आलेख - बेबाक, साहसिक और ऐतिहासिक फैसलों के लिए विख्यात् इलाहाबाद हाईकोर्ट - जे.पी.सिंह

जन्म : 16 जुलाई 1951, इलाहाबाद शिक्षा : बी.एस.सी., एल.एल.बी. (इलाहाबाद विश्वविद्यालय) 5 वर्ष वकालत तत्पश्चात्, दैनिक जागरण, अमृत प्रभात, हिन्दुस्तान में पत्रकारिता। सम्प्रति : सम्पादक, डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट इलाहाबाद संस्करण।


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अपने बेबाक, साहसिक और ऐतिहासिक फैसलों के लिए इलाहाबाद हाईकोर्ट विख्यात हैइलाहाबाद हाईकोर्ट का जब भी नाम लिया जाता है तब सबसे पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और समाजवादी नेता राजनारायण के बीच चली चुनाव याचिका में उच्च न्यायालय के उस ऐतिहासिक फैसले की बात होती है, जिसमें जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने इंदिरा गांधी का चुनाव परिणाम निरस्त कर दिया था और उनको छह वर्ष के लिए चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य भी ठहरा दिया था। हाईकोर्ट के इस ऐतिहासिक फैसले के बाद इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लगा दिया था और विपक्षी नेताओं को जेल में बंद कर दिया था।


    १९७१ के संसदीय चुनाव में रायबरेली लोकसभा क्षेत्र में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी मैदान में थीं तो उनके सामने थे दिग्गज राजनेता राजनारायणइंदिरा गांधी विजयी रहीं। राजनारायण ने हाईकोर्ट में याचिका (५/१९७१) दाखिल कर परिणाम को चुनौती दी। १२ जून १९७५ के अपने ऐतिहासिक फैसले में जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने इंदिरा गांधी का चुनाव परिणाम निरस्त कर दिया। यही नहीं, उनको छह वर्ष के लिए चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य भी ठहरा दियासुनवाई के दौरान इंदिरा गाँधी को जस्टिस सिन्हा की अदालत में पेश होना पड़ा और इस तरह आजाद भारत की वे पहली प्रधानमंत्री बनीं जिसे किसी अदालत में पेश होना पड़ा था।


    २७ जून १९७५ को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश में इमरजेंसी लगा दी। साथ ही प्रतिद्वंद्वी राजनेताओं को मीसा के तहत जेलों में बंद करा दिया। भाजपा के नेता मुरली मनोहर जोशी ने याचिका (६८८५/१९७५) और वरिष्ठ अधिवक्ता वीरेंद्र कुमार सिंह चौधरी ने भी एक याचिका ७४२८/१९७५ दाखिल करके नेताओं की मीसा में गिरफ्तारी को चुनौती दी। तत्कालीन मुख्य न्यायमूर्ति के.बी. अस्थाना की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने याचिकाएं मंजूर करते हुए नेताओं की गिरफ्तारी निरस्त कर दी। यह भी इलाहाबाद उच्च न्यायालय का ऐतिहासिक निर्णय था।


    गौरतलब है कि भारत और विश्व के न्यायिक इतिहास में १७ मार्च १८६६ का दिन स्वर्णाक्षरों में दर्ज है, क्योंकि इसी दिन इलाहाबाद हाईकोर्ट अस्तित्व में आया था। अंग्रेजी हुकूमत के दरमियान वजूद में आए व देश के सबसे पुराने न्यायालयों में शुमार इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने १५२ वर्ष का हो चुका है। इलाहाबाद हाईकोर्ट की स्थापना १८६६ में ही हो गई थी। लेकिन शहर के बीचो-बीच बनी इलाहाबाद हाई कोर्ट की मौजूदा ऐतिहासिक इमारत सौ साल पहले अस्तित्व में आई।


               


      बात १८६१ की है, तब अंग्रेजी हुकूमत भारत पर शासन कर रही थी और ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ इसकी सर्वेसर्वा थीं। उन दिनों सदर अदालतों को समाप्त कर बम्बई, कलकत्ता और मद्रास की तीनों प्रेसीडेंसियों के लिए एक-एक न्यायालय के गठन की रणनीति बनी लेकिन भारत के उत्तर भाग में ऐसा कुछ नहीं हो सका था। ब्रिटिश शासन की कानूनी न्याय व्यवस्था के लिए यह रणनीति लागू करना आवश्यक था जिसके तहत भारत के उत्तरी-पश्चिमी प्रदेशों के लिए एक उच्च न्यायालय के गठन का प्लान तैयार हुआ। उस समय महारानी एलिजाबेथ द्वारा जारी लेटर्स पेटेंट के जरिए हाईकोर्ट की नींव रखने की पहल हुई और इंडियन हाईकोर्ट एक्ट १८६१ के तहत १७ मार्च १८६६ को अगरा में मौजूदा इलाहाबाद हाईकोर्ट अस्तित्व में आ गया।


     सिर्फ ६ न्यायाधीश और गिनती के बैरिस्टर


      आज इलाहाबाद हाईकोर्ट में न्यायाधीशों की स्वीकृत संख्या १६० है, लेकिन अस्तित्व में आने पर यहां न्यायाधीशों की संख्या मात्र ६ रखी गई थी। उस वक्त उत्तरी-पश्चिमी प्रान्तों के लिए स्थापित इस हाईकोर्ट के पहले मुख्य न्यायाधीश बने सर वाल्टर मॉर्गन और उनके साथ पांच और न्यायाधीशों को यहां नियुक्ति मिली।


    कैसे बनी लखनऊ खंडपीठ


     इलाहाबाद हाईकोर्ट की स्थापना से पहले १८५६ में ही अवध कोर्ट लखनऊ अस्तित्व में आ चुका था। इसे १९२५ में चीफ कोर्ट ऑफ अवध के नाम से जाना जाने लगा। लेकिन १९४८ में हाईकोर्ट ने एक अमलगमेशन ऑर्डर पारित किया जिसके चलते इसे इलाहाबाद हाईकोर्ट की बेंच के रूप में स्वीकृति मिल गई। बता दें कि २५ फरवरी १९४८ को यूपी विधानसभा ने एक प्रस्ताव पारित कर राज्यपाल द्वारा गवर्नर जनरल को यह अनुरोध किया कि अवध चीफ कोर्ट लखनऊ और इलाहाबाद हाई कोर्ट को मिलाकर एक कर दिया जाए। इसका परिणाम यह हुआ कि लखनऊ और इलाहाबाद के दोनों (प्रमुख व उच्च) न्यायालयों को ‘इलाहाबाद उच्च न्यायालय' नाम से जाना जाने लगा और इसका सारा कामकाज इलाहाबाद से चलने लगा। हाई कोर्ट की एक स्थाई बेंच लखनऊ में बनी रहने दी गई जिससे सरकारी काम में व्यवधान न हो। अभिलेखों में दर्ज तथ्यों के मुताबिक अवध कोर्ट ज्यूडीशियल कमिश्नर के अधीन थी और १२ जिलों के मामले यहां निस्तारित होते थे। बाद में २६ जुलाई १९४८ से अवध चीफ कोर्ट भी इससे जुड़ गई और यही चीफ कोर्ट इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच के तौर पर जानी जाने लगी।


     १८६९ में मिला नाम 'इलाहाबाद हाईकोर्ट


     सन् १८६९ में हाईकोर्ट को आगरा से इलाहाबाद स्थानान्तरित कर दिया गया। यहां हाईकोर्ट की कोई खुद की इमारत तो थी नहीं इसलिए १९१६ तक राजस्व परिषद की बिल्डिंग में ही कोर्ट चलता रहा। ११ मार्च १९१९ को पूरक लेटर्स पेटेंट के द्वारा इस हाईकोर्ट का नाम बदल कर ‘इलाहाबाद उच्च न्यायालय' (हाईकोर्ट ऑफ जुडीकेचर ऐट इलाहाबाद) रख दिया गया और यह आज तक इसी नाम से विख्यात है। जब उत्तराखण्ड राज्य का गठन २००० में हुआ, तब उच्च न्यायालय के कार्यक्षेत्र में से उत्तराखण्ड के तेरह जिले निकाल कर उत्तराखण्ड उच्च न्यायालय' से सम्बद्ध कर दिए गए, जिसका मुख्यालय नैनीताल में हैं।


