'डायरी - दूधनाथ सिंह की डायरी के अंश - रचने के पीछे की जमीन

                           ज्ञान प्रकाश का क्रूर और कठोर यथार्थ १५.११.२०१२


          दीपावली के आस-पास ही ज्ञानप्रकाश की मौत हो गई। दो-एक दिन पहले। शायद किसी अखबार में छोटी सी खबर थी। मैंने नहीं देखा। हरिश्चन्द्र पांडेय ने फोन पर खबर दी। एकाध बार मैंने उनका फोन नहीं उठाया, यह सोचकर कि वे दीपावली पर शुभकामनाएँ दे रहे होंगे। दुबारा उठाया, तो उन्होंने ज्ञानप्रकाश के न होने की खबर दी। कब-कहाँ, कैसे इत्यादि सवाल थे मेरी ओर से, जो बेमानी थे। शायद उन्हें दमा था-बुढ़ापे का दमा। मुझे अपने छोटे बेटे की याद आई... उसे अक्सर छाती में जकड़पन हो जाती है। उसका भुगता हुआ बचपन। डॉ. कपूर की होम्योपैथिक पुड़िया। हाँफता हुआ, बैठा, छोटा सा, हाड़-हाड़ वह, और मैं। और ढेर सारे मरीज। बाहर आसमान, हवा और गली और कभी-कभी जाड़े के सुफेद बादल। एक रियलिस्टक चित्र में निर्जीव और धूसर रंग वाले हम-बाप-बेटे। और बेबसी। कहाँ से कहाँ-स्मृति के वक्राकार तमंचे, जिनमें राख-रंग की गोलियाँ ही गोलियाँ हैं। मैं अपनी ओर साधे खड़ा हूँ- धाँय-धाँय। अब गिरा मैं-अब-बस अतल में।


         वहीं अल्लापुर वाले खंडहर में, कहीं गंदगी, खस्ताहाली, शोर-शराबे और नीचे की भीड़ से बेखबर, सिकुड़े हुए-हाड़-हाड़ हॉफते हुए ज्ञानप्रकाश गुजर गए होंगे, अपने कई-कई बेटों से घिरे सुनसान में। विपन्नता और निर्दु:ख के मिथ्या संसार में, जहाँ कहने और करने के लिए कुछ नहीं होगा। नीचे गंदी बजबजाती नालियाँ, प्लास्टिक के उड़ते हुए चिथडे, हवा और धूसर सिकुडे आसमान के पास, बाँध रोड के इस ओर के अल्लापुरी गड़हे में सूखे-ऐंठे ज्ञानप्रकाश अचानक 'न कुछ हो गए होंगे। एजी आफिस से रिटायर होने के बाद शायद ही वे घर से निकलकर किसी साहित्यिक गोष्ठी में गए होंयाद नहीं पड़ता। उनके पास, उनसे मिलने कोई जाता था- पता नहीं। संवाद स्थगित शब्द-एक तीर्यक, काटते हुए मौन और निरर्थक में खड़े और अपने चुप से ज्ञान प्रकाश सारे लिखने वालों की खिल्ली उड़ाते हुए। उन्हें उड़ान और कल्पना से नफरत थी। ठेठ और ठसू और निर्कवित्वमय यथार्थ के दुर्दमनीय कहानीकार-ज्ञानप्रकाश, जिनकी कहानियाँ हिन्दी जगत की कठोर और निर्मम  उदासीनता के अंधेरे के सिलसिले में गुम हो गईं। 'अँधेरे । का सिलसिला'- हाँ यह उनकी कहानियों का एक संग्रह था, जो अजय (उनके बड़े बेटे) ने मुझे कभी दिया था और भी एक-दो संग्रह। मैंने कहानियाँ पढ़ीं और मध्यवर्गीय यथार्थ के उनके कठोर और क्रूर अंकन पर मुझे आश्चर्य हुआ। इतनी कल्पनाहीनता कि प्रेमचंद भी होते तो 'वाह वाह' करते हुए मत्था पकड़कर बैठ जाते। ज्ञानप्रकाश के जीवन में भी वह अँधेरे का सिलसिला सतत् विद्यमान रहा। वे हँसते भी थे, तो लगता था, काट खाने के लिए आप की  लपकने ही वाले हैं। बनावट से  ऐसी जिन्दा नफरत मैंने किसी और की आँखों में नहीं देखी, जो ज्ञानप्रकाश में एक ऐंठती हुई पत्थर की चिनगारी की तरह हमेशा फूटती। रहती थी। ऐसी ‘निस्पंद निरर्थकता' का अहसास किसी दूसरे देखक के साथ खड़े होने पर नहीं होता था, जबकि रिटायर होने (उनके) के बाद शायद ही कभी ढंग से उनसे भेंट हुई हो। एक बार एजी आफिस के बाहर के ढाबे पर उन्होंने 'कहानी' को लेकर कितना झगड़ा किया। वे एक पागल कुत्ते की तरह बार-बार काटने को दौड़ते थे। उनको कितनी शिकायते थीं, कहानी के करियरिस्ट्स से, जिसमें वो मुझे भी शुमार करते थे। इतना झगड़ा हुआ कि हम दोनों लड़ते-लड़ते । थक गए और अपनी-अपनी पंछ दबाए या उठाए अलग-अलग दिशाओं में मुड़ गए। वे एजी आफिस के भीतर और मैं अपने । घर की तरफ। 


