लेख - गजल, शेर और समझ - महेश अश्क

   महेश अश्क  - जन्म : 1 जनवरी 1949 को गोरखपुर के गांव खोराबार में। साहित्य सृजन की शुरुआत किशोर जीवन से। हिन्दी और उर्दू की विभिन्न पत्रिकाओं और अखबारों में प्रकाशन 1970 से अब तकगजलों का संकलन ‘‘राख की जो पर्त अंगारों प' है'' सन् 2000 में प्रकाशित। 


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                                                                       विधा-रूप में गजल आकार-ग्रहण कैसे करती है,


                                                                               इसके सांकेतिक-स्वभाव को कैसे समझे,


                                                                और -गज़ल के दो अच्छे शेरों में, बेतहर की पहचान किस,


                                                                                      या किन आधारों पर संभव है?  


 ऊपर दर्ज जिज्ञासा, उन कछ छात्र-बद्धिजीवियों की तरफ से है, जो हिन्दी में गज़ल से दिलचस्पी रखते हैं और अपनी पढ़ाई के क्रम में फिलहाल शोध आदि जैसे कार्य से जुड़े हुए हैं। महत्वपूर्ण यह इसलिए तो है ही कि गज़ल को लेकर हिन्दी में, यह नए-खून की एक सार्थक रचनात्मक-बेचैनी है, - इसलिए भी हैकि इस जिज्ञासा में जो अन्तर्निहित प्रश्न हैं वे विधा-रूप में गज़ल को, रचना के स्तर से लेकर आलोचकीय-परिधि तक घेरते हैं। गौर करें, तो यह जिज्ञासा, गज़ल के आकार-ग्रहण, उसके शेरों के गठन और बयान तथा समझ के स्तर पर उनके तार्किक-विश्लेषण के ज़रिए नतीजे तक पहुँचने का आग्रह अपने भीतर समेटे हुए है। कहना नहीं होगा, कि हिन्दी-गजल को आज ऐसी ही रचनात्मक-चिंता की जरूरत है।


    प्रस्तुत आलेख, उक्त जिज्ञासा के आलोक में, - ऐसे कारकों, रचनात्मकस्थितियों, उपायों या विधि-विधान को समझने और स्पष्टता के साथ बयान करने की एक विनम्र कोशिश है, - जिन्हें गज़ल को गज़ल और उसके शेरों को गज़ल का शेर बनाने के लिए जिम्मेदार ठहराया गया है। यह उपक्रम इस आशय से है कि, इनकी पहचान आमतौर पर साफ हो सके।


                                                                                                  एक


    कहते हैं, गुजुल एक आसान-विधा है, लेकिन वहीं यह भी सही है कि, इस विधा में जैसे-जैसे अभ्यास बढ़ता है, समझ और दृष्टि व्यापक होती है, - इस विधा का रचनात्मक-व्यवहार अपेक्षाकृत जटिल होता जाता है, और बात हर जगह और हर-समय, मनचाहे ढंग से नहीं बनतीकुछ लोगों ने शायद इसी कारण यह भी कहा है कि गज़ल एक 'बैंक लेस-विधा' है। इन सब बातों में मतलब की बात बस इतनी है कि इस विधा में, किसी भी स्तर पर किसी उतावलेपन की कोई गुंजाइश नहीं है, वैसे देखा जाए तो कविता की किस विधा में बात बहुत आसानी से, और जल्दी बन जाती है ?


    गुजुल की विधागत-अवधारणा में, छन्दानुशासन के अपेक्षित निर्वाह को सर्वाधिक-महत्व प्राप्त है। इस प्रकार एक निश्चित वज़न या बह्न और काफ़िया का विधान-सम्मत व्यवहार यहां प्राथमिक है। जबकि रदीफ़ का होना ऐच्छिक है, लेकिन रदीफ़ अगर इस्तेमाल की जा रही है तो शर्त यह है कि उसे मतले से मक्ते तक, किसी भी शेर में फ़ालतू या थोपी हुईनहीं लगनी चाहिए, इसका मतलब यह हुआ कि रदीफ़ को हर शेर में, - अर्थ और बयान की दृष्टि से सक्रिय और उपयोगी होना चाहिए। बहर, काफ़िया और रदीफ़ (अगर है) को सम्मिलित रूप से, ‘जमीन' कह कर भी पुकारा जाता है। एक मुहावरा 'रंग' को लेकर भी है, कि अमुक गज़ल या अमुक शेर, - अमुक के रंग में है। इसका अर्थ यह लिया जाता हैकि एक गज़ल या शेर से जिस तरह का आस्वाद मिला था, इससे भी वैसा ही आस्वाद मिल रहा है, इसलिए 'रंग' का मुहावरा कुछ न कुछ आंतरिक भी है, लेकिन ज़मीन कहने से हमें गज़ल की दिखाई पड़ने वाली आवश्यकता यानी बहर, काफ़िया आदि का बोध होता है। वहाँ के इस्तेमाल में लेने का अर्थ उसे उसकी यांत्रिकता से मुक्त करना है।


    काफ़िया का महत्व यह है कि उसे ऐसे बिन्दु के रूप में लिया जाता है जहां से, कोई भाव, विचार या ख्याल-चिंतन अपने आकार-ग्रहण और अभिव्यक्ति की तरफ बढ़ना शुरू करता है। काफिया को हम हिन्दी में तुक के रूप में समझ सकते हैं। जबकि उर्दू में इसके सटीक निर्वाह को ध्यान में रखते हुए एक व्यवस्थित-विधान सुनिश्चित है। खुशी की बात है कि अब उक्त विधान पर कुछ किताबें हिन्दी में भी उपलब्ध हैं, लेकिन जहां तक देखा गया है ऐसी किताबें मौलिक-चिंतन का नतीजा न होकर, अपनी सुविधानुसार वहीं से उठाई गई बातों का लिप्यांतरण हैं, हिन्दी गजुल के कुछ विद्वानों ने समय-समय पर ऐसी बातों को लेकर आलेख भी लिखे और प्रकाशित कराए हैं, लेकिन उनमें भी बात कहींसे उठाकर कहीं रख देने वाला रवैया ही दिखाई पड़ता है। गजुल के मामले में, उर्दू से हिन्दी में कुछ लेना और उसे काम में लाना बुरा नहीं है, क्योंकि यह हमारी जरूरत है फिलहाल, - लेकिन इस काम को विवेकशील और सुचितित ढंग से इस प्रकार किया जाना चाहिए कि संबंधित विषय हमारे लिए आसानी से समझ में आने वाला बन सके।


