औपचारिक शिक्षा-दीक्षा इलाहाबाद में हुई। युवा अवस्था में राजनैतिक व सामाजिक जीवन में सक्रिय रहे. लेखन क्षेत्र में अपने गुरु स्वथ श्री कमलेश्वर जी का आशीर्वाद हासिल रहा। गत 30 वर्षों से हरियाणा में प्रवास। 2 बार हरियाणा साहित्य अकादमी (शासी परिषद) के सदस्य रहे। देश विदेश के अनेक समाचार पत्र-पत्रिकाओं में नियमित सम्पादकीय व सामयिक विषयों पर सक्रियता से लेखन।
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लड़कपन से लेकर जवानी तक, अपनी आयु का एक बड़ा हिस्सा इलाहाबाद में बिताने के बावजूद मुझे अपने व इलाहाबाद के संबंधों अथवा अनुभवों के विषय में कुछ लिखने का अवसर कभी प्राप्त नहीं हुआसंभवत: यह पहला मौक़ा हैजब अपने मित्र वरिष्ठ पत्रकार गोपाल रंजन जी के आग्रह पर इलाहाबाद अथवा प्रयागराज की पावन भूमि पर आधारित अपने कुछ अनुभवों को साझा करने का शुभावसर प्राप्त हो रहा है।
इलाहाबाद देश के उन गिने-चुने शहरों में से एक प्रमुख है जो भारतवर्ष की सांझी तहज़ीब तथा देश की सबसे बड़ी विशेषता अर्थात् विभिन्नता में एकता का दर्शन कराता आ रहा है। हमारी पौराणिक मान्यताओं के अनुसार चाहे वह देवताओं व असुरों के मध्य हुए समुद्र मंथन के बाद अमृत छलकने की घटना हो,गंगा-यमुना-सरस्वती का संगम हो, हमारे अनेक प्राचीन ऋषियों-मुनियों की तपोस्थली या फिर अमीर खुसरो, अकबर महान् से जुड़ा हमारा मध्ययुगीन इतिहास रहा हो या चंद्रशेखर आज़ाद की शहादत की बात हो या फिर इंदिरा-नेहरू परिवार से जुड़े किस्से हों या साहित्य जगत में महादेवी वर्मा, डा. रामकुमार वर्मा, फ़िराक़ गोरखपुरी व अकबर इलाहाबादी के नाम का जिक्र हो या फिर विश्वविख्यात इलाहाबादी अमरूद की बात हो, पीडी टंडन व मदनमोहन मालवीय जैसे स्वतंत्रता सेनानियों की कर्मस्थली का जिक्र हो,बिना इलाहाबाद अथवा प्रयागराज का जिक्र किए उपयुक्त इतिहास निश्चित रूप से अधूरा ही माना जाएगा। खान-पान,धार्मिक व सांस्कृतिक संस्कार,तमीज-तहज़ीब, शिक्षा, साहित्य,राजनीति, शेर-ओ-शायरी गोया प्रत्येक क्षेत्र में इलाहाबाद ने अपनी मजबूत उपस्थिति भारतीय मानचित्र में दर्ज कराई है।
पिछले दिनों इलाहाबाद का नाम बदलकर प्रयागराज रखने की एक ऐसी शरारतपूर्ण कोशिश की गई जिससे इलाहाबाद के लोगों को धर्म के नाम पर विभाजित करने का प्रयास किया जा सके। दूसरी ओर इलाहाबाद में ही बड़े पैमाने पर सभी धर्मों के लोगों ने मिलकर या यूं कहें कि इलाहाबादवासियों ने सामूहिक रूप से सरकार के इस फैसले का विरोध किया। यहां इस बात का जिक्र करना ज़रूरी है कि वर्तमान में जो सरकार इलाहाबाद का नाम बदलकर प्रयागराज कर रही है उसे इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए था कि इलाहाबाद का नाम प्रयागराज होने के बावजूद जहां शहर के प्रमुख रेलवे स्टेशन का नाम इलाहाबाद जंक्शन है वहीं इसी शहर का दूसरा रेलवे स्टेशन जो इलाहाबाद विश्वविद्यालय से चंद ही क़दमों की दूरी पर है,उस स्टेशन का नाम प्रारंभ से ही प्रयाग है। इसके अतिरिक्त पिछली कांग्रेस सरकार के समय में ही प्रयागराज तथा त्रिवेणी जैसे पौराणिक नामों का भरपूर प्रयोग किया गयाजिसका समस्त इलाहाबादवासियों ने भरपूर स्वागत किया। किसी एक व्यक्ति ने भी इस प्रकार के नामकरण का कोई विरोध कभी नहीं किया।
