राजेन्द्र आहुति - जन्म : 6 दिसम्बर 1952 शिक्षा : एम.ए. पत्रकारिता में उपाधि दो कवित संग्रह, एक कहानी संग्रह और एक आलेख डायरी संग्रह प्रकाशित
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झुर्रियाँ
अब बलों से ही नहीं
चेहरे से भी
लगता हूँ बूढ़ा
बूढ़ापे की फिसलन भरी
पगडंडियों से आगे बढ़ता हुआ
फिर भी कभी बूढे सा
ठंडी छाँव वाले वृक्ष तले
खाँसने की फुरसत नहीं
मेरे बेटे...।
तुम बहुत छोटे हो
उस चिड़िया की तरह
जिसके पंखों ने सीखा नहीं
अभी तनिक भी उड़ना
अभी तुम्हारी उंगलियाँ
दुनियादारी के त्रिशूल के दर्द
झेलने के काबिल नहीं
और अभी कंघा भी
नरम है खरगोश की तरह
तुम बड़े होकर भी
यदि सीख न पाए
कंधों पर पहाड़
जिम्मेदारियों का उगाना
तो तुम्हारे बड़े होने के बावजूद
नहीं हो पाऊँगा बूढा
तमाम झुर्रियों
और पके बालों के बाद भी
मिट्टी
मिट्टी नहीं करती भेद-भाव
किसी को भी आलिंगन कर
चली आती है चुपके से शहर
मिट्टी की नमी से
शहरी छर भले ही गंदा हो
गांव गंदा नहीं होता है
गांव की पहचान है मिट्टी
मिट्टी का चैन बसेरा, रैन बसेरा
सब कुछ है गांव की मिट्टी
उसी मिट्टी से पक्का घर बनाने
की तीव्र उत्कंठा में
आदमी आते हैं शहर
और शहरी पेट भरने के लिए
मौसम-दर-मौसम
आते है अनाज
शहर को सिर्फ चाहिए
मिट्टी से बने
आग की भट्टी में पके
सुर्ख लाल ईंट
गांव से निकले जनों को
जब आती है याद
तो कुछ दिनों के लिए
अतिथि की तरह
आते हैं चूमने मिट्टी को
जिसे लिख नहीं पाते चिट्ठी में
सड़क
मैं एक रास्ता हूँ
हमें रौंद कर
आदमी
और गाड़ियाँ निकल जाती हैं
और आगंतुक की खुशी के लिए
मैं हँसता रहता हूँ।
आप सभी का
हर हाल में स्वागत है
आइए-जाइए
जो मर्जी कीजिए
खोद डालिए
जितनी आपकी इच्छा हो
नाचिए, कूदिए, हँसिए, थूकिए
आपकी हर अच्छा
हर गंदा व्यवहार
सहर्ष है स्वीकार
आप अपने हक के लिए
और हमारे हक के लिए
लड़ते रहे हैं हमारी छाती पर
यह सिलसिला
आगे भी जारी रहेगा
सभी आते हैं सड़क पर
घर के लिए
फिर न जाने क्यूँ
सड़क पर आ जाने से
हर आदमी डरता है
सम्पर्क : ए-13/68, सेवई मंडी, प्रहलादघाट,
वाराणसी-221001, उत्तर प्रदेश, मो.नं. : 9369368133