रंग विमर्श'- इलाहाबाद का रंग परिदृश्य - प्रवीण शेखर

नई पीढ़ी के अग्रणी नाट्य निर्देशकों, प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय -राष्ट्रीय नाट्य समारोहों में बतौर निर्देशक भागीदारी, अंग्रेजी साहित्य, मास कम्युनिकेशन, हिंदी साहित्य में एम. ए., फिल्म अध्ययन की शिक्षा फिल्म संस्थान, पुणे से है। नाट्य आलोचना पर उनकी किताब 'रंग सृजन' प्रकाशित है। राष्ट्रीय सम्मान (भारत सरकार), राज्य सम्मान (उ. प्र.), सीनियर फेलोशिप (संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार), अवार्ड ऑफ़ एक्सीलेंस (इलाहाबाद विश्वविद्यालय) आदि से सम्मानित।


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इलाहाबाद के थिएटर का ‘इनसाइडर' होने के हक और कई अर्थों में “आउटसाइडर' होने की नज़र में सबसे पहले यहाँ के रंग परिवेश से जुड़ा आत्मविश्लेषण, आत्मावलोकन और आत्मालोचना-- हर सृजनात्मक या सामाजिक स्पेस की तरह इलाहाबाद में भी दिमाग को, स्वप्न को, आकांक्षाओं को घायल कर देने वाली घातक साजिशें हैं। झूठी सूचनाओं, दूसरों की उपलब्धियों को हथियाकर मोहरबंदी, सफल लोगों का 'गुरु'' बनने का छद्म दंभ, पाखण्ड, आत्म प्रशंसाभाव की भदेस पैकेजिंग करने वाले और ओढ़ी हुई महानता के खौफ से डराने वाले अतीत मोहांध लोगों के बीच आधुनिक दृष्टि से लैस कलाकर्मी हैंजो नई स्पिरिट के साथ रंगकर्म का स्पेस गढ़-रच-समृद्ध कर रहे हैं। इनमें कई निर्देशकों, अभिनेताओं को आश्वस्त करने वाली उपस्थिति है। ये लोग जानते हैं कि स्मृतियों में डूब जाना पर्याप्त नहीं है। उन्हें और चाहिए। शहर के नाट्य जगत् की स्मृति, परम्परा, नास्टेलजिया को याद रखने और भूल जाने का बल उनके पास है। इसी बल से इलाहाबाद के रंगमंच की पहचान है जिसे, देश के दूसरे हिस्से के लोग भी जानते, पहचानते और स्वीकार करते हैं।


     हिन्दी की सांस्कृतिक राजधानी की ख्याति, राजनीति, साहित्य के नए आंदोलनों, विमर्शो, प्रयोगों की भूमि के रूप में आइकनिक इमेज रखने वाले इस शहर के रंग परिवेश से अपेक्षाएं और ब्रांडिंग इसी इमेज से जुड़ी हैंकभी हिन्दीउर्दू साहित्य का केन्द्र रहे इलाहाबाद के रंग परिवेश को मोहक दिखने-दिखाने में इस सांस्कृतिक-साहित्यिक परिवेश का व्यापक योगदान रहा है। लम्बे दौर तक साहित्यिक मान्यता और ‘‘आशीर्वाद'' प्रदान करने वाले इस शहर की साहित्यिक विरासत, उपलब्धियाँ और प्रसिद्धि ही थी कि रंगमंच का हर लीजेंड यहाँ आने, अपनी कृति प्रदर्शित करने की चाह रखता रहा है। यह एक अवसर भी रहता रहा होगा।