        लेकिन इन झगड़ों का मतलब दुश्मनी या नुकसान पहुँचाना नहीं था।


         ज्ञानप्रकाशन लगातार अपनी इस बात पर अड़े हुए थे कि हिन्दी कहानी में जो आप लोग जमे हुए हैं, यह एक प्रकार की साहित्यिक बर्बरता है और आप लोगों को नष्ट हो जाना चाहिए। ज्ञानप्रकाश ठेठ प्रेमचंदीय यथार्थ की निरंतरता में अडिग विश्वास रखते थे।


       मैं दिनभर चिड़चिड़ाता रहा। मुझे दीपावली अच्छी नहीं लग रही थी। पत्नी ने छत पर एक मोमबत्ती रख आने । को कहा, तो मैंने झिड़क दिया। मैंने एक बिजली की झालर बाहर टाँग दी। मुझे दुर-दुर लगी रही। मैं हताशा में इधर उधर फट्-फटू करता घूमता रहा। बहुत सारी मिठाइयाँ आईं और फ्रिज ठसाठस भर गया। ग्लानि ठसाठस-मेरे भीतर। और क्रोध और चिड़चिड़। चारों ओर अँधेरे में बम और पटाखे फट रहे थे और नदी पार शहर में फुलझड़ियों की उठती-गिरती झालरें। रंगारंग था जीवन चारों ओर और जब ज्ञानप्रकाश चले गए थे और मुझे लग रहा था, मैं किसे चीर फाड़ डालें और उस सरल, कटखौने उदासीनता में तैरते दुश्मननुमा दोस्त को कहाँ-कहाँ हूँ।


      तैरते दुश्मननुमा दोस्त को कहाँ-कहाँ हूँ। मेरा ४८ साल का बेटा था, जो दीपावली पर अपने बूढे माँ-बाप के पास आया था। में लगातार खुश होने का नाटक करता रहा।


       नाटक क्योंकि वह ज्ञानप्रकाश को नहीं जानता था।


                                               मैं इतना असभ्य हूँ?


१६.११.२०१२


        कल शाम मैंने अपनी नौकरानी को डाँट दिया। मैं नींद में था। नहीं, मैं नींद का बहाना बनाए हुए लेटा था।  कोई फोन होगा, तो पत्नी ने कहा, ‘बाबूजी को बोल दो।' सो, उसने पुकारा। उसके पहले चाय के लिए पुकारा था। उसके बाद फिर नि किसी वजह से। तीसरी बार जब आवाज लगाई, तो मुझे गुस्सा आ गया। नहीं, गुस्से का दिखावा था। में जगा हुआ कुछ सोच रहा था। सोने का बहाना भर था। डाँटना भी एक बहाना था। भीतर कहीं कुछ भी नहीं था। न नींद, न गुस्सा, न क्रोध, न डॉट-फटकार गुस्सा, न क्रोध, न डॉट-फटकार का वास्तव। लेकिन यह सारा नाटक नौकरानी तो नहीं समझती, न समझेगी। अतः मेरा वह नाट्य उसके लिए वास्तविक था। वह डर गई, वह दुखी हो गई। वह नौकरी छोड़ देती, हमलोग भूखों मरें। मैं उठकर आया, तब तक वह जा चुकी थी। पत्नी ने कहा कि उसने समझा दिया है। मैंने कहा कि कल आएगी, तो मैं माफी माँग लूंगा।' इस पर पत्नी अकड़ गई, ‘माफी क्यों माँगोगे?' यानी यह अकड़ गई नहीं। डाँट दिया, गलत किया, लेकिन माफी क्यों? एक नौकरानी से? यह पुराने सामंती जमाने की  बची-खुची बदबू है, जो गई नहीं अभी।


   


