संस्कृति - हिमालय प्रदेश का भुण्डा महायज्ञ - आशा शैली

जन्म: 2 अगस्त 1942 जन्मस्थान: ‘अस्मान खट्टड़' (रावलपिण्डी, अविभाजित भारत) लेखन विधाः कविता, कहानी, गीत, गजल, शोधलेख, लघुकथा, समीक्षा, व्यंग्य, उपन्यास, नाटक एवं अनुवाद भाषा: हिन्दी, उर्दू, पंजाबी, पहाड़ी (महासवी एवं डोगरी) एवं उड़िया। 24 पुस्तके प्रकाशित शैलसूत्र हिन्दी त्रैमासिक का निरंतर दस वर्षों से प्रकाशन उत्तराखण्ड सरकार से तीलू रौतेला राज्य पुरस्कार प्राप्त


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मेले, त्यौहार और उत्सव मानव जीवन के प्रति उसके दृष्टिकोण को ही नहीं बदलते बल्कि व्यक्ति के मन में एक नई उमंग का संचार भी करते हैं। भारत आशाओं उमंगों और रंगों का देश है, मेले त्यौहारों का देश है, आस्था और विश्वासों का देश हैभारत के ये मेले-त्यौहार जो अधिकतर आस्थाओं और विश्वासों से जुड़े होते हैं, सारे विश्व को भारत के इतिहास की गौरवमयी परम्पराओं से अवगत कराते हैं, जिन पर हर भारतवासी गर्व कर सकता है। ये त्यौहार भारत के हर कोने में बड़े जोश और उत्साह से मनाए जाते हैं और अपने-अपने क्षेत्रों में मनाए जाने वाले ये उत्सव, जो क्षेत्र विशेष की पहचान लिए होते हैं, क्षेत्र विशेष के राति-रिवाजों, परम्पराओं और वहाँ के इतिहास से भी हमें परिचित कराने में पूर्णरूपेण सक्षम होते हैं।


      यह तथ्य भी निर्विवाद सत्य है कि हिमाचलवासी प्रगति की दौड़ में देश ही नहीं विश्व के साथ कदम मिलाते हुए, सभ्यता के सारे अच्छे-बुरे परिणामों को साथ लेकर चलते हुए भी अपनी थकान को दूर करने का उपाय उत्सवों में तलाशते हैं। देश के अन्य भागों की भाँति ही हिमाचल में भी बहुत से मेले-त्यौहार मनाए जाते हैं जो देश भर में ही नहीं अपितु कुछ तो विदेशों में भी प्रसिद्ध हैं। हिमाचल के ये मेले-त्यौहार कभी-कभी तो फ़सलों और मौसमों से सम्बन्ध रखते हैं और कभी कथा विशेष से। किन्तु हम यहाँ जिस उत्सव की चर्चा करने जा रहे हैं, उसका नाम है भुण्डा महायज्ञ। यह उत्सव देश में मनाए जाने वाले इन सभी मेले त्यौहारों में सब से अलग है। इसी कारण उत्सवधर्मिता के इस देश में भूण्डा महायज्ञ की अपनी ही विशेषता है।


     हिमाचल की विभिन्न पर्वतीय उपत्यकाओं में आयोजित होने वाला भुण्डा महायज्ञ, अपने-आप में न तो मेला है न ही कोई त्यौहार बल्कि यह तो एक अनोखी आस्था और विश्वास की संवाहक व्यवस्था है जो अपने गर्भ में कई विचित्र कहानियों को छिपाए हुए है। भारत साधू-संन्यासियों और ऋषि-मुनियों की कर्मभूमि रहा हैयहाँ धर्म के झंडे तले सदा ही अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध विद्रोह का बिगुल बजाया गया है। इसी विगत का साक्षी है भुण्डा महायज्ञभुण्डा महायज्ञ परम्पराओं और इतिहास का साक्षी तो है ही, किन्तु वह उत्सवधर्मिता को भी साथ लिए चलता है। हिमाचल में कहीं भी भुण्डे के आयोजन की बात उठती है तो पूरे क्षेत्र में मीलों तक उसकी धमक सुनाई देती और देश-विदेश के जिज्ञासु इसमें भाग लेने के लिए आ उपस्थित होते हैं। जैसा कि ऊपर वर्णन आ चुका है। इस आयोजन को महायज्ञ का नाम उचित ही दिया गया है, क्योंकि महीनों तक चलने वाले मन्त्रजप और हवन आदि


             


के बाद यह आयोजन ब्रह्मभोज से समाप्त होता है। हजारों की संख्या में लोगों के भाग लेने से यह यज्ञ एक मेले का रूप धारण कर लेता है और अपनी इसी उत्सवधर्मी विशिष्टता के कारण अब भुण्डा महायज्ञ हिमाचल की पहचान ही बन गया है।


