कहानी - बढांगा लेखक- संदीप शर्मा

शिक्षा: मास्टर इन बिजनिस मैनेजमैंट, पी.एच.डी. (रिसर्च स्कालर) व्यवसाय: शिक्षक, विज्ञान, डी. ए. वी. पब्लिक स्कूल, हमीरपुर, हिमाचल प्रदेश में कार्यरत।प्रकाशनः कहानी संग्रह 'अपने हिस्से का आसमान' प्रकाशित।


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पूरे देश में बढोगा शुरू हो गया है, बस इतना ही पता था गांव वालों को। शाम को मैहर के घर में कुछ लोग हाथ सेंक रहे थे, तो बस यही बातें चल रही थीं। अभी कोई नौ बज रहे होंगे कि ध्यान चंद अपना बड़ा सा बैग उठाए एकदम अंगीठी पर आ गया, वो अभी जांलधर से ही आया है। पानी के दो गिलास पीने के बाद बढांगे की खबरें सुनाने लग पड़ा, बस मैहर जी! क्या बताएं? बहुत बुरा हाल हैशहरों में लोग चुन-चुन कर मार रहे हैं, दूसरी बिरादरी वालों कोनहरों में मिल रहे हैंशव। पुलिस के हाथ भी खड़े हो गए हैं। मोहल्ले के मोहल्ले खाली हो गए हैं। कोई कहीं भागा तो कोई कहीं? किसी को कुछ नहीं समझ आ रहा है। ध्यान चंद ने फिर दो-चार लंबी सांसें लीं और फिर बोलना शुरू कर दिया, ट्रेनें भर-भर कर आ रही हैं लाशों की और यहां से भी जा रही उस तरफ।


    गांव का भगत राम बीच में बोल पड़ा, सुना है कि हमारी बिरादरी के लोग पंजाब से आ रहे हैं, हमारी ओर और कांगड़ा में उन्होंने कइयों को मार डाला है। लोग रात को दूसरी बिरादरी वालों को अपने अनाज के पेडुओं में छुपा रहे हैं, तब जान बच रही है कइयों की। बस इस बात के बाद सबके चेहरों पर खौफ और दुख आग की लपटों की रोशनी में साफ देखा जा सकता था। फिर बड़ी देर तक इसी तरह की बातें चलती रहींश्यामू बोला, “मैं हमीरपुर गया था परसों तो, बस अड्डे पर एक व्यक्ति ने मुझे बताया कि शहर के पास के एक दूसरी बिरादरी के गांव के लोग भी भाग गए हैं कहीं दूर अपने रिश्तेदारों के पास।'' हर कोई खौफ समझने की कोशिश करता और फिर कुछ खौफ को साथ लेकर अपने-अपने घर की ओर निकल गया। मैहर का घर गांव में पहला है और तीन-चार गांवों से रास्ते घर के सामने ही मिलते है घर के सामने लम्बा-चौड़ा आंगन है और आंगन के बाहर झाड़ियों की बाड़ है। पर आते-जाते लोग दिख ही जाते हैं।


    सर्दियों का समय है। मैहर ने भी अंगीठी की बची हुई आग को राख में दबाया और मन ही मन ईश्वर को याद किया। वह जैसे ही सीधा हुआ और बाहर बरामदे में बिस्तर की ओर चला कि किसी के दौड़ने की आवाज उसके कानों तक आ पहुंची। कोई घर के सामने वाले रास्ते से भागा आ रहा था। मैहर चिल्लाया, कौन है भई? इतनी रात को क्यों भागा जा रहा है? दो आदमी और दो औरतें एक दम अंगीठी पर आ गए, असा जो बचाई लिया भाई लोको! तिना मारी देने असां! सह दौड़दे असां दे पीछे मारने वास्ते। मैहर को एक दम से कुछ न सूझा।


