गौतम चटर्जी कवि। फिल्मकारसत्यजित रे, श्याम बेनेगल, मणि कौल और क्रिस्ट किसलोवस्की से गहन संवाद पेंगुइन से प्रकाशित पुस्तक ‘शिखर से संवाद' में संकलित। फ़िल्म पर पुस्तक 'क्लासिक सिनेमा' में मिलेंजेलो अन्टोनीओनी और जी. अरविंदन से संवाद संकलित। अब तक अपनी नौ गैर कथाचित्र और तीन कथाचित्र फिल्में प्रदर्शित कर चुके हैं। फ़िल्म ‘कुहासा' का पिछले साल विश्व प्रीमियर हुआ। बनारस में रहते हैं।
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अभी की स्थिति को वे ९४ वर्ष की उम्र में नेमोनिक कन्डीशन की संज्ञा देते हैं। यानी स्मृति की अवान्तर स्थितियां। मृणाल दा कहते हैं कि यह दरअसल डेलिरियम की अवस्था है जहां व्यक्ति को दुविधा नहीं, सोचने की असुविधा होती है। इसे हम सामान्य तौर पर वृद्धावस्था कहते हैं या समझते हैंलगता है कि सोच सकते हैं और इसकी मजबूत आदत रही है लेकिन सोच नहीं पा रहे कि क्या और कैसे सोचें। हम जानते हैं कि क्या जानते हैं और हम नहीं जान पाते कि क्या नहीं जानते। यह बात वे तब कर रहे थे जब इस जुलाई में उनके न रहने की खबर देश भर में एक सुबह अचानक फैल गई। अनुपस्थिति के ऐसे प्रसंग पर वे धीमे धीमे बोल पा रहे थे। जब उनसे हमारी कोलकाता के नन्दन छवि परिसर में तीन घंटे की लम्बी बातचीत हुई थी तो वह साल था १९९०। उन्होंने अनुपस्थिति पर फिल्म बनाई थी ‘एक दिन अचानक'। एक सुबह अचानक की तरह ही एक दिन अचानक। शंकर के बांग्ला में लिखे उपन्यास पर हिन्दी में बनी इस फिल्म का नन्दन में प्रिमियर था। अन्तर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह के मौके पर हुए इस प्रिमियर के अगले दिन मृणाल दा के साथ पत्रकार वार्ता निर्धारित थी। इसे समीक्षक वार्ता कहा जाना चाहिए जब देश भर से आए विभिन्न भाषाओं के फिल्म समीक्षक फिल्म को लेकर सवाल पूछ रहे थे और मृणाल दा पूरी स्फूर्ति से उत्तर दे रहे थे। लगातार खड़े रह कर। करीब डेढ़ घंटे तक चली इस वार्ता के बाद वे थोड़ा थक चुके थे और उस वार्ता के बाद गहरे इत्मीनान की गहन बातचीत सम्भव नही थी। तो हमने तय किया कि पास के ऐकेडेमी ऑफ फाइन आर्ट्स में रूद्रप्रसाद सेनगुप्ता का नाटक देखेंगे और फिर यहीं नन्दन परिसर में ही आकर चाय के साथ हम देर तक बात करेंगे। ऐसा ही हुआ। उस शाम अचानक थोड़ी बारिश भी हो जाने से जनवरी की ठंड बढ़ गई थीएक दिन अचानक ही क्यों, मेरे इस प्रश्न से बातचीत आरम्भ हुई।
'मुझे इसमें अनुपस्थिति का मेटाफर बहुत आकर्षित कर रहा था। किसी के अनुपस्थित हो जाने पर हम उसकी उपस्थिति का विश्लेषण करने लगते हैं।' ... (मैं खामोश ही रहता हूँ ताकि वे अपने संवेग में रह सके और विश्लेषण करने के सुख में जा सके)
‘किसी व्यक्ति की अनुपस्थिति एक ऐसा अरूप है जो उपस्थिति से पहले के अरूप से भिन्न है और भावनात्मक है। अब यह अनुपस्थिति व्यक्त है। अरूप व्यक्त हो इसलिए अनुपस्थिति आवश्यक है। कई फिल्मों में इसीलिए ऐसे कथानक लिए गए जिसमें कोई अनुपस्थित होने वाला हो। इस अवसर पर हम विश्व सिनेमा से कुछ फिल्मों को याद कर सकते हैं जैसे ...'
