'कहानी - हीरो न बनने की मुसीबत - डॉ. विकास कुमार

जन्म : 12 दिसम्बर 1986 शिक्षा : एम.ए., एम. फिल, पीएच.डी., पी.डी.एफ.।। पुस्तकें : ‘जीवन का यथार्थ' एवं 'बड़े घर की दावत' (दोनों कथा-संग्रह) । सम्प्रति : सहायक प्राध्यापक, मनोविज्ञान विभाग, रामेश्वर चंथरू महाविद्यालय, सकरा, ढोली, मुजफ्फरपुर, बिहार (बाबा साहेब भीमराव अम्बेदकर बिहार विष्वविद्यालय, मुजफ्फरपुर, बिहार)


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दामोदर को गाड़ी से उतरते देखा तब गाँव के बच्चे-बूढ़े, औरत मर्द सभी ने उसे चारो ओर से ऐसे घेर लिया, जैसे वह मुम्बई जाकर फिल्मी सुपर-स्टार ही बन गया हो। दो-चार लड़के गाड़ी से सामान उतारने में भी उसकी मदद करने लगे। दो बैग और एक अटैची। यह सब देखकर गाँव के लोगों ने सहज ही अनुमान लगाया कि दामोदर अपना सपना सच करके ही लौटा है और खुशी में इतने सारे सामान वगैरह लेकर आया है। शायद इनमें मिठाइयाँ भी हों, गाँव में बांटने के लिए। उसकी दोनों बहनें मुनरी और चमेली यह देखकर फूली न समा रही थीं। जरूर-ही भइया उनके लिए कुछ विशेष लाए होंगे सलवार-सूट, घड़ी-साड़ी, वगैरह-वगैरह।...और उसके दोनों छोटे भाई दीप और अमर इस खुशी में उछल रहे थे कि 'भइया' उनके लिए ‘घोड़ा-गाड़ी' और 'ठांय-ठांय' करने वाला बंदूक जरूर ही लाए होंगे। जाते समय भइया से यही तो फरमाइश की थी दोनों ने।


        गाँव के सभी लोग यह जानने के लिए उतावले हो रहे थे कि दामोदर ने किस फिल्म में काम किया है। उसके साथ कौन-कौन से कलाकार होंगे ‘अमिताभ बच्चन' या ‘शाहरुख खान'। उसकी हीरोइन कौन थी ‘ऐश्वर्या राय' या फिर ‘विपासा वास्।'


        ...आखिर दामोदर का लंगोटिया दोस्त विराज पूछ ही बैठा, ‘तब दामोदर! बम्बई से हीरो बनकर ही लौटे हो न?'


        विराज के इस सवाल पर दामोदर बुरी तरह खिन्न हो उठा। विराज ने यह प्रश्न क्या पूछा, वहाँ उपस्थित सभी लोगों ने भी दामोदर पर समवेत स्वर में वही प्रश्न उछालने लग गए, जैसे दामोदर का गाँव न होकर इन्द्र देव के द्वारा बरसाई जाने वाली हथिया नक्षत्र की बौछार, ‘कौन-सी फिल्म बनी? ...और हीरोइन कौन थी -‘रानी मुखर्जी' या ‘प्रियंका चोपड़ा'? ...और कौन-कौन-से कलाकार थे, आजकल राजपाल यादव खूब चल रहा है, वह तो होगा ही? ...और डायरेक्टर?'


       दामोदर, लोगों के इस तरह के अनवरत प्रश्नों की बौछार से जैसे अंदर-ही अंदर बौखला-सा उठा,...ये क्या बिना सिर-पैर के सवाल कर रहे हैं? ...लगता है सबका दिमाग खराब हो गया है। फिल्मों में काम करना कोई आसान बात है। दाल-भात का कौर समझते हैं सभी कि जैसे-तैसे निवाला बनाकर मुंह में डाल लिया और हजम कर गए। हमारे जैसे कितने ही ‘ललुवा-बुधवा' हीरो बनने का सपना लिए मुम्बई जाते हैं। क्या सभी हीरो-ही बन कर लौटते हैं।


