'डायरी - चांद को ज्योतिष विद्या नहीं आती - रुचि भल्ला

जन्म : 25 फरवरी 1972, इलाहाबाद देश के सभी प्रमुख समाचार-पत्र, पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित। प्रसारण : ‘शालमी गेट से कश्मीरी गेट तक ...' कहानी का प्रसारण रेडियो FM Gold पर आकाशवाणी के इलाहाबाद, सतारा तथा पुणे केन्द्रों से कविताओं का प्रसारण ...


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                                                              १


चेत मास की यह सुबह....आकाश आज निखरा -निख़रा सा दिख रहा है... कल शाम की बूंदा-बाँदी ने सूरज के चेहरे को झिलमिलाते आइने सा चमका दिया है... सूरज का यह आइना हर रोज़ देखना जरूरी है जीवन की आँखों के लिए। छत पर खड़ी मैं सूरज के चेहरे को देखती हूँ। उस जोगी के माथे पर किरणों की गुलाबी रेखाएँ त्रिपुंड सी सजी दिख रही हैं... वह जोगी शिव के प्रेम में धूनी रमाए दिखता है...जोगिया वस्त्रों को पहने ज्योतिषी बन कर बैठ गया है आकाश के नीले बिछौने पर और अब बैठा खोल रहा है दिन की बंद मुट्ठी को... हथेली की रेखाओं को देख रहा है कि दिन कैसा बीतेगा आज...दिन की यह मुट्ठी रहस्य की खुली पोटली है। सूरज के हाथों में थमी हुई।फलटन के आकाश में मैंने नीले तारे देखे हैं। चाँद की अँगूठी में जड़े नीलम रत्न वाले तारे। चाँद की यह तारों वाली अंगूठी मैंने आकाश से उधार माँग कर पहन रखी है अपनी उंगली में। पहना तो मैंने सूरज का गोल कंगन भी है कलाई में। कौन कहता है कि सूरज को हाथ नहीं लगा सकते। मैं तो सूरज के गोल जलाशय में सातारा के पंछियों को रोज़ डूबते -उबरते देखती हूँ। अब यह बात अलग है कि पंछियों ने अपनी चोंच से हर रात चाँद के मस्तक को भी जाकर चूमा है। चाँद पर जो दाग हैं... वह पंछियों के ही प्रेम चिह्न हैं। ऐसे दाग जो कभी मिटते नहीं...चाँद पर पड़ेगड़े वक्त की धूल से भी भरते नहीं ...प्रेम का जख्म तो वैसे भी सदा गहराता है...हरा रहता है ताउम्र .... जैसे रहता है नीम के दरख्त पर झूमते पत्तों का रंग...हाँ! उन पत्तों पर पीली छाँव भी पड़ती है...पर दरअसल वह हरे रंग को हासिल करने की आखिरी सीढ़ी होती है...वही सीढ़ी जो धरती से आकाश की ओर आती- जाती है...जीवन से मृत्यु ...मृत्यु से जीवन की ओर...। वह चाँद से पार की दुनिया है... जहाँ जाकर सूरज की गुफा के भीतर से फ़िर लौट आना होता है...। यह आना -जाना .... जाना—आना...सूरज और चाँद के दो पहियों पर सवार वह रथ है जो हमें सैर कराता है इस दुनिया और उस पार की दुनिया की भी...। यह रंग पीले पत्तों पर हरा चढ़ना ...हरे का पीला हो । जाना होता है...मनुष्य की आँखें ही हर रंग नहीं देखा करतीं... दरख्त के पास भी आँखें होती हैं...सभी मौसमों के रंग वह योगी एक टाँग पर खड़ा होकर देखता रहता है ....दरख्त से ज्यादा कौन बड़ा तपस्वी है इस संसार में....जो उसकी छाँव में । रात -दिन बैठे, वह तो खुद सिद्धार्थ से बुद्ध हो जाता है...।।


       दरख्त की जो बात चली ... मैं घर की छत पर झुकतेनीम के दरख्त की ओर देखने लगी.... जितने पत्ते उतने ही फूल खिल आए हैं वहाँ...एक-दूसरे को होड़ देते हुए...इस । रस्साकशी के खेल में आम का दरख्त भी पीछे नहीं रहता। अब उसमें भी उतनी ही अमिया हैं जितने पत्ते हैं वहाँ। मार्च का यह मौसम रानी रंग का हो आया है...। आम और नीम के दरख्त घर के आँगन में हाथ में हाथ डाले खड़े हैं ...एक दूसरे के प्रेम में उनके पत्ते रानी रंग के हुए जाते हैं...यह रंग उन पर आकाश से उतरता चला आ रहा है ...।


       आसमान में बिखरते गुलाबी बादलों के गुच्छे अब ऐसे लग रहे हैं जैसे सूरज के हाथ में बँधी डोर हो गुलाबी गुब्बारों की....। मैं आकाश की ओर देखने लगती हूँ....। पच्चीस पंछियों का झुंड उड़ा चला जा रहा है दूर चहचहाते हुए ....तीन बगूले भी हैं वहाँ .... बीस मिटुओं का झुंड भी... नीलकंठ पंछी ने भी पंखों को खोल कर अपने सभी रंग सौंप दिए हैं। आकाश को...। बी ईटर ऐसे उड़ रही है जैसे लहराती पतंग हो कोई....। सभी पंछी पतंग से उड्ते लग रहे हैं...रंग-बिरंगी उन पतंगों से फलटन का सारा आकाश भर आया है....और उन पतंगों की अदृश्य डोर सूरज के हाथ में थमी हुई दिखती है।।


       चैत के महीने का आकाश फालसाई होता जा रहा है। पीली चोंच वाली एक चिड़िया भी कहीं से उड़ी चली आ रही है और आकर बैठ गई है नीम के दरख्त पर। मेरे देखते -देखते उसने खोल दी है अपनी पीली चोंच ....उसकी चोंच खुलते ही सरगम के स्वर बिखर गए हैं आकाश में। पीली चोंच वाली यह चिड़िया अब चैती गा रही है। ....मैं उसे देखती हूँ...याद आने लगते हैं उपेन्द्रनाथ अश्क...याद आती है उनकी लिखी किताब ... पीली चोंच वाली चिड़िया के नाम...' उस याद के साथ फड़फड़ा उठते हैं किताब के पन्ने फलटन की बहती हवा में ...पृष्ठ दर पृष्ठ वह किताब खुद पलटती जाती है। ...और मैं पन्ना -पन्ना उसके पीछे-पीछे ...और जा पहुँचती हूँ पीली चिड़िया के साथ उड़ते हुए सातारा के पठार की हद को लाँघते हुए इलाहाबाद शहर में... जहाँ उपेन्द्रनाथ अश्क लिख रहे होते हैं इस पीली चोंच वाली चिड़िया को अपने बगीचे में सेब की फुनगी पर बैठे देखते हुए


                                                                 अपनी किस्मत को सराहे या गिला करता रहे।


                                                                  जो तेरे तीर -ए-नज़र का कभी घायिल न बने।।


                                                                                                                              [डायरी का पन्ना ..... २१ मार्च २०१७]


                       


                                                                                                २


       वह बच्चा जिसका नाम ईश्वर है, उसे देखा है मैंने चाँद के पालने में कल आधी रात। आधी रात के वक्त चाँद भी आधा था ...इतना आधा कि परवीन शाकिर की उस नज्म जैसा नहीं जिसमें पूरा दुख और आधा चाँद होता है। यह चाँद तो चाँदी का झूलना था जिसमें सो रहा था छोटा सा ईश्वर आकाश के तारों को मुट्ठी में लेकर।


         मस्जिद भी सामने ही थी ...मेरी आँखों के आगे सड़क पार। टिमटिमाते तारों के प्रकाश में मस्जिद की इमारत संगमरमर सी दमक रही थी। मैं गुलमोहर के पेड़ के नीचे खड़ी ....मस्जिद में बने झरोखों को देखती रही। दूधिया उजाला फैल रहा था उन झरोखों से बाहर की ओर। एकबारगी लगा जैसे खुदा देख रहा है, उन झरोखों से झाँकते हुए मुझे... और तभी चाँद के फव्वारे से झरती हुई चाँदनी गुनगुना उठी आकर मेरे कानों में - छुप गया कोई रे दूर से पुकार के ...। मैं अब खुदा के सामने थी पर मेरे सामने खुदा नहीं था....। 