   उर्दू में काफ़िया-विचार में प्राथमिक यह देखना है कि बतौर काफ़िया जिन शब्दों का चुनाव हम कर रहे हैं उनमें स्वर की समानता के साथ-साथ वर्तनी की दृष्टि से शब्द के अंत में आने वाले अक्षर की भी समानता निरंतर बनी रहे। इस सिलसिले में मूल शब्द का अंतिम अक्षर यानी व्यंजन महत्वपूर्ण है, उर्दू में इसे 'हफे-रवी' के रूप में पहचाना जाता है। अर्थात - दीवार, अख़बार, दो-चार, उपकार, लाचार आदि शब्दों में 'र' के हिसाब से हर्फे-रवी है, - लेकिन ये शब्द आपस में काफ़िया इस आधार पर हैं, कि 'र' अक्षर के पहले, इन शब्दों में जो, आ-कार (यानी आ–मात्रा का स्वर) है वह सभी में समान रूप से मौजूद है। काफ़िया के संदर्भ से ये प्राथमिक बातें हैं, जिन्हें ध्यान में रखना चाहिए मगर दोषरहित काफ़िया-विचार के लिए, -उर्दू में संबंधित विधान को एक बार जरूर देख लेना चाहिए ताकि इस बाबत गुण-दोष की ठीक-ठीक जानकारी हो सके।


    यहां उर्दू शब्दों की हिन्दी वर्तनी से जुड़ी महत्वपूर्ण बात यह भी है कि - कमीज़-तमीज़, खुवास-लिबास, अबसजरस, रोता-तोता और ऐसे और भी शब्द-युग्म, उर्दू में परस्पर काफ़िया इस आधार पर नहीं हैं, कि वर्तनी में उनके अंतिमाक्षर परस्पर भिन्न होते हैं, लेकिन यही शब्द या इन जैसे और भी शब्द जब हिन्दी में लिखे जाते हैं तो यह भेद मिट जाता है, इसलिए हमें इस बारे में विचार करना होगा कि इन शब्दों को या ऐसे अन्य शब्दों को हिन्दी गज़ल के मामले में काफ़िया मानने से इनकार हम किस तार्किक-आधार पर करें? यह दृष्टांत यह भी बताता है कि उर्द से गुजुल के मामले में जो भी ज़रूरी ज्ञान हम सीखें, - हिन्दी में, उसे हर-समय हू-ब-हू लागू करना बुद्धिमानी शायद न हो।


    बहर-वन या छंद को हम ऐसे लयखण्ड के रूप में समझ सकते हैं, जो अपने आप में छोटी-बड़ी (लघु-दीर्घ) आवाजों, या स्वरों के परस्पर सम्मेल का गतिमान संयोजन है, और जिसकी एक निश्चित लम्बाई है। बह्रों के जरिए हमें एक लयात्मक-ढांचा या पैटर्न प्राप्त होता हैयह पैटर्न बहर या वन-रूप में अपने अरकान के जरिए व्यक्त होता है। अरकान रूक्न का बहु-वचन है। रूवन को अगर ईकाई कहें, तो अरकान को लयात्मक ढांचे की ईकाइयां समझ सकते हैं, ऐसी ईकाइयां जो स्वयं में, लय-खण्ड अनुसार छोटी-बड़ी आवाजों की निश्चित व्यवस्था रखती हैं, जिससे हम जान पाते हैं कि लय-खण्ड विशेष में कहाँ लघु-स्वर और कहां दीर्घस्वर मौजूद है। एक बह्न में एकाधिक रुक्न होते है और सब मिल कर इस बहर या लय-खण्ड के लयात्मक-आकार को ठीक-ठीक व्यक्त करते हैं। यह जानकारी उस वक्त हमारी मददगार होती है जब हम किसी निश्चित वजून या बह्न में शेर कहने के क्रम में अपने मंतव्य के अनुरूप मिसरे गढ़, बना या रच रहे होते हैं। ऐसे में प्राप्त लयात्मक-ढांचे का सक्रिय- आवर्तन हमारे शेरी-एहसास में निरंतर चलता रहता है और हमारी चेतना इसी आवर्तन के सहारे, क्रमानुसार लघु-दीर्घ स्वरों को, हमारे मंतव्य के अनुरूप योग्य-शब्दों को पिरोती हुई आगे बढ़ती है, और हम वांछित-पंक्ति या मिसरा प्राप्त करते जाते हैंयह एक तरह से, बह्र-रूप में प्राप्त लयात्मक पैटर्न का शब्द रूप में अनुवाद की क्रिया जैसी है।


    गुजुल की ख्याति एक असम्बद्ध काव्य-विधा के रूप में भी है, अर्थात, उसके शेर कथ्य या विषय की दृष्टि से अलग-अलग कविताएं होते हैं, - लेकिन इसके बावजूद, - यही अलग-अलग कविताएं जब गज़ल के ढांचे में होती हैं तो हमें एक समुच्चय या टोटलिटी का एहसास भी कराती हैं, जो है तो आंतरिक लेकिन अनुभव से परे नहीं है। समझने की बात यह है कि, - ग़ज़ल के विधागत-आकार में इस समुच्चय की स्थिति, बह्न की लयात्मक-निरंतरता में, - काफ़िए के आवर्तन के गतिशील सिलसिले के कारण बनती है, - यानी इस प्रकार गुजुल के ढांचे में आंतरिक तौर पर जो लयात्मक-वातावरण बनता है, - वह अलग अलग कथ्य के बावजूद शेरों को एक रागात्मक-एकरूपता (Melodius-Uniformity) में रंग देता है और सभी शेर एक ही लयात्मकता के हिस्से बन जाते हैं।