     यह बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक से लेकर इस शताब्दी के पहले दशक के शुरुआती वर्षों की बात है। इस शहर के प्रतिभाशाली, औसत और प्रतिभाहीन लेकिन सक्रिय युवा रंगकर्मियों-अभिनेताओं की भीड़ ने अपना रास्ता मुम्बई और दिल्ली की ओर मोड़ लिया था। लगा कि यहाँ का रंगकर्म फिर से लम्बे समय तक अंधियारे से गुजरने के लिए अभिशप्त है। शहर के थिएटर स्पेस में रचनात्मक एवं मानसिक उत्पादन का साधन समाप्त-सा दिखने लगा। बौद्धिक और संगठनात्मक शक्तियों से लैस कुछ लोग जो फिर से सक्रिय होकर इस दृश्य को बदल सकते थे, वह खामोश कमरों में बैठे दिन बिता रहे थे या थिएटर को शाम का शगल मानकर कभी- कभार आवाजाही और ताक-झांक तक सीमित हो गए थे। लेकिन एक नई पीढ़ी यहाँ के रंगमंच की विकासयात्रा की निरुद्देश्यता या निरर्थकता में खत्म होने से पहले अतीत मोह और आत्ममुग्धता को छोड़, अतीत की छाया और आतंक से मुक्त होकर नदी के प्रवाह को गति और भराव देने में लगी थी। कुछ लोग पुराने जंग लगे हथियारों से और नए दौर के रंगकर्मियों की पूरी पीढी नए जमाने के वैचारिक और शिल्पगत संसाधनों से यह अंजाम दे रही थी। इसका सकारात्मक परिणाम दिखा भी। रंगमंच के राष्ट्रीय परिदृश्य में सफलता और चमक के जो भी कैनन हो सकते हैं, उसे अपेक्षाकृत एक छोटे-से शहर ने काफी हद तक अर्जित किया। घातक चारूता (लेथल एलिगेंस) के बीच यहाँ का रंगमंच अपनी नई अंतर्दृष्टि के साथ नई जमीन बना रहा है।


      आर्य नाट्य सभा (१८७०-७१) को इलाहाबाद का पहला नाट्यदल होने का श्रेय है। इस दल ने ‘रणधीर प्रेममोहिनी' (६ दिसम्बर १८७१), रेलवे थिएटर में (२६ अगस्त, १८८१) 'जानकी मंगल' और ज्योति रंजन त्रिपाठी कृत 'जय नरसिंह' का मंचन किया। इसके अलावा आर्य नाट्यसभा के नाटक 'कलयुगी', 'जनेऊ', ‘काम कंदल', ‘दुर्गेश नंदनी' को दर्शकों ने खूब पसंद किया। माधव शुक्ल को इलाहाबाद के रंगमंच का सूत्रधार माना जाताहै। उनके नाटक ‘सीता स्वयंवर' को पहले श्री रामलीला नाटक मण्डली ने खेला। सन् १९०८ में हिन्दी नाट्य समिति की स्थापना माधव शुक्ल और महावीर भट्ट ने कीइसे रंगमंचीय अर्थों में इलाहाबाद की पहली नाट्य संस्था होने का गौरव है। इस संस्था ने जो पहला नाटक खेला वह था ‘महाराणा प्रताप'। माधव शुक्ल ने ‘महाभारत पूर्वाद्ध' के माध्यम से देश प्रेम, सामाजिक और नैतिक सवाल उठाए। इसका प्रदर्शन १९१५ में हुआ था। ब्रिटिश सरकार ने यह नाटक प्रतिबंधित कर दिया। उनके कलकत्ता जाने के बाद हिन्दी रंगमंच का आंदोलन कुछ कमजोर पड़ा। बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में भगवती चरण वर्मा के संयोजन में कई नाटक खेले गए। डॉ. राम कुमार वर्मा के नाटक भी खेले जाने लगे और लोकप्रिय भी हुए। कवि सुमित्रानंदन पंत और इलाचंद्र जोशी ने नाट्य संस्थाएं बनाई, कुछ नाटक किए भी। पंत जी ने नाटकों में स्त्री पात्र अभिनीत किए। शहर के अभिजात्य वर्ग ने १९३८ में कल्चरल क्लब बनाकर कई नाटक किए। *अनारकली' में तेजी बच्चन ने अभिनय किया। सन् १९३२ में आदर्श शिल्प मंदिर की स्थापना इलाहाबाद विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों ने की। इप्टा इलाहाबाद की शुरूआत १९४५ में नेमिचंद्र जैन और रेखा जैन ने की और १९४८ में इप्टा का राष्ट्रीय अधिवेशन यहाँ हुआ। इसी दौर में उपेन्द्र नाथ अश्क की संस्था मीरा की तरफ से अलग-अलग रास्ते' का प्रदर्शन हुआ। नरेश मेहता की संस्था ‘अभिनय', विमला रैना की ‘रंगशाला', लक्ष्मीकांत वर्मा द्वारा गठित ‘सेतुमंच', 'अजन्ता आट्र्स', 'ड्रामैटिक आट्र्स', 'रंगशिल्पी' आदि संस्थायें लंबे समय तक सक्रिय रहीं।


     सन् १९५८ में लक्ष्मी नारायण लाल द्वारा नाट्य केन्द्र का गठन, १९५५ में इलाहाबाद आर्टिस्ट एसोसिएशन (श्री एज), रवीन्द्रनाथ टैगोर की शतवार्षिकी पर १९६१ में प्रयाग रंगमंच, १९७१ में कैम्पस थिएटर का बनना इलाहाबाद रंगमंगच की यात्रा में महत्वपूर्ण पड़ाव है। डॉ. बालकृष्ण मालवीय, सरनबली श्रीवास्तव, सुधीर चन्द्रा, के.बी. चन्द्रा आदि कई रंगकर्मियों ने इलाहाबाद के रंगप्रेमियों को श्री एज संस्था की ओर से घासीराम कोतवाल, आषाढ़ का एक दिन, चारुलता, लंगड़ी टांग, शुतुरमुर्ग जैसी लोकप्रिय प्रस्तुतियां दीं। प्रयाग रंगमंच की सृजनात्मक समृद्धि में डॉ. सत्यव्रत सिन्हा, डॉ. जीवनलाल गुप्त, रामचन्द्र गुप्त, शांतिस्वरूप प्रधान, जगदीश प्रसाद जायसवाल, रामगोपाल, एस.वी. कशालकर, आदि का नाम आदर से लिया जाता है। अनामिका संस्था (कलकत्ता) के आमंत्रण पर डॉ. सत्यव्रत सिन्हा के नाटक वहां भी मंचित हुए। उनकी प्रयोगधर्मिता और नाट्यभाषा के लिए नाट्य जगत में बड़ा सम्मान प्राप्त है। 'वेटिंग फार गोडो', 'अंधेर नगरी' से नई व्याख्या एवं नई रंगभाषा सृजित करने के लिए डॉ. सिन्हा और प्रयाग रंगमंच को देशभर में जाना गया। कैम्पस थिएटर (१९७१) के साथ सचिन तिवारी ने ब्रिटिश, अमेरिकन नाटकों से इलाहाबाद के दर्शकों को जोड़ने की गंभीर कोशिश की और सफल भी हुएकैम्पस थिएटर ने हिन्दी नाटकों को भी प्रदर्शित कियाअपनी नाट्य प्रस्तुति के लिए इस दल ने कई नाट्य समाराहों में भागीदारी की। तिगमांशु धूलिया, मलय मिश्रा, प्रवीण शेखर, आलोक सिंह, शांतिभूषण आदि ने कैम्पस थिएटर में लम्बे समय तक काम किया। संस्कृत रंगमंच के क्षेत्र में डॉ. कमलेश दत्त त्रिपाठी ने इलाहाबाद में रहने के दौरान अद्वितीय काम किया। उन्होंने निर्देशन से लेकर नाटक बनाने तक का जिम्मा बखूबी निभाया। सूर्या अवस्थी (सेठी) संस्कृत नाटकों की प्रमुख अभिनेत्री थीं। डॉ. कमलेश दत्त त्रिपाठी के अलावा संस्कृत रंगमंच कभी-कभार इलाहाबाद विश्वविद्यालय, महाविद्यालयों के संस्कृत विभागों, गंगानाथ झा संस्कृत संस्थान में होता भय है। रहा। उर्दू थिएटर की विशेष विरासत इलाहाबाद की तहजीब में नहीं रही। १९५३ में उर्दू विभाग (इ.वि.वि.) के अध्यक्ष प्रो. एजाज हुसैन की कोशिशों से कुछ ड्रामे खेले गए लेकिन वह भी विश्वविद्यालय परिसर तक सीमित रहे। सन् १९८५ में प्रो. ए.ए. फातमी, एस.एम.ए. काजमी, फखरूल करीम आदि ने मिलकर उर्दू थिएटर बनाया और दो ड्रामे ‘जेवर का डिब्बा', 'किताब का कफन' खेले। इनमें प्रो. फातमी और एहतेशामुद्दीन ने अभिनय किया। बंगला रंगमंच दुर्गा पूजा बारवारियों और कुछ संस्थाओं में रंग पाता रहा। यहाँ के बंगला थिएटर की धूम देश के दूसरे हिस्सों में भी रही। इलाहाबाद में बंगला थिएटर की शुरूआत ‘दक्षयज्ञ' नाटक से १९वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में मानी जाती है। लूकरगंज क्लब की तरफ से लगभग चार दशकों से हो रही समरेन्द्र नाथ विष्णुपद प्रतियोगिता बंगला एकांकी नाटकों पर केंद्रित है। निशाचर ग्रुप, बंगाली सोशल और वेलफेयर एसोसिएशन, ग्रेट यूनियन, यंग मेन्स मैटिक, बंगाली यूनियन, महामाया, बानी मन्दिर, यूनिक फ्रेण्ड्स, यूथ्स, लूकरगंज क्लब और रूपकथा संस्था को इस शहर को बंगला थिएटर देने और समृद्ध करने का श्रेय है।


