की भयावहता और जीवन की विडंबना पर खत्म नहीं होती। उसमें आशा के लिए हमेशा जगह बच जाती है। यह बात अलग है कि कई आलोचकों को लगता है कि वे असंभव समाधान और अप्रत्याशित आशापूर्ण अंत दिखाती हैं, जबकि आधुनिक निर्मम संसार में कोई आशा नहीं बची है। लेकिन लेखक का मंतव्य स्पष्ट है। यह उनकी लेखकीय आस्था है कि धर्म-राजनीति-व्यवस्था द्वारा पूरी तरह से बरगलाई-बौखलाई जनता के बीच ऐसे शख्स ज़रूर बचे हैं जो सोचते-समझते हैं और गलत का विरोध करने की ताकत रखते हैं। इसीलिए फ्लाई किलर का राजा अपनी तमाम फौज और पुलिस के बावजूद तीन लोगों को पकड़ नहीं पाता। ''एक के पास हुल है, दूसरे के पास कलम और तीसरे के पास हथौड़ा है।''


    इस तरह कीलें संग्रह की सभी कहानियां लोकपरंपराओं की सुदृढ़ धरती से उपजी समर्थ कहानियां हैं। उनमें लोक-संघर्षों की सहज लोकधुन बहती है जो संवेदना को बचाए रखने का एकमात्र उपाय हैवैसे भी, लोककथाएं हमेशा सुखांत होती हैं और सुखद सौभाग्य की मंगलकामना लिए होती हैं। हरनोट जी का कथा-संसार भी अनिष्ट के विनाश और मानव-अस्तित्व की मंगल-कामना का लोकसंसार है1


      पुस्तक : कीलें (कहानी-संग्रह), एस. आर. हरनोट, प्रकाशन : वाणी प्रकाशन, वर्ष : २०१९, मूल्य : २२५ रुपए


      सम्पर्कः फ्लैट नं. 5, गोयल अपार्टमेंट्स, लोकल बस स्टैंड के नीचे, संजोली, शिमला 171006, हिमाचल प्रदेश