    इलाहाबाद उच्च न्यायालय, कलकत्ता, मद्रास व बम्बई हाईकोर्ट के बाद देश का सबसे प्राचीन उच्च न्यायालय है। इसकी अपनी विशेष गरिमा है। यहां के निर्णय अमेरिका के न्यायालयों में भी महत्वपर्ण निर्णयों की श्रेणी में मानकर बड़े सम्मान के साथ पढ़े जाते हैं। यह उच्च न्यायालय अपनी निर्भीकता व निष्पक्षता के लिए निर्भीकता व निष्पक्षता के लिए प्रसिद्ध है। प्रधानमंत्री के विरुद्ध भी निर्णय करने की क्षमता मात्र इसी उच्च न्यायालय की उपलब्धि है।


    देश की समस्त न्याय व्यवस्था अंग्रेज शासकों की चलाई हुई है। ईस्ट इंडिया कंपनी के जमाने में सदर दीवानी व सदर निजामत अदालत आगरा में दीवानी व फौजदारी मामलों की अपीलों की सुनवाई करती थी। १७ मार्च १८६६ को आगरा में ही हाईकोर्ट ऑफ जुडिकेचर फॉर द नार्थ वेस्टर्न प्रविसेस की स्थापना की गई और चीफ जस्टिस सर वाल्टर मोर्गन के साथ पांच न्यायाधीश नियुक्त किए गए। इसी उच्च न्यायालय को १८६९ में इलाहाबाद स्थानांतरित किया गया था।


    इस उच्च न्यायालय ने अनेक लब्ध प्रतिष्ठ न्यायाधीश व अधिवक्ता देश को दिए हैंयहां के कई न्यायाधीश उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीश रहे और उनमें से जस्टिस आरएस पाठक, जस्टिस केएन सिंह, जस्टिस वीएन खरे देश के प्रधान न्यायाधीश भी बने। अधिवक्ताओं में पं. मोतीलाल नेहरू, पं.मदन मोहन मालवीय, सर तेज बहादुर सपू, बाबू पुरुषोत्तम दास टंडन, पं. जवाहर लाल नेहरू को कौन नहीं जानता तो पं. कन्हैयालाल मिश्र, बाबू जगदीश स्वरूप, सतीश चंद्र खरे, श्यामनाथ कक्कड़, शांतिभूषण, पं.प्रकाश चंद्र चतुर्वेदी, शेखर सरन, एसएन मुल्ला की ख्याति देशभर में छाई रहीशांतिभूषण व श्यामनाथ कक्कड़ तो केंद्रीय विधि मंत्री भी रहे। आनंद देव गिरि उच्चतम न्यायालय न्यायालय में केंद्र सरकार के सॉलिसिटर जनरल रहे।


    इंसाफ की कसौटी पर खरे उतरे फैसले


   वैधानिक मामलों में इस हाईकोर्ट के फैसले न सिर्फ न्याय की कसौटी पर खरे उतरे, बल्कि उन्होंने संवैधानिक संकट को खत्म करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। आजादी के पहले स्वतंत्रता सना सेनानियों से जुड़े चौरीचौरा केस, आगरा कॉन्सपिरेंसी केस और आजादी के दीवानों के कानपुर बम कांड से जुड़े फैसले हाईकोर्ट के इतिहास के पन्ने बन गए तो आजादी के बाद इंदिरा गांधी के फैसला न सिर्फ देश-विदेश में मामले में इस हाईकोर्ट का फैसला न सिर्फ देश-विदेश में चर्चित हुआ बल्कि एक मिसाल भी कायम हुआ। जगदंबिका पाल मामले में हाईकोर्ट के फैसले ने यूपी की राजनीति में आए भूचाल को शांत किया था। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सैकड़ों महत्वपूर्ण निर्णय दिए हैं जो कानून की किताबों में दर्ज हैं।


   हल हुआ संवैधानिक संकट


    हैं। २३ फरवरी १९९८ को यूपी के तत्कालीन राज्यपाल रोमेश भंडारी ने कल्याण सिंह सरकार को बर्खास्त करकेलोकतांत्रिक कांग्रेस नेता जगदंबिका पाल को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी थी। यूपी में दो-दो मुख्यमंत्री हो गए। डॉ. नरेंद्र कुमार सिंह गौर ने राज्यपाल के फैसले के खिलाफ याचिका दाखिल की। न्यायमूर्ति वीरेंद्र दीक्षित व न्यायमूर्ति डीके सेठ की खंडपीठ ने कल्याण सिंह की बर्खास्तगी पर रोक लगा दी और कहा कि राज्यपाल चाहें तो कल्याण सिंह को बहुमत साबित करने का आदेश दे सकते हैं।