      भारतीय पौराणिक इतिहास की महान् विभूति परशुराम, भारतीय ऋषि और देव परम्परा में एक पहेली बने रहे हैं। कन्हैया लाल मुन्शी ने परशुराम को अपने उपन्यास का नायक बनाया है और उसमें परशुराम को राष्ट्रीयता से ओतप्रोत व्यक्ति के रूप में उभारा है। हिमाचल के अन्य बहुत से लेखकों ने परशुराम के व्यक्तित्व को वैज्ञानिक दृष्किोण से देखने परखने की चेष्टा तो की है परन्तु ये सारे प्रयास छिट-पुट रूप से ही सामने आए हैं, फिर भी सारी प्रकाशित सामग्री में परशुराम के नाम पर भुण्डायज्ञ और माँ रेणुका का जो स्वरूप प्रदेश के जनमानस में प्रचलित किंवदंतियों, बलिप्रथा और माँ रेणुका के साथ हुई दुर्घटना के क्रम से उभरा है, वह भारतीय संस्कृति और जीवन मूल्यों का ध्येय और आदर्श नहीं हो सकता।'


      हिमाचल प्रदेश की लोक परम्परा में परशुराम को भगवान या देवता की उपाधिप्राप्त हुई है, क्योंकि लोकमानस जिसे देवता के अर्थ में समझता है उस सत्ता को, जो एक ऐसी सत्ता और ज्ञान है, जो सब के बीच प्रकाश करती है और पूजे जाने योग्य है, अर्थात् जो प्रत्येक पदार्थ की वास्तविकता की जान है। डॉ. हरिराम जस्टा ने अपनी पुस्तक ‘हिमाचल की लोक संस्कृति के अध्याय ‘लोक देवता' में उल्लेख किया हैतीव्र गति से आगे बढ़ते हुए इस वैज्ञानिक युग में भी प्रत्येक देश की लोक संस्कृति ने अपने लोक देवी-देवताओं की स्थापना की है। आज का बुद्धिजीवी मनुष्य भी न केवल इन देव गाथाओं में रुचि लेता और प्रभावित होता है बल्कि कला, साहित्य ज्ञान, सभ्यता एवं संस्कृति के विकास में इससे लाभ उठाता है। कोई देश या क्षेत्र जितना प्राचीन होगा, उसके देवीदेवता भी उतने ही प्राचीन और महान् होंगे। प्रत्येक जनपद या देश इन देवी-देवताओं पर इसलिए गर्वित अनुभव करता हैक्योंकि मिथकों के प्रतीक रूप से उसके पूर्वजों की धड़कनें, भावनाएँ और आकांक्षाएँ सजीव रूप से उभरी होती हैं। जिस जनपद या देश का अपना कोई देवी-देवता नहीं होता, उसने किसी दूसरे देश के पुराने देवी-देवता को अपना लिया है, क्योंकि बिना देवमाला के उसे अपनी सभ्यता एवं संस्कृति अधूरी और धरती से कटी हुई और वायु में लटकी हुई जान पड़ती है। यही कारण है कि अपने इतिहास के स्वर्णिम काल में इंग्लैण्ड, फांस और यूरोप के दूसरे देशों ने यूनानी देवीदेवताओं को अपना लिया है। इसलिए हिमाचल प्रदेश के संदर्भ में यह अत्यंत महत्वपूर्ण है कि लोकजीवन में प्रचलित आख्यानों, पुराकथाओं और अन्य लोकवार्ताओं की कड़ियों का विस्तृत एवं वैज्ञानिक अध्ययन प्रस्तुत हो।'


        यही सब मान्यताएँ परशुराम के देवता होने के पीछे काम करती हैं। इनके बारे में अनेक आख्यान त्रेतायुग से लेकर आधुनिक युग तक प्रचलित रहे हैं। इन्हीं कथाओं- उपकथाओं द्वारा हमें इस दंबग व्यक्तित्व के परस्पर विरोधी, बहुमुखी जीवन का परिचय प्राप्त होता है। भूण्डा महायज्ञ की पृष्ठभूमि में परशुराम के यौवन काल की एक घटना बताई जाती है। हालांकि विद्वान् इस घटना के रूपों एवं कारणों पर एकमत नहीं हैं फिर भी यह घटना इतिहास बनाने में सक्षम तो अवश्य ही हुई है। अब जरा आइए परशुराम के जीवन पर एक नज़र डालें। कौन थे परशुराम और वह घटना क्या थी जिसने एक इतिहास गढ़ा? परशुराम का जन्म भार्गव वंशीय ब्राह्मण जमदग्नि के घर में हुआ था, ये अपने पिता की पाँचवीं सन्तान थे। भृगुकुल में जन्म लेने पर भी ये क्षत्रिय परम्परा से जुड़े हुए थे। यदि इनकी वंशावलि देखी जाए तो ऐसा क्यों हुआ, का उत्तर मिल जाता है। इनके पिता जमदग्नि विश्वामित्र की बहन सत्यवती के पुत्र थे। जमदग्नि का विवाह इक्ष्वाकु वंश की राजकुमारी रेणुका से हुआ, अतः परशुराम की धमनियों में क्षत्रिय वंश का लहू उनके क्रोधी स्वभाव का सबसे बड़ा कारण रहा है। महाभारत के वन पर्व के अनुसार रेणुका के पिता का नाम प्रसेनजित था, किन्तु अन्य मतानुसार ये राजा वेणु की पुत्री थीं। परशुराम और कार्तवीर्य के मध्य हुए युद्धों के विस्तृत वर्णन नि:सन्देह महाभारत में उपलब्ध हैं, परन्तु उनमें जगह की विभिन्नता भी दृष्टिगोचर होती है। उदाहरणार्थ अरण्य पर्व में भार्गव के अधिकार में कामधेनु की घटना के वर्णन को आवश्यक नहीं समझा गया। भृगु को कार्तवीर्य के पुजारी होने और उनकी विशालता के कारण ही ‘भार्गव स्मृद्ध हुए' की बात का वर्णन है। समय बदला और कार्तवीर्य के वंशजों को धन की आवश्यकता पड़ी और वे भृगुवंशियों के पास सहायता के लिए पहुँचे उनके घर में भूमि में दबाया हुआ धन मिला। किन्तु जब हैहय वॅशियों से भृगुशियों ने अपना धन वापस मांगा तो उनमें संघर्ष हुआ। जो भी हो परशुराम में क्षत्रिय गुण मातृपक्ष की देन थे। भृगुवंशी होने के कारण वे समाज सुधारक और दयालु भी रहे हैं। परशुराम के जीवन का अध्ययन करने पर यह तथ्य एकदम स्पष्ट हो जाता है कि परशुराम ने पूरे भारत का भ्रमण कर विभिन्न स्थानों पर कई बार भीषण तप भी किया है।


