१
दर्पण इस मामले में अनोखे होते हैं।
कि जब भी हम उसमें निहारते हैं।
हमेशा हमें अपना ही चेहरा दिखाई पड़ता है।
कभी भी नहीं देख पाते हम
दर्पण का चेहरा
और तो और सामान्य रूप से कभी भी नहीं देख पाते हम वह
कलई
जो खुद का अस्तित्व खत्म कर
हमेशा एक दृश्य रचती हैं
हालाँकि दर्पण को जानने का दावा करने वाले
उसके बारे में
तमाम बातें करते हैं
सबका अपना अपना सच होता है
जिसमें जिसमें उसका अपना अपना झूठ भी मिला होता है
कम लोग जानते हैं कि
दुनिया की कोई भी तस्वीर खुद अपने में
सामूहिकता लिए होती है
एक दस्तावेज की तरह ही
तस्वीर में तमाम शब्द होते हैं
जिनके अपने अपने अर्थ होते हैं
तस्वीर के साथ नत्थी उसका समय होता है
हर तस्वीर अपनी सादगी में
तमाम रंगों को घुलाए होती है
और हर रंगीनियत में भी
छुपी होती है एक सादगी
वे एक दर्पण थे
जिसमें हमेशा ही बदल जाते थे शब्द
कोई भी लिखावट उसके सामने रखी
वह हमेशा ही किसी अनजान सी लिपि की तरह
कुछ उलट पुलट सी जाती थी
२
कोई सीधी परिभाषा नहीं थी उनके पास
क्योंकि अपने परिवेश में ही
परिभाषाओं के चेहरे अलग अलग हुआ करते थे
ठीक उस दर्पण की ही तरह
जिसे देख कर लोग भ्रम में पड़ जाते
और कोई भी अन्तर नहीं कर पाते
जैसे जब कोई कहता
इलाहाबाद में अब कुछ भी नहीं बचा
वे तपाक से जवाब देते
इलाहाबाद में संगम है
जो हमेशा उसे इलाहाबाद बनाए रखेगा
कि इलाहाबाद में एक तीसरी नदी भी
अपनी लहरों के साथ आज भी बहती है
जिसे सामान्य आँखें नहीं देख सकते
कि इलाहाबाद को समझ सकता है वही
जो नदी को जीने और उसे पार करने का जज्बा
रखता हो
इलाहाबाद को वे जीते थे इतना
कि इलाहाबाद में ही मरना भी चाहते थे
कि इलाहाबादी मिट्टी में ही खाक होना चाहते थे
कि चाहते थे कि उनकी चिता से उठा धुंआ
समूचे शहर के जाम को अँगूठा दिखा कर
सभी के नथुनों से गुजर कर ही आए
तल्खी का अहसास करा जाए
३
एक कलाकार ही तो थे वे
कि जब किसी वाकये के बारे में बताने लगते
तो कहानी गढ़ने लगते
जैसे यह जीवन भी एक कहानी हो
इसे इस तरह भी समझा जा सकता है
कि हकीकत को कल्पना
और कल्पना को हकीकत से कुछ इस तरह मिलाते
कि अन्त में एक खूबसूरत सा ताना बाना तैयार हो जाता
यहाँ भी वे खुद को मिटा देते
कहानी में घुला देते।
एक दर्पण जैसे फिर तैयार हो जाता
हकीकत का मिथक दिखाने के लिए
इस मिथक में दो छोर होते
दोनों के बीच एक रस्सी तनी होती
और चल देते उस रस्सी पर फौरन
जैसे इस खेल को साध लिया था उन्होंने जीवन की तरह
इस खेल को वे इतनी तल्लीनता से खेलते
कि वही जीवन्त लगने लगता
उनकी हँसी खिलखिलाहटों भरी दिखती
कि जैसे दूर दूर तक दु:ख का नामो निशान नहीं था उनके पास
कि वे जहाँ भी दिखते
तमाम कवि गण
तमाम कहानीकार
तमाम पाठक
तमाम नाटककार
आस पास एक घेरा बनाए मिलते
यानी कि अकेले कहीं नहीं
जबकि भीड़ में भी वे बेहिसाब अकेले होते थे
यहीं उनका कलाकार दिखता था
वे अपने जख्मों के साथ कभी नज़र नहीं आए
वे कभी दीन हीन नहीं दिखे
जब भी दिखे हँसमुख दिखे
जब भी दिखे बेतकल्लुफ दिखे
एक सरलता जो दिखती थी चेहरे पर
उनके यहाँ जीवन जितनी ही जटिल हो जाती थी
इसीलिए वे हमेशा अलग दिखे
भीड़ में भी अलग
चार यारों में भी अलग
कहानी में भी अलग
जीवन में भी अलग
और अन्त वहाँ पर होता उस कहानी का
जिसे वे तल्लीन होकर सुनाते
जहाँ हम मंत्र मुग्ध हो कर
कुछ और सुनने की आस लगाए होते
कि जिंदगी एक चोट की तरह समाप्त हो जाती
जो अपने हरेपन में
हमेशा अपना अहसास कराता है
और जब पुराना पड़ता है
हल्का सा ही सही
एक निशान छोड़ जाता है।
४
उनका अपना सच था
जिसे वे जीते थे
अपनी शर्ती पर
कुछ इस तरह
कि औरों को उसमें गल्प दिखने लगता
कि अपने अपने सच के साथ उन्हें सब जीते
कि उनके बारे में
कॉमरेड सुधीर का भी एक सच था
कवि अनिल का भी एक सच था
हमारा भी एक सच था
इसी तरह समूचे इलाहाबाद का
उनके बारे में
एक अपना एक सच था
कि सबके पास अथाह यादें थीं
और इन यादों में फिर वही दर्पण था
जो सब कुछ वही नहीं दिखाता
जो हम महसूस करते हैं
जो हम दिखते हैं
इशारों पर चलाने वाला हमेशा असफल रहा
नियंत्रित नहीं कर पाया कोई लगाम
हमेशा ही रचते आए जैसे आखिरी कलाम
-सन्तोष कुमार चतुर्वेदी