     काली भविष्यवाणियों और अपशकुनों के बावजूद इलाहाबादी थिएटर में कलात्मकता के अलग-अलग धरातल हैं- अनुशासित एवं उत्कृष्ट, मीडियाकर, औसत, आत्ममुग्ध, बासी और बेजान, भदेस और फूहड़- हर किस्म के। बीते दिनों को पूजा–प्रशंसा की दृष्टि से देखने, उपलब्धियों के नाम पर किसी सिनेमाघर में रात भर जागकर सेट लगा कर दोपहर के शो के पहले जैसे-तैसे नाटक कर लेने या किसी निर्देशक के कुछ शो के हाउसफुल होने, किसी निर्देशक के कथ्य और शिल्प में किए गए प्रयोग को नहीं गिनाने (इस अर्थ में राष्ट्रीय ख्याति के प्रयोगशील निर्देशक डॉ. सत्यव्रत सिन्हा का नाम अपवाद हैं), न ही किसी अभिनेता के अभिनय की बारीकियों, उसकी युक्तियों को आलोचनात्मक या प्रशंसनात्मक विश्लेषण को नजरअंदाज करते हुए लोग हैं। वह वर्तमान के प्रति उपेक्षा भाव के साथ बताते हैं कि फला- फलां दिग्गज इलाहाबाद आते रहते थे लेकिन यह नहीं बताते कि डॉ. सत्यव्रत सिन्हा या सचिन तिवारी के अलावा कौन था जिसे देश के दूसरे हिस्सों में बुलाया जाता था। वह यह देख कर भी आँखें मूंद लेते हैं कि बीते १५-२० सालों में यहाँ के कितने निर्देशकों ने देश के हर बड़े राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय नाट्य समारोहों में हिस्सा लिया और ले रहे हैं।


     अधिकतर बंगला नाटकों के साथ हिन्दी नाटकों के दर्शकों के बीच विश्वसनीयता हासिल करने वाली संस्था रूपकथा' (१९७९) ने राष्ट्रीय समारोह से ही देश के रंगकर्म से यहाँ के लोगों का परिचय कराया है। बंगला नाटकों के निर्देशन पर गहरी पकड़ रखने वाले परिमल दत्ता के १९९२ में अलग होकर हस्ताक्षर संस्था बना लेने के बाद रूपकथा की रचनात्मक सक्रियता कम होकर आयोजन पर केन्द्रित हो गई लेकिन प्रो. असीम मुखर्जी ने कुछ प्रस्तुतियों के माध्यम से रूपकथा की पहचान को जिन्दा रखा हैचार दशक की रंगयात्रा करने वाली संस्थाओं में अभिनव, समानांतर और तीस वर्षों से ज्यादा नाट्यकर्म करने वाली संस्थाओं में समयान्तर, आधारशिला, एकता, मयूर रंगमंच आदि हैं। अभिनव संस्था कई नाट्य समारोहों में हिस्सा लेने के साथ नाट्य प्रतियोगिताओं में भी हिस्सा लेती रही है और कई पुरस्कार जीते हैं। वरिष्ठ रंगकर्मी शैलेश श्रीवास्तव की अगुआई में अभिनव संस्था ने शहर के और बाहर के निर्देशकों को भी आमंत्रित किया है। इनमें अमिताभ श्रीवास्तव, गोविन्द गुप्ता, मंजुल वर्मा, लईक हुसैन, चित्रा मोहन आदि प्रमुख हैं। आजमगढ़ से इलाहाबाद में आकर वरिष्ठ रंगकर्मी अनिल रंजन भौमिक की समानांतर इंटीमेट थिएटर ने अंतरंग शैली के नाटकों से शुरू कर प्रोसिनियम थिएटर करना शुरू किया। इस संस्था ने नुक्कड़, इंटीमेट और प्रोसिनियम नाटकों को लेकर हाल ही में चालीसवें साल का उत्सव मनायानिरंतर सक्रियता समानांतर की पहचान है। श्री भौमिक के निर्देशन में ‘सुशीला' और 'असमंजस बाबू' नाटक कई समारोहों में खेले गए। ‘सुशीला' को भारंगम (२००३) में भी जगह मिली।