   गजुल की इस विधागत-विशेषता की पहचान अपने समय में फिराक साहेब ने की, और न सिर्फ पहचान की, बल्कि इस एक हथियार से ही ‘रेजा-ख्याली' (असम्बद्ध काव्य विधा) वाले जबरदस्त एतराज़ की हवा निकाल कर रख दी। तब उन्होंने इस विधा को (Chain of climaxes) अर्थात 'पराकाष्ठाओं की श्रृंखला' वाली विधा कह कर पुकारा था।


   अब कुछ उन उपायों और विधि-विधान पर भी नजर डाल ली जाय, जिनका निर्धारण। - लयात्मकता के रख- रखाव, शेर के सौष्ठव, बयान की चुस्ती, अन्तर्वस्तु के अर्थवान । एवं सौंदर्य-परक विकास के लिए, - भाषिक संभावना के अधिक से अधिक रचनात्मक - संदोहन आदि को ध्यान में रख कर किया गया है। इन उपायों को छंदानुशासन के अनुषांगिक के रूप में स्वीकार किया गया है, लेकिन इनका पालन यदि न किया जाए, तो शेर एक निर्जीव और रूखा फीका बयान होकर रह जाएगा, और कविता होने की मांग पूरी नहीं कर सकेगा। ‘चुस्त-बंदिश’ और ‘रत' जैसे पदों का अभिप्राय शेर को ऐसी किसी भी स्थिति से बचाना है। शेर में बंदिश या गठन के चुस्त होने का आग्रह इसलिए हैकि शेर के विन्यास में ऐसा कोई शब्द न आए जो शेर की रवानी में किसी भी स्तर पर शिथिलता उत्पन्न करने वाला हो, या कथनाभिप्राय के सम्प्रेषण और अर्थवत्ता को सीमित या बाधित करे। 'रब्बत' का शेर में होना इसलिए ज़रूरी है कि इसके अभाव में शेर की दोनों पंक्तियां अलग-अलग कथन बनकर रह जाती हैं, जिससे यह स्थिति ही नहीं बन पाती कि दोनों पंक्तियां मिलकर शेर के स्तर पर एक मुकम्मल बयान या कोई सार्थक अपील हम तक पहुंचा सके। ‘रत' पद का आशय, शब्दों के बीच अर्थ और नाद की दृष्टि से परस्परसम्मेल या जुड़ाव स्थापित होना है।


    शेर के गठन का अगला चरण कथनाभिप्राय या कंटेन्ट को यथा-संभव अधिक सारगर्भित और आकर्षक बना कर प्रस्तुत करने से संबंधित है। इसे शेर के बयान-संबंधी पहलू से जोड़कर भी देख सकते हैं। दूसरे शब्दों में यह भाषा के ट्रीटमेंट और काव्याभिव्यक्ति को अर्थ की सतह पर सांद्र बनाने का भी उपक्रम है। हमारे पूर्ववर्ती मनीषियों ने सूक्ष्मता पूर्वक विचार कर, इस बाबत कुछ नियम-निष्ठ पद निर्धारित किए हैं, जिनकी मंशा को ठीक-ठीक समझते हुए, उन्हें काव्यव्यवहार का हिस्सा बनाया जाए तो इससे काव्याभिव्यक्ति निखरती है और अर्थ की सतह पर पहलूदारी आती है जो गजुल के सांकेतिक-स्वभाव के सर्वथा अनुकूल है। साथ ही इससे यह गुंजाइश भी पैदा होती है कि रचनाकार अपने प्रयोजनानुकूल भाषा कमा सके। गालिब इस बात को समझते थे। समकालीन काव्य-भाषा उन्हें नि:सार और सतही लगती थी, इसलिए उन्होंने अपने प्रयोजनानुकल भाषा की अपने समय में ऐसी कमाई की, जो आज भी दूर से ही चमकती है। यहां यह सही है कि गुजुल का हर लिखने वाला गालिब नहीं है, लेकिन गुजुल के मैदान में प्रयोजनानुकूल भाषा आने का सही रास्ता गालिब का ही है1


   बात थोड़ी बहक गई। अब उन नियम निष्ठ पदों की मंशा को समझने के क्रम में बढ़ते हैं जो बुजुर्गों के अनवरत चिंतन के नतीजे में सामने आए है। ‘मानी-आफ़रीनी' और 'मजमून-आफ्रीनी' पदों को इस सिलसिले में खासी अहमियत हासिल है। मानी-आफ़रीनी से आशय है कि शेर अपना कथनाभिप्राय ऐसी स्पष्टता और सहजता से व्यक्त करे कि उसमें किसी किस्म की दुरूहता या उल्झाव पैदा न हो, विषय चाहे कितना ही नया और अछूता क्यों न हो। जबकि मज़मून-आफ़रीनी पद यह बताता है कि शेर का अर्थ, - उन शब्दों के शब्दार्थ भर ही नहीं होता, - जिनके इस्तेमाल से शेर वजूद में आता है। ऐसा कहने में संकेत यह है कि शेर का अर्थ, - शब्दार्थ से आगे की ऐसी मंजिल है, जहां तक पहुंचने के लिए, - शेर में आए शब्दों या शब्द-निर्मितियों को सावधानीपूर्वक, उनके सही परीप्रेक्ष्य में खोलना या डी-कोड करना होता है। अर्थात शेर में जो भी बिम्ब, प्रतीक, रूपक या मिथकीय-संदर्भ आदि आते हैं, वे अर्थ की सतह पर अपने रूढार्थ से आगे की यात्रा होते हैं। वस्तुस्थिति यह है कि शेर जिस विषय को अपना कथ्य बनाता है, उसे उसकी पूर्व स्थिति में नहीं रहने देता, क्योंकि शेर के होने की प्रक्रिया में - रचनाकार का अनुभव, मनोविज्ञान, भाषिक-प्रकार्य तथा ऐसे ही अन्य कई घटक भी अपनी भूमिका निभाते हैं, और शेर के कथ्य में इस प्रकार कुछ न कुछ जोड़ते हैं और उसे अपने रंग में रँग कर अपने प्रयोजन के अनुरूप बना लेते हैं, नतीजतन उसका वह खांटी रूप जो कथ्य बनने के पूर्व था, - बाकी नहीं रह जाता, और कुछ न कुछ उससे अलग और अधिक हो जाता है, जिससे कई अर्थ-संदर्भ भी उसमें आ जाते हैं। यहां अलग से यह कहने की शायद आवश्यकता न हो, कि कविता या शेर जिस भाषा से अपना काम निकालते हैं वह स्वभावतः ही प्रतीकात्मक होती है।