       एक तो दामोदर जनरल बोगी में दो दिनों की यात्रा से थक कर चूर हो चुका था, ऊपर से लोग बेलगाम सवाल पूछकर और भी परेशान कर रहे थे। अंदर-ही अंदर फुकता । हुआ दामोदर बोल पड़ा, 'अभी-अभी तो गाँव में पैर ही रखे हैं मैंने। दो मिनट सांस तो लेने दीजिए आप लोग, फिर जो पूछना हो पूछते रहिएगा।


      दामोदर के इस तेवर पर सभी को पक्के तौर पर यकीन हो गया था कि वह सचमुच कोई बड़ा तीर मारकर मुम्बई से लौटा है। एक ने कहा ‘सचमुच बेचारा थक हार कर लौटा है, मुम्बई से और आते-आते तुम लोग उसका दिमाग खाने । लग गए।'


      किसी तरह दामोदर उन लोगों से पिण्ड छुड़ाकर वहाँ से घर आया। घर आते ही अभी माँ-बाबूजी के पैर ही छुए थे उसने कि माँ-बाबूजी ने भी। पूरे उतावले होकर वही प्रश्न उछाल दिए उसके समक्ष, जिससे आजिज होकर वह गाँव वालों के पास से लौटा था। फिर बाबूजी ने पूछा, “बेटा वहाँ कुछ दिक्कत तो नहीं हुई?'


      जबाब दिया, 'नहीं बाबूजी! कोई विशेष दिक्कत तो नहीं हुई। सब ठीक-ठाक ही था।'


       ‘तब तो फिल्म मिल ही गई होगी?' बाबूजी ने तपाक से पूछा।


       बाबूजी के इस सवाल से न जाने उसे क्यों खिसियाहट सी हो आई। जी चाहा कि कह ही दे उनसे कि बाबूजी! फिल्म में काम मिलना, पेड़ से फल तोड़ने जैसा थोड़े ही है। कि जब मर्जी, तब पेड़ पर चढ़ जाओ और तोड़कर सुखद स्वादानुभूति लेकर खाते रहो। सवाल तो ऐसे पूछ रहे हैं जैसे खुद अपने जमाने में सुपर स्टार रहे हों और बेटे को फिल्म इंडस्ट्री में अपनी पैरवी से प्रवेश कराने के लिए मुम्बई भेजा हो। जैसे धमेंद्र या अमिताभ ने अपने बेटों को प्रोजेक्ट कियाहै। उन्हें तो कुछ पूछने से पहले खुद अपने गिरेबान में झांकना चाहिए था कि जिस बेटे के पास दस-पाँच हजार की औकात भी नहीं है, वह भला हीरो कैसे बन सकता है? फिर भी शांत लहजे में बोला, 'नहीं बाबूजी! वहाँ हमारे जैसे लोगों की कोई वैल्यू नहीं है। इंडस्ट्री में बड़े-बड़े घराने के लोगों का हीं कब्जा है।'


      ‘तब? ...फिर हीरो कैसे बनोगे?' पिताजी चिन्तातुर होते हुए पूछ बैठे।


       इस बार तो दामोदर मन-ही-मन भुनभुना उठा-हीरो कैसे बनोगे? जीने के लिए हीरो ही बनना जरूरी है क्या? हीरो बनने के लिए क्या सिर्फ शक्ल ही काफी है? या थोड़ाबहुत एक्टिंग कर ली और बन गए हीरो? ।


        ‘नहीं बाबूजी! हीरो बनना हम जैसे लोगों के बस की बात नहीं है। हीरो बनना तो दूर, वहाँ के माहौल में घुस पाना भी मुश्किल है।' आँखें नीची करके जबाब दिया उसने। पिताजी जैसे निरुत्साहित हो गए। सब जगह सरेआम


         पिताजी जैसे निरुत्साहित हो गए। सब जगह सरेआम यह खबर फैला दी थी कि मेरा , हीरो बनने। बेटा मुंबई गया है, हीरो बनने। जहाँ भी गए वहाँ हल्ला मचाते गए और घर में भी आए सबको कहते गए।...अब क्या होगा, बेटे को मुंबई भेजा है 'हीरो' बनने के लिए, ‘जीरो' बनकर आ गया। अब तो सारी इज्जत मिट्टी में मिल जाएगी। सभी बच्चे-बड़े बुजुर्ग मजाक उड़ाते फिरेंगे, बड़ा बेटे को भेजा था मुम्बई हीरो बनने के लिए। आ गया न जीरो बनकर। फिर तो पिताजी हुंकार भरे लहजे में बोल पड़े तो फिर क्यों गया था मुंबई? ...मेरी नाक कटवाने के लिए?