     लोकनाट्य नौटंकी को लेकर प्रस्तुतियाँ करने के लिए स्वर्ग रंगमंडल (१९९५) की पहचान है। देश के लोक कलाकारों को संगठित कर एक मंच पर लाने में संलग्न वरिष्ठ कलाकार अतुल यदुवंशी इस संस्था के प्रमुख हैं। स्वर्ग संस्था की नौटकियाँ भारंगम (२००२, २००५ निर्देशक : क्रमशः इलाहाबाद के वरिष्ठ रंगकर्मी शांति स्वरूप प्रधान, लखनऊ के वरिष्ठ नाट्यकर्मी आतमजीत सिंह) के साथ लाहौर (पाकिस्तान) में हुए प्रदर्शनकारी कलाओं के विश्व समारोह में भी हुई। समन्वय संस्था (१९९६) ने संस्कृत के सात नाटकों का मंचन कर बहुत महत्व का काम किया है। वरिष्ठ अभिनेत्री और निर्देशक सुषमा शर्मा ने इस संस्था के लिए सागर सीमांत सहित कई हिन्दी नाटकों के लिए खूब सराहना हासिल की हैविशेष बात है कि सुषमा शर्मा अभिनीत-निर्देशित एकल प्रस्तुति ‘मोला मोर माटी' का प्रदर्शन कई महत्वपूर्ण समारोहों में हुआ और खूब सराहा गया। बैकस्टेज (१९९९) अपनी प्रयोगधर्मिता और रंगमंच के नए मुहावरों के लिए जाना जाता है। भारत रंग महोत्सव (२००३, २०१९), जश्ने बचपन (२०१०, २०१६), अण्डर द सॉल ट्री सहित कई प्रतिष्ठित राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय नाट्य महोत्सवों में बैकस्टेज ने कई बार हिस्सा लिया और अपार ख्याति पाई। राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर के रंगचिंतक, नाट्य निर्देशक उर्दू-हिन्दी साहित्य और अन्य कला माध्यमों के विद्वानों का संरक्षक के रूप में इस संस्था पर विश्वास प्रमाणक जैसा हैप्रवीण शेखर के साथ अब तक पांच युवा निर्देशकों ने इस संस्था के लिए निर्देशन का दायित्व निभाया है। प्रमुख रूप से नौटंकी प्रस्तुतियों के लिए सन् २००३ में शुरू हुआ विनोद रस्तोगी संस्थान की ओर से कुछ नाटकों की भी प्रस्तुतियां हुई है। इस संस्थान ने प्रसिद्ध निर्देशक सूर्य मोहन कुलश्रेष्ठ (लखनऊ) के निर्देशन में ‘माटियाबुर्ज' और डॉ. सत्यव्रत राउत (हैदराबाद) के निर्देशन में ‘एनीमल फार्म' की महत्वपूर्ण प्रस्तुति दी है। डॉ. राउत निर्देशित ‘कर्णकथा' (त्रिवेणी सहाय स्मृति संस्थान) के कई सफल प्रदर्शन दूसरे शहरों में भी हुए। राजकुमार रजक के निर्देशन में एक्स्ट्रा एन आर्गेनाइजेशन टोंक (राजस्थान) के साथ इलाहाबाद में भी सक्रिय है। एक्स्ट्रा ने भी भारंगम में कई बार हिस्सा लिया और प्रयोगधर्मी नाट्य प्रस्तुतियों के साथ यश अर्जित किया है। 


