आलोचना' - समय को दर्ज करते दूधनाथ - रमा शंकर सिंह

गोविन्द बल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान से डीफिल की उपाधि। पूर्व आधुनिक भारत में प्राकृतिक संसाधनों पर दलितों की हकदारी पर उनका काम शीघ्र प्रकाश्य है। पीपुल्स लिंग्विस्टिक सर्वे आफ इण्डिया के उत्तर प्रदेश की भाषाएं (२०१६), संपा. बद्री नारायण, ओरियंट ब्लैकस्वान, नई दिल्ली में निषादों, पंडों और घुमंतू समुदायों की भाषा पर योगदान। सम्प्रति : भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला में फेलो।


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             दूधनाथ सिंह के बारे में अभी बहुत कुछ लिखा जाएगा। साहित्य पर बात करने वाले जन उनकी रचनाओं का मूल्यांकन करेंगे। मैं ऐसा नहीं करने जा रहा हूँ क्योंकि साहित्य की दुनिया में मैं उस तरह से दाखिल नहीं हुआ हूँ जिस तरह से साहित्य के प्राध्यापक और आलोचक दाखिल होते हैं। में इतिहास पढ़ता रहा हूँ और साहित्य को देशकाल की अनुक्रिया के रूप में देखने की हिमायत करता हूँ। कभी-कभी इतिहास के विद्यार्थी को किसी कहानी, नाटक या कविता से मानव समाज के बारे इतना ज्यादा ज्ञान मिल जाता है, जितना वह किसी आर्काइव की खाक छानकर नहीं उपलब्ध कर पाता। जैसा बड़े रचनाकार होते हैं - अपने समय को दर्ज करते हुए, उससे बनते-बिगड़ते, टूटते-फूटते हुएदूधनाथ वैसे ही थे। उन्होंने कहानियाँ, कविताएँ, आलोचना और नाटक लिखे। इनमें उन्होंने उस समाज के स्वप्नों, हसरतों, नाउम्मीदियों और असफलताओं पर लिखा, जिस समाज में वे रह रहे थे या रहना चाहते थे। दूधनाथ सिंह के रचना समय पर कोई काबिल आदमी ही कायदे से लिख सकता है जैसे उन्होंने स्वयं भुवनेश्वर के बारे में लिखा था।


            भुवनेश्वर के लेखन और उनके बौद्धिक अवदान को समझने के लिए यह काम काफी महत्वपूर्ण है। यदि बीसवीं शताब्दी के इलाहाबाद पर कोई लेखन किया जाएगा तो ऐसा नहीं होगा कि भुवनेश्वर को छोड़कर हम आगे निकल लें। वास्तव में दुनिया का हर साहित्य उस समय विशेष का एक बौद्धिक इतिहास होता है। यह किसी देशकाल में लोगों के सोचने-विचारने के तौर-तरीके के बारे में बताता है। बगदाद या दमिश्क के बारे कोई लेखन वहां पर लिखे गए आठवीं-नवीं शताब्दी के साहित्य और उससे उपजे बौद्धिक वातावरण को छोड़कर नहीं लिखा जा सकता है और न ही बारहवीं शताब्दी के स्पेन के बारे में इब्न-उल-अरबी के लेखन को आप उपेक्षित कर सकते हैं। चीन, जापान, मिस्र, तुर्की और कोलंबिया के बारे में कोई विचार भला वहां के साहित्य को छोड़कर आगे बढ़ सकता है? यहाँ मैं यह बिलकुल नहीं कहना चाह रहा हूँ कि दूधनाथ सिंह विश्व स्तर के लेखक थे और वे अपने लेखन से गैब्रियल गार्सिया मार्केज या नजीब महफूज को टक्कर दे सकते थे लेकिन इन साहित्यकारों का तरह उनका जीवन बहुत साधारण था और कभी-कभी बहुत तुच्छ भी। उन्होंने सभी सामान्य


              


                                       मार्क्सवादी कम्यूनिष्ट पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के साथ दूधनाथ सिंह


 भारतीय लोगों की तरह सरकारी नौकरी की और अपने पैसे से बने मकान में मरने की इच्छा जाहिर की। उनके करीबी लोगों ने कई बार बताया भी है कि 'गुरु' झूठ भी सफाई से बोल जाते थे जिसे साहित्यकार पुलिस अधिकारी विभूति नारायण राय पकड़ भी लेते थे। इन सब दुनियावी तुच्छताओं के बीच उन्होंने साहित्य रचा वह कोई श्वेत-श्याम की नैतिक आभा से मुक्त एक ‘ग्रे एरिया' का साहित्य है। उन्होंने अपने समय के इलाहाबाद के बौद्धिक जीवन को रचने या रचे जाने में उसी तरह से भाग लिया है जैसे भैरव प्रसाद गुप्त, रवीन्द्र कालिया, ज्ञान रंजन और काशीनाथ सिंह ने अपने-अपने दायरों में भाग लिया। दूधनाथ सिंह की रचनाओं को पढ़ते समय यह बात ध्यान में रखनी चाहिए।


       यहाँ मैं अपने आपको उनके द्वारा तीन रचनाकारों पर लिखी गई उनकी किताबों पर सीमित रखेंगा। सूर्यकांत त्रिपाठी । “निराला', महादेवी वर्मा और मुक्तिबोध पर उन्होंने मन लगाकर लिखा। इन तीन रचनाकारों पर लिखते समय उन्होंने जितना उनके साहित्यिक अवदानों पर बात की, उतनी ही शिद्दत के साथ उन्होंने इन साहित्यकारों के बौद्धिक अवदानों को रेखांकित किया। उन्होंने निराला की उस आत्महंता आस्था को रेखांकित किया जो उन्हें इस समाज में विसर्जित कर उनका बार-बार निर्माण करती थी। निराला पर जब उनकी किताब निराला : आत्महंता आस्था प्रकाशित हुई तो लोगों ने जल्दबाजी में उन पर निराला के व्यक्तित्व को ‘सुसाइडल पर्सनालिटी' के रूप में सीमित कर दिया! उस समय उनकी उम्र काफी कम थी जबकि आलोचना काफी प्रौढ थी। निराला के संदर्भ में उनकी बातें असंगत लग रही थीं। इस लिहाज से उन पर आक्षेप होने स्वाभाविक थे। लेकिन उन्होंने इसकी परवाह नहीं की। उन्होंने हमेशा कहा कि रचना के प्रति यह अनन्त आस्था एक प्रकार के आत्महनन का पर्याय है, जिससे किसी मौलिक रचनाकार की किसी मौलिक रचनाकार की मुक्ति संभव नहीं है। जो रचनाकार जितना ही अपने को खाता जाता । है, बाहर उतना ही रचता जाता है। लेकिन दुनियावी तौर पर वह । धीरे-धीरे विनष्ट, समाप्त, तिरोहित तो होता ही चलता है। महान् और मौलिक सर्जना के लिए यह आत्मबलि शायद अनिवार्य है। इन्हीं अर्थों में उन्होंने निराला के संपूर्ण रचना समय को आत्महंता आस्था की संज्ञा दी।


       जब निराला के जीवन पर बात होती है तो प्रायः उनकी गरीबी को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत किया जाता है और ऐसा प्रदर्शित किया जाता है कि जैसे निराला अगर गरीब न होते तो ऐसा न लिखते। यह एक सीमा तक सच है। लेकिन यह आलोचना की एक सुविधाजनक कमजोरी भी है। निराला की सरोज स्मृति, राम की शक्ति पूजा जितना उनके जीवन से निकली रचनात्मक उपलब्धि केवल उनके दारिद्य से नहीं उपजी थी, यह निराला की वैचारिक तीक्ष्णता से निकली सांस्कृतिक और राजनीतिक अनुक्रिया भी थी।


       दूधनाथ सिंह यह सब कुछ जब लिख रहे थे तब इलाहाबाद में परिमल की वैचारिकी बन रही थी। एक इलाहाबाद बन रहा था जिसमें दुनिया भर के दु:ख दर्द, उल्लास, उछाह और मुक्ति की छटपटाहटें थीं। यह कोई अनायास नहीं था कि निराला के वैचारिक आधार को साझा करने वाली महादेवी वर्मा पर दूधनाथ सिंह ने तब लिखा जब वे सत्तर साल से अधिक आयु के थे। यदि निराला की कविता सरोज और सीता के बारे में है, कुलांगार ब्राह्मणों के पितसत्तावाद ब्रिटिश और भारतीय पुरुषवाद के खिलाफ है तो महादेवी ने उन जंजीरों की पहचान की जिनसे भारतीय स्त्री जकड़ी हुई है। उन्होंने उसकी गुलामी की जंजीरों को पहचाना और उससे निकलने के लिए साधारण और स्थानीय उपायों की चर्चा की। यह मार्च २०१५ की बात है जब प्रोफेसर सत्य प्रकाश मिश्र की यादगार में आयोजित एक व्याख्यान श्रृंखला में एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक और शिक्षा शास्त्री कृष्ण कुमार इलाहाबाद में बोलने आए थे। इससे पहले उनकी बह-प्रशंसित और बह-पठित किताब ‘चडी बाजार में लड़की' आ चुकी थी। वे समाज, शिक्षा और सार्वजनिक जगहों जैसे सड़क या विद्यालय के द्वारा लड़की बनाए जाने की प्रक्रिया' के बारे में बोल रहे थे। इस किताब को दूधनाथ सिंह की महादेवी पढने से पहले जरूर पढ़ना चाहिए। आप पाएंगे कि दोनों में एक संगति है जो स्त्री गुलामी को लेकर महादेवी नि को रेखांकित करते हैं। महादेवी वर्मा के बारे में दूधनाथ सिंह ने लिखा है कि महादेवी ऐसी पहली आधुनिक महिला थीं जिनके सिर पर आंचल है। शुरू-शुरू में यह एक पुरुषवाचक सपाटबयानी लग सकती है लेकिन यदि आप महादेवी वर्मा की श्रृंखला की कड़ियाँ पढ़े और उनकी इलाहाबाद में भौतिक और बौद्धिक उपस्थिति को महसूस करें तो पाएंगे कि दूधनाथ अपने और महादेवी वर्मा के समय बहुत ही मार्मिक तरीके से व्याख्यायित करते हैं। जिसमें महादेवी स्त्रियों की मुक्ति के लिए गुंजाइश तलाश रही हैं। इस आलोचनापरक जीवनी में दूधनाथ इन बातों को बड़ी शाइस्तगी से रखते हैं।


      मुक्तिबोध पर दूधनाथ सिंह ने जो लिखा है, वह भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान में फेलो के रूप में रहते हुए उनके अध्ययन का परिणाम है। मुक्तिबोध के शताब्दी वर्ष से कुछ पहले ही आई यह किताब दो दृष्टियों से मानीखेज है- पहला दूधनाथ सिंह के सुंदर गद्य के लिए और दूसरी मुक्तिबोध की कविताओं की नवीन व्याख्या के लिए। मुक्तिबोध के कविता वितान में हमेशा लड़ाई और पक्षधरता की बात करते समय उनके आलोचकों ने उनके अदर के अभावों और मानवीय इच्छाओं को देखने से दरकिनार कर दिया। दधनाथ सिंह इसे आगे छोडकर बढ़ नहीं जाते हैं। लेकिन इसका कदापि यह मतलब नहीं है। कि वे उनकी पक्षधरता को कहीं भी तरल और कमजोर दिखा रहे हों।