        पिताजी के इस तरह के दिलतोड़ व्यवहार से दामोदर का कलेजा मानो कई टुकड़ों में बंट गया।...और विक्षिप्त-सा चीखता हुआ बोला, “आपको कैसे समझाऊ बाबूजी कि...। बाबूजी! आप नहीं जानते कि फिल्मों में काम मिलना कितना मुश्किल है। फिर भी, जितना संभव हो पाया; प्रयास किया। अब क्या करता मैं? या तो अपनी जान दे देता या...।' बोलते-बोलते सिसक पड़ा वह।।


       बेटे को सिसकता देखा माँ का कलेजा भी पसीज आया था; बोल पड़ी थी, ‘अब चुप भी रहिए। लड़का अभी-अभी आया नहीं कि पिल पड़े उस पर। जाइए, नहीं बनेगा मेरा बेटा हीरो। गाँव में जमीन-जायदाद की कमी है क्या?'


       ‘देखो रमा! तुम हर वक्त बेटे का ही पक्ष लेती हो। हमारी इज्जत...।' अपनी पत्नी पर भी उबल पड़े थे वे।


       ‘भांड़ में जाए आपकी इज्जत...। बेटा लौट आयायही क्या कम है?...जो भी आया उन्हें कहते चले गए जानते हो जी, मेरा बेटा मुंबई गया है हीरो बनने के लिए। क्या जरूरत थी लोगों को कहने की। आवश्यकता से अधिक बांगना जरूरी था? दामोदर हीरो बनता तो लोग जानते नहीं क्या?'...और फिर बेटे की ओर मुखातिब होती हुई बोली'...चलो बेटा! इनके पास रहोगे तो चैन से सांस भी न ले पाओगे।'...और बेटे का हाथ पकड़कर वह उसे दूसरे कमरे में ले गई।


       '...हाँ-हाँ जाओ। मेरे पास सांस भी नहीं ले पाओगे। ...अरे तुम्हारे लाड़-प्यार ने ही तो इसे बिगाड़ रखा है।' लेकिन माँ-बेटे को सुनने की फुरसत कहाँ थी, सो पिताजी की बात हवा में ही घुलकर रह गई। दामोदर हाथ-मुँह धोकर रसोई घर में गया, जहाँ भाभी अपना वर्चस्व जमाए खाना बना रही थीं। उसे आते देख भाभी की बांछे जैसे खिल सी उठी। ...और चहकती हुई पूछ बैठीं, ‘अरे दामोदर भइया! कब । आए? ...मुंबई से हीरोइन विरोइन लेकर आए कि नहीं?'


        लो कर लो बात ! अरे यार ! क्या हो गया है सबको, जिसके पास भी जाता हूँ, हीरो-हीरोइन, फिल्म की बात के अलावे और कुछ उन्हें सूझता ही नहीं है। वह मन-ही-मन खिसिया उठा।


       फिर भी दामोदर शांत-खामोश आकर पीढ़े पर चुपचाप । बैठ गया।


       उस पर कोई प्रतिक्रिया होते न देखकर भाभी उसके पास आ खड़ी होती हुई उसके गालों पर चिकोटी का छाप छोड़ते हुए ऐसा उपक्रम किया जैसे वह चार-पाँच साल का अपना बच्चा हो, ‘मैं कुछ पूछ रही हूं?'


     ‘क्या पूछ रही हैं?' अबकी बार नजरें मिलाते हुए कहा।।


      ‘कोई हीरोईन-विरोइन।' मानो चुटकी लेती हुई बोलीं भाभी।


      ‘आप भी न भाभी! चलिए खाना निकालिए, बड़ी भूख लगी है।' आँखें झुकाए हुए बोला वह।।


      उसके भाव से भाभी शायद उसकी मन:स्थिति को समझ गई थीं। इसके बाद बिना कुछ पूछे भोजन की थाल उसके आगे परोस दिया था उन्होंने। फिर बोली, 'लगता है, कोई हीरोइन-विरोइन हाथ नहीं लगी?'