           रंगयात्री, प्रतिबिंब, पूर्वरंग, सॉफ्ट पॉवर आर्ट एवं कल्चर, आकार, माध्यम, शाश्वत, मैत्रेयी, श्रीरंगश्री, द बिग फुट, कला क्रेजी, थिएटर क्लब, दी थर्ड बेल, आगाज, आरंभ आदि संस्थाओं की प्रस्तुतियाँ आज के शहर के रंगकर्म का हिस्सा हैं। पिछली शताब्दी के अन्तिम दशक से इस शताब्दी के कुछ शुरुआती वर्षों तक आधार रंगमंच (अजामिल, नंद किशोर पंत) अंकुर नाट्य समिति (आलोक कुशवाहा), आस्था (जगदीप वर्मा), सूत्र (आलोक शुक्ला), प्रिंस, सदा आट्र्स सोसाइटी (दानिश इकबाल), हस्ताक्षर (परिमल दत्ता) साक्षात्कार एवं ए.बी.सी.डी. (सतीश चित्रवंशी) सांस्कृतिक समुच्चय (शांतिभूषण), टाइगर्स क्लब, समर्पित आदि सक्रिय-अल्प समय के लिए सक्रिय नाट्य दल भी रहे हैं। रा.ना.वि. के पहले बैच के स्नातक राम कपूर की चौपाल संस्था की प्रस्तुति 'एक था गधा उर्फ अलादाद खां'और उनकी रंग संगीत की समझ इस शहर की स्मृतियों में है। महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय वर्धा के इलाहाबाद केन्द्र के नाट्य कला के विद्यार्थियों ने शिक्षिका डॉ. विधु खरे दास के मार्गदर्शन में ‘मृच्छकटिकम्' और 'इडिपस का प्रदर्शन किया। कई संस्थाएं अतीत में कुछ चमकदार और प्रभावित करने वाली रंग सक्रियता के बाद निष्क्रिय पड़ी हैं। कुछ संस्थाएं, रंगकर्मी कभी-कभार इक्का-दुक्का नाट्य प्रस्तुतियों के साथ मंच पर दिख जाते हैं।


     आशुतोष चंदन, सिद्धार्थ पाल, संदीप यादव, भास्कर शर्मा ने प्रतिभाशाली और सचेत निर्देशक के रूप में पहचान बनाई है। दक्ष अभिनेता द्वय आलोक सिंह और सतीश तिवारी की बेहद अर्थपूर्ण उपस्थिति रही है। आलोक और सतीश ने बैकस्टेज के नाटकों में शामिल होकर राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनाई है। युवा अभिनेता भास्कर शर्मा ने समर्थ अभिनेता के रूप में खुद को साबित किया हैसाथ ही अनुज कुमार, अमर सिंह, आशुतोष चंदन, नीरज उपाध्याय, सिद्धार्थ पाल, आकाश अग्रवाल, सचिन चन्द्रा, सोनी कुमार गुप्ता, राहुल चावला, नीरज अग्रवाल, धीरज अग्रवाल, राकेश यादव, अंजल सिंह, विजय कुमार, जगदीश गौड़, मदन कुमार, सचिन केसरवानी, जतिन कुमार, निखिल कुमार मौर्य, सुबोध सिंह, नीरज त्रिपाठी, वरुण कुमार, हर्ष श्रीवास्तव, कौशलेन्द्र तिवारी, दिलीप श्रीवास्तव, अर्पित श्रीमानचित्रे, आशुतोष पाण्डेय, आलोक नायर, संजय यादव, गौरव त्रिपाठी, मयंक कनौजिया, सुधांशु गिरि आदि के अभिनय से यहाँ के नाटकों में चरित्र जीवन गढ़ते रहे हैं। वरिष्ठ अभिनेता संजीव भट्ट का लगभग दो दशकों बाद पुनः सक्रिय होना, सिनेमा एवं जनसंचार के शिक्षक राममणि त्रिपाठी का ताजगी भरा अभिनय दर्शकों को अच्छा लगा है। वरिष्ठ अभिनेता अभिलाष नारायण, डॉ. अशोक शुक्ल, अजित विक्टर, अजय मुखर्जी लगातार काम कर रहे हैं। वरिष्ठ अभिनेत्रियों सुषमा शर्मा, पूजा ठाकुर, डॉ. प्रतिमा वर्मा, मीना उरांव, पूनम शर्मा आदि ने कई नाट्य प्रस्तुतियों को अपनी अभिनय दक्षता से निखारा है। सफलता श्रीवास्तव, ऋतंधरा मिश्रा, संध्या शुक्ला, अनुवर्तिका सोमवंशी, कोमल पाण्डेय, प्रिया मिश्रा, विद्योत्तमा द्विवेदी, शाम्भवी शुक्ला, संजना शुक्ला, अनीता गुप्ता, सुनीता थापा, डॉ. वर्तिका श्रीवास्तव, सरिता यादव, शिवानी कश्यप, श्रद्धा देशपाण्डेय, ऋतिका अवस्थी, अर्चना केसरवानी आदि कलाकारों और नीरज उपाध्याय, ज्ञान चन्द्र यादव, अफजल खान, विनय श्रीवास्तव, ऋतंधरा मिश्रा, धीरज कुमार गुप्ता, शाम्भवी कबीर आदि निर्देशकों की भी इलाहाबाद रंग परिदृश्य में पहचान हैयहाँ की रामलीलाएं दस दिन के अंशकालिक रोजगार का साधन हैं। सिविल लाइंस और रेलवे कालोनी के साथ कुछ रामलीलाएं ही मौलिक होती हैं, लेकिन बड़ी रामलीलाओं में यहाँ के नए-पुराने कलाकार तकनीकी तामझाम और चकाचौंध के बीच रामानन्द सागर के रामायण धारावाहिक के संवादों के साथ 'लिपसिंक' में ‘स्ट्रगल' करते नजर आते हैं।