     महाभारत व अन्य मतामतः-पुराकथाओं के अनुसार रेणुका की एक बहन वेणुका भी थी। वेणुका हैहयवंशी राजा कार्तवीर्य अर्जुन (सहस्त्रबाहु) को ब्याही गई थी। सहस्त्रबाहु का पिता कार्तवीर्य और स्वयं सहस्त्रबाहु दोनों ही निरंकुश एवं क्रूर प्रकृति के शासक थे। इसी सहस्त्रबाहु के कई पुत्र थे जो क्रूर तो थे ही मूर्ख भी थे। एक बार सस्त्रबाहु शिकार के लिए वन में गया। निकट ही ऋषि जमदग्नि का आश्रम था। ऋषि ने राजा का भरपूर स्वागत कियाराजा को इस बात पर महान आश्चर्य हुआ कि एक बनवासी के पास इतना धन कहाँ से आया कि वह राजा के लाव-लश्कर का अतिथ्य कर पाये? तुरन्त गुप्तचर छोड़े गए, जिन्होंने सूचना दी कि जमदग्नि के पास कामधेनु गाय है, जो इन्द्र ने यज्ञ की आवश्यकताएँ पूरी करने के लिए ऋषि को दी है। इस चमत्कारी गाय से जो भी माँगो वह देती है। लोभी और दुष्ट प्रकृति राजा ने तुरन्त ही जमदग्नि से गाय माँग ली, जिसे देने से ऋषि ने असमर्थता प्रकट की। तब सहस्त्रबाहु ने उस गाय को छीनना चाहा। यह देख जमदग्नि ने गाय इन्द्र को लौटा दी। गाय को यूँ हाथ से जाता देख सहस्त्रबाहु ने उसके पाँव में तीर मार कर उसे घायल कर दिया। घायल और क्रुद्ध कामधेनु ने कार्तवीर्य पर आक्रमण कर दिया। इस पर राजा ने इसे ऋषि का चमत्कार समझ उनका सिर काट दिया।


    पति का कटा सिर देख परशुराम की माता रेणुका के विलाप करने पर परशुराम दौड़े आये। पिता का मृत शरीर देखकर उन्होंने पृथ्वी को क्षत्रिय विहीन कर देने की शपथ ली।


    ब्रह्मपुराण में जमदग्नि और परशुराम को अतिविशिष्ट ब्राह्मण के रूप में दर्शाया गया है जो युद्ध के विरोधी रहे हैं। परिस्थितियों से विवश परशुराम जब अस्त्र उठाते भी हैं तो दिव्य कृपा से ही उठाते हैं। ब्रह्मपुराण में परशुराम सम्बंधी पश्चिमी भारत में प्रचलित अनेक लोककथाएँ भी शामिल हैं। यहाँ सागर और उसके वंशजों से परशुराम का सम्बंध जोड़ने से उनका कोंकण वाला आख्यान स्पष्ट हो जाता है, जिसमें कहा गया है कि उनके कहने से सागर पीछे हट गया और केरल तथा कोंकण का प्रादुर्भाव हुआ। केरल में यह दन्तकथा प्रचलित है। प्राचीन भारतीय साहित्य और भवभूति के उल्लेख के अतिरिक्त भी परशुराम की उपलब्धियों पर अन्य भारतीय भाषाओं में भी रचनाएँ उपलब्ध हैं। परशुराम का उत्तर गमन इसके बाद की घटना कही जाती है।