     “धत्, आप भी है न...।' शरमाते, हुए बोला दामोदर!


      ‘क्या हूँ मैं, बताओ-बताओ, क्या हूँ मैं...। देखो दामोदर ! शादी के पहले मुझसे भी कोई पूछता था न, कि तेरा हीरो कैसा होना चाहिए तो मैं भी तुझसे कहीं ज्यादा ही शरमाती थी। समझे...बरखुरदार। अगर तुम्हें कोई लड़की पसंद नहीं आई तो कोई बात नहीं। मैं हूँ ना तुम्हारी फिक्र करने वाली। एक-से-एक लड़कियों के फोटो रखे हैं मैंने। जिसे पसंद करो, उससे तुम्हारी शादी...।'


     'मुझे शादी-वादी नहीं करनी भाभी।'


     ‘क्यों साहब! ...लगता है मुंबई में जरूर किसी से चक्कर चला रखा है, तो इसमें छिपाने की क्या बात है? अरे भाई! मैं तुम्हारी भाभी हूँ। मुझे बता दो तो तुम्हारा भला ही होगा। कम-से-कम खुद मुंह खोलने से तो बच जाओगे। सिफारिश मैं कर दूंगी।' भाभियों की तो फितरत होती ही है। कि देवरों की जमकर खिंचाई करना और फिर देवर मुंबई से बड़े ही दिनों के बाद आया हो तो मजा कुछ और ही होता है।


    'मैं क्या मुंबई चक्कर चलाने के लिए गया था?' थोड़ा गुस्साते हुए बोला था।


    ‘तो क्या करने गए थे?...अरे हाँ, याद आया।...हीरो बनने। ऐन-वक्त पर मैं सब कुछ भूल ही जाती हूँ, यही तो मेरी सबसे बड़ी कमजोरी है। ...अच्छा बताओ, फिल्म में कुछ रोल-वोल मिला कि बस वैसे ही शरीर हिलाते घर आ गए?'


     ‘क्या भाभी! इतना आसान समझती हो फिल्मों में रोल मिलना। पापड़ बेलने पड़ते हैं पापड़।' उदास-सा बोला वह। ...और यह कहकर वह झटपट मुँह धोया और आनन-फानन में चौके से बाहर निकल गया; अगर और ज्यादा देर रहा तो भाभी दिमाग खखोर कर अदौड़ी बना देगी।


     शाम का वक्त था। वह चौपाल पर आया। दामोदर को आए देख सभी ने उसे घेर लिए जैसे वह अपनी कहानी ही बताने आया हो। और फिर वही सवाल, 'हीरो-हीरोइन', ‘फिल्म-शूटिंग, डायरेक्टर-प्रोड्यूसर की बात।...कब आ रही है, तुम्हारी फिल्म? कब रीलिज होगी? ...कौन से सिनेमा हाल में लगेगी ‘लक्ष्मी' या ‘विशेसर' में? तुम्हारे सहयोगी कलाकार कौन-कौन हैं? वगैरह-वगैरह।'


     सहयोगी कलाकार कौन-कौन हैं? वगैरह-वगैरह।' ...दामोदर उन्हें कैसे समझाए कि फिल्मों में काम करना हमारे जैसे लोगों के बस की बात नहीं है। अन्तत: दामोदर तंग ही हो उठा।...अब जैसे उसे अपनी ही जन्मस्थली से एलर्जी होने लगी थी।


     दामोदर रात-भर करवटें बदलता रहा। उसके मानसपटल पर कभी पिताजी की डांट-फटकार याद हो आती तो कभी भाभी की प्यार भरी बातें। कभी माँ की ममता तो कभी गाँव-घर वालों के नासमझ सवाल। उसकी आँखों के सामने मुम्बई में बीते सारे वक्त एक-ब-एक करके छाने लगे।


     मुंबई के लोकमान्य तिलक टर्मिनल रेलवे स्टेशन से वह बस बाहर निकला ही था कि एक ऑटो-ड्राइवर ने उसकी अच्छी-खासी खबर ले ली थी। जोर-जबरदस्ती, अनुनय- निवेदन कर, पेट का वास्ता देकर अपने ऑटो में बिठा लिया और एक तंग गली में ले जाकर पाँच रुपए के बदले सौ रुपए ठग लिया। साथ ही जमकर गाली-गलौज भी किया। ...तंग होकर वहाँ से फिर छत्रपति शिवाजी टर्मिनल आया तो टी.टी. ई. भी अपना हाथ साफ करने से बाज नहीं आया। बगैर टिकट की यात्रा करने के जुर्म में चार सौ रुपए जुर्माना लगाया, वह भी बिना पर्ची काटे।।