उदाहरण के तौर पर इलाहाबाद से लखनऊ के मध्य चलने वाली एक काफ़ी पुरानी रेलगाड़ी जिसका रूट अब और लंबा कर दिया गया है इसका नाम प्रारंभ से ही त्रिवेणी एक्सप्रेस है। इलाहाबाद के नैना क्षेत्र में एक बहुत बड़ा दुत बड़ी कंपनी टीएसएल अर्थात् त्रिवेणी स्ट्रकचरल लिमिटेड के नाम से संचालित हो रही है जिसमें हज़ारों लोग कार्यरत हैं। १९८०-९० के दशक में इलाहाबाद से दिल्ली हेतु एक विशेष सुपरफ़ास्ट ट्रेन प्रारंभ - की गई जिसका नाम प्रयागराज एक्सप्रेस रखा गया। संगम क्षेत्र में प्रत्येक वर्ष होने वाले माघ मेले व समय-समय पर लगने वाले अर्धकुंभ अथवा कुंभ या महाकुंभ के मेला क्षेत्र को प्रयाग मेला क्षेत्र के नाम से ही जाना जाता है। प्रयाग व त्रिवेणी नामक ऐसे और भी दर्जनों सरकारी संस्थाएं व संस्थान इलाहाबाद में देखे जा सकते हैं।
अपने इस आलेख में मैं अपने जीवन व इलाहाबाद से जुड़ी कुछ ऐसी घटनाओं का जिक्र करना चाहूंगा जो इलाहाबाद के वास्तविक स्वरूप तथा उसकी अंतरात्मा का परिचय कराती हैं। इलाहाबाद में मैंने छात्र राजनीति से लेकर कांग्रेस पार्टी में काम करने तक का एक लंबा समय गुजारा। सौभाग्य से उस दौरान मैं ऐसे महान् लोगों के साथ रहा अथवा उनके संपर्क में मुझे रहने का सौभाग्य हासिल हुआ जिन्होंने मेरे जीवन पर एक गहरी छाप छोड़ी। इन महान् शख़्सियतों में जस्टिस शिवनाथ काटजू, विशंभरनाथ पांडे, पीडी टंडन, सालिग राम जयसवाल, विश्वनाथ प्रताप सिंह, अमिताभ बच्चन जैसे लोगों के नाम प्रमुख हैं। हालांकि इन सभी से जुड़ी अनेक स्मृतियां मेरे मानस पटल पर दर्ज हैं पंरतु आलेख में शब्दों की सीमाएं होने के चलते इनमें से कुछ लोगों से जुड़ी कुछ यादें साझा कर रहा हूं और ये स्मृतियां ऐसी हैं जो किसी भी व्यक्ति के इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए पर्याप्त हैं कि वास्तव में इलाहाबाद एक ऐसा शहर नहीं जिसे इलाहाबाद अथवा प्रयागराज जैसे निरर्थक विषय पर सामाजिक विवाद का कारण बनाया जा सकेबल्कि यह उदाहरण हमें इस निष्कर्ष पर पहुंचाएंगे कि इलाहाबाद गंगा-यमुना नदियों का ही नहीं गंगा-यमुनी तहज़ीब का भी संगम है।
