समीक्षा - अनहद : एक जरूरी दस्तावेज - शिवानन्द मिश्रा

साहित्य में इतिहासबोध अपने समय और समाज को देखने की एक संवेदनशील दृष्टि प्रदान करता हैइलाहाबाद से प्रकाशित होने वाली पत्रिका 'अनहद' भी इसी परम्परा की वाहक है। हाल ही में अनहद का आठवाँ अंक आया है जो रूस की ‘बोल्शेविक क्रांति' और 'चम्पारण आंदोलन' पर केंद्रित है। यह वर्ष इन दोनों क्रांतियों का शताब्दी वर्ष है, इस लिहाज से पत्रिका ने इस अंक में समाविष्ट लेखों के माध्यम से इन दोनों क्रांतियों के आलोक में तत्कालीन परिस्थितयों और समकालीन चुनौतियों को देखने और समझने का सफल प्रयास किया है।


     पत्रिका अपने आवरण पृष्ठ से ही आकृष्ट करती है जो इलिया एफिमोविच की प्रसिद्ध पेंटिग 'वोल्गा पर जहाज खीचने वाले लोग' के नाम से जानी जाती है। यह पेंटिग मेहनतकश लोगों पर बना एक मार्मिक और महत्वपूर्ण चित्र है जिसका इस अंक के लिए चयन पत्रिका की पक्षधरता को स्पष्ट करता है।


    बोल्शेविक क्रांति पर कुल ग्यारह लेखों को शामिल किया गया है जिनमे अरुण माहेश्वरी, चंचल चौहान और स्वप्निल श्रीवास्तव के लेख बेहद महत्वपूर्ण कहे जा सकतेहैं। चम्पारण आंदोलन पर छ: आलेख सम्मिलित किए गएगए हैं जो उस परिघटना के भारतीय इतिहास पर पड़ने वाले प्रभावों पर अच्छी विवेचना प्रस्तुत करते हैंजहाँ एक तरफ मंगलमूर्ति और पुष्यमित्र ने चम्पारण आंदोलन को राजनैतिक और साहित्यिक परिदृश्य में पड़ताल की है, वहीं क्षमा शंकर पांडे और सुनील कुमार पाठक चम्पारण आंदोलन को तत्कालीन लोकगीतों में तलाश करते हैं।


    इस अंक में हरबंस मुखिया और लालबहादुर वर्मा के आलेख बेहद महत्वपूर्ण कहे जा सकते हैं। कसौटी के जरिए जो समीक्षात्मक आलेख इस अंक में शामिल किए गए हैं, उनका चयन भी सोद्देश्य, ऐतिहासिक पृष्ठभूमि वाले उपन्यास ही हैं; चाहे वह मधुरेश के आलेख में सम्मिलित महामोह : प्रतिभा राय, बदनसीब बादशाह हुमायूँ : मेवाराम, शाने तारीख : सुधाकर अदीब, अकबर : शाजी जमा और राऊ स्वामी : नागनाथ ईनामदार या फिर सरजू प्रसाद मिश्र के आलेख में रांगेय राघव के उपन्यास मुद का टीला को सैंधव सभ्यता के आलोक में परखने का प्रयास, जो साहित्य से ऐतिहासिक सरोकारों को जोड़कर देखने की अच्छी कोशिश कही जा सकती है।


    इस अंक की विशेष उपलब्धि कही जा सकती हैशेखर जोशी द्वारा भैरव प्रसाद गुप्त पर संस्मरण। शेखर जोशी ने अपने समय के लगभग सभी नामचीन साहित्यकारों पर संस्मरण लिखे हैं । साहित्य भंडार से २००४ में उनकी ‘स्मृति में रहें वे', संस्मरणों की किताब प्रकाशित हुई थी लेकिन उसमें भैरव प्रसाद गुप्त पर संस्मरण नहीं है। यह पूरा आलेख उस कालावधि में इलाहाबाद की साहित्यिक सरगर्मियों और उठापटक के बीच भैरव प्रसाद गुप्त के सम्पादकीय व्यक्तित्व को जानने और समझने में मदद करता है। नमिता जी का भैरव प्रसाद गुप्त के उपन्यास 'सती माई का चौरा' पर समीक्षात्मक आलेख गुप्त जी पर अच्छी सामग्री उपलब्ध कराता है।


    इस अंक में त्रिलोचन पर भी महत्वपूर्ण पाँच आलेख शामिल कर अच्छा काम किया गया है जिसमें विजेंद्र जी और अमीर चंद्र वैश्य के लेख बेहद महत्वपूर्ण हैं।


    चंद्रकांत देवताले पर प्रभात त्रिपाठी, कैलाश बनवासी और अनुप्रिया देवताले के संस्मरण प्रासंगिक हैं।


    इस अंक में मुक्तिबोध पर रमेश उपाध्याय और प्रणयकृष्ण के दो बहुत ही अच्छे लेख हैं जो इसमें न शामिल होते तो भी अपूर्णता जैसी कोई बात नहीं होती क्योंकि ‘अनहद' का पिछला अंक मुक्तीबोध पर ही केंद्रित था। इस दोहराव और अतिरेक से बचा जा सकता था। इन सारे तथ्यों के साथ अनहद का ये अंक इसे समकालीन हिन्दी साहित्यिक पत्रिकाओं में उसे अलग खड़ा करता है।