अपनी बात

आज भी जीवित हैं, पुराने सवाल


                              


शिमला प्रवास के दौरान मशहूर लेखक एस.आर. हरनोट से भेंट हुई। इस छोटी सी मलाकात में हरनोट जी ने कई ऐसे प्रश्न उठाए जिनका सामना करने से हम या तो परहेज करते हैं या उन प्रश्नों के औचित्य से ही इनकार कर देते हैं। हरनोट जी के प्रश्न उनके अनुभवों और जमीनी हकीकत से उपजे हैं। जन पक्षधरता का दावा करने वाले संगठनों की जवाबदेही पर वे काफी कटु थे। उनकी चिन्ता स्वाभाविक है। वर्तमान राजनैतिकता के दौर को अपनी पीठ पर चाबुक की तरह महसूस करने वाले संवेदनशील लोगों की चिन्ता वाम शक्तियों को हाशिए पर धकेले जाने से और गहरी हुई है। एक ऐसे पक्ष को जो इस देश के सर्वांगीण विकास के लिए अत्यंत आवश्यक है, आम जन से दूर जाते देखना अत्यंत पीड़ादायक है। आमतौर से लोगों का मानना है कि जनता की समस्याओं के लिए जमीन पर आकर संघर्ष में कोताही के कारण ही यह स्थिति बनी है। वर्तमान राजनैतिकता में जनतंत्र के मूल समीकरण में तीव्र बदलाव हुआ है और काफी हद तक वामपक्ष ने बदलते परिप्रेक्ष्य में अपनी भूमिका को तलाशा है परंतु परिणाम को देखते हुए ऐसा महसूस होता है कि उसकी कोशिश में कहीं बड़ी व्यावहारिक बाधा है। कतिपय विद्वानों का मत है कि जनतंत्र वामपंथ की सैद्धांतिकी के लिए कभी केन्द्रीय प्रश्न नहीं बन पाया है परन्तु भारतीय वाम के बड़े हिस्से ने तेलंगाना विद्रोह के बाद जनतांत्रिक प्रतिरोध का विकल्प चुन लिया था। इस रासायनिक सम्मिलन का काफी दिनों तक प्रभाव भी नजर आया परंतु भारतीय समाज की जड़ में गहरे तक पैठ जमाए जातिवाद वाम सैद्धांतिकी के लिप्यांतरण की राह में बड़ा दुश्मन है; दुर्भाग्य यह है कि इस बड़ी बीमारी को गले लगाने में तमाम वाम शक्तियां पीछे नहीं हैं और अपनी ताकत को क्षीण कर रही हैं।


मोदी सरकार के प्रचंड बहुमत की व्याख्या करते हुए कुछ विद्वानों का यह कहना था कि २०१४ के चुनाव ने इस अपूर्व संभावना को जन्म दिया है। कि अब जाति हमारी राजनीति से जाती रहेगी। यह परिघटना यदि सचमुच स्थायी रूप ले लेती तो भविष्य को दृष्टि में रखकर एक व्यूह रचना हो सकती थी। मेरा मानना है कि सही जनतंत्र के लिए जाति का नष्ट हो जाना बेहद जरूरी है। यह सही है कि भारत की सामाजिक व्यवस्था को तोड़कर वर्ग आधारित गा संरचना कायम करना लगभग असंभव सा है परन्तु इस रास्ते को छोड़कर सहजीकरण के फेर में पड़ जाने से सबसे अधिक क्षति जनता की होती है। जिस ताकत को इस गरीब देश के लिए आगे की कतार में होना चाहिए था, उसे पीछे की कतार में शामिल होना पड़ रहा है। वाम विरोधी ताकतों की साजिश की गिरफ्त में पूरी दुनिया के साथ हम भी आए हैं। साहित्य को निरर्थक बनाने वाली ताकतें अधिक सक्रिय हैं और साहित्य ही वह साधन है। जिसके माध्यम से सही सोच को विकसित किया जा सकता है परन्तु पिछली आधी सदी से इसका क्षरण हो रहा है। इस आग को जलाए रखने की जिम्मेदारी जिनपर है वे कुछ फौरी लाभ के चक्कर में अपने अस्तित्व के लिए संकट पैदा कर रहे हैं और सही मायने में कहा जाए तो यह संकट पैदा भी हो चुका है। आज का समय साहित्य के लिए सबसे बड़ा खलनायक है। इसमें कोई दो राय नहीं कि लिखने में कोई कोताही नहीं बरती जा रही है, तमाम जनपक्षधर लेखकों ने अपने जीवन को इसी अभियान में लगा रखा है परंतु जनपक्षधर राजनैतिक ताकतों का पूर्ण सहयोग और समर्थन नहीं मिल पाने के कारण यह अभियान अपना लक्ष्य हासिल नहीं कर पा रहा है जबकि देश की स्वस्थ राजनीति के लिए साहित्य का रचा जाना एक अनिवार्य शर्त है।


सृजन सरोकार पत्रिका जनपक्षधर लेखन को दृष्टि में रखकर कार्य कर रही है। पिछले तीन अंकों को पाठकों की काफी सराहना मिली है। इस अंक को भी इस तरह प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है कि पाठक अपने आपको इससे सहज ढंग से जोड़ सके। मान्यता (अमिता प्रकाश), दूसरा अध्याय (कविता विकास), ताजपोशी (डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी) और बहुवंश (गोविन्द उपाध्याय) में सामाजिक, पारिवारिक और राजनैतिक द्वन्द्व का पक्ष दृष्टिगोचर होता है, वहीं स्वप्निल श्रीवास्तव, जयप्रकाश मानस, पंखुरी सिन्हा, केशव शरण, राजेन्द्र आहुति, पुरु मालव आदि की कविताओं में समय का संघर्ष विश्लेषित होता है। हिमाचल की संस्कृति पर इस अंक में कुछ खास तवज्जो दी गई है। किन्नर (किन्नौर वासी) को केन्द्र में रखकर एस.आर. हरनोट ने एक जरूरी पड़ताल की है तो आशा शैली के लेख मुण्डा महायज्ञ की त्रासदी पर उन्होंने जोरदार ढंग से अपनी पुरानी कहानी ‘जीनकाठी' के माध्यम से बात रखी है। भुण्डा महायज्ञ को पूरी तरह व्याख्याचित करने के लिए एस.आर. हरनोट की यह कहानी प्रकाशित करना आवश्यक था।


। डॉ. दीप्ति गुप्ता के संस्मरण में कालजयी लेखक अमृतलाल नागर का व्यक्तित्व खुलकर सामने आता है तो डॉ. यासमीन सुलताना नकवी का लेख इलाचन्द्र जोशी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर एक सार्थक बहस शुरू करता है। कवि कौशल किशोर और चन्द्रेश्वर की नई किताबों पर समीक्षा के बहाने उमाशंकर सिंह परमार ने आज के तमाम सवालों पर अपनी बातें रखी हैं। कवि, पत्रकार डॉ. सुभाष राय के संग्रह ‘सूली पर सच' की कविताओं पर डॉ. संतोष चतुर्वेदी ने अपनी बातें बड़ी साफगोई से रखी है। सृजन सरोकार ने प्रकाशित रचनाओं के माध्यम से सामाजिक, राजनैतिक सवालों पर सार्थक बहस के लिए मंच उपलब्ध कराने की कोशिश की है। हम आमंत्रित करते हैं लेखकों, कवियों को ऐसी रचनाओं के लिए जिनसे सही सोच विकसित हो सके। आज की है कि संघों और गुटों में बंटे लेखक, कवि उन रचनाकारों को अछूत मानते हैं जो उनकी वैचारिक परिधि में नहीं आते। इस पर उमाशंकर परमार ने भी अन्यत्र अपनी बात कही है। साहित्य के लिए यह अस्पृश्यता खतरनाक है। बेहतर है, नाइत्तफाकी पर बहस हो और आज को बेहतर बनाने की कोशिश तेज हो।


वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और कवि राज किशोर का जाना इस वक्त की सबसे बड़ी क्षति है। राजकिशोर ऐसे पत्रकार थे जिन्होंने परम्परागत पत्रकारिता को एक नई दिशा दी। राजकिशोर कोलकाता में पैदा हुए थे परन्तु उनका पैतृक घर उत्तर प्रदेश के मोहम्मदाबाद गोहना में था। वे बदलाव के पक्षधर थे और समाज में इस बदलाव के होते हुए देखना चाहते थे। गंभीर चिंतन के साथ खुलकर विचार रखने वाले पत्रकार थे राजकिशोर। सृजन सरोकार की ओर से राजकिशोर जी को विनम्र श्रद्धांजलि !