जैसाकि मैंने ऊपर जिक्र किया कि मुझे वरिष्ठ हस्तियों के साथ उठने-बैठने व उनसे बहुत कुछ सीखने का मौक़ा मिला। इस फ़ेहरिस्त में जस्टिस मार्कंडेय काटजू के पिता जस्टिस शिवनाथ काटजू भी जस्टिस शिवनाथ काटजू भी प्रमुख थे। १९७५-८० के मध्य जस्टिस शिवनाथ काटजू विश्वहिंदू परिषद् के अंतर्राष्ट्रीय उपाध्यक्ष भी थे। उन्हें न केवल उर्दू-फ़ारसी व कुरान शरीफ़ का अत्यधिक ज्ञान था बल्कि वे शिया-सुन्नी विवाद तथा कर्बला की जंग जैसे विषयों पर भी अपनी बहत मजबत पकड़ रखते थेवे प्रायः मुझसे कहा करते थे कि यदि कभी हज़रत इमाम हुसैन के सिलसिले में कुछ बातचीत करने का अवसर मिले तो यह मेरा सौभाग्य होगा। उधर दूसरी ओर मैं दरियाबाद स्थित इमामबाड़ा सलवात अली ख़ां की धार्मिक गतिविधियों से व्यक्तिगत रूप से जुड़ा हुआ था। मैंने १९७७ में काटजू साहब को दरियाबाद स्थित इमामबाड़ा सलवात अली खां में चेहल्लुम के अवसर पर आमंत्रित किया। जिस समय मैंने उन्हें दरियाबाद आने का निमंत्रण दिया, उस समय मुझसे हालांकि मज़ाकिया लहजे में पंरतु स्पष्ट रूप से यह कहा कि मैं विश्वहिंदू परिषद् का उपाध्यक्ष हूं और दरियाबाद जैसी घनी मुस्लिम आबादी में जाने से और वहां मेरे संबोधन से किसी प्रकार का प्रतिरोध तो नहीं पैदा होगा? और वहां मेरा कोई विरोध तो नहीं करेगा? मैंने उन्हें आश्वासन दिया कि आप पूरे विश्वास के साथ तशरीफ़ लाइए,आपका इस्तेक़बाल दरियाबाद चौराहे पर कियाजाएगा। मेरी बात सुनकर पूरे आत्मविश्वास के साथ प्रसन्नता भरे लहजे में काटजू साहब ने कहा कि- ‘तनवीर, यदि ऐसा है तो उस दिन मैं अपनी गाड़ी ख़ुद चलाकर दरियाबाद आऊंगा और अपने ड्राईवर को अपने साथ नहीं लाऊंगा।' और वैसा ही हुआ।
हमारे मित्र जस्टिस काटजू का स्वागत करने के लिए दरियाबाद के चौराहे पर उपस्थित थे जो उन्हें दरियाबाद के पीपल चौराहे से इमामबाड़ा सलवात अली ख़ां तक पूरे सम्मान के साथ लेकर आए। जस्टिस काटजू ने अपने संबोधन में हजरत इमाम हुसैन की शहादत को लेकर बहुत सारी बातें कीं। यहां उन बातों का विस्तृत जिक्र कर पाना संभव नहीं परंतु अपने संबोधन के अंत में उन्होंने बड़े ही भावुक अंदाज़ में पूरी श्रद्धा व विनम्रता से न केवल अपनी ओर से बल्कि विश्व हिंदू परिषद के उपाध्यक्ष के नाते परिषद् की ओर से भी हज़रत इमाम हुसैन व उनके शहीद परिजनों को श्रद्धांजलि व खिराजे अक़ीदत पेश किया। मेरे निमंत्रण पर दरियाबाद के किसी धार्मिक आयोजन में इस प्रकार की शख़्सियत के शिरकत करने का यह पहला मौक़ा था जो आगे चलकर भी कई वर्षों तक जारी रहा।
इसी प्रकार एक बार चुनावों के दौरान विशंभरनाथ पांडे जी के साथ दरियाबाद में जनसमर्थन मांग रहा था। वहीं एक छोटी नुक्कड़ सभा भी हो रही थी जिसे पांडे जी को संबोधित करना था। उन्होंने कांग्रेस के पक्ष में वोट मांगते हुए एक ऐसा वाक्य इस्तेमाल किया जिसे सुनकर लोग आश्चर्यचकित हो गए और जनता ने उनके इशारे को समझ कर मतदान करने का फैसला किया। उन्होंने कहा था कि- ‘चुनाव के दिन आप सबने हुब्ब-ए-अली में वोट देना है बुर-ज़-ए-मुआविया में नहीं। निश्चित रूप से यह वाक्य वही बोल सकता था जिसे इस्लामी इतिहास का ज्ञान हो और निश्चित रूप से डा. विशंभरनाथ पांडे हिंदू धर्मग्रंथों के ही नहीं बल्कि कुरान शरीफ़, हदीस तथा इस्लामी इतिहास के बहुत बड़े ज्ञाता थे। उन्हें बहुत से लोग मौलाना विशंभर नाथ पांडे भी कहकर बुलाते थे।