     अन्य मतानुसार रेणुका अपनी बहन वेणुका से अक्सर ही अपने आश्रम की प्रशंसा करती थी। वेणुका के मन में उसे देखने की इच्छा उत्पन्न हुई। इन्हीं दिनों ऋषि जमदग्नि ने एक यज्ञ किया। रेणुका ने पति के समक्ष बहन और बहनोई को भी बुलाने का आग्रह किया। जमदग्नि थोड़ी ना-नुकर के बाद मान गए और आश्रम में जमदग्नि और सहस्रबाहु विवाद में ऋषि जमदग्नि मारे गए। कहा जाता है कि बाद में रेणुका के विलाप करने पर कुबेर ने अमृत की बूंद टपका कर उन्हें जीवित किया। पुनर्जीवन प्राप्त करने पर ऋषि को भ्रम हुआकि रेणुका ने उनका वध करने के लिए ही अपने बहन और बहनोई को बुलाया था, अत: उन्होंने अपने पुत्रों से रेणुका का वध करने को कहा, किन्तु कोई भी इस दुष्कर्म के लिए तैयार नहीं हुआ। परशुराम उस समय कोंकण में तप कर रहे थे। वहाँ से उन्हें बुलाया गया, उन्होंने तुरन्त ही माँ और भाइयों का वध कर दिया, फिर पिता को अपने आज्ञाकारी होने से प्रसन्न होने पर सभी को पुनर्जीवन देने को कहा। जो भी हो परशुराम के क्षत्रिय होता होने के कारण में इन्हीं दोनों घटनाओं का हाथ है। रेणुका जिस समय छाती पीट-पीट कर विलाप कर रही थी और कह रही थी कि ‘‘हे परशुराम धिक्कार है तुझे और तेरे परशु को, तेरे होते हुए एक क्षत्रिय राजा तेरे पिता का वध कर गया।'' उस समय परशुराम माँ को सांत्वना देते हुए उन' क्षत्रियों का समूल नाश करने का वचन दे रहे थे। रेणुका ने इक्कीस बार छाती पीटी और परशुराम ने इतनी ही बार माँ का हाथ पकड़ कर अपना वचन दोहराया। कुछ विद्वानों का मत है कि परशुराम ने अपने तपोबल से पिता को जीवित कर दिया जबकि अन्य का कथन है कि रेणुका पति के साथ ही सती हो गई। इसके विपरीत महाभारत के अनुसार परशुराम साथ के जंगल से समिधा लेकर लौटे तो पिता को मृत पाया, रोते हुए उनके क्षौर कर्म किए। इस प्रसंग में रेणुका की चर्चा ही नहीं है।


      कहीं-कहीं यह भी कहा जाता है कि परशुराम ने पहले सहस्रबाहु का वध किया था उसके बाद उसके पुत्रों ने जमदग्नि ऋषि का वध किया। वस्तु स्थिति जो भी रही हो इस सारे प्रकरण के बाद हैहयवंश का समूल नाश करने से हुए रक्तपात ने उनके मन में खिन्नता को जन्म तो दिया ही, इसके साथ ही परशुराम को इस बात का भी स्पष्ट अनुभव हुआ कि अन्याय का विरोध बिना जनाधार के सम्भव नहीं होता(महाभारत के अनुसार हैहयों के साथ उनके युद्ध में नागाओं ने भी परशुराम की सहायता की थी)


    परशुराम ने शक्ति अर्जित करने के लिए दुर्गा कीउपासना शुरू कर दी। शतद्र तट के वनों में घोर तप करने के बाद देवी ने उन्हें कुछ अस्त्र-शस्त्र दिए, जिनसे दुष्टों का संहार हो सके। तदनन्तर परशुराम ने अपनी तपस्थली को (जो अब तक आश्रम का रूप ले चुकी थी) “श्रीपटल' नाम दिया। इसके साथ ही उन्होंने यजुर्वेद में वर्णित विधान के अनुसार नरमेध यज्ञ का आयोजन किया। इस यज्ञ के लिए परशुराम ने पूरे भारत के विभिन्न भागों से चारों वेदों के ज्ञाता ब्राह्मणों को निमन्त्रण दिया। यज्ञ लगभग दो वर्ष चला। इसमें पकड़-पकड़ कर लाए गए आतताइयों के सिरों की आहुतियाँ दी जाती थीं। इस यज्ञ की आड़ में पूरी एक सेना परशुराम तैयार कर रहे थे (परशुराम सम्बन्धी अनेक पुराकथाओं में जो पश्चिमी समुद्रतटीय क्षेत्रों में मिलती हैं, उनमें अनेक सैनिक शिविरों का विवरण मिलता है, जहाँ उन्होंने बाहर से बुलाकर ब्राह्मण बसाए और स्थानीय निम्न जातियों को संस्कारित कर उन्हें ब्राह्मण बनाया)।


     बारह वर्ष तक उन्होंने अपनी इन्हीं सहयोगी सेनाओं के साथ घूम-घूम कर दुष्ट और अन्यायी शासकों के आतंक को समाप्त किया, फिर लौट कर श्रीपटल में यज्ञ आरम्भ किया। यह हरिद्वार के कुम्भ की समाप्ति का अवसर था। परशुराम ब्राह्मणों से श्रीपटल चल कर उन्हें वेद विधि-विधान के अनुसार यज्ञ करने का आग्रह किया। उनके आग्रह पर हरिद्वार से ब्राह्मण सदल-बल श्रीपटल की ओर प्रस्थान कर गए थे।