        मैं आधे चाँद को देखती रही ... चाँद का पालना रात के बँटे से बँधा हुआ था। दिन सो रहा था ईश्वर की पलकों का सिरहाना लेकर इत्मीनान से। जाग रहे थे तो हरसिंगार के फूल आसमान के तारों से गपशप करते हुए। कुछ बातें भोर के शोर में नहीं होतीं ....। गली में अब महक रहा था हरसिंगार ...जैसे रात हरसिंगार के फूलों वाले इत्र को लगा कर टहलने चली आई हो चाँद की नदी पार करते हुए....।


       गुलमोहर से फ़िर मिलने का वायदा करके मैं हरसिंगार की ओर बढ़ आई थी ...। हरसिंगार के पेड़ के नीचे पूरी रात बैठने का मेरा मन कर आया ...पर रात पूरी कहाँ होती है ...दिन की तरह अधूरी रह जाती है... जैसे दिन अधूरा रह जाता है अधूरी खुवाहिशों की तरह...। ऐसी ही एक खुवाहिश मैंने भी की... हरसिंगार के पेड़ के नीचे जाकर बैठ जाने की ...। दिल तो किया हरसिंगार के फूलों वाले इत्र से महकते नर्म कालीन पर रात भर की एक नींद ले लें जब तक वहाँ सो रहा है छोटा सा ईश्वर चाँद के पालने में....।।


     देखते-देखते गजर में अब दो बज आए हैं ...। यह नवम्बर २०१७ की आधे चाँद वाली आधी रात है...। रात के इस प्रहर में मेरे संग-संग सितारे भी गुनगुना रहे हैं यह गीत - आधा है चन्द्रमा रात आधी


                               रह न जाए तेरी-मेरी बात आधी


                               मुलाकात आधी [


                                                                                                                         २९ नवम्बर २०१७ .... डायरी का पन्ना]


                                                                                             ३,


                             ‘अपने हलके-फुलके उडते स्पर्शो से मुझको छु                    


                              जाती है।


                              ज्यौर्जट के पीले पल्ले-सी यह दोपहर


                             नवम्बर की'


        याद आती हैं किसी की कही ये पंक्तियाँ जब देखती हूँ नवम्बर की धूप के टुकड़े को अपनी हथेली पर सूरजमुखी पुष्प सा खिलते हुए....मैं नवम्बर के खिले इस फूल को सहेज लेना चाहती हूँ...पर ज्यौर्जट का यह पीला दुपट्टा सरकता ही चला जाता है हाथ से छूटते दामन की तरह। वक्त के लम्हे ऐसे ही होते हैं। मौसम कोई भी हो, वह पास ठहरता नहीं .... Catch me if you can गुनगुनाते हुए अपने कदमों के निशां पीछे छोड़ जाता है।


         इससे पहले कि मैं शरद ऋतु के जाते हुए कदमों को देखें, मैं माह -ए- नवम्बर से हाथ मिला लेना चाहती हूँ। नाजुक ठंड के इस मौसम में हरसिंगार फूलों की चाँदनी को झरने सा झरते देखना चाहती हैं जैसे दिखती है सितारों की आकाश गंगा रात के आसमान में...। यूँ तो नवम्बर का यह मौसम सप्तपर्णी फूलों के खिलने का भी होता है। सात पत्तियों के बीच नन्हें सितारों वाले फूलों का गझिन गुच्छा ऐसा लगता है जैसे रात के आकाश में चमचमा रहे हों cluster of stars ....


        फलटन की शामें आजकल सप्तपर्णी फूलों के इत्र से महक रही हैं ....। यह वक्त होता है नमाज़ -ए-इशा का ...। अल्लाह-ओ-अकबर की पुकार के संग घुलने लगती हैं बहती हवा में ताजे खिले सप्तपर्णी फूलों की मदिर गंध ...। फलटन की सड़कों के किनारे पर लगा सप्तपर्णी तब ऐसे महकता है। जैसे वह दरख्त न होकर कोई शख्स हो जो सड़क के किनारे खड़ा पान चबा रहा हो.... और आप उस रास्ते से जब गुजर जाते हैं, वह तीखी गंध आपका पीछा करती जाती है। आप मुड़-मुड़ कर उस गंध को खोजते जाते हैं...जो कैद रहती है। हवा की नाभि में पर हवा कभी दिखती नहीं .... वह हाथ नहीं आती ....अपने स्पर्श का मोह जाल फेंकती रहती है सबकी दृष्टि से ओझल होकर ....।