   अयोध्या में राम मंदिर मुद्दे पर फैसला


    इलाहाबाद उच्च न्यायालय ३० सितंबर २०१० को विवादित राम मंदिर मुद्दे पर ऐतिहासिक फैसला सुनाया था। हाईकोर्ट ने अयोध्या के विवादित स्थल को रामजन्मभूमि करार देते हुए विवादित जमीन का एक हिस्सा राम मंदिर, दूसरा सुन्नी वक्फ बोर्ड और निर्मोही अखाड़े में जमीन बांटने का फैसला दिया था। हाईकोर्ट ने २.७७ एकड़ जमीन का तीन हिस्सों में बंटवारा किया था इसमें से एक हिस्सा हिंदू महासभा को दिया गया था जिसमें राम मंदिर बनना था। दूसरा हिस्सा सुन्नी वक्फ बोर्ड को दिया गया था। विवादित स्थल का तीसरा हिस्सा निर्मोही अखाड़े को दिया गया था। हालाँकि, इस हाईकोर्ट के फैसले को देश के उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी गई है।


    नेताओं और अधिकारियों के बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ें


    अगस्त २०१५ में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने अपनी ऐतिहासिक टिप्पणी में कहा था कि अधिकारियों, नेताओं और जजों के बच्चों को अनिवार्य रूप से सरकारी स्कूलों में पढ़ाया जाना चाहिए ताकि सरकारी शिक्षा पद्धति में सुधार लाया जा सके। यह टिप्पणी हाई कोर्ट ने खस्ताहाल प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था पर नाराजगी जाहिर करते हुए दी थी। उच्च न्यायालय ने कहा था कि निगम, अर्ध सरकारी संस्थानों या अन्य कोई भी राज्य के खजाने से वेतन उठा रहा हो, उनके बच्चों को सरकारी स्कूल में पढ़ना अनिवार्य किया जाए। इतना ही नहीं, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने मुख्य सचिव को आदेश दिया था कि जो कोई इसका पालन नहीं करता उससे फीस वसूली जाए और उनका प्रमोशन और इन्क्रीमेंट भी रोक दिया जाए।


     जाति आधारित रैलियों पर रोक


     जुलाई ११, २०१३ को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अपने अहम फैसले में पूरे उत्तर प्रदेश में जातियों के आधार पर होने वाली राजनीतिक दलों की रैलियों पर रोक लगा दी थी। न्यायमूर्ति उमानाथ सिंह तथा न्यायमूर्ति महेंद्र दयाल की खंडपीठ ने केंद्र तथा राज्य सरकार समेत भारत निर्वाचन आयोग एवं चार राजनीतिक दलों भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाजवादी पार्टी को नोटिस भी जारी किए थे। याचिकाकर्ता का तर्क था कि इससे सामाजिक एकता और समरसता को जहां नुकसान हो रहा है, वहीं ऐसी जातीय रैलियां तथा सम्मेलन समाज में लोगों के बीच जहर घोलने का काम कर रहे हैं, जो संविधान की मंशा के खिलाफ था।


    पहला हाईकोर्ट, जिसका अपना म्यूजियम भी है


     इलाहाबाद हाईकोर्ट देश का पहला ऐसा हाईकोर्ट है। जिसका अपना संग्रहालय व आर्काइव सिस्टम है। संग्रहालय में हाईकोर्ट के गठन वाले महारानी विक्टोरिया की ओर से जारी लेटर्स पेटेंट, प्रारंभ से लेकर अब तक के चीफ जस्टिस के चित्र, दिग्गज वकीलों की फोटो, जजों की शुरुआती पोशाक, कुर्सी, मुहर, सिके, पहली महिला जज, पहली महिला वकील, प्रिवी कौंसिल गए जज की फोटो, ऐतिहासिक फैसले, हाईकोर्ट पर जारी डाक टिकट आदि हैं। हाईकोर्ट का संग्रहालय १९६६ में बनाया गया। ५० साल के हो रहे इस म्यूजियम को वर्तमान स्वरूप वर्ष २००२ में मिला। १५०वीं वर्षगांठ पर पुनरोद्धार कर इसे वातानुकूलित व आधुनिक बनाया गया।


                                                                                           सम्पर्क : 155, रोशन बाग, इलाहाबाद, मो.नं. : 9415214158