कविताएं - स्वप्निल श्रीवास्तव

स्वप्निल श्रीवास्तव  - प्रतिष्ठित कवि-कथाकार। शिक्षा : गोरखपुर विश्वविद्यालय, गोरखपुर कृतियाँ : ईश्वर एक लाठी है, ताख पर दियासलाई, मुझे दूसरी पृथ्वी चाहिए, जिंदगी का मुकदमा, जब तक है जीवन (कविता-संग्रह), एक पवित्र नगर की दास्तान (कविता-संग्रह)। सम्मान : भारत भूषण अग्रवाल कविता पुरस्कार फिराक सम्मान तथा अन्तर्राष्ट्रीय सम्मान। कविता और कहानी लेखन के अलावा समीक्षा और अनुवाद में अभिरूचि। देश-विदेश की भाषाओं में कविताओं के अनुवाद। सरकारी सेवा से निवृत्त होकर फिलहाल फैजाबाद में स्थायी निवास।


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        अगर मजदूर न होते


सोचिए अगर मजदूर न होते तो


कैसी होती यह दुनिया


न सड़कें होतीं न बन पातीं इमारतें


समाज का कारोबार न चलता


वे न होते तो खदानों में पड़े


रहते खनिज


कौन बनाता कल -पुर्जे


कैसे उड़ते जहाज


बेखौफ चलती गाड़ियां


वे न होते तो पैदा नहीं


हो पाते अनाज


भूखी रह जाती दुनिया


वे हमारी दुनिया को सुंदर


बनाते हैं


वे न होते तो धरी की धरी


रह जातीं हमारी कल्पनाएं


               प्रमाणपत्र


संदूक के भीतर रखे हुए हैं।


हमारे जन्म के प्रमाणपत्र, डिग्रियां


नियुक्ति पत्र, जरूरी कागजात


नौकरी के बीत जाने के बाद


ये सिर्फ कागज के टुकड़े भर रह गए हैं


लेकिन इन्हें कमाने में जिन्दगी के कई साल


खर्च हो गए थे


जो कभी हमारे होने और काबिलियत के सुबूत थे


उनकी अवधि बीत चुकी है


ये ऐसे पंख हैं जो उड़ नहीं सकते


लेकिन एक दौर में कई आसमानों की


सैर करते थे


मैं इन्हें भरे मन से छूता हूं


और उदासी से भर जाता हूँ


         एक सूना घर


जो कभी घर था - आज बेघर  है


अब यहां कोई नहीं रहता


बदरंग हो गई हैं दीवारें


शहतीरे कमजोर हो चुकी हैं


सीढ़ियां इतनी अशक्त कि इनसे


होकर घर तक नहीं पहुंचा जा सकता


वर्षों पहले लोग यहां रहते थे


लौट कर नहीं आए


उनके होने न होने की कोई सूचना नहीं है


दिन में यह घर सूना लगता


हैरात में डरावना


इसके पास से गुजरते हुए


दिल की धड़कन तेज हो जाती है


,          तार बाबू


तार बाबू का असली नाम तारघर में


तारबाबू होते ही गुम हो गया था


वे तारबाबू के नाम से जाने जाते थे


अपने सरकारी नाम से सिर्फ तनख्वाह


उठाते थे


एक जमाने में तारबाबू का जलवा था


वे तार की कूट भाषा को आसानी से


पढ़ लेते थे और उसी हौसले के साथ


जबाब देते थे


जहां कहीं भी तार पहुंचता था


हड़कम्प मच जाती थी


रजिस्ट्री देर से मिलती थी


इसलिए त्वरित डाक सेवा का यही


विकल्प था


तारबाबू के रिटायर होते ही तारघर


बंद हो गया था


संदेश भेजने के कई तरीके इजाद


हो चुके थे


तारबाबू का घर तारघर की तरह


सूना हो गया था


बच्चे शहर में बस चुके थे


वे अकेले गांव में रहते थे और तारबाबू


के नाम से मशहूर थे


भले ही तारघर का पतन हो गया हो


लेकिन तारबाबू की स्मृति में तारघर


अब भी जिंदा है


           प्राचीन लिपियां


प्राचीन लिपियां आसानी से समझ में


नही आतीं


वे दुरूह हैं, उन्हें पढ़ना कठिन है


भाषाशास्त्री इसका अलग अलग अर्थ


बताते हैं


वे एक दूसरे से सहमत


नहीं होते


भले ही इन लिपियों को कोई


समझ न पाए, लेकिन वे हमारी


आदि - स्मृतियां हैं।


चट्टानों और पत्थरों पर है


इसकी अमिट लिखावट


शब्द और लिपियां हमारे होने के


साक्ष्य हैं


हमारे इतिहास का हिस्सा हैं


यही से शुरू हुई थी हमारी


सभ्यता ।


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