                                    धर्मपत्नी निर्मला ठाकुर के साथ


       मैंने असभ्यता से व्यवहार क्यों किया? मुझे पछतावा हुआ। क्या मैं ऐसा ही हूँ? क्या अगर मौका मिले तो मैं ऐसा ही व्यवहार करूँगा? क्या मेरे भीतर गंदगी का अंबार है, जिसे ऊपर से लीप-पोत कर मैं चमकाए हुए हूँ? छिः छिः लगती है भीतर। जबकि मैं जगा हुआ था। क्या क्रूरता मेरे स्वभाव में है, और वह नाट्य इसलिए था कि वह ‘नौकरानी' थी, और उसके साथ मैं इस तरह का असभ्य व्यवहार कर सकता था? संयम रखने की कोई जरूरत नहीं थी? असभ्यता के इस खेल पर मैं गड़ गया। मैं रात भर परेशान रहा, और सोचता रहा कि अगर माफी नहीं माँगनी है, तो मैं इस पाप को कैसे धोऊँ-पोचूँगा? मैं रात । भर लेटे-लेटे वाक्य-दर-वाक्य गढ़ता रहा। मैं उससे फिरझूठ बोलूंगा। मैं कहूँगा, ‘गुड्डी, दरअसलमैं नींद में था, और तुमने मुझे उस बीच तीन बार आवाज लगाई, और मुझे । गुस्सा आ गया। गुड़ी, मुझसे गलती हो गई। अगर 'क्षमा' या 'माफी' को स्थानापन्न करना हो, तो उसे 'गलती' शब्द । से रिप्लेस किया जा सकता है- मैं सोचता है। लेकिन मेरे भीतर कुछ करक रहा है, जैसे छाती के भीतर कोई कंकड़ी पड़ी हो। अपराध तो हुआ ही, और जानते-बूझते हुआ। अगर गुड्डी की जगह मेरी पत्नी होती या घर का कोई सदस्य होता, मान लो, मेरी बेटी ने आवाज दी होती, तो क्या मैं वैसा ही व्यवहार करता, जैसा मैंने किया? नहीं तब मैं एक चूहे की तरह उठकर चला जाता। यह गुड़ी थी, जिसके साथ ऐसी असभ्य, अमानवीय हरकत कर सकता था।  


                                इससे बड़ी असभ्यता और क्या हो सकती है?


                                                शो-बाजी से उचटा जी


२०.११.२०१२


       भोपाल जाने का पूरा वादा था। अंदाजे-बयाँ और यह शीर्षक था गालिब पर बोलने का। भोपाल के नाम पर दिल तड़पता है। हालाँकि वह १५ साल पहले का भोपाल अब कहाँ होगा। मेरी निगाह में वैसी ही जगहें थीं। वैसी ही खंडहर सी शांत प्रोफेसर कॉलनी। वह सड़क जिससे रोजाना मुख्यमंत्री का काफिला गुजरता था। न जाने कहाँ कहाँ तक फैली हुई वह झील और झील के उस पार टीले पर ईदगाह की बस्तियाँ। भारत-भवन के भीतर से जाकर पीछे निकलना और झील के किनारे चपचाप बेइना। उस द्वीप के बारे में हमेशा उत्सुकता बनी रहती कि काश, उस पर एक बार जाएँ और जाकर वहीं पर बस जाएँ। हमारा खानसामा, वह चित्रकार नैपाली बहादुर। और उस घर के पीछे आँगन से होकर निकलना और पीछे वाली सड़क पर आ जाना। या कोलार रोड के दोनों ओर का उस वक्त का सुनसान, जो कि निश्चय ही अब नहीं मिलेगा। हरि भटनागर का वह घर, जिसमें पीछे की ओर एक हौज था, जिससे सुबह-शाम हरि बाल्टी डालकर पानी खींचता था, जैसे कुएं से पानी खींचते हैं। एक बार रात में उसके घर रुका, रात भर नींद नहीं आई। डिप्रेशन में सुबह जब हरि सपरिवार सोया हुआ था, चुपके से निकला और पैदल- पैदल उस सुनसान सड़क पर चलता हुआ प्रोफेसर्स कॉलनी आ गया। जब चला तो चारों ओर कुहरा था, और सन्नाटा, और सड़क के इस ओर अक्सर सियारों के छोटे-छोटे झुंड भागते हुए।


        कुछ दिन पहले मैंने राजेश से न्यू मार्केट के बारे में पूछा और नेहरू जी की सोचती हुई   उस मूर्ति के बारे में पूछा और नेहरू जी की सोचती में, जो चढाई से ऊपर आओ, तो सिर झुकाए अक्सर दिखती थी। राजेश ने कहा कि न्यू मार्केट तो पूरा ढहा दिया गया। कोई कंपनी अब वहाँ ऊँची-ऊँची इमारतें बना रही है। क्या यह आज की तारीख में सच है, या ऐसा होने वाला है? हमारी दिनचर्या क्या थी। 'अप्सरा' हिन्दी ग्रन्थ एकेडमी, कला एकेडमी... उसके पहले वह म्यूजियम, जिसमें शिव की द्विलिंगी प्रतिमा थी और अक्सर मैं सोचता था कि शिवजी दूसरे लिंग से क्या करते होंगे? या फिर उन दोनों से ही, क्योंकि दोनों की जड़ एक ