देवेन्द्र आर्य-देवेन्द्र आर्य जन्म : 1957, गोरखपुर। रेल सेवानिवृत्त गीतों के चार और गज़लों के पांच और नई कविता के दो संग्रह प्रकाशित कवि देवेन्द्र कुमार बंगाली पर दो और आलोचक डा. परमानन्द पर पुस्तक का सम्पादन आलोचना पुस्तक 'शब्द असीमित
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भीड़
आदमियों की हो तो हो भीड़ की पूँछ नहीं होती
फिर भी दबी नहीं कि हमलावर
बिल्ली की तरह अपने ही तरफ़दार पर.
दो मुँहा साँप होती है भीड़
दोनों तरफ मुंह मारती कहीं भी कभी भी
त्यौहार में बाजार में श्मशान में कूड़ेदान में
प्रतिमा विसर्जन खुदा की शान में,
चूल्हे की राख से पैदा हो सकती है
फीज़ से मांस की तरह निकल सकती है भीड़
पड़ोसी के साँस की बदबू से भड़क सकती है भीड़
भीड़ की पिछाड़ी नहीं होती
कि खतरा भांप सरक लें आप पतली गली से
कि खतरा भांप सरक लें आप पतली गली से
रेल की तरह आगे भी चलती है पीछे भी
हाँ मगर दाएं-बाएं होने के लिए
एक लम्बा अर्द्ध चंद्राकर चक्कर लेना पड़ता है उसे.
बसावट कब जमावट
और जमावट कब जानवरों के बाड़े में बदल जाती है
पता नहीं चलता
जानवरों की शक्ल में
इंसान और इंसानों की शक्ल में जानवर होती है भीड.
भीड़ का कोई पड़ोसी नहीं होता
बूढे बच्चे बीमार औरतें सब कौम होते हैं
कौम के खिलाफ़ एक कौम.
कुचल दिए जाते हैं कितने अरमान
अनबोलते दुद्धा सपने झुलसे रोज़गार
हरे हो जाते हैं जमीन हड़पने के खूखार इरादे
लूट का कारोबार
जब आबादी भीड़ बन जाती है
राखी के धागे कलाइयों से फिसल कर गले में कस जाते हैं।
भीड़ की स्थापना में ही विस्थापन होता है इंसानियत का.
और सुनिए
भीड़ उनकी भी नहीं सुनती जो भीड़ में होते हैं।
भीड़ उनकी भी नहीं होती कभी कभी
जिनके हाँथ में भीड़ का रिमोट होता है
रक्त स्नान करती उजाला पीती अँधेरे में वोट पैदा करती
भीड़ का रिमोट लोकतंत्र के जेनरेटर में बदल जाता है तब
भीड़ भाड़ होती है जिसमें झोंका जाता है भाईचारा
और पार्टियों के चेहरे पर समर्थन के चने फूट पड़ते हैं.
तिनका तिनका नीड़ के निर्माण सा
भीड़ का निर्माण करता है तानाशाह
ज़रूरी नहीं की हैट और कोट में ही हो
अध-नंगी धोती आधे कुर्ते जैकेट सफारी हाफ पैंट में भी
तानाशाह के हांथों में हो सकता है कोई
धर्म ग्रन्थ, कोई
महाकाव्य
कोई मनचाहा संविधान भी
कभी दफ्न इतिहास को कुरेदता कभी जिंदा माँ को बखानता
कभी गंगा की आरती उतारता कभी गंगा को छतरी की तरह
तानता
सौ की सीधी बात कि बातों की असमानता और अपनी
महानता।
भीड़ लोकप्रियता का पहला सपना है
मन्त्र कहावतें कनफुसरी कथाएँ अफवाहें शब्दों का अपहरण,
अर्थ का विरूपण
कवियों आलोचकों में भी पाए जाते हैं तानाशाह
रेशे रेशे बुनी जाती है तानाशाही
बया के घोसले सी मजबूत और कलात्मक
विचारों की आंधी भी नहीं बिगाड़ पाती उसका कुछ
उसे नोंच फेकने के लिए सिर्फ एक बन्दर की दरकार होती है
बन्दर जिसे नाचना न आया हो अभी किसी मदारी के हाथों
भीड़ कई बार उसके भी हाथों से निकल जाती है
जिसके हाथ में उसका रिमोट होता है
कचर के मार डालती है अपने ही सेनापति को पोरस के
हाथियों की तरह.
भीड़ ज़रूरी नहीं भीड़ को थामने के लिए
कई बार व्यक्ति भी कम नहीं होता भीड़ से
एक निराकार भीड़ के सामने
एक साकार भीड़
सम्पर्कः 127, आवास विकास कालोनी शाहपुर, गोरखपुर-273006, उत्तर प्रदेश