    गज़ल विधा में रचना को और भी सुगढ़ और समृद्ध बनाने के लिए कुछ और भी उपाय हैं जिन्हें रियायते-लफ्जी', ‘मुनासिबते-लफ्जी' और 'रियायते-मानवी' नाम दिया गया है। रियायते-मानवी की कार्य-दिशा, अपनी व्याख्या में - मज्मन-आफरीनी के प्रकार्य जैसी मालूम होती है, लेकिन यह पद उस स्थिति को भी घेरता है, - जिसमें कई बार, - शेर से किसी ऐसे अर्थ का भी बोध होने लगता है जिसका, - शेर के कथ्य या विषय से सीधा जुड़ाव अमूमन नहीं बनता। यह स्थिति प्राप्त- अर्थ से अचानक किसी और अर्थ-संदर्भ के फूट निकलने जैसी है, परिणामतः इस प्रकार भाषा की कछ अप्रत्याशित-संभावनाएं खुलती हैं, जिससे शेर की अर्थवत्ता में मूल्यवान-इजाफा होता है। इस पद की पारिभाषिक व्याख्या के अनुसार इसका आशय, - शेर में आए किसी शब्द के अर्थ-संसर्ग से संबंधित अन्य कोई ऐसा शब्द लाना है, - जिसके अर्थ की, - पहले वाले शब्द के अर्थ या अर्थ संसर्ग से समानार्थकता स्थापित होती हो। इस पारिभाषिक-व्याख्या को सावधानीपूर्वक और सूक्ष्मता से समझने की ज़रूरत हैक्योंकि इसी तरह की व्याख्या ‘ईहाम' की भी बनती है, जो द्वि-अर्थी या बहु-अर्थी शब्दों के कार्य-व्यवहार से फायदा उठाने की कला है।


    मुनासिबते-लफ्जी पद का आशय शेर में शाब्दिकसमरूपता बनाए रखने से है। इससे शेर को सटीकता और संतुलन का लाभ प्राप्त होता है। जबकि रियायते-लफ्ज़ी का मतलब शेर में, - अपने कथनानुकूल, - ऐसे शब्द लाना है। जिनसे उसका बयानिया-पहलू दृढ़, लतीफ़ और प्रांजल बन सके तथा इस प्रकार शेर में नयापन आए और अर्थ-विस्तार के साथ-साथ अलग आस्वाद का अनुभव हो। सर्वविदित हैकि गुजुल में बयानिया-पक्ष पर जोर अधिक है। इस विधा में क्या कहा गया है' से अधिक महत्व इसका है कि कैसे कहा गया है। इस प्रकार यहां कथन-शैली या अंदाजे-बयान की अपनी एक हैसियत है।


    उल्लेखनीय है कि, गज़ल को गुजुल बनाने के लिए ज़िम्मेदार जिन कारकों, उपायों या विधि-विधान की चर्चा अब तक की गई, - उन्हें गजल की विधागत-अवधारणा में, बुनियादी हैसियत प्राप्त है। इसका अर्थ यह भी है कि इस विधा को जिस भाषा-संस्कृति में भी अपनाया जाएगा, वहां किसी न किसी रूप में, इन कारकों, उपायों की भी जरूरत होगी, क्योंकि तभी इस विधा में रचना पूरे स्वरूप में उभर सकेगी, और अपना भरपूर लाभ देने की स्थिति में होगी। यह ज़रूर हैकि उस भाषा विशेष की अपनी धारिता और भाषिक-संस्कार की भूमिका इस बाबत महत्वपूर्ण होगी। इस दृष्टि से, हिन्दी भाषा और हिन्दी गजुल भी इसका अपवाद नहीं हो सकती। दूसरी बात यह कि अन्य किसी भी भाषा के मुकाबले, हिन्दी की उर्दू से अधिक निकटता भी है, लेकिन फिर भी यह मन पटे का सौदा है। गुजुल से सम्बन्धित बुनियादी बातों की यहां चर्चा का उद्देश्य मात्र यह है कि इन बातों से आमतौर पर जान-पहचान भी अगर कायम हो जाय तो गज़ल के लेहाज से अच्छा ही रहेगा।


                                                                                                       दो     


     गज़ल के सांकेतिक-स्वभाव के बारे में, उसके अभ्यंतर से संबंधित कारकों पर चर्चा के दौरान, -खास तौर पर बयान और भाषिक-प्रकार्य के क्रम में कुछ संकेत किए गए हैं, लेकिन संभव है, बात बहुत स्पष्ट न हुई हो, इसलिए इस बाबत थोड़ी बात और कर लेते हैं।


      सांकेतिकता का विशेष महत्व गुजुल के मामले में इसलिए भी है कि यहां बात को पूरी तरह कहने के लिए मात्र दो पंक्तियों का ही स्पेस है। इसलिए कम से कम शब्द खर्च करते हुए, कथ्य को अधिक अर्थवान या पहलूदार बना कर प्रस्तुत करना इस विधा की विवशता भी है और सौंदर्य भी। गज़ल में कुछ कहने की शर्त यह है कि जो बात भी कही जाए, उसके कहने का ढंग सुगढ़ हो, जो कहा जाए अर्थसमृद्ध हो और स्पष्टता के साथ समझ में आए, - यानी शेर के अर्थ-दोहन के क्रम में ऐसा न हो कि अर्थ कुछ का कुछ संदर्भ लेने लगे और बात भटकी हुई-सी महसूस हो। यह इस विधा के कहन-पक्ष की एक जरूरी मांग या अनुशासन है, जो भाषिक-संभावना के यथाशक्ति भरपूर रचनात्मकसंदोहन का द्वार खोलती है।