जैसे बर्गमैन की थू ए ग्लास डार्कली और क्राइज ऐण्ड विस्पर्स ... (मैंने उसी सांस में जोड़ा)
'एग्जैक्टली। इनमें तो पहले वाली फिल्म में प्रोटागोनिस्ट स्वयं चुनती है कि वह अनुपस्थित हो जाए यही फिल्म का अन्तिम दृश्य है। उसका उस जगह से अनुपस्थित हो जाना ही उसे पवित्र और सुकून भरा लगता है जहां उसका पति, भाई और पिता हैं, भले ही उसे फिर मानसिक अस्तपताल ही क्यों न चले जाना पड़े जहां वह शीजोफ्रेनिक होने के कारण भर्ती थी, जहां से वह सुकून के लिए वह यहां आई थी। दूसरी फिल्म में कोई अनुपस्थित होने के लिए तैयार हो रहा है और उसकी तीनों बहनें इस तैयारी की साक्षी हो रहीं। यह अद्भुत है। बर्गमैन की फिल्मों के बारे में कभी त्रुफो ने सही कहा हैकि उनकी फिल्में चेखव की कहानियों के आरम्भ की तरह सुखद स्पर्श से आरम्भ होती हैं और उनका अन्त भी चेखव के ही उदास अन्त की तरह होता है। हालांकि बर्गमैन स्वयं को ऑगस्ट स्ट्रिन्डबर्ग के करीब अधिक पाते हैं, विशेषकर लेखन में। पटकथालेखन में उनकी शैली स्ट्रिन्डबर्ग के सीधे लिखने की शैली के बिल्कुल करीब है। एक दिन अचानक में प्रोटागोनिस्ट एक सुबह अचानक घर छोड़ कर कहीं चला जाता हैउसके परिवार के लोगों द्वारा मन में लगातार बनाया जा रहा मोन्टाज फिल्म की भाषा में नायक को रीक्रिएट कर रहा, सिटिजेन केन से बिल्कुल अलग ढंग से।'
लेकिन हमें अनुपस्थिति से उपस्थित को रीक्रिएट करने की फिल्म शैली तो पहले पहल ऑर्सन वेल्स की सिटिजेन केन और दी ट्रायल से ही मिली है...(मैंने बात थोड़ा और बढ़ाई ताकि उनके द्वारा उनकी फिल्म का एकमात्र मनोवैज्ञानिक मूल्य और स्पष्ट हो सके)
‘बिल्कुल।'
मृणाल दा अचानक ठहर गए। वे या तो कुछ शब्दों में व्यक्त होकर चुप हो जाते हैं या फिर, या और फिर देर तक बताते चले जाते हैं मानों क्लास ले रहेमैं चाह रहा था कि देर तक सिर्फ उन्हें सुना जाए उनके हाथों में कोई आलेख था। अंग्रेजी में लिखा। हस्तलिपि उन्हीं की थी। उन्होंने दिखाया। शीर्षक था ‘आइ लिव इन दी इन्स्टैन्ट प्रेजेन्टआइ इन्वेस्ट दी पास्ट विद कन्टेम्पररी सेन्सिबिलिटीज।' मैंने जानना चाहा इतने लम्बे शीर्षक के बारे में। उन्होंने बताया, वे अपनी स्मृतियां लिख रहे। शायद कभी मेमॉयर पुस्तक के रूप में छपे। वे मेरे साथ भी अचानक स्मृतियां लिखने लगे। मानो मैं कोई डायरी हूँ उनकी।
‘भुवनशोम आपने देखी होगी...?'