     प्रकाश अभिकल्पना में मुरारी भट्टाचार्या ने इलाहाबाद में कई प्रयोग किए। रूपकथा संस्था के साथ उन्होंने अपना श्रेष्ठ काम किया। उनके बाद अनुभव अर्जित कर चुके उमेश कुशवाहा, सुजॉय घोषाल, टोनी सिंह के अलावा कई नए प्रकाश संचालक हाथ आजमा रहे हैं। मौलिक रंग संगीत और गायन के क्षेत्र में विवेक प्रियदर्शन, उदय परदेसी, प्रियंका चौहान हैं। ध्वनि प्रभाव और डिजाइन को लेकर युवा अभिनेता अमर सिंह ने काफी ख्याति हासिल की है। सुचिंतित वेशभूषा परिकल्पना के लिए भी सुषमा शर्मा का नाम जाना जाता है। थिएटर फोटोग्राफी में संजय बनौधा, एस.के. यादव, अमित शर्मा कलात्मक छायाकारी के लिए जाने जाते हैं। सुपरिचित समालोचक प्रो. संतोष भदौरिया, जाने-माने रंग समीक्षक डॉ. अमितेश कुमार, रा.ना.वि. के वरिष्ठ स्नातक मंजुल वर्मा, नाटककार एवं समालोचक डॉ. अनुपम आनंद और वरिष्ठ रंगकर्मी शांतिस्वरूप प्रधान का यहाँ के लोगों को मार्गदर्शन मिलता रहता है। रंगकर्म के लिए आजीवन समर्पित रहे वीरेन्द्र शर्मा ने १९६७ में अखिल भारतीय बहुभाषी लघु नाट्य प्रतियोगिता से शुरुआत की। इलाहाबाद नाट्य संघ का अपने तरह का यह अनूठा और अकेला आयोजन देशभर के शौकिया रंगकर्मियों में बेहद लोकप्रिय रहा और इसमें शामिल होने वाले कई कलाकार बाद में रंगमंच, फिल्म, टेलीविजन की दुनिया में सफल हुए। सन् २००१ में उनके निधन के बाद यह प्रतियोगिता सन् २०१२-१३ तक चलकर इतिहास का हिस्सा हो गई। यहाँ के सांस्कृतिक परिवेश में तीन साल पहले से त्रिधारा नाट्य महोत्सव (त्रिनाम) के रूप में एक सुखद एवं सकारात्मक सांस्कृतिक घटना हुई। रंगप्रेमी, कला संरक्षक और उ.प्र. के पूर्व संस्कृति मंत्री सुभाष पाण्डेय निजी तौर पर यह समारोह आयोजित करते हैं। संस्थाओं की प्रस्तुति तैयार करने के लिए आर्थिक सहायता देने के बाद उन सभी नाटकों को मंचन सम्बंधी सारी सुविधा मुहैया कराकर भव्य उत्सव का आयोजन करते हैं।