    उसके चेहरे पर एक नए खौफ ने एकदम से ही दस्तक दी। उसी वक्त उसे खातरियों का ख्याल आया। अगर इधर अपने घर में छुपाता तो भी वो ढूंढ ही लेते और पूरी बिरादरी उसके पीछे पड़ जाती। उसको एक दम से खातरियों का ख्याल आया। मैहर बोला, ''छुप सको तो वहीं खातरियों में बच सकते हो या फिर आगे निकल जाओ, भाइयो। मेरे भी छोटे बच्चे हन।'' मैहर ने उन्हें खातरियों का रास्ता बताना शुरू कर दिया, “आगे दो कोह पर इसी रास्ते पर आम के बड़े पेड़ से आगे सप्पड़ ही सप्पड़ आएंगे। वहीं दाई ओर सप्पड़ों के एक टीले पर दो खातरियां हैं। वहीं छुपना ठीक रहेगा। सुबह मैं तुम्हारी कोई मदद कर सकेंगा। आप समझ गए होंगेकि मेरी भी मजबूरी है।''


    मैहर को लगा कि एक औरत ने अपनी गोद में एक बच्चा भी उठाया है और उसे मोटे कंबल में छिपाया है, लेकिन जब तक मैहर कुछ और आगे सोचता और बोलता, वो लोग निकल गए। वो तो चले गए लेकिन मैहर का चैन भी साथ में ले गए। मैहर के दिमाग में एक दम से आया-कि अरे! यह मैंने क्या कर दिया, मैंने तो बहुत बड़ा जुर्म कर दिया है। उसे लगा कि जैसे उसने उन्हें मौत की ओर धकेल दिया हो। वह बिस्तर पर पड़ तो गया रजाई ओड़कर, पर नींद तो खातरियों की ओर चली गई थी उन्हीं लोगों के संग। मैहर * के माथे पर पसीना उतर आया था। उसने सोचा-“आज बहुत बुरा होने वाला है, मैं क्यों नहीं जल्दी सो गया और क्या मैं ही बचा था उन लोगों को रास्ता दिखाने वाला? क्या पूरा गांव सूना पड़ गया है?'' पल-पल बदलते दृश्य मैहर की आंखों के आगे तैरने लगे थे।


    उसे बस यही लगा कि उसने उन्हें क्यों खातरियों की ओर भेजा है। वह क्या चुप भी नहीं रह सकता था? वह क्या अपना मुंह बंद नहीं रख सकता था? वह चुपचाप हाथ जोड़ कर उन्हें भाग जाने का इशारा भी कर सकता था, या फिर उन लागों के आने की आवाज पर चुपचाप घर में छिप भी सकता था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ था और अब अगर वे नहीं रहे, तो हत्याओं का दोषी वही होगा। वह एकदम से बिस्तर से उठा और खातरियों की ओर निकलने लगा, उनके पीछे-पीछे। फिर बाहर आंगन पर एकदम से रुक गयाअगर कहीं उन हथियारों ने उसे ही काट दिया, तो फिर मैहरनी का क्या होगा? बड़ी और छोटी लड़की का क्या होगा? उसने तो अभी ढंग से छोटी का चेहरा भी नहीं देखा है। मैहर को एक कदम आगे और एक कदम पीछे की ओर धकेलता रहा बड़ी देर तक। वह पागलों की तरह वहीं ठंडी रात के साए में बाहर आंगन में ही खड़ा रहा बड़ी देर तक। कुछ देर के बाद उसे ठंड महसूस हुई, तो वह फिर से अंगीठी में आग तलाशने लगा।


    उसने अंगारे निकाल कर फिर से लकड़ियां लगा दी। ठंडी पड़ी चिलम को फिर से भरा और धीरे-धीरे हुक्का गुड़गुड़ाने लगा। धुंए के छल्ले आग की लपटों में नाचने लगे। मैहर को लगा, जैसे इन्सानों को खून में रंग कर कुछ लोग भी उन धुंए के छल्लों की तरह नाच रहे हैं। वह बरामदे में नवार के मंजे पर खंदोलू व रजाई ठीक करके फिर से सोने की कोशिश करने लगा, लेकिन उसका मन विचलित सा हो गया था। उसे लगा कि उसे अंदर सोना चाहिए, लेकिन वह वर्षों से बाहर बरामदे में ही सोता आ रहा है तो फिर अब बढांगे के डर से क्यों सोए अंदर। वैसे भी बढ़ांगा दूसरी बिरादरी वालों के लिए हैउसकी बिरादरी में तो सब उसे जानते हैं। मैहर है वह इस गांव का। पहला घर है गांव में उसका। सैकड़ों कनाल का मालिक है, पर मन डर को भेज रहा था, मैहर की गर्म रज़ाई में दुबकने के लिए।