      भुण्डा महायज्ञ पुराणों में वर्णित शतद् नदी के तट पर श्रीपटल नामक नगर में जमदग्नि पुत्र परशुराम का प्रारम्भ किया गया यज्ञ कहा जाता हैपुराणकालिक शतद् नदी ही वर्तमान की सतलुज है। श्रीपटल का पूर्व भौगौलिक स्वरूप इससे जाना जा सकता है कि वर्तमान में कुल्लू जिला के निरमण्ड और शिमला जिला की तहसील रामपुर बुशहर और इनके निकटवर्ती कुछ क्षेत्र ‘श्रीपटल' की परिधि में आते हैं। इन्हीं क्षेत्रों में भुण्डा महायज्ञ की परम्परा प्राचीन काल से चली आ रही है। इस प्रकार भुण्डा पूर्व महासू का विशेष पर्व बन गया।


     डॉ. पद्मचन्द्र कश्यय के अनुसार शतद् के किनारे दत्तनगर, नीरथ, शिंगला, शनैरी (शनैड़) लालसा (लारसा या लादसा) ढाँडसा, निरमण्ड काओ और मुवैल (कहीं-कहीं कल्गेल नाम भी मिलता है) में हड़प्पा कालीन बस्तियों की खोज हुई है। ये सभी बस्तियाँ परशुराम परम्परा से जुड़ती हैं। डॉ. सुदर्शन वशिष्ठ के अनुसार आज परशुराम के मुख्य स्थानों में भुण्डा यज्ञ होता है, फिर भी मुख्य यज्ञ निरमण्ड में ही होता रहा और इसी का अधिक विवरण भी मिलता है। नरमुण्डों की आहुति दिए जाने के कारण ही इस स्थान का नाम निर्मुण्ड पड़ गया जो कालांतर में बिगड़ते-बिगड़ते निरमण्ड हो गया। एक अन्य कथा के अनुसार शिव जब सती का शव काँधे पर लिए घूम रहे थे तो उन्हें इसी स्थान पर पता चला कि शव पर मुण्ड नहीं है। वह बहुत जोर से चिल्लाए निर्मुण्ड', बस यही इस स्थान का नाम पड़ गया।' राहुल साँकृत्यायन के अनुसार इस यज्ञ में पशुबलि दी जाती थी।' इस प्रथा का प्रचलन हिमाचल के अन्य बहुत से भागों यथा जामू, दुगाणा, महासू, कुल्लू और सुकेत में भी रहा है, परम्परा के अनुसार निरमण्ड इस परशुरामी यज्ञ का छठा स्थान है।


     निरमण्ड में जहाँ परशुराम ने श्रीपटल नगर बसाया था, वहाँ एक गहरी गुफ़ा के ऊपर बने भवन को परशुराम की ‘कोठी' कहा जाता है। इस गुफा के द्वार पर ताला लगा रहता है। इसके भीतर परशुराम व उनकी माता रेणुका का बहुत सारा सामान रखा हुआ है जो भूण्डा महायज्ञ के अवसर पर निकाला जाता है। हारकोट के अनुसार निरमण्ड में आयोजित १८६८ के भुण्डे में रखी गई वस्तुओं की सूची निम्न है,


     १. ४० पौंड वज़न का परशुराम का फ़रसा अथवा कुल्हाड़ा,


     २. एक गागर या कमण्डल,


     ३. एक धनुष,


     ४. लोहे के कुछ बाण और एक बड़ा कवच आदि वस्तुएँ


     निरमण्ड के १९८१ के भूण्डे में एक त्रिमुखी आवक्ष प्रतिमा, धनुष, बाण, कमण्डल, माँ रेणुका के चांदी और सोने के जेवर, इन्द्र-शची आदि देवताओं की अष्टधातु की मूर्तियों के साथ बीस अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियाँ इन पंक्तियों की लेखिका ने भी देखी थीं, जो कालान्तर में चोरी कर ली गई थीं। सबसे बड़ी और मुख्य त्रिमुखी आवक्ष सुन्दर मूर्ति में दाहिने मुख में कामदेव, बायें में यम और मध्य में स्वयं परशुराम का प्रतिनिधित्व प्रकट कहा जाता है। इस मूर्ति के मध्य के मुखौटे अर्थात् परशुराम के मस्तक पर तीसरे नेत्र की पुतली के स्थान पर एक विशाल हीरा जड़ा हुआ था। इतना ही बड़ा एक हीरा मूर्ति की ठुड्डी पर भी जड़ा हुआ यूँ प्रतीत होता था मानों पसीना चुहचुहा आया हो और आकर ठुड़ी के नीचे बूंद बन गया हो। इसके नीचे ताम्बे की एक कटोरी टपकते पसीने को एकत्र करने के लिए लगी हुई थी। स्वर्ण और चाँदी मिश्रित धातु से निर्मित यह मूर्ति लगभग तीन फुट ऊँची और चार-साढ़े चार फुट चौड़ी थी।


     १८६८ के भुण्डे के वर्णन में हारकोट ने भी इस मूर्ति की चर्चा की है। इसके अतिरिक्त एक अन्य आवक्ष मूर्ति का विवरण भी हारकोट ने दिया है। हारकोट ने इस दुसरी आवक्ष मूर्ति पर उत्कीर्ण दो आलेखों का विवरण भी दिया है, जिसमें संस्कृत में बड़े लेख और टाँकरी में छोटे लेख का विवरण है। संस्कृत वाले लेख में १० आषाढ़, संवत् सात लिखा है। संवत् सात के उल्लेख की पुष्टि १९१९ के भुण्डे के विवरण में शैटलवर्थ ने भी की थी। यह दूसरी प्रतिमा किसी रानी की थी, इससे यह स्पष्ट होता है कि संवत् सात से पूर्व भी भुण्डा महायज्ञ की प्रथा थी। हारकोट ने तो एक शताब्दी पूर्व के भुण्डे का ही उल्लेख किया है।                                                                                    


     परशुराम काल में यह क्षेत्र अति दुर्गम माग एवं घने वनों से आच्छादित रहा है, जनसम्पर्क में न होने के कारण ही परशुराम ने इस स्थान को तप के लिए चुना था, किन्तु फिर धीरे-धीरे ऋषि-मुनियों के उनसे भेंट-आगमन एवं परशुराम एवं अन्य ऋषि-मुनियों के आश्रम बनाने के कारण भी यह स्थान बस्ती का रूप धरण करता गया। इस स्थान को श्रीपटल नाम भी परशुराम जी ने ही दिया था। कहा जाता है कि भुण्डा महायज्ञ का श्रीगणेश इसी श्रीपटल नगर से परशुराम जी ने ही किया था, किन्तु इस विषय में विद्वान् एक मत नहीं हैं।


     राहुल साँकृत्यायन के अनुसार यह यज्ञ परशुरामी ब्राह्मणों ने परशुराम जी को प्रसन्न करने के लिए प्रारम्भ किया था। इस यज्ञ के द्वारा वे परशुराम की पूजा-अर्चना करते थे। हिमाचल के इस भाग में परशुराम को देवता माना जाता है। हिमाचली संस्कृति के विद्वान डॉ. पद्म चन्द कश्यप के अनुसार देवता परशुराम अपनी कोठी (गुफ़ा) में बारह वर्ष तक तपस्या करते हैं, इसके बाद जब वे गुफा से बाहर आते हैं, तभी भूण्डा यज्ञ का आयोजन किया जाता है और परशुराम उसमें स्वयं भाग लेते हैं। यज्ञ की समाप्ति पर वे पुनः गुफा में लौट जाते हैं। किन्तु कुछ विद्वान् इसके विपरीत यह कहते हैंकि भगवान परशुराम ने स्वयं अन्यायी और आततायी शासकों से निपटने के लिए ही इस यज्ञ का शुभारम्भ किया था।


    जिस काल में परशुराम भारतीय क्षितिज पर उज्ज्वल नक्षत्र बनकर चमक रहे थे, उस समय इस देश में सामन्तशाही का बोलबाला था। शासक निरंकुश और जीवन मूल्यों से रीते थे। इसके विपरीत ऋषि आश्रम प्रत्येक दृष्टि से अधिक समृद्ध थे। (महाभारत के अरण्यक पर्व और शान्ति पर्व में परशुराम और हैहयों के युद्ध का वर्णन मिलता है। जिन राजाओं का परशुराम ने वध किया था उनके नाम भी मिलते हैं, उनकी सन्तानें किस-किस ने बचाईं इसका भी विवरण शान्ति पर्व में मिलता है।)


कुछ विद्वानों का मत है कि यह महायज्ञ परशुराम जी ने हरिद्वार के कुम्भ के तुरन्त बाद आयोजित किया था। कुम्भ से निवृत्त वेदपाठी बाह्मणों को वे अपने साथ ले आए थे। यहाँ आकर उन्होंने इस यज्ञ का श्रीगणेश किया, जिसका स्वरूप प्रारम्भ में नरमेघ यज्ञ का रहा, फिर भी यह निर्विवाद सत्य हैकि इस महायज्ञ का सीधा सम्बन्ध परशुराम जी से है।


    भुण्डा कहीं भी हो उसमें अपर महासू के नौ देवीदेवताओं का आना आवश्यक है। आमन्त्रित देवी-देवता अपनी पालकियों में आते हैं अथवा अपने कलश भेजते हैं। यह नौ स्थान हैं, निरमण्ड, दत्तनगर, नीरथ, काओ, मुवैल, राँवी, सराहन, लालसा और ढाँडसा। इनमें से यदि एक का भी प्रतिनिधि कम हो तो भुण्डा नहीं होता। इसी कारण इसे नौ कलशों का एकत्रीकरण भी कहा जाता है इनके साथ लगभग दो हजार लोग यज्ञ में भाग लेते हैं, जिनका पूरा खर्च मन्दिर की यज्ञ कमेटी वहन करती है।


    निरमण्ड में परशुराम की कोठी के बड़े से प्रांगण में अलग से बनी यज्ञवेदिका में छ:-छ: फुट गहरे दो नाभिकुण्ड स्थापित हैं। ये दोनों कुण्ड बड़े-बड़े गोल पत्थरों से ढके रहते हैं और भूण्डा के अवसर पर खोले जाते हैं। ये नाभिकुण्ड एक-दूसरे से बिल्कुल सटे हुए हैं। इन्हें अलग करने वाला पत्थर मात्र छ: इंच मोटा है, जो धरातल पर कुण्डों की आपसी दूरी को क्रमशः बढ़ाता जाता है। क्योंकि धरातल पर इनका स्वयं का क्षेत्रफल मात्र छः इंच रह जाता है जो ऊपर तक आते-आते दो फुट से भी अधिक हो जाता है। इन्हीं में से एक कुण्ड को हवन के लिए प्रयोग में लाया जाता हैऔर दूसरे में से पानी निकलता है। १९८१ के भूण्डे में जब इन पंक्तियों की लेखिका ने इन्हें देखा था तब इन कुण्डों का प्रयोग किया जा रहा थाजल स्रोत वाले कुण्ड में उस समय लगभग आधा जल से भरा हुआ था। निरमण्ड वासियों का कहना है कि यज्ञ का प्रारम्भ करते समय इसमें पानी मात्र तली में होता है जो धीरे-धीरे बढ़ने लगता है और यज्ञ की सारी आवश्यकताएँ पूरी करता है। दूसरे कुण्ड में हवन बराबर चलता रहता है। जनश्रुति के अनुसार तनिक भी अशुद्धि होने पर जलकुण्ड उफ़नकर यज्ञ की अग्नि को बुझा देता है और यज्ञ को फिर से आरम्भ करना पड़ता है। यज्ञकुण्ड के भस्मी से पूरा भर जाने पर ही पूर्णहुति डाली जाती हैइसके बाद ही यजुर्वेद में वर्णित विधि से नरमेध का सूत्रपात किया जाता है, जो कई दिन तक चलता है।


    भुण्डा यज्ञ प्रारम्भ करने के लिए यज्ञ की अधिष्ठात्री देवी हिरमणी की मिट्टी की गले तक की दो फुट ऊँची पार्थिव प्रतिमा तत्काल तैयार की जाती हैइस मूर्ति के अतिरिक्त ११२ अन्य देवी-देवताओं का आह्वान किया जाता है। डॉ. वंशीराम शर्मा के अनुसार देवी हिरमणी अथवा हिरण्यमयी वाणासुर की पत्नी हैं और यज्ञ की वेदी पर बैठकर यज्ञ की रक्षा करती हैं। यज्ञ की समाप्ति पर इस मूर्ति को यज्ञ की अग्नि के ही समर्पित कर दिया जाता है।


    भुण्डे में प्रयुक्त होने वाले सामान को परशुराम की कोठी अर्थात गुफ़ा से निकालने की विधि भी विचित्र है। इस विधि के अनुसार चार ब्राह्मण स्नान के बाद शरीर पर मात्र लंगोट धारण करके और मुख में पंचरत्न डालकर मात्र मिट्टी का एक दिया जो सरसों के तेल से जलता है, लेकर गुफा में प्रवेश करते हैं और दीपक के मंद प्रकाश में जो कुछ हाथ लगे उठा लाते हैं। इसके साथ ही चार ऐसे ही लोगों का दूसरा दल तैयार रहता है। एक दल दोबारा भीतर नहीं जा सकता। यज्ञ के बाद सारा निकाला हुआ सामान वापस भीतर रख दिया जाता है। १९१९ के भूण्डे में चाँदी से मढ़े हुए गेहूँ और जौ के दाने भी निकले थे। जनश्रुति के अनुसार इनका वज़न सवा-सवा सेर था।


     उपर्युक्त नाभिकुण्ड के जल से एक गागर यज्ञ की समाप्ति पर भर ली जाती है और कोठी में रख दी जाती है, जो दूसरे भुण्डे तक जस की तस रहती हैयज्ञ की सारी प्रारम्भिक आवश्यकताएँ इसी से पूरी होती हैं लेकिन आश्चर्य है कि चाहेकितने ही वर्ष क्यों न बीत जाएँ, यह पानी गंगाजल की तरह ही स्वच्छ रहता है।


     यज्ञ में भाग लेने वाले नौ कलशों में राँवी गाँव के कागाबाशी ब्राह्मणों का विशेष महत्व है। दन्तकथा के अनुसार कागाबाशी ने (कागभाषी-जो कौए की भाषा जानता था) यज्ञ में विषाक्त घी फिंकवा कर हजारों लोगों के प्राण बचाए थे। उस घी में सर्प मरा पड़ा था, यह बात उसे एक कागने बताई थी। इसके अतिरिक्त जिस पुस्तक के मन्त्रों का इस यज्ञ में प्रयोग होता है, वह भी इसी गाँव के ब्राह्मणों के अधिकार में हैं। राहुल साँकृत्यायन जब हिमाचल भ्रमण के लिए आए थे तब उन्होंने यह पुस्तक देखी थी। उनके अनुसार यह पुस्तक शारदा लिपि में लिखी गई है, इस हस्त लिखित पुस्तक के शारदा लिपि में होने की बात को हिमाचल के वरिष्ठ साहित्यकार और अन्वेषक डॉ. वंशीराम शर्मा ने भी स्वीकार किया है।


    यज्ञ के दौरान निरमण्ड के हर चौराहे पर बलि दी जाती है। परशुराम की पालकी किसी-किसी ब्राह्मण के घर भी जाती है। जिसके घर पालकी जाती है और वे लोग सौभाग्यशाली गिने जाते हैं। यज्ञ के लिए एक मजबूत रस्से का एक सिरा, बहुत ऊँची चोटी पर और दूसरा सिरा नीचे गहरी घाटी में बाँध जाता है। सरकस के नटों की भांति कोई साहसी युवक इस रस्से से उतर कर पूर्णाहुति का नारियल लाकर यज्ञ की सामाप्ति की घोषणा करता है। इस व्यक्ति को ज्याली कहा जाता है। १९६८ के भूण्डे में उतरने वाले ज्याली की मृत्यु हो जाने से तत्कालीन अंग्रेज गवर्नर ने ज्याली के स्थान पर बकरा बाँधने का आदेश दिया था, किन्तु स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद यह प्रथा फिर से शुरू हो गई है। ढाँडसा गाँव में साठ वर्ष पूर्व भी भुण्डा आयोजित होने के प्रमाण प्राप्त हुए हैं। लकड़ी की तीन काठियाँ और रस्सा भी मिला है, यह वही काठी है जिस पर बैठकर ज्याली पूर्णाहुति का नारियल लाया था। ढाँडसा के मन्दिर में उपलब्ध लिखित प्रमाण के अनुसार इन्हें प्रयोग में लाने वाले युवक का नाम बिहारी था। यह प्रमाण तो एक भुण्डे का है किन्तु तीन काठियाँ तो तीन भुण्डों का प्रमाण हैं, जिनके बारे में अन्य कोई सूचना नहीं है।


    सन् १९८१ के निरमण्ड के भुण्डे के बाद कुछ वर्षों तक एक होड़ सी लगी रही। शोली, स्पैल, खड़ाहण, ढान्डसा, मझोली और बसाहरा में भूण्डा हो चुका है।


     ज्याली एक साहस एवं जोखम से भरपूर खेल है। जंगलों से काटकर लाई गई मूज (घास) से बटकर बनाए गए मोटे रस्से को पर्वत की जिस चोटी पर बाँधा जाता है उसका नाम ज्याली होने के कारण इस खेल और इसे पूर्णता देने वाले का नाम भी ज्याली ही पड़ गया। इस रस्से को ज्याली स्वयं बटता है। इस प्रथा का निर्वाह केवल बेड़ा जाति के लोग ही कर सकते हैं। (यह जाति अब लुप्त प्रायः हो गई है) यज्ञ का प्रारम्भ होने के दिन से ही यह व्यक्ति उपवास करता है। जो महिलाएँ जंगल से घास लाती हैं, उन्हें भी उपवास रखना अनिवार्य होता है। लकड़ी की काठी (कुर्सीनुमा वस्तु) पर ज्याली को कपड़े से बाँध दिया जाता है, ज्याली के दोनों पैरों में बंधी मिट्टी की थैलियाँ रस्से पर फिसलने में उसका सन्तुलन बनाए रखने में सहायक रहती हैं। इसके एक हाथ में पूर्णाहुति का नारियल एवं दूसरे हाथ में पूजा की अन्य वस्तुएँ रहती हैं।


     यह रस्सा शुभ मुहूर्त देखकर रात के समय पानी में डाल दिया जाता है, प्रातः सैकड़ों व्यक्ति इसे ज्याली चोटी तक पहुँचाते हैं। मार्ग में कहीं भी रस्सा भूमि का स्पर्श न करने पाए इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता है। सफ़लता पूर्वक यज्ञभूमि तक उतरने वाले ज्याली को मुंह-माँगी हर वस्तु दी जाती है। यह प्रथा कुछ-कुछ गुरु गोविन्दसिंह जी द्वारा पाँच-प्यारों के चयन जैसी लगती है। तत्कालीन अन्यायी राजाओं के विरुद्ध जनता को तैयार करने के लिए और प्रजा के गिरे हुए मनोबल को सुदृढ़ आधार देने के ऐसे साहसिक खेलों का आयोजन परम आवश्यक था। विगत दो दशकों में होने वाले भुण्डा महायज्ञों में सूरतराम नाम का युवक ही हर बार का नायक रहाढाँडसा के भूण्डे में बसारू (दत्तात्रेय), काजलु (महारुद्र), चैरू (लक्ष्मी नारायण) और कालेश्वर (यम), रचोली के जाक (यक्ष) आदि सदल-बल आमन्त्रित थे। एक-एक देवता के साथ सौ से भी अधिक लोग रहते हैं। दो-तीन सौ बकरे कट जाते हैं। माँस और शराब की आहुतियों द्वारा समन्न होने वाला यह यज्ञ पूर्ण रूपेण तान्त्रिक यज्ञ है।


    इतना महत्वपूर्ण, ऐतिहासिक एवं आध्यात्मिक यज्ञ निरमण्ड की परशुराम कोठी में हुई चोरी के कारण फीका पड़ गया है। स्थानीय ब्राह्मण पुत्रों ने गुफ़ा में घुसकर पुरातत्व के महत्व की बहुत सी सामग्री चुराकर तस्करों के हाथ सौंप दी। त्रिमुखी आवक्ष मूर्ति जब पुलिस ने बरामद की तब उसके तीन टुकड़े कर दिए गए थे। माँ रेणुका के सारे आभूषण काट-पीट कर केवल सोने में बदल दिए गए थे। बहुमूल्य पत्थरों का कहीं नामो-निशान नहीं था। दुर्भाग्य की बात है कि परशुराम का कुल्हाड़ा उनकी सन्तानों ने उन्हीं पर चला दिया था।