    यहाँ के प्रेक्षागृह या परफॉर्मिंग स्पेस को लेकर इलाहाबादी रंगकर्म का संतोषजनक सक्रियता वाले दूसरे शहरों जैसा भाग्य नहीं है। प्रेक्षागृह को लेकर विकल्पहीनता की स्थिति है। उत्तर मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र के प्रेक्षागृह में ही अधिकतर नाट्य प्रस्तुतियाँ होती हैं जिसकी कई तकनीकी सीमाएँखामियाँ हैंकई वर्षों से इसके पुनर्निर्माण की चर्चा सुनी जा रही है। प्रकाश एवं ध्वनि उपकरणों को लेकर आत्मनिर्भर कुछ संस्थाएं या बाहर से किराये पर लेकर यहाँ की तकनीकी सुविधाओं के साथ नाट्य प्रस्तुतियाँ करती हैं। टूटी कुर्सियों, ध्वनि-प्रकाश उपकरणहीन प्रयाग संगीत समिति के सिविल लाइंस का मेहता प्रेक्षागृह और साउथ मलाका प्रेक्षागृह में सिर्फ नृत्य, संगीत एवं संगोष्ठियों के कार्यक्रम हो सकते हैं, वह भी किराए पर उपकरण लाने के बाद। जगत तारन कॉलेज के रवींद्र मंच पर रूपकथा का नाट्य समारोह और कभी-कभार नाटक होते हैं। यहाँ भी तकनीकी उपकरण किराए पर लाना बाध्यता है। बैकस्टेज ने अपने पद, प्रकाश-ध्वनि उपकरणों की सहायता से स्वराज विद्यापीठ, महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, इलाहाबाद केन्द्र का प्रेक्षागृह, कुछ स्कूलों के हॉल, बास्केटबाल कोर्ट, चबूतरों को वैकल्पिक परफार्मिंग स्पेस में बदलकर कई नाटक किएसमानांतर ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय के परिसर को पूर्वाभ्यास और इंटीमेट नाटकों के लिए इस्तेमाल किया। गोविन्द बल्लभ पंत सामाजिक संस्थान में भी कभी-कभी नाटक होते हैं। यहाँ नए निदेशक प्रो. बद्री नारायण (प्रसिद्ध कवि एवं स्कॉलर) के आने से अकादमिक और कलात्मक-सांस्कृतिक गतिविधियों को बहुत प्रोत्साहन-संरक्षण मिला है। जुझारू रंगकर्मी अल्प संसाधनों में ही विश्वविद्यालय के यूनियन हॉल, आजाद पार्क, हिन्दुस्तानी एकेडमी, निराला डेलीगेसी, स्कूल कॉलेज के मंचों पर नाटक कर लेते हैं लेकिन पर्याप्त धन और स्पेस होते हुए भी स्कूलों, कॉलेजों ने अपने प्रेक्षागृहों को न ही तकनीकी सुविधायुक्त बनाया है न ही उनके प्रबंधन में रंगमंच को लेकर उदारता ही है। इलाहाबाद में रिहर्सल स्पेस का बड़ा संकट है। विश्वविद्यालय के गलियारे, चंद्रशेखर आजाद पार्क जैसी जगह ही अधिकतर रंगकर्मियों का रिहर्सल स्थान है। एनसीजेडसीसी के कला भवन में कई कक्ष हैं लेकिन इसकी उपलब्धता सहज नहीं है या वहाँ का किराया नाट्य संस्थाओं की पहुँच से बहुत दूर है।


     पुरानी संस्थाओं के अपने दर्शक हैं जो दूसरों के नाटक नहीं देखते। नाट्यकर्मियों की आपसी दूरी से वह भी दूसरे के नाटकों में नहीं या बहुत कम दिखते हैं। गम्भीर रंगकर्म कर रही दो-तीन संस्थाओं ने ‘ऑडिएंस बिल्डिंग' का काम किया है। उनके अपने डाटा बैंक हैंउनके दर्शक उन संस्थाओं के आंशिक आर्थिक आधार भी हैं लेकिन इलाहाबादी दर्शकों को मुफ्त में नाटक देखने की लत है।


                                                                                                                                                     सम्पर्क : 105/14-बी, जवाहर लाल नेहरू रोड, जॉर्ज टाउन,


                                                                                                                                                                             इलाहाबाद-211002, मो. : 9415367179