    एक और तरह से देखें तो सांकेतिकता दर-अस्न मापा का स्वभाव है जिसकी, - कविता, खास तौर से गुज़लकविता, -अभिव्यक्ति के क्रम में एक प्रभावी-उपकरण के रूप में इस्तेमाल करती है। ग़ज़ल को इसका फायदा यह है कि इस प्रकार शेर में आए विम्ब, प्रतीक एवं अन्य शब्दनिर्मितियां अपने अर्थ को अपेक्षाकृत अधिक सघन और सटीक बना कर प्रस्तुत कर पाती हैं। यह खेल भाषा और कविता चूंकि मिलकर खेलती हैं, इसलिए किसी न किसी रूप में हर काव्याभिव्यक्ति में, चाहे वह किसी भी विधा के ज़रिए हुई हो, - सांकेतिकता की भूमिका को साफ़-साफ़ पढ़ा और रेखांकित किया जा सकता है। उदाहरण के तौर पर इस दोहे को देखिए:


                        नदी किनारे धुआं उठत है, का जानू का होए


                         जेहि कारन हम जोग लिया है, वही जरत न होए।


                                                                                           - अज्ञात


           लगभग इसी मानसिक वातावरण में गज़ल का यह शेर भी सुन लें :


                           बिखर के जिस्म की मिट्टी गवारे शाम बनी


                            तेरे न आने प? ए बात तेरे गम ने कही.


                                                                                            - एम. कोठ्यिावी 'राही'


    दोहे की बात करें, तो अन्य खूबियों के अलावा, सांकेतिकता का कमाल यह है, कि यह दोहा जप-तप या योग-बैराग की नि:सारता पर गहरा कटाक्ष बन जाता है और इसके बिम्ब, प्रतीक आदि के सहारे जो मानसिक-दृश्य उपस्थित होता है, वह उक्त कटाक्ष को बल दे रहा है। अगर सांकेतिकता की इस भूमिका की परख करनी हो, तो दोहे के टोन की प्रश्नवाचकता को किसी और प्रश्नवाचकता से बदल दीजिए (क्योंकि सांकेतिकता की भूमिका, दोहे में अपनी मूल प्रश्नवाचकता से उत्पन्न टोन के कारण ही अधिक स्पष्टता से खुल रही है। बदलाव के बाद दोहा इस प्रकार हो जाता है :


                              नदी किनारे धुआं उठत है, का पूछो का होय


                               जेहि कारन हम जोग लियो है, वही तो जरता होय


       अब यह दोहा योग-वैराग पर कटाक्ष न हो कर आंखों देखा हाल हो गया और उसमें यह झुंझलाहट भी घुस आई कि ‘का पूछो' - यानी बार-बार क्या पूछ रहे हो कि नदी किनारे कैसा धुआं उठ रहा है, देख नहीं रहे हो?) कि मैंने जिसकी वजह से वैराग लिया - (यानी वैराग लेने के लिए जिसने मुझे विवश किया), वही जल रहा है। यहां कहने की जरूरत नहीं कि इस फेरबदल में न तो दोहा वह दोहा रह गया और न उसका अर्थ वह अर्थ, - जो वास्तव में था।


         सांकेतिकता की भूमिका को और स्पष्टता से पहचानने के लिए कुछ और उदाहरण देखते हैं। डॉ. केदार नाथ सिंह की एक कविता की कुछ पंक्तियां हैं:


                                 चाहे सात समुन्दर पार चले जाओ


                                   लेकिन, यह याद रखना


                                   तुम्हारी देह ने,


                                  एक देह का नमक खाया है।


                                 सांकेतिक का करिश्मा यहां ‘नमक' में है। ‘फिराक' का शेर है:


                                  सरबसर उसके जिस्म का अंदाज़।


                                 सांस बिस्नु की क्षीरसागर में,


             इस शेर को पढ़ते हुए भी पहला सामना बिम्ब आदि से ही होता है, लेकिन सांकेतिकता ‘सांस बिस्नु की क्षीर सागर में कहने से जाहिर होती है, जिसे EASE या सुकून के अर्थ में लाया गया है। एक गीत की पक्तियां है:


                                 सुनती हो जी रूबी


                                  एक नाव फिर डूबी


                                   नदियों ने सीख लिए रास्ते बचाव के


                                                                                 -देवेन्द्र कुमार बंगाली


                                गीत की ही यह पंक्तियां भी है :


                                नहर गांव-भर की है।


                                 पानी परधान का। -गुलाब सिंह


                                  अब हिन्दी में लिखे जा रही गजल से कुछ शेर :


                                  अपने ही घर में अजनबी की तरह


                                  मैं सुराही में इक नदी की तरह-सूर्य भानु गुप्त


                                  धीरे-धीरे भीग रही हैं सारी ईटें पानी में


                                  इनको क्या मालूम कि इनका आगे जाकर क्या होगा


                                                                                             -दुष्यंत कुमार


                                  आई चिड़िया तो मैंने ए जाना


                                   मेरे कमरे में आस्मान भी है, -हरजीत सिंह


                                    बिछड़ने की कई व्याकुल कथाएं


                                    मुहब्बत की कहानी है ज़रा-सी। -ज्ञान प्रकाश विवेक


                                    मैं बहुत देर तक रहा मसरूफ


                                    वो बहुत दूर तक दिखी मुझ को। -नूर मोहम्मद नूर


      शेर तो और भी दर्ज किए जा सकते हैं, लेकिन उसके बाद भी बहुत कुछ छूटा रह सकता है। सूर्यभानु गुप्त के शेर में सांकेतिकता अपने ही घर में अजनबी' कहने में है। दुष्यंत के शेर में ‘इनको क्या मालूम...' वाला पूरा दूसरा मिसरा ही सांकेतिकता का नमूना है। नूर मोहम्मद के शेर में मैं बहुत देर तक रहा मसरूफ' कहने में सांकेतिकता है, हरजीत के शेर में सांकेतिकता ‘आस्मान' की अर्थवत्ता में है, और ज्ञान प्रकाश विवेक के शेर का पूरा सानी मिसरा सांकेतिकता आधारित है।