जी कई बार... (मैंने उनके प्रवाह को जारी रखना चाहा)
“मैंने दरअसल चैप्लीन और तांती को रीक्रिएट करना चाहा था। मैक्स लिंडर की भाषा में। जिसने चैप्लीन के बारे में कहा था कि वह सब चला गया जब से चैप्लीन की फिल्में बोलने लग गईं। यह एक प्रकार का फिल्मों में 'इन्स्पायर्ड नॉनसेन्स' था, प्रेरित ध्वनिहीनता। ध्वनि यहां आनन्दवर्धन द्वारा प्रतिष्ठित शब्दावली है। फिर फिल्म में सुहासिनी मुले काम कर रही थी। वह पहली बार अभिनय कर रही थी। फिल्म के अन्त में मैंने चाहकर ऐसा ध्वनि प्रभाव दिया था। फिल्म के संगीत निर्देशक विजयराघव राव ने हम सभी कोएक साथ हंसने को कहा और उन्होंने उस समवेत हंसी को रेकॉर्ड किया। अगर आप उस दृश्य को याद करें तो आप उस उसे चैप्लीन की सुसंवेद्यता से जोड़ सकेंगे। ऐसे ही मुझे याद आता है फिल्म ‘खण्डहर' का आरम्भिक दृश्य जब नसीर को पता चलता है कि वे अगली सुबह कहीं घूमने निकल रहे। इसी तरह फिल्म ‘जेनेसिस' में स्मिता के साथ वाले दृश्य के बारे में भी ऐसा ही कान्स फिल्म समारोह के तत्कालीन निदेशक गिल्स जैकब ने ऐसी स्थितियों को रेखांकित किया था हालांकि फिल्म बाद में बन कर सामने आई। फिल्म की भाषा को लगातार संवेदनग्राही बनाने का काम एक फिल्मकार को करना पड़ता है। भारत की प्राचीन स्थितियों में जैसे ऋषि ही कवि होता था जिसके पास सुदीप्त दृष्टि यानी विजन होता था जो उसके काव्य या नाट्यकाव्य में व्यक्त होता था उसी प्रकार की पवित्रता (चूंकि वे धाराप्रवाह अंग्रेजी में बोल रहे थे इसलिए अभी लिखते हुए उन शब्दों के लिए सामासिक शब्द लाना दुर्गम हो सकता है जिन्हें वे विशेष अर्थ में प्रयोग में ला रहे थे) या प्युरिटी का सरलता के साथ कुछ फिल्मकारों ने लाने का प्रयास किया है जिन्हें हम डिवाइन कहते हैं। और कोई शब्द या विशेषण हम अभी तक ऐसे फिल्मकारों या ऐसी फिल्मप्रवृत्तियों के लिए सोच नहीं सके हैं। ऐसे फिल्मकारों में तारकोव्स्की , बेसां और बर्गमैन की बात हम करते हैं। बेसां किसी शॉट के लिए पच्चीस टेक इसलिए नहीं लेते थे कि उनके अभिनेता में या अभिव्यक्ति में कोई कमी रह जाती थीवे प्रतीक्षा करते थे। वे डिवाइन ग्रेस की प्रतीक्षा करते थे। जब तक वह न दिख जाए, वे रीटेक लेते रहते थे। बर्गमैन की पटकथा में ही डिवाइन आकुलता होती थी। वे कुछ महीनों के लिए किसी द्वीप में रहने लगते थे और वहीं पटकथा तैयार कर लेते थे। निर्जन एकान्त के मौन का प्रभाव उनकी पटकथा में ही देखने को मिल जाता है। बाकी उनके अभिनेताओं के अति क्लोज अप शॉट में देर तक बोले गए संवाद का ड्रामा तत्व दर्शकों को देर तक बांधे रखता था। कोलकाता ७१ में मैंने ऐसा प्रभाव लाने की कोशिश की है लेकिन सफल हो सका हूं, ऐसा नहीं कह सकता। बर्गमैन की चेम्बर फिल्म्स याद कीजिए यानी सायलेन्स, विन्टर लाइट और थू ए ग्लास डार्कली। स्ट्रिन्डबर्ग के चेम्बर नाटकों की तरह पवित्रता की आस मोन्टाज का मुख्य स्वर है। इसके लिए पैरेनथिसिस (संवाद के लिए कोष्ठक में दिए लिखे गए संकेत) का प्रयोग वे अधिकाधिक करते थे। एक्स्ट्रीम क्लोजअप में पैरेनथिसिस का प्रयोग बहुत ही प्रभावशाली होता है यदि यह अतिरिक्त सावधानी से किया गया हो। अपनी पहली फिल्म 'नील आकाशेर नीचे' की विफलता के बाद मैं उदास हो गया था। मानिक दा (सत्यजित