       फलटन इन दिनों हरसिंगार और सप्तपर्णी के नशे में ही नहीं, गन्नों की मिठास में भी डूबा हुआ है जबकि बारिश का मौसम बीत चुका है ....रंग अब भी हरा शेष है फलटन के हाथ में...। फलटन और उससे सटे गाँवों में गन्ना इन दिनों पूरे शबाब पर है। नवम्बर की गुलाबी सर्द सरसराती हवा में खेतों में खड़े हरे गन्ने खुद पर ही रीझ कर रस से मीठे हुए जा रहे हैं। गुड़ और चीनी में पगे इन दिनों की रातें १६ डिग्री का लिहाफ़ ओढे सो जाती हैं .... जागता रहता है तो केवल भर चाँद ...। मैं जागती आँखों से चाँद की आँखों में झाँक कर देखती हूँ, चाँद गोल छलनी सा नज़र आता है...मैं खुले आँगन में जाकर खड़ी हो जाती हूँ तब....। देखते-देखते उसकी आँखें तरल हो आती हैं। पिघलने लगता है चाँद । झरने लगता है मुझ पर चाँद की छलनी से चाँदनी का चूरा.... मैं शरद ऋतु के इस चाँद के मोह में पड़ती जाती हूँ।


     हा चाँद ही नहीं मुझे तो नवम्बर महीने के गुलाबी सूरज से भी उतना ही प्रेम है जितना प्रेम आकाश को सूरज से होता है ...सूरज को रौशनी से... रौशनी से पंछियों को। पछियों की बात चली तो आज देखा मैंने भोर के आसमान में तीन बुलबुल साथ-साथ उड़ती जा रही थीं एक दिशा में। उन्हें साथ -साथ उड़ते जाते देख कर मुझे इलाहाबाद के बीते दिन याद आने लगे। हम तीन पके दोस्त हुआ करते थे ...मैं, लकी और कहकशाँ ...। इसी तरह साथ-साथ कहीं भी जाते ...साथ -साथ ही लौटा करते थे। वे दिन अब Gone with the wind की तरह हवा हो गए मैं हवा में उन स्मृतियों को हाथ बढ़ा कर पकड़ती रही।


       हाथ मेरे बढ़े हुए थे हवा की ओर कि तभी मैंने देखा गली में कमल बाई को आते हुए। मझोले कद की साँवली सी कमल बाई की उम्र लगभग साठ बरस है ...साफ -धुली साड़ी में वह रोज़ सुबह दिख जाती हैं काम पर जाते हुए ....।। उंगलियों पर गिन कर बताती हैं...वह पूरे सात घर का काम करती हैं। आठ हजार पगार है उनकी। अपने माथे पर एक रुपए के सिक्के के आकार का कुमकुम लगाती हैं। सुबह-सवेरे आठ बजे की गुनगुनी धूप में उनका दिपदिपाता हुआ माथा ऐसा लगता है जैसे कमलबाई ने आसमान के सूरज को अपने माथे पर उतार लिया है।


     माथे पर सूरज उगाए काम के लिए वह हर रोज़ निकल पड़ती हैं....। तीस बरस से उनका यही नियम है। उन्हें अपने रास्ते में चितकबरी गाय मिलती है, पीली तितली भी गुजर जाती है उनके पास से। हवा भी हाथ मिला कर जाती है। रुपहली घंटी पहने काली बिल्ली भी मिलती है। भूरा कुत्ता भी ....। हरसिंगार और सप्तपर्णी के फूल भी मिलते हैं। वह सबसे नज़र मिला कर काम के लिए बढ़ती जाती हैं। ठहरती हैं तो कुछ पल गली के मोड़ के पास उगे बेहया के फूलों के पास ... वे गुलाबी फूल जो महकते तो नहीं ...पर जीवन से भरपूर होते हैं। हर मौसम में खिले रहते हैं कमल बाई के माथे पर उगे कुमकुम वाले सूरज की तरह .....।


                                                                                                                             [१९ नवम्बर २०१७ डायरी का पन्ना ....]


                                                                                                                                 सम्पर्क : श्रीमन्त, प्लॉट नं. z, स्वामी विवेकानन्द नगर,


                                                                                                                                 सम्पर्क : श्रीमन्त, प्लॉट नं. z, स्वामी विवेकानन्द नगर,


                                                                                                                                फलटन, सतारा जिला, महाराष्ट्र, मो. नं. : 9560180202