     उपर्युक्त उदाहरणों से यह भी स्पष्ट हुआ होगा कि सांकेतिकता, - भाषा के इस्तेमाल का एक शऊर है, जिसका एहसास किया जा सकता है, इसके बरअक्स बिम्ब-प्रतीक आदि शब्द-निर्मितियां हैं जिन्हें शेर में, कविता में देखा और पढ़ा जा सकता है। सांकेतिकता कविता में ऐसी सामग्रियों में धार पैदा करती और इस प्रकार उनमें एक खास तरह का पैनापन पैदा कर देती है, नतीजतन कविता और भाषा में अर्थ-समृद्धि का विस्तार हो जाता है। यह सारा उपक्रम गुजुल के मामले में महत्वपूर्ण इसलिए भी है कि इन्हीं के सहारे यह विधा, विवरणात्मकता से खुद को मुक्त कर पाती है और उसके जरिए प्राप्त कविता, अर्थ की दृष्टि से सघनता प्राप्त कर लेती है। चलते-चलते इस सिलसिले में विज्ञानव्रत का यह शेर भी सुन लीजिए :


                                   तुम हो तो यह घर लगता है।


                                    वर्ना इसमें डर लगता है।


                                                                                                        तीन 


     अब तक हमने गजल को विधा रूप में आकार देने और प्रतिष्ठित करने के लिए जिम्मेदार कारकों, स्थितियों पर चर्चा की और देखा कि इनके रख-रखाव के लिए क्या उपाय किएगए हैं, तथा ये उपाय और विधि-विधान शेर के आकार ग्रहण से लेकर कविता के अर्थ में उपादेय बनने तक अपनी भूमिका का निर्वाह कैसे करते हैं। अब प्रश्न यह देखने समझने का है कि गुजुल के शेर के माध्यम से जो कविता मिलती है, उसे हम किस तरह पकड़-परख सकते हैं और उसे अगर सरणि-बद्ध करना चाहें तो यह किन आधारों पर होगा?


     गज़ल में कविता की परख दो तरों पर की जाती है। इनमें एक के तहत छंद-निर्वाह की स्थिति की जांच की जाती है, और दूसरे चरण में प्राप्त कविता की पहचान सुनिश्चित की जाती है कि वह अच्छी है, तो कितनी? लेकिन यहां यह नहीं समझना चाहिए कि ये दोनों स्तरों की परख परस्पर अलगअलग या दूर-दूर दो प्रक्रियाएं हैंउनका अलग-अलग बयान यहां सिर्फ बात को स्पष्ट करने के लिए किया जा रहा है।


     छंद-विधान की परख के क्रम में उन सभी बातों की जांच की जाती है जिन्हें दानुशन के पालन के क्रम में हम पहले देख चुके हैंयानी बहू-वन और काफिया निर्वाह की जांच यहां महत्वपूर्ण हैबह्न-वजन का मामला यह है कि हिन्दी में मात्रिक और अरबी दोनों ही छंदानुशासनों में ग़ज़लें लिखी, कही या बनाई जाती हैं। मात्रिक छंद की जांच के लिए हमें कहीं दूर नहीं जाना है, लेकिन जब उर्दू में प्रचलित अरबी बहरों का मामला हो तो, हमें इनकी जांच-परख इन्हीं के निर्धारित पैमाने पर या कसौटी पर करनी चाहिएरही बात शेर से प्राप्त कविता की तो उसकी कोटि का निर्धारण, उन्हीं मानकों पर किया जाएगा जो हिन्दी में कविता की सरणिबद्ध करने के लिए काम में लाए जाते हैं। लेकिन हमें कविता के अर्थ-संदर्भ तक पहुंचने और उन्हें खोलने-समझने के लिए वही तरीके अपनाने चाहिए जो गुजुल के शेर को खोलने-समझने के लिए अपनाए जाते हैं। ऐसा, इस विधा की खासियतों के कारण जरूरी है, क्योंकि इन्हें पकड़ने-खोलने और इस प्रकार अर्थ तक पहुंचने का कोई अपना तरीका फिलहाल हमने खोजा नहीं हैदूसरी बात यह कि अगर कोई हमारा अपना तौर-तरीका इस बावत अलग से हो भी सकता हो, - तो वह धीरे-धीरे विकसित भी ऐसे ही प्रयासों से होगा।


       शेर या किसी भी अन्य काव्य-विधा से प्राप्त कविताकी समझ के बारे में बुनियादी बात यह भी है कि उसे पढ़ा। कैसे जा रहा है? इसका सीधा और साफ मतलब यह है कि आलोच्य कविता में मौजूद अर्थ-संकेतों को हमारी अपनी तैयारी कैसी है? काव्य-सुरुचि, रसज्ञता या जौके-सलीम जैसे पदों में हमारे बड़े-बुजुर्गों ने हमारे लिए इसी आशय का संदेश रक्खा हैइस बात को इस रूप में भी कह-समझ सकते हैं कि, -कविता हमें, भाषा के जरिए ही किसी न किसी विधा के माध्यम से ही प्राप्त होती है। हर माध्यम की अपनी कुछ खास बातें होती हैं, जो उसे अन्यों से अलग खड़ी करती है। हमारी सुरूचि इन खास विधागत विशेपताओं की  जितनी अभ्यस्त होगी, - समझने के क्रम में, - संबंधित कविता से, - हम अपेक्षाकृत उतना ही सटीक और दोष- रहित नतीजे निकालने और उसे बयान करने की स्थिति में होंगे। अन्यथा स्थिति में यह डर बना रहेगा कि अर्थ-दोहन के क्रम में कविता, कहीं समझने की कोशिश करनेवाले के मनोविज्ञान का शिकार हो कर तो नहीं रह गई?


     शेर के पाठ या समझ का तकाजा यह है कि, उसका जो अर्थ किया जाए, वह लगे कि यह उसी शेर या उसी कविता का अर्थ है, जिसे समझने की कोशिश की गई है। ऐसा तब होगा जब आलोच्य शेर के अर्थ-संदर्मा को ठीक-ठीक पकड़ने और सही संदर्भ में, तार्किक ढंग से खोलने-समझने की कोशिश हो रही हो। इस क्रम में, ‘वागर्थ' जून २०१७, अंक २६३ में प्रकाशित ज्ञान प्रकाश विवेक के आलेख ‘हिन्दी गुजुल का विकसित होता परिसर' का हवाला उदाहरणार्थ लिया जा सकता है, जिसमें उन्होंने दुष्यंत कुमार के एक शेर को खोलने-समझने और समझाने की कोशिश की है। शेर इस प्रकार है:


                             तू किसी रेल-सी गुजरती है।


                             मैं किसी पुल-सा थर-थराता हूं।


                              इस शेर को दर्ज करने से पहले, ठीक ऊपर-आलेख में एक छोटा-सा पैरा है, इस प्रकार:


        ‘समय और समाज का विरोधाभास, हिन्दी गजलों में जिस रूप में व्यक्त हो रहा है, उसका खैरमकदम होना चाहिएकि समाज के साथ हिन्दी गजुल का रिश्ता बेहद जीवंत है। यहां संवाद है और प्रतिवाद भी है। विडम्बना और विरोधाभास दुष्यंत के इस शेर को मारक और प्रखर बना देते हैं


        इस पैरा के बाद दुष्यंत का उक्त शेर दर्ज होता है। शेर के बाद ज्ञान प्रकाश जी शेर के बारे में अपनी प्राप्ति को इन शब्दों में दर्ज करते है:- ‘शेर के दो मिसरे आपस में जितना गुथे हुए हैं, उतनी ज्यादा कशमकश, तनाव और विरोधाभास भी पैदा करते हैं। विरोधाभास यहां मुहावरे की तरह है और दोनों मिसरे यानी, शेर की दोनो पंक्तियां विम्ब की रचना करती हुई। हम शेर को पढ़ते हैं और शेर की कल्पनाशीलता इतनी जीवंत है कि हमें दिखाई देने लगती है। शेर में जो घटित होता है। हम उस घटित को देखते हैं। महसूस करते हैं और देखते हैं। यहां दो अवस्थाएं हैं - रेल का गुज़रना। पुल का थरथराना। आप गुजरती हुई रेल को इस शेर के भीतर देखते हैं और ठस शेर के भीतर, थरथराते हुए पुल को भी देखते हैं। पुल की थरथराहट एक कवि की थरथराहट नहीं। पूरे समाज की थरथराहट है। यह शेर जटिल संबंधों का शेर हैतू प्रेमिका है - रेलगाड़ी-सी गुजरती हुई। मैं पात्र-दयनीय और साधारण पात्र हूं - थरथराते हुए पुल जैसा। शेर के आखिर में दो प्रतीक बचे रहते हैं - रेलगाड़ी चलती हुई और पुल थरथराता हुआ।


     शेर की उपर्युक्त समझदारी और उसकी व्याख्या अपनी जगह। मुझे लगता है, दुष्यंत के इस शेर को अगर उसकी मंशा के अनुरूप पढ़ा जाए और उसके अर्थ-संकेतों को उनके सही परिप्रेक्ष्य में खोलने की कोशिश की जाए तो, शेर का एक सर्वथा भिन्न-पाठ भी सामने आता है, जिसकी उपेक्षा का कोई कारण शेर में नहीं हैलेकिन इस भिन्न-पाठ की तरफ बढ़ने के क्रम में कुछ बातें हमें अपने तक समेट-सहेज लेनी चाहिए। यह बातें अलग से नहीं, शेर से ही संबंधित हैं और उसकी अर्थवत्ता को उजागर करने में हमारी मददगार हैं। जैसे हमें पता है कि


    - पुल एक सकारात्मक-निर्मिति है, जो दो ऐसे छोरों को जोड़कर यातायात के लिए सुलभ और सुगम बनाता है, जो अन्यथा-स्थिति में परस्पर कटे हुए या अलग-थलग पड़े होते हैं। - हमें यह भी पता है कि, - पुल से होकर रेल (ट्रेन)


    - हमें यह भी पता है कि, - पुल से होकर रेल (ट्रेन) के गुजरने के लिए, - एक सीमित-रफ्तार निर्धारित होती है, जिसे सुरक्षा, पुल की सहन-शक्ति आदि को ध्यान में रखकर सुनिश्चित किया गया होता है।


    उपर्युक्त बातों के बारे में शेर मुखर रूप में कुछ नहीं कहता, क्योंकि ये सहज-ज्ञान स्वरूप हैं, और सामान्यतः समझा जाता है कि ये बातें तो सबके ध्यान में होंगी हीइसलिए शेर सिर्फ यह कहता है कि - ‘थरथराता हूं और उसका यही कहना शेर की अर्थवत्ता की जान है। शेर का Key-Word चूंकि यही है, इसलिए शेर के कथन के मर्म को इसे समझे बिना नहीं पाया जा सकता।


     थरथराता हूं, कहने में यह बात भी है कि, - पुल से गुजरते हुए रेल' की रफ्तार, - निर्धारित से अधिक है, तथा इससे पुल ही नहीं, स्वयं ‘रेल' को भी खतरा है, लेकिन ‘रेल' अपने इस मनमाने-पन के अंजाम से बेखबर है। इसलिए पुल के थरथराने की असल वजह, रेल की रफ्तार से उत्पन्न आशंका है और यह डर इस सीमा तक पहुंच गया है कि वह थर्रा रहा है। यहां यह प्रश्न वाजिब नहीं हैं कि यह रफ्तार क्या वाकई इतनी अधिक है कि, इससे पुल के टूट जाने का खतरा है? बात यह है कि तय गति-सीमा से यह रफ्तार चाहे थोड़ी ही अधिक हो, - सुरक्षा की दृष्टि से पुल के लिए उसे खतरनाक ही समझा जाएगा, और इस प्रकार पुल की चिंता जायज करार पाएगी। पुल इसी चिंता को लेकर, 'रेल' को तम्बीहन इस आशय से टोक रहा है कि वह (यानी रेल) पुल की चिंता को समझे और तेज़-रफ्तारी का अपना मोह त्याग दे। पुल, रेल से (शेर के अनुसार) अपनी चिंता इस प्रकार जाहिर करता है : - ‘तू अपनी तेज़-रफ्तार में अंधी हो कर इस तरह धड़धड़ाती हुई मुझ से गुजरती है कि मेरे लिए 'अब टूटा कि तब टूटा' की स्थिति बन जाती है, और मैं थर्रा कर रह जाता हूँ, - लेकिन तेरी तो जैसे मति मारी गई है, तू यह भी नहीं देख पाती कि तेरे इस तरह गुजरने के दौरान किसी दिन अगर मैं टूट गया, तो तेरा क्या हाल होगा?'


     दुष्यंत के संदर्भित शेर के मंतव्य का उपर्युक्त गद्य-रूप, शेर में मौजूद अर्थ-संकेतों को डी-कोड करने से प्राप्त हुआ है। लेकिन शेर यह कह रहा है कि 'तू किसी रेल-सी गुज़रती है, मैं किसी पुल-सा थरथराता हूं।' अर्थात बात रेल और पुल के माध्यम से ज़रूर हो रही है, रेल और पुल तक सीमित नहीं है। अब यहां सवाल यह खड़ा होता है कि बात अगर रेल और पुल तक सीमित नहीं तो किससे संबंधित है और किन दो लोगों के बीच है? दूसरे शब्दों में सवाल यह है कि शेर के अनुसार, पुल ने, रेल से अपनी जो चिंता ऊपर व्यक्त की है, वह रेल और पुल से हट कर किस पर चरितार्थ होती है?


     इस सवाल को हल करने के लिए हमें, बहुत भटकना नहीं होगा क्योंकि, सर्वविदित है कि कविता, जीवन की आहट और आवाज़ दोनों ही है, तथा घर-परिवार, जीवन-जगत की सर्वाधिक सक्रिय और महत्वपूर्ण इकाई है। इसलिए, पुल ने रेल से जो चिंता ऊपर जाहिर की है, उसे यदि घर-परिवार के परिवेश में उतार कर देखना चाहें तो उक्त चिंता - भाई- भाई, पिता-पुत्र या पति-पत्नी - किन्हीं भी ऐसे दो व्यक्तियों के बीच की चिंता हो सकती है, - जिन पर एक दूसरे की सामर्थ्य और सहयोग को स्वीकार करते और अपनी उपादेयता उसमें जोड़ते हुए कंधे से कंधा मिला कर घरपरिवार को घर-परिवार बनाए रखने के लिए सक्रिय रहने की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है। लेकिन ऊपर गिनाए गए प्रथम दो युग्मक-यानी भाई-भाई और पिता-पुत्र, शेर के आशय के अनुरूप नहीं हैं, इसलिए पति-पत्नी के युग्मक पर ही - पुल के स्वर में व्यक्त उक्त चिंता को चस्पा करके देखना उचित होगा, और इस प्रकार देखने से जाहिर होता है कि दुष्यंत के उक्त शेर का विषय-घर-परिवार में टूट का विरोध और घर-परिवार को घर-परिवार बनाए रखने की चिंता है। कह सकते हैं कि यही इस भिन्न पाठ के जरिए शेर के एक और पाठ की प्राप्ति है।


     गज़ल के दो अच्छे शेरों में बेहतर की पहचान का कार्य एक तरह से तुलनात्मक-अध्ययन जैसा है। मोटे तौर पर इसमें, शेर के गठन के लिए जिम्मेदार सभी महत्वपूर्ण पहलुओं की पड़ताल के साथ, भाषा के प्रयोग की स्थिति, अन्तर्वस्तु के विकास और उसके सौंदर्य की स्थिति, शेर का अपना टोन और अर्थ की सतह पर उसका योगदान, रवानी यानी लयात्मकता की स्थिति और इस प्रकार कविता के आस्वाद और अर्थ-व्याप्ति की स्थिति का बहुत बारीकी से जायजा लेते हुए किसी निष्कर्ष पर पहुंचना होता है जो जल्दीबाजी में और आसानी से निमट जाने वाला प्रकरण नहीं है। शेर को समझने की प्रक्रिया में पहली कोशिश उसके कथनाभिप्राय को पकड़ने और शेरियत का जायजा लेने की होती है, इस मामले में शेर का टोन या बात कहने का लहजा महत्वपूर्ण है।


     यह काम वहां अपेक्षाकृत आसान मालूम होता है जहां दो शेर एक ही विषय पर आधारित हों। लेकिन विपय का मामला यह भी है कि कई बार एक ही विषय पर शायर या रचनाकार बार-बार कलम चलाता है, ऐसी स्थिति में किसी एक बार बात इतनी भरपूर बन जाती है कि उसी शायर की बाकी ऐसी कोशिशें निस्तेज मालूम होने लगती हैं। ऐसे मौके एक हिसाब से कीमती भी हैं, खासतौर पर वहां जहां बात अपेक्षाकृत नहीं बन पाई है। हमें ऐसे शेरों को भी गौर से देखना चाहिए, इससे यह पता चल सकता है कि किस वजह से बात बनने से रह गई।


    शेर या कविता को समझने और श्रेणीबद्ध करने के संबंध में ऊपर जो कुछ भी कहा गया, उसे न तो अंतिम मानना चाहिए और न, ही यह समझना चाहिए कि उपर्युक्त बातें इस सिलसिले में किसी फार्मूला जैसी हैं जो हर जगह सही बैठेगी। यह सारी बातें इस दिशा में एक संकेत जैसी हैं। जिनसे सिर्फ यह पता चलता है कि इस तरह की तलाश में हमारा एप्रोच क्या हो सकता है।


   प्रस्तुत आलेख में कोशिश की गई है कि हर महत्व की बात को अधिक से अधिक खोलकर बयान किया जाए ताकि वे आसानी और स्पष्टता के साथ समझी जा सके, नतीजतन आलेख कुछ लम्बा हो गया है, लेकिन गौर करें तो यह विस्तार शायद अनावश्यक साबित नहीं भी हो सकता है।