समीक्षा - रक्तपात पर महेश दर्पण की टिप्पणी - ट्रेजेडी को चीन्हती कहानी - महेश दर्पण

सुपरिचित कथाकार, हिन्दी कहानी के अध्येता और पत्रकार। अब तक सात कहानी संग्रह, दो लघुकथा संग्रह, एक यात्रा वृत्तांत, एक आलोचना, एक जीवनी, पांच बाल और नव साक्षर पुस्तके प्रकाशित। गणेश शंकर विद्यार्थी सम्मान, पुश्किन सम्मान, हिन्दी अकादमी द्वारा साहित्यकार सम्मान एवं कृति पुरस्कार, पीपुल्स विक्ट्री अवार्ड, नेपाली सम्मान, नेताजी सुभाष चंद्र बोस सम्मान, राजेंद्र यादव सम्मान सहित अनेक सम्मान, पुरस्कार।


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दूधनाथ सिंह उन बहुत कम कवि-कथाकारों में से हैं जिन्होंने आधुनिकता को ईमानदारी से आत्मसात् करते हुए रचनाकर्म जारी रखा। अंतराल भी आए, लेकिन जब भी वह रचनारत हुए, परिणाम अच्छा ही निकला। ‘रीछ', ‘रक्तपात', ‘मम्मी तुम उदास क्यों हो', 'बिस्तर', 'इंतजार', 'आइसबर्ग' उनके प्रारंभिक दौर की महत्वपूर्ण रचनाएं हैं। ‘सुखांत' और 'नमो अंधकारम' जैसी कहानियों से दूधनाथ सिंह के रचना-वैविध्य की झलक मिलती है।


     सातवें दशक के प्रारंभिक चरण की महत्वपूर्ण कहानी है 'रक्तपात'। जीवन प्रसंगों में छिपी ट्रेजेडी को अपनी ही तरह से चीन्हती है यह कहानी। कोई भूमिका नहीं, सीधे शुरू हो जाती है। पहली आहट के साथ पत्नी और फिर विक्षिप्तप्राय बुढिया मां से मिलवाते हुए क्रमश: एक संवाद आता है पत्नी का : ‘सो न जाइएगा, हां।''


      एक ओर मां की दुखद स्थिति है, दूसरी ओर, पत्नी का आवेगमय व्यवहार और तीसरी ओर, खुद में बंधा-सिमटा-सा कथानायक। वर्तमान में होते हुए भी अतीत में लौट-लौट जाता यह नायक आत्मालोचना से भी गुरेज नहीं करता। उसे याद आता है कि दादा द्वारा पिता की मृत्यु की सूचना भेजे जाने पर उसने कैसे छल किया था। सांकेतिक भाषा में कहानी बताती है कि पितापुत्र के बीच तनाव भी अकारण नहीं था। लेकिन मां इस सबके बीच पिसती आज इस हालत में आ पहुंची है कि 'बुढ़िया' हो गई है। बहुत चुपके से दूधनाथ सिंह उस डिटैचमेंट को खोल डालते हैं जो संबंधों की चूलें हिला रहा है। उसे पत्नी के साथ संवाद याद हो आते हैं।


     यह नायक एक मन:स्थिति-विशेष में जीता रहा है। उसे लगता है, सभी ने उसे छोड़ दिया है। कहानी बताती है कि आत्मीयता का तार अगर एक झटके में टूटने को हो आता है तो फिर उसे जुड़ने में भी बहुत वक्त नहीं लगता, बशर्ते स्थितियां साथ दे जाएं।


     अरसे बाद घर लौटा नायक एक-एक चीज याद करता है-आत्मीय परिवेश में खुद को मिसफिट-सा पाता हुआ। इसी सबके बीच पत्नी कभी झमककर निकल जाती है तो कभी सिर्फ अपने व्यवहार से उसका ध्यान खींचना चाहती है। मां से उसका एक अर्थहीन-सा संवाद होता है क्योंकि अपने होने को भूल चुकी है बूढ़ी मां।


     लेकिन कहानी यही नहीं है। इस सबके बीच, लंबे समय से प्रतीक्षारत स्त्री के शरीर की जागी हुई भूख कहानी में प्रवेश करती है तो दूधनाथ सिंह का कथाकार सजग हो उठता है। वह एक-एक मुद्रा को बारीकी से पकड्ता है : “जैसे कोई झाड़ी में छिपे खरगोश को पकड़ने के लिए धीमे-धीमे कदम बढ़ाता है, उसी तरह उन्होंने कान के पास मुंह ले जाकर एक-एक शब्द नापते हुए कहा : मैं...कहती...हूं-प्यार कर लू?''


      लेकिन बीच में बुढिया मां द्वारा पैदा किया अवरोध कहानी को एक अलग ही तनाव में डाल देता है। शरीर की भूख कितनी अंधी होती है, यह कहानी का अंत बताता है। जहां यौन पिपासु पत्नी द्वारा बूढ़ी मां को धकेल दिए जाने के बाद का दृश्य खुलता है। यहां नायक पत्नी के सामने खुद को कमजोर पाता है तो इसके तर्क भी हैं।


     भीतर और बाहर के रक्तपात को एक साथ देख लेने की यह अद्भुत सामर्थ्य तब दूधनाथ सिंह के जरिए पहलेपहल देखने को मिली थी। उन्होंने मनुष्य के गहरे आत्मद्वंद्व और परिस्थितियों की भयावहता को एक साथ समेटने की रचनात्मक कोशिश लगातार की है। विवेकशील मुनष्य |किस तरह एक निरीह प्राणी में तब्दील हो जाता है, यह वह बार-बार देखने की कोशिश करते नजर आते हैं स्थितियों, दृश्यों और घटनाओं का जो भयावह कोलाज दूधनाथ सिंह की कहानियों में मिलता है, वह बेहद संतुलित और अकृत्रिम है। छोटी-सी घटना के भीतर वह ऐसी ट्रेजेडी की तलाश कर दिखाते हैं कि वह हमारे भीतर खुबकर रह जाती है आधुनिक हिंदी कहानी को उन्होंने न सिर्फ एक सजग भाषा दी है, बल्कि एक तराशा हुआ शिल्प भी।


                                                                                                             संपर्क: सी-3/51, सादतपुर, दिल्ली-110090 मो. : 9013266057