    मैहर ने सोचा कि शायद वे , लोग खातरियां न ढूंढ पाए हो और कहीं आगे निकल गए हों, पर उसे उन लोगों की मौत का डर तरहतरह के डरावने ख्याल बना रहा था। उसने फिर से चिलम भरी और फिर से हुक्का गुड़गुड़ाने लगा। अभी कोई आधा घंटा ही हुआ होगा कि धड़ाम-धड़ाम की आवाजें करते हुए कुछ लोग उसके आंगन के सामने से निकलते रास्ते पर रुक गए। शायद उन्होंने मैहर की अभी तक जल रही अंगीठी से निकले धुएं की गंध व मैहर के हुके की गंध महसूस कर ली थी। मैहर की सफेद रजाई और उसमें बैठे मैहर पर उनकी नजर पड़ गई। पांच-छह लोग एकदम बरामदे के सामने आंगन में आ गए। मैहर एक दम से चौकन्ना हो गया। बिस्तर पर बैठे-बैठे ही उसने मुंह खोल दिया, ''हां भाइयों! क्या गल है! इतनी रात गए, क्या हो गया।'' 


      'कहां गए वो लोग?' एक रौब से बोला था। ''कौन लोग? क्या हो गया?'' मैहर बोला। 'तुम लोगों ने तो नहीं छुपा लिया उन्हें पेडुओं में,' दूसरा बोला। 'भाइयों पेडू तो मक्की से भरे हैं और किसको छिपाना है हमने। इधर तो कोई नहीं आया। क्या बात हो गई! भाईयो।' मैहर ने थोड़ा घबराकर जवाब दिया। एक ने गाली बक दी, 'ये साले! पता नहीं कहां भाग गए? पता नहीं कौन छुपा बैठा है इनको।' मैहर का रंग उड़ता जा रहा था। सभी लोगों के हाथों में दराट और कुल्हाड़ियां थीं और वे इधर के इलाके के नहीं लग रहे थे। दूर प्रदेश के हो सकते हैं। एक सरदार पंजाबी में बोल पड़ा, "ओए उन्हां साडे बंदे बढ-बढ़ के सुट्टे हन और तुंसी लोक उन्हां ते रहम करदे फिरदे। शर्म नहीं आंदी तुहानू !'' मैहर ने हाथ जोड़ दिए थे, सरदार के आगे, 'नहीं सरदार जी, मैं बाहर ही सुतया था, मैं नी दिखया कोई जांदा होया। शायद दूसरे रास्ते से गए हों।'


    मैहर जल्दी से खड़ा होते हुए ही फिर बोल पड़ा, “आओ जी सारे,मैं अंगीठी बालदा अग आली भी चला दी।' ** ओए नहीं-नहीं ओए! असां अजे उन्हां दा कम करना है'', सरदार अपनी तलवार मैहर कीओर करके बोला, “तां ही दिल दी अग बुझणी।'' “तूसां अंदर दिखी सकदे भाई, मैहरनी ते मेरे बच्चे सुते हुन अंदर।'' मैहर कंपकपाती आवाज में बोला। "ओए! नहीं -नहीं, ठीक हे चलो ओए, आगे बढो। किन्ने के दूर जाउगे वो लोग।'' सरदार ने अपना ध्यान बदल लिया था।। फिर वे सभी तेज कदमों से आगे निकल गए, उसी रास्ते से जो दूसरे गांव की ओर जाता है और जहां रास्ते से थोड़ा अलग हटकर सप्पड़ों में बनी खातरियां हैं।