छात्र आंदोलन के दौरान मुझे कई बार अपने आंदोलनकारी साथियों के साथ जेल जाने का भी अवसर मिला। १९७७-८० के मध्य हुए कई आंदोलनों में उस समय के अनेक छात्र नेता बाद में केंद्र व राज्य सरकार में मंत्री रहे अथवा विधायक या सांसद भी बने। इन्हीं में एक नाम राकेशधर त्रिपाठी का भी है। वे छात्र जीवन से निहायत ही शालीन स्वभाव के तथा हमेशा ही कुछ सीखने की ललक रखने वाले छात्र नेता थे। आगे चलकर वे उत्तर प्रदेश में उच्च शिक्षा मंत्री भी बने। मुझे याद है जेल में दोपहर का खाना खाने के बाद जब सभी छात्र नेता अपनी-अपनी बैरिकों में आराम करने चले जाते थे, उस समय त्रिपाठी मुझे हाथ पकड़कर किसी पेड़े के नीचे ले जाकर बिठाते थे और घंटों वहां बैठकर शिया-सुन्नी विवाद के कारणों की जानकारी लेने की कोशिश करते। दास्तान-ए- करबला का इतिहास पूछते। उस समय त्रिपाठी इलाहाबाद विश्वविद्यालय में एलएलएम के छात्र थे। उस समय ज्ञानवर्धन की उनकी उत्सुकता को देखकर मुझे यह एहसास होता था कि त्रिपाठी का राजनैतिक भविष्य काफ़ी उज्जवल है। हालांकि वे मुझसे वरिष्ठ भी थे तथा आयु में भी मुझसे बड़े थे।
इसी प्रकार एक बार जेल यात्रा की एक और घटना मुझे याद आती है। उस समय मैं जेल में बीमार पड़ गया था। मुझे तेज़ बुख़ार हो गया था। और मुझे याद है कि वरिष्ठ स्वतंत्रता सेनानी एवं उत्तर प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री रहे श्री सालिग राम जयसवाल व श्री विजय नारायण सिंह सारी रात उठ-उठकर मेरे शरीर का तापमान देखते तथा बार-बार मुझे कंबल से ढकने की कोशिश करते। यहां तक कि अगले दिन दोपहर में सैकड़ों आंदोलनकारियों के लिए इन नेताओं ने केवल इसलिए खिचड़ी बनवाई क्योंकि मैं बीमार था और मुझे खिचड़ी खानी थी।
लिहाजा मेरी वजह से सभी को खिचड़ी खानी पड़ी। इस प्रकार के और भी सैकड़ों संस्मरण मेरे जीवन से जुड़े हैंजिनका ज़िक्र भविष्य में भी इसी प्रकार का अवसर मिलने पर ज़रूर करूंगा। अंत में संक्षेप में इतना ही कह सकता हूँ कि मैंने अपने इलाहाबाद के संरक्षकों,मित्रों,सहयोगियों के साथ रहकर तथा उस इलाहाबाद या प्रयागराज की पावन फ़िज़ा में पलकर जो कुछ सीखा है, उन्हीं विचारों व संस्कारों को मैं आज अपने विभिन्न आलेखों के माध्यम से समाज के मध्य साझा करता रहता हूँ। और अफ़सोस करता हूं उस मानसिकता के लोगों को जो अकबर इलाहाबादी को अकबर प्रयागराजी व इलाहाबादी अमरूद को प्रयागराजी अमरूद बताने पर तुले हैं। जबकि इलाहाबाद के स्थानीय लोग इन फ़ालतू बातों में कोई दिलचस्पी नहीं रखते।
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