रे) लगातार बंगाल की फिल्म इन्टस्ट्री को प्रेरित कर रहे थे। तपन सिन्हा भी अच्छी फिल्में बना रहे थे। मैंने तभी इन चेम्बर फिल्मों को फिर से देखना आरम्भ किया था। चित्रबानी इसीलिए बनी थी कि फिल्म पर अच्छी आलोचना हो सकेगैस्तों रोबेर्ज इसी आशय से फिल्म पढ़ाना शुरू किए थे। इन सबका प्रभाव मेरे विचारशील मन में पड़ता गया जबकि हम सब हमउम्र ही थे। पचास का दशक हम सब के प्रेरणा का उर्जस्वित दौर था। माक्र्सवाद को हम फिल्मों में फिल्मभाषा की पवित्रता के अर्थ में नई परिभाषा सौंपना चाहते थे। फिल्मभाषा की पुनर्संरचना और पुनर्नवा हमारा मुख्य उद्देश्य था। पण्डित जवाहरलाल नेहरू इसी आशय से बम्बई में अन्तर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह शुरू कर चुके थे। नया सिनेमा का मन भी बन गया था और रचना भी शुरू हो गई थी। बेसां और बर्गमैन के बाद ध्यान मेरा गया तारकोव्स्की की ओर। पवित्रता का दुःख से भरा स्वर उनकी फिल्मों की आभा थी जो फिल्मभाषा को चैप्लीन और काफ्का से अलग कर रहा था। तारकोव्स्की का सिनेमैटोग्राफ उन्हें एक नया ऑथर या ऑत्योर बना चुका थास्टॉकर और मिरर का मेटाफर अनुपस्थिति में उपस्थिति का स्पष्ट रंग प्रकट करता है। फिल्म का यह दुर्धर्ष लेखक हमें फिल्मभाषा में पवित्रता को समझने की नई रचनाशीलता सौंप चुका था। फिल्म 'मिरर' का असंगत फॉर्मलिज्म हमें गहरे प्रेरित कर चुका था। फॉर्मलिस्ट थियोरी यहां नॉनलिनियर थी इसीलिए इसे असंगत कहा। आन्द्रे बेतां या बुनुएल का सररियल इमेज गैरमानवीय है, अमानवीय नहीं। उसी तरह नॉनलिनियर फॉर्मलिस्ट ऐप्रोच तारकोव्स्की की मिरर को बिल्कुल नया काव्यस्वर प्रदान करता है। सीपिया टोन में स्वर का नया रंग साफ दिखता है। कवि हमेशा नई भाषा में ही बात कहेगा। भाषा पहले उसके बाद अन्तर्वस्तु। उसी तरह नया सिनेमा में हम सब के नई भाषा को गढ़ना हमारा पहला दायित्व होतागया। एक ऐसी भाषा जो हमें हिजकॉक और ऑर्सन वेल्स से भी अलग करे और यह अरूप को इन्टेन्सिफाई या तीव्र कर दे। छवियों की भाषा में मेटाफर या इमेजरी ही मुख्य होती है। जैसे बर्गमैन की सेवेन्थ सील में मृत्यु के साथ शतरंज का खेल और मृत्युनृत्य इस नृत्य की छाया अलग अर्थ में हमें गुपी गाइन बाघा बाइन में भी देखने को मिलती है। यानी हम सभी बर्गमैन, तारकोव्स्की और बेसां से प्रेरित थे हालांकि अभी तक एक भी ऐसी फिल्म नहीं बना सके हैं जो ईश्वर के प्रश्न को सुलझाती हो। बर्गमैन और तारकोव्स्की ऐसा कर सके। हमने तो बुराई या इविल के दार्शनिक प्रश्न को भी फिल्मों में नहीं सुलझाया, न सुलझाने की कोशिश की। जबकि दार्शनिकों के पूरे विश्व में सिर्फ रवीन्द्रनाथ की दृष्टि ही इस समस्या को सुलझाती दिखती है। यदि आप साधना को पढे तो यह दुष्टि दिख जाएगी। रवीन्द्रनाथ कहते हैं कि किसी नदी का परिचय उसके घाटों से नहीं बल्कि उसके आगे बढ़ते रहने से है। वह लगातार आगे बढ़ती चेतना का प्रतीक है, ट्रान्सेन्डेन्टल कॉन्शसनेस का। यदि बांध या घाट न हो तो पानी आगे नहीं बढ़ पाएगी। उसका स्वभाव और विकास बिगड़ जाएगा। घाट को हम इविल कह सकते हैं जो नदी को आगे बढ़ने में सहयोग देता है। इविल या बुराई की समस्या पर रवीन्द्रदृष्टि को हम भारतीय फिल्मकार अभी तक फिल्मभाषा में रूपान्तरित नहीं कर सके हैं। हम