    मैहर की टांगे कांप रही थीं। ये क्या हो गया भगवान! उसका सारा शरीर अचेत सा हुआ जा रहा था। वह बिस्तर पर बैठ तो गया लेकिन उसका मन उसे आने वाले कत्लेआम की डरावनी छवि बना चुका था। उसका मन उसे कभी खातरियों की ओर ले जा रहा था, तो कभी उन चारों की मौत का मंजूर बनाता जा रहा था। कभी उसका मन उसे उन लोगों को बचाकर भगाता दिखाई दे रहा था। उसने इसी उधेड़बुन में काफी समय वहीं बिस्तर पर बिता दिया बैठे-बैठे। क्या-क्या नहीं सोच लिया मैहर ने वहीं पर बैठे-बैठे हीअब तो उसके मन ने यह मान लिया था कि यह सब कुछ उसी की वजह से हुआ है, न वह बाहर बरामदे में सोता और न ही उससे कोई रास्ता पूछता। लेकिन अब क्या हो सकता है। वह फिर से बिस्तर से उठा और अंगीठी पर बैठ गया अंगीठी जल रही थी कि नहीं इस बात का मैहर को कोई असर नहीं हो रहा था। कभी चिलम ठंडी होती तो फिर अंगारों को ढूढ़ता और एक दो लकड़ियां लगाता।


    उसने अपने पहाड़िया देवता से कोई सौ बार प्रार्थना की, “बस भगवान! आज की रात उनको बचा ले, मेरे सिर पर हत्याओं का दोष मत आने देना, मैं पूरी जिंदगी तेरे को हर फसल चढ़ाऊंगा, बस एक बार बचा ले, मैं आज के बाद कभी बाहर बरामदे में नहीं सोऊंगा, बस मेरे पहाड़ियां महाराज!'' सुबह के कोई तीन बजे होंगे लेकिन मैहर अंगीठी से उठ नहीं सका था। वह आग जलाता रहा और न जाने कितने ही मौत के खेल सोचता रहा। कभी खुद को कोसता, तो कभी पहाड़िया को याद करता कि इस बार तो उन लोगों को बचा लिया होगा, जिन्हें उसने अनजाने में खातरियों की ओर भेजा है।


    मैहर ने सुबह होने की किरणें महसूस कीवह डंडा उठाकर निकल पड़ा खातरियों की ओर।रास्ते में उसका मन अभी भी उसे कई तरह के सब्जबाग दिखाता रहा और साथ में एक डर भी तेज कदमों से उसका पीछा करता रहा। वह डर अब क्या-क्या कर सकता है ये तो अब मैहर को मालूम हाने ही वाला था। उसने खातरियों का कोई चार कोह का रास्ता पलक झपकते ही पूरा कर लिया। उसके कदम खातरियों की ओर ऐसे खिंचे जा रहे थे कि जैसे उसे कोई भूत खींचकर ले जा रहा हो।जैसे ही मैहर सपड़ वाले घास के टेले में पहुंचा, मैहर की आंखें फटी की फटी और कलेजा धक सा रह गया। पूरे टेले में खून ही खून था।


    खातरी के बाहर सप्पड़ खून से रंग गए थे। मैहर खातरी के अंदर झांका तो अंदर चार लोगों की लाशें पड़ी थीं। पूरी खातरी खून से भरी पड़ी थींकभी अनाज से भरी रहने वाली खातरी अब लाशों से भरी पड़ी थी। खातरी में खून की गंध फैली थी। इस बार इन खातरियों ने जो देखा होगा, जो सहा होगा वह देखने लायक नहीं था। मैहर पूरी तरह कांप रहा था। उसका मन रोने को कर रहा था।उसे कुछ नहीं सूझ रहा था। वह वहीं खातरियों के बाहर बैठ गया। उसके सामने अब हर दृश्य साफ-साफ बन रहा था। वो दूसरी बिरादरी के लोग अभी खातरियों में छिपे ही थे कि कोई आधे घंटे में ही उनकी गंध में भटकते खून के प्यासों ने उन्हें ढूंढ लिया था।


    उसके बाद वो राक्षस बन चुके इन्सान रात के अंधेरों में अपने चेहरे छिपाए उन चारों को खातरियों में घुसकर और बाहर खींचकर टूट पड़े थे। उनमें से एक राक्षस ऐसा था, जो नजदीक किसी गांव का था, उसे इन खातरियों की खबर थी, बस चारों को निकाल-निकाल कर काटकर फिर से खातरियों में धकेल दिया था। मैहर चिल्ला भी नहीं पाया। उसने सोचा अगर इतनी रात गए चिल्लाया, तो न जाने लोग उस पर ही शक न डाल दें। इस रक्तपात के भयावह दृश्य को देखकर वह खातरी में घुस भी न पायाबड़ी देर वहीं बैठा रहा, जैसे ही मैहर उठने को हुआ, उसे खातरी के अंदर से एक कराहट सी सुनाई दी।


    मैहर ने खातरी के खुले भाग से अंदर झांका, तो उसे लगा कि अंदर एक आदमी की बाजू थोड़ी हिली थी। मैहर झट से नीचे उतरा। खून से लथपथ शरीर जगह-जगह से कटे थे। उसी हाथ ने एक ओर पड़ी चादर की ओर इशारा किया। कटा हुआ शरीर र कुछ बोलने की कोशिश भी कर रहा था। मैहर ने हड़बड़ाहट में एक ओर पड़ी चादरों को हटाया। मैहर की आखें फटी की फटी रह गई और अब उनमें से आंसू भी टपकने लग पड़े थे। चादर के । नीचे घास में दुबका एक बच्चा धीमे स्वर में सुबक-सुबक कर से रो रहा था। वह वही बच्चा वही था जो उन दो औरतों में से एक ने अपनी गोदी में लिया था। मैहर के कानों में एक आवाज आई, 'ले ...ले... जाओ.. भाई... इसे..। तुम ही.. पाल लेना... या फिर दीन मौहम्मद के घर हाजियाँ गाँव में छोड़ आना... मौका देख कर..। अभी तो वहां कोई नहीं बचा है..।'' मैहर ने एक हाथ से उस आदमी का हाथ पकड़ लिया और दूसरे हाथ से पकड़ कर बच्चे को गोदी में उठाए रखा।


    इसके बाद वह हाथ ठंडा पड़ता गया और फिर सदा के लिए ठंडा हो गया। मैहर ने वह हाथ अपने हाथ से बड़ी मुश्किल से छुड़ाया। मैहर ने बाहर खातरी के मुंह की ओर देखा, उसे चांद दूर कोने की ओर जाता दिखाई दे रहा था। मैहर ने अपनी बुक्कल में बच्चे को छुपाया और लम्बी फरलांगें भरता हुआ घर की ओर भागा। अंधेरा अभी भी उसका पीछा करता रहा बड़ी देर तकघर आकर मैहर और मैहरनी के बीच क्या बातचीत हुई यह तो सुबह होने के पहले का बहुत कम अंधेरा ही कहीं छुपा बैठा है। सुबह मैहर ने गांव वालों को इक्ट्ठा किया और सिर्फ इतना बताया, “ कुछ लोग भागे थे रात को और उनके पीछे बहुत से लोग...। कहीं इधर-उधर देख लेते हैं कि बढागा न पड़ा हो।'' घंटे भर में पूरा गांव खातरियों तक पहुंच गया था और लाशों का ढेर खातरी से बाहर था।


    किसी ने सलाह दी थी कि इन्हें वहीं दफना आते हैं जहां कोई पांच छह गांव छोड़कर उस बिरादरी के लोग रहते हैं, कोई तो होगा वहां या फिर सब भाग गए होंगे, तो भी। ऐसा ही हुआ सब-के-सब उनकी ही बिरादरी के गांव में जंगल में दफना दिए गए। पुलिस कहां थी तब, जब तक पुलिस आती तब तक तो कंकाल भी न रहते शरीरों पर। बढांगा क्या होता है, इस घटना के बाद पूरे-के-पूरे इलाके को पता चल गया था। बस कुछ बातों का पता अभी चलना था धीरे-धीरे, लेकिन वो भी अगर मैहर और मैहरनी के दिल से निकलती, तो न! अपने ही हाथों चारों को दफनाने के बाद मैहर और लोगों संग रात को घर आकर अंगीठी जलाने लगा और संभार सभी लोगों को रात को अंगीठी पर पहरा देने की बात करके थोड़ा शांत हुआ। अंगीठी फिर आग की लपटों में पिछली रात की कहानी याद करती रही ।मैहर ने हाथ मुंह याद करती रही ।मैहर ने हाथ मुंह धोकर उस बच्चे को पहली बार ढंग से देखामैहरनी ने उसे अब तक अपना दूध पिला दिया थामैहरनी बिस्तर पर अपनी ९ महीने की बच्ची के साथ एक लड़के को सुला चुकी थी। मैहर कुछ न बोल सका, बस ईश्वर का नाम लेता रहा बड़ी देर तकउसने अंगीठी पर बैठते ही एक कहानी और फैला दी कि दूर की रिश्तेदारी में मैहरनी की मुंह बोली बहन मर गई और वे लोग एक बच्चे को छोड़ गए है हमारे हवाले थोड़ा पालने के लिए।


    गांव वाले अभी शक में नहीं पड़ सकते थे, उन्हें तो बढांगे की खबरों से ही फुर्सत नहीं थी। दिन बीतते गए और दूर-दूर के गांवों व शहरों से बढायें की खबरें आती रहीं कुछ दिन। फिर सब कुछ शांत हो गया, लेकिन मैहर का मन उस घटना के बाद कभी शांत नहीं हुआ। गेहूं कटनी शुरू हो गई और मैहर का मन गेहूं खत्म करके उस गांव में दीन मौहम्मद की तलाश करने में लगा रहा। कभी सोचता कि अब तो मैहरनी को भी आदत पड़ गई है इस बच्चे की। उसने तो उस बच्चे का नाम भी रख दिया था। अब कहां होगा वह दीन मौहम्मद? पता नहीं! कहीं दूर ही बस गया होगा! या फिर वापिस अपने गांव आ गया होगा। वह गांव दूर बड़ी धार के ऊपरी सिरे पर पूर्व की ओर था। घने जंगलों के बीच है उसने बातों-बातों में दूसरे-तीसरे गांव में लोगों से पता किया था, उस गांव के बारे में। कोई आठ-दस घंटों में वहां पहुंचा जा सकता था, लेकिन वहां जाना है या नहीं, यह तो समय ही बताएगा।


    मैहरनी चुपचाप बच्चे को पालती जा रही थी। मैहर का एक मन करता कि अब यहीं ठीक है ये बेचारा, कहां रहेगा किसी और के पास। और कहां मिलेगा इसे मैहरनी जैसा प्यार। एक बार मैहर थोड़ा परेशान सा हुआ तो मैहरनी से फिर पूछ बैठा, “अच्छा तू ही बता कि इसे छोड़ आएं कहीं या फिर तू ही इसे अब पालेगी।'' मैहरनी के चेहरे पर उभर आई उदासी उसे साफ शब्दों में कह रही थी कि अब मैहरनी इस बच्चे की अपना चुकी है, लेकिन फिर भी वह पराया ही था और कहीं दीन मोहम्मद उसे ढूंढता हुआ, यहां आ पंहुचा तो फिर उन दोनों ना के पास कोई जवाब नहीं होगा। गेहूं का काम खत्म हो ही चुका था, मैहर एक सुबह मैहरनी से दो-चार बातें करके निकल गया।


    पहले खड़ को पार किया और फिर दो बड़े गांवों को पार किया। मैहर तब तक धार की चढ़ाई शुरू कर चुका था, जब तक सूरज अपनी तपस को उठाए सामने आता। धार क्या चीड़ के जंगल ही जंगल और आदम बस्ती का कोई निशान नहीं, कहीं एक आध घर दिखता, तो रास्ता पूछने के लिए मैहर रुक जाता। एक घर पर पानी पीने के लिए रुका तो घर के बुजुर्ग ने पूछ लिया, “कहां जा रहा है माणु, इस रास्ते पर?'' मैहर ने पुरानी देनदारी का बहाना बना कर दीन मौहम्मद का नाम लिए बिना सिर्फ गांव का नाम पूछा था, “बस जी, पुरानी देनदारी है, गांव के किसी के साथ, उसे ही निपटाने जा रहा हूं।'' वह बुर्जुग बोला, “ओ नही भाई माणुआ! ओथी तां कोई नहीं बचया है! बढाने के बाद, तू कुसते लेन-देन करेगा? भले मानसा!''


    मैहर अंदर से जैसे अपनी खुशी नहीं छुपा पा रहा था, पर यह खुशी उसके मन की अंदर की तहों में थी, जो सिर्फ मैहर ही महसूस कर सकता था। वह चलते-चलते बोला, “चलो! कुछ भी हो, मिझों जाणा ही पोणा, यह लेन-देन बड़ी बुरी चीज है भाई लोको।'' पूरे रास्ते मैहर ने अपने ईश्वर पहाड़िया से एक ही दुआ की थी कि बस वह गांव पूरी तरह से उजड़ चुका हो और उस पूरे गांव में उस दीन मोहम्मद नाम का कोई आदमी बचा न हो। धार की चोटी पर पहुंचते हुए अब नीचे की ओर जाना था। गांव के उस बुर्जुग ने तो यही रास्ता बताया था। टियाले पर बैठ कर वह कुछ पल सुस्ताने लगा। टियाले पर पुराने से दो घड़े पड़े थे और एक टूटे हुए घड़े की कुछ ठीकरियां चारों ओर फैली थी।


    मैहर प्यास से तड़फ रहा था उसने एक-एक घड़े के अंदर झांका। पानी की एक बूंद उसे नजर नही आई। वो तो कब से सूखे पड़े थे। मैहर ने अपने साफे से माथा पोंछा और नीचे चीड़ के जंगल से उतरने लगाएक मोड़ पर उसे वही गांव दिखाई दिया जिसे ढूंढता हुआ वह यहां तक पहुंचा था। सूरज भी नीचे उतरने लग पड़ा था पश्चिम की ओर। कोई आधे घंटे में वह गांव में पहुंच चुका था। गांव क्या चीड़ के जंगल के बीच कहींकहीं दूर फासलों पर कुछ घर थेगांव के इर्द गिर्द के खेत सूखे पड़े थे। बरसात के समय की उगाई मकी की फसल अभी भी खड़ी थी।


    कहीं मक्की के पौधे टूट फूट गए थे तो कहीं चूहों ने दाने खाकर गिरा दिए थे। कहीं पक्षियों ने पौधों से दाने साफ कर दिए थे। मैहर के मन को एक उदासी ने जैसे घेर लिया। हर घर पर ताला लगा था। एक घर पर वह रुका, उसमें ताला नहीं था। उसने जोर से आवाज लगाई, कोई है अंदर! कोई है!' उसको कोई जवाब नहीं मिला। वह घर में घुस गया। घर में घुसते ही उसे लगा जैसे उसका दम घुटने लग पड़ा हो। चारों तरफ मकड़ियों के जाले ही जाले थे। ऊपर बौहड़ (दूसरी मंजिल) की पौड़ियों को धीरे -धीरे चढ़ने लगाऊपर चढ़ते हुए उसने देखा कि रसोई में तीन चार थालियां ऐसे पड़ी थी जैसे कभी यहां किसी ने खाना खाया हो। चूहों की गंदगी हर थाली में बिखरी पड़ी थी। उसने रसोई पर पड़ी कड़ाई में कुछ सूख चुकी दाल देखी और उसमें भी चूहों की गंदगी। वह चुपचाप नीचे उतर आया। फिर एक घर से दूसरा घर, उसे कहीं कोई नजर नहीं आया। वह हर घर के बाहर खड़ा होकर आवाजें लगाता रहा। गांव में तो कोई कुत्ता भी नहींबचा था। गांव के एक कोने पर एक कुंआ था। कुएं में बाहर रस्सी में बंधी एक बाल्टी थी। उसने बाल्टी उठाई और पानी निकालने के लिए कुएं में फेंकी। आधी बाल्टी को खींच कर जैसे ही उसने पानी का घूट भरा, उसने पूरा पानी बुलक दिया।


    पानी में इतनी सड़ाध थी कि पीना मुश्किल था। उसने पानी फेंक दिया। उसने कुएं की ओर झांका,उसकी आंख ने जो देखा वह देखने लाइक नहीं था। कुएं के पानी में सड़ी हुई लाशें तैर रही थीं और सड़ाध उसके नथुनों तक आ गई। उसकी टांगें कांप उठी। वह कहां आ गया था। इतना भयानक दृश्य देखकर वह तेज कदमों से वहां से भाग निकला। पूरी की पूरी चढ़ाई उसने कुछ फरलागों में पूरी कर ली। फिर से धार के सिरे पर पहुंच कर उसने लंबी सांस ली। एक डर अभी भी उसके पीछे दौड़ा था पर उसे लगाकि अब वह डर धार के दूसरी ओर नहीं उतरेगा।


    मैहर ने जो देखा था वह न तो किसी को बताने काबिल है और न ही बताएगा, पर उसका मन डर से अंदर तक कांप रहा था। ऊपर शाम का सरज उसको वापिस घर तक ले जाने के लिएइंतजार कर रहा था। मारे प्यास और भूख से उसका शरीर तड़फ रहा था, पर उसका मन अभी डर को ही पचाने में लगा था। उसने नीचे उतरना शुरू कर दिया। पुराना रास्ते का एक मोड़ उस घर की ओर जाता है, जहां से उसने पानी पीया था। उसे लगा कि कोई उसे देख न ले इसलिए उसने रास्ते को छोड़ जंगल के बीच से ही उतरना शुरू कर दिया। कई खाइयों, कई ढलानों से उतरता वह अब उस गांव से निकल गया था एक चौ में उसने कुछ बूंट पानी के पी लिए। जहां उसे कोई घर नजर आता वह अपना रास्ता ही बदल लेता।


  अंधेरा उसके डर के साथ मन की तहों को साथ देने भी आ चुका था। चीड़ के जंगल खत्म हो गए थे और उसकी जान-पहचान के गांवों के रास्ते नजर आने लग पड़े थे धुंधले-धुंधले। वह इतना थक चुका था कि एक कदम भी चल न पाए, पर उसका डर उसे धकेलता जा रहा था। हर दृश्य उसकी आंखों की रोशनी तेज करता हुआ उसे गांवों के रास्तों पर दौड़ा रहा था। रात हो चुकी थी वह खडू के ऊपर गांव में पहुंच गया। उसने सोचा कि पानी तो पी लेता हूं, कुछ पल सुस्ता लेता हूं लेकिन वह चुपचाप निकल जाना चाहता था। लोगों ने दीए बुझा दिए थे और सोने की तैयारी कर रहे थे। एक घर के बाहर उसे अंगीठी जली हुई दिखाई दी। वह उसके मामा का घर था। बस वह वहीं रुक गया।


    अंगीठी के सामने आते ही उसके कानों को कोई आवाज सुनाई दी, 'आ ओए पानजेयां, इतनी रात कुंता ते आया। सब ठीक तां है।' मैहर ने पानी के दो गिलास पीकर बस एक ही किस्सा सुनाया, शहर गया था, पर लेट हो गया उस मिरग (तेंदुआ) की वजह से, रास्ते में ही बैठा था। उसने आगे जाने ही नहीं दिया और मैं उसके भागने का इंतजार करता रहा। जब वह नहीं भागा तो मैं खेरों के जंगल से बड़ी मुश्किल से यहां पहुंचा। मामी मक्की की रोटियां और सब्जी अंगीठी पर दे गई। मैहर ने पल में खाना खत्म कर दिया फिर हुक्का गुड़गुड़ाने लगा। तभी मैहर के गांव के दो आदमी उसे ढूंढते हुए वहां पहुंच गए और बोले, "यहां बैठे हो मैहर साहब! हमने तो अब तक पता नहीं कहां निकल जाना था आपको ढूंढने। मैहरनी ने रात होते ही हमें आपको ढूंढने भेज दिया था'' मैहर ने डंडा उठाया और निकल पड़ा उनके साथ घर की ओर। घर पहुंचते ही मैहरनी ने अंगीठी जला दी थी। मैहर जैसे ही अंगीठी के पास पहुंचा वहां कोई अन्जान आदमी अंगीठी पर बैठा आग सेक रहा था। मैहर ने मैहरनी की आखों में आंखे डाल कर देखाइससे पहले की मैहरनी कुछ बोलती, वह आदमी बोल पड़ा था, “मैहर जी, मै दीन मौहम्मद हूं। उस बच्चे का ढूंढता हुआ आपके घर तक पहुंचा हूं।' इससे पहले की वह कुछ और आगे बोलता, मैहर बोल पड़ा, “आप बच्चे को अभी ले कर जाओगे या फिर सुबह तड़के।''


                                                     सम्पर्कः कृष्णा नगर, हाउस न. 618, वार्ड न. 1, हमीरपुर, हिमाचल प्रदेश-177001