गोपाल रंजन ,प्रधान संपादक
तापमान बढ़ा हुआ है, गर्मी केवल हवा में ही नहीं, उठती आवाजों में भी है। इस प्रचण्ड गर्मी ने एक ऐसा वातावरण तैयार कर दिया है जो समझ और व्यवहार में बड़ी दरी पैदा कर रही है। किसी भी जनतंत्र में चनाव की बहुत बड़ी भमिका होती है। या यूं कहें कि जनतांत्रिक व्यवस्था की धुरी चुनाव ही है और चुनाव सिद्धांतों के आधार पर नहीं लड़े जाते, यह बात पिछले कई दशकों से स्पष्ट रूप से उभरकर सामने आई है। समाज हमेशा सोचता है कि यह व्यवस्था हमारे हक की बात करेगी और इसी उम्मीद में एक नए मजबूर उत्साह के साथ लोग इस प्रक्रिया में शामिल होते हैं। परन्तु, उनके हाथ लगता है वही पुराना घिसापिटा झुनझुना। यह बात थोड़ी कड़वी लग सकती है, परन्तु भारतीय जनतंत्र में जातिवाद और मज़हब ने जो जमीन हथियाई है उसको देखते हुए ऐसा ही लगता है कि आम आदमी के हक में इससे ज्यादा कुछ आने वाला नहीं है। वास्तव में जनतंत्र और पूंजी एक-दूसरे से बहुत गहरे से जुड़े हुए हैं। वामपंथ जिस पर समाज को सही रास्ते पर ले जाने की जिम्मेदारी थी, उसने अपनी जमीन बहुत तेजी से छोड़ी है। ऐसा क्या कारण है कि वामपंथ जनतांत्रिक वामपंथ में तब्दील होने के बावजूद जनतंत्र में अपनी मजबूत पैठ नहीं बना पाया। आज की तारीख में वह काफी हद तक विमर्श से बाहर है। यह एक खतरनाक स्थिति है।
जनतंत्र और वामपंथ के रिश्ते पर लम्बे समय से विद्वानों के बीच गहरे मतभेद रहे हैं। कुछ विद्वानों का मत है कि जनतंत्र और वामपंथ के संबंध प्राकृतिक नहीं हैं क्योंकि जनतंत्र में ऐसी तमाम ताकतें शक्तिशाली हो जाती हैंजो वामपंथ के लिए हितकर नहीं होती हैं। खासकर हिन्दुस्तान के परिप्रेक्ष्य में। वामपंथ संस्थाओं में तो विमर्श के केन्द्र में है परन्तु भारतीय समाज में उसकी यह स्थिति नहीं बन पाई है। यह सच है कि जिस तरीके से भारत में उदारवाद और पूंजीवाद का नंगा नाच हो रहा है, वह किसी भी तरह से यहां की गरीब जनता के हित में नहीं है। वैश्विक बाजारवाद ने पूंजी के महत्व को बहुत अधिक बढ़ा दिया है। इससे कोई भी देश अछूता नहीं है। विकास के नाम पर तेजी से संसाधनों की लूट हुई है और पूंजी निवेश के नाम पर आत्मनिर्भरता कम हुई हैजिसके परिणामस्वरूप सार्वजनिक प्रतिष्ठानों का क्षरण हुआ है। समस्या यह हैकि मामला हाथ से बहुत पहले निकल चुका है, आंदोलनों की रीढ़ टूट गई है और हमले इतने तेज हो गए हैं कि सम्हलने का मौका किसी के पास नहीं हैइसका अर्थ यह नहीं है कि सबकुछ निराशापूर्ण है, फिर भी भयावह तो हैं ही। रास्ते बंद दिखाई पड़ रहे हैं। जरूरी मुद्दे गौण हो गए हैं और पतन की सीमा खत्म हो गई है।
लेखन के लिए प्रतिबद्धता एक जरूरी अवयव है। जनपक्षधरता से मुक्त लेखन न केवल उच्छृखल होता है बल्कि समाज को हानिकारक ढंग से प्रभावित भी करता है। लेखक की जिम्मेदारी समाज के प्रति बहुत गहरी होनी चाहिए। इसलिए आज के दौर में इस पर चिंतन बहुत ही महत्वपूर्ण है। सबसे बड़ी समस्या यह है कि वैचारिक प्रतिबद्धता को अपनी सुविधा के अनुसार व्याख्यायित करने का खेल भी हो रहा हैलेखकों के अन्तः और बाह्य दोनों में स्पष्ट अन्तर दिख रहा है। इसका कारण यह है कि समाज के प्रति लेखक की जो जवाबदेही होनी चाहिए, उसे बड़ी साजिश के तहत भुला दिया गया है।
नामवर सिंह जैसे महान् आलोचक के बारे में बात करते हुए इन सारी चिंताओं को केन्द्र में रखने की जरूरत है। इसमें कोई दो राय नहीं कि नामवर सिंह की उपस्थिति वैचारिक आतंक भी पैदा करती थी क्योंकि उनका कद इतना बड़ा था कि उसके साये से निकलना सामान्य तौर पर संभव नहीं था। यद्यपि उनके सिद्धांत और व्यवहार को लेकर काफी बातें होती रही हैं परन्तु उन बातों में तार्किकता का अभाव रहा हैअब हो सकता हैकि बातें कुछ और स्पष्टता से उभरें। हिन्दी साहित्य में नामवर सिंह की कमी को दूर करने के बारे में सोचना एक असंभव सी बात है क्योंकि उन्होंने अपनी लम्बी उपस्थिति से जो जगह बनाई वह शायद ही भरी जा सके। अब समय आ गया है कि प्रतिबद्ध लेखन अपनी भूमिका को और विस्तार दे, इसके लिए बकौल राजेन्द्र कुमार यह विचार करना होगा कि हम जिसके लिए लिख रहे हैं, उस तक हमारी बातें पहुंच रही हैं या नहीं। इसके लिए हमें समाज के बीच जाना होगा, उनसे डायलॉग बनाना होगा और देखना होगा कि आखिर वे कौन से कारण है कि लेखकों की आवाज उन तक नहीं पहुंचती है। रमणिका गुप्ता जैसी लेखिकाओं की आज ज्यादा जरूरत है।
सृजन सरोकार ने नामवर सिंह, कृष्णा सोबती और रमणिका गुप्ता की समाज और साहित्य में देन को रेखांकित करते हुए कुछ बातें कही हैं। यद्यपि नामवर सिंह को और कृष्णा सोबती तथा रमणिका गुप्ता को और स्थान दिए जाने की जरूरत थी, लेकिन सीमा में बंधे होने के कारण हम ऐसा नहीं कर सके। आगे जरूर यह प्रयास होगा कि इन महान् लेखकों के बहाने जरूरी मसलों पर बहस हो। सृजन सरोकार ने अपनी प्रतिबद्धता के साथ विमर्श को हमेशा महत्वपूर्ण माना है। पिछले अंकों में भी इस पर तीक्ष्ण दृष्टि रखी गई है। इलाहाबाद विशेषांक इसका उदाहरण है। पाठकों ने जिस तरह पिछले अंकों को अपनाया है उससे हमें ताकत मिली है लेकिन यह पर्याप्त नहीं है। हम चाहते हैं कि आम जन की सकर्मक लड़ाई में पूरी तरह शामिल हों लेकिन हमारी आवाज इतनी मद्धिम है कि शायद उन लोगों तक नहीं पहुंचती जहां तक हम चाहते हैं, फिर भी हमारी अपील है कि समाज को सही दिशा देने के प्रयास में जनपक्षधर ताकतें और तेजी से सक्रिय हों।