विश्व सिनेमा समारोह में अपनी फिल्में लेकर जाते जरूर हैं लेकिन क्या कोई भारतीय दृष्टि भी प्रतिष्ठित करते हैं। बर्गमन या तारकोव्स्की अपनी दार्शनिक चिन्ताएं हमारे सामने रखते हैंऔर अपने देश के चित्रकार आन्द्रे रूब्लेव की दृष्टि से जीवन को दोबारा सोचने की फिल्मभाषा बनाते हैं। तारकोव्स्की तो इस प्रक्रिया में अपने पिता की कविताएं भी पढ़ते मिल जाते हैं लेकिन हम टैगोर की कहानियों पर फिल्म बना लेते हैंकिन्तु उनकी उन दृष्टियों को विश्व के सामने नहीं रख पाते जो सदियों से दार्शनिकों के मेटाफिजिकल प्रश्नों को सुलझाते हों।'
अगर नन्दन परिसर में घूमता चाय वाला हमारे पास आकर चाय न दे जाता तो वे शायद जारी रहते। चाय पीते हुए उन्होंने यह और जोड़ा कि -
‘उन दिनों निरंजन सेन इप्टा में महासचिव थे और वियतनाम युद्ध के आशय से ऐसा कमेन्ट हमारे पास फिल्म ‘पदातिक' से आ चुका था कि 'जंले कुमीर डांगाए बाघ' अर्थात पानी मगरमच्छों से भरा है और घाट पर शेर तैयार हैं। ऐसे में हमें सोचने के लिए वह सब था अखबारों के सम्पादकीय में छपे थे। एक भिन्न पवित्र दृष्टि की गुंजाइश थी भी नहीं। पार्टी सदस्यों के साथ रात भर पार्क सर्कस के चौथे पुल के इर्दगिर्द घूमते रहना, ऋत्विक और सलिल (चौधरी) भी साथ होते। मैं अपनी मां से पैसे लेकर कई सदस्यों या कहें वर्करों को साथ देता और वे अनुपस्थित हो जाते। १९९७ के मॉस्को फिल्म फेस्टीवल के लिए हम नील आकाशेर नीचे के अनुभव को दोहराना नहीं चाहते थे जिसके निर्माता थे हेमन्त कुमार। हांलाकि इस फिल्म को नेहरू ने भी पसन्द किया था और उन्हें और विदेश सचिव सुबिमल दत्त को यह फिल्म वामपंथ की ओर जाती लगी थी। मुझे अभी भी वह दृश्य याद है जब इस फिल्म को राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद, नेहरू और इन्दिरा गांधी देख रही थी। इनमें से बांग्ला सिर्फ इन्दिरा को आती थी। राजेन्द्र प्रसाद कुछ कुछ समझ रहे थे और बाद में उन्होंने फिल्म की प्रशंसा भी की।
एक दिन अचानक आपने फ्लैशबैक का प्रयोग करते हुए डॉ. श्रीराम लागू के किरदार को दिखाया यानी उस गृहस्वामी प्रोफेसर के चरित्र को जो एक दिन अचानक घर छोड़ कर चला जाता है - मैंने फिर से उस फिल्म की चर्चा शुरू की जिसे हमने पिछले दिन ही देखा था - क्या आपने यह दृश्य दर्शकों के लिए कथानक आसान करने के लिए जोड़ा?
'नहीं। मेरे पास सिनेमा या छायाछवि का अर्थ मेटाफर हैऔर अनुपस्थिति का रूपक या मेटाफर ही मेरे लिए छायाछवि है। इसलिए मैंने इस कथानक को चुना और इस मेटाफर को फिल्म में प्रमुखता से रखा। मैंने पहले ही कहा कि जब हम उपस्थिति को दिखा देते हैं तो अनुपस्थिति का विन्यास और प्रखर हो उठता है। इसके लिए फ्लैशबैक फिल्मभाषा का प्रयोग मैंने अलग अलग चरित्रों की ओर से प्रोफेसर की मानसिक तौर से हो सकते वाली पुनर्रचना को वरीयता दी। ऐसे में यदि हम प्रोफेसर की जीवनशैली को भी दिखा सके तो सिर्फ इसलिए कि पुनर्रचना दर्शकों की ओर से भी हो सके। वे जितना प्रोफेसर डॉ. लागू को देखेंगे उतना ही मिस करेंगे और उनकी पत्नी और तीनों बच्चों की ओर से व्यक्त हो रहे विचारों से बन रही इमेज के साथ स्वयं को साझा कर सकेंगे। मेरी सभी फिल्मों की रचनाशैली यही है।' ।
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