    ...फिर अपने ही लोगों का सान्निध्य पाकर मुंबई के तंग फुटपाथों पर अपना डेरा जमाया और शुरू किया अपना फिल्मी-सफर। चर्चगेट से मीरा रोड के बीच सभी स्टूडियो, प्रोड्यूसर आफिसों में सभी जगह खाक छानी। जहाँ तक हो सका डायरेक्टरों और प्रोड्यूसरों के पास भी जाकर झक मारा। लेकिन किसी ने ध्यान तक नहीं दिया।...और अगर किसी ने उसकी बात पर ध्यान भी दिया तो पैसे पर आकर बात अटक जाती। बिचौलियों और ठेकेदारों से पूरा मुंबई गंधाया पड़ा है। हर जगह ठोकरें खाईं, पर किसी ने दया-दृष्टि तक न दिखाई।


     मुंबई में तो ठोकर खाने के भी पैसे लगते हैं, तो पेट की बात ही दूर। पेट की अग्नि को शांत करने के लिए जमीन-आसमान एक करना पड़ता है। जब जेब में पैसे खत्म हो गए तो पेट के चूहे भी तंग करने लगे। फिर उस पेट के लिए उसने क्या-क्या नहीं किया। अख़बार बेचने का काम, दूध बेचने का काम, यहाँ तक कि गाड़ी में समान लोड करने तक का काम किया। ऊपर से पुलिस का डंडा और सेठ की बदसलूकी भी उसे अलग से बर्दाश्त करनी पड़ी। एक पढ़ेलिखे युवक की यहाँ ऐसी हालत होगी, शायद उसने कभी सपने में भी नहीं सोचा था।


    आखिर; ...वह वहाँ के हालात से तंग हो गया।...और वापस अपने गाँव की ट्रेन पकड़ी। छत्रपति शिवाजी टर्मिनल में लाल मार्काधारी कुलियों ने भी उसकी अच्छी-खासी खातिरदारी की थी। तीस रुपया समान ढोने के चार्ज में डेढ़ सौ रुपया ठगा था। थोड़ा ना-नुकूर किया तो गट्टा पकड़कर सीधे सन्नी दिओल के स्टाइल में डॉयलाग शुरू।


    क्या है मुंबई? ...यहाँ फिल्म जरूर बनती हैं लेकिन सब बातें फिल्मों तक ही सीमित हैं; इंसानियत नाम की चीज दूर-दूर तक नहीं है।


     ...उसने सोचा था कि घर जाकर शांति मिलेगी। जब गाँव आया, तो घर-परिवार और गाँव के लोगों ने उसका ऐसा मजाक बनाया कि बस पूछिए ही मत। उसे ऐसा लगा कि उसने गाँव वापस आकर सबसे बड़ी भूल कर दी थी।


        दामोदर रात भर मन-ही-मन रोता रहा।...एक ही दिन में यहाँ लोगों ने उसकी ऐसी हालत बना दी, अगर दो-चार दिन और रहा तो....।


        उसने सुबह ही खाट छोड़ दी। ...और चल पड़ा पुनः उसी मायानगरी की ओर, जहाँ से आया था।...निश्चय कर लिया कि अबकी बार जो भी परेशानी होगी, डटकर सामना करेगा। वहाँ की ठोकरें खा लेगा, पुलिस के डंडे सह लेगा, सेठ की डांट-फटकार भी सुन लेगा, लेकिन हीरो जरूर बनेगा।....और अगर हीरो नहीं बन पाया तो वहीं मर-खप जाएगा, लेकिन वापस गाँव में कभी कदम नहीं रखेगा। ।


                                                                      सम्पर्क : ग्राम-अमगावाँ, डाकघर-शिला, प्रखण्ड- सिमरिया, जिला-चतरा, झारखण्ड,                                                                                                    मो.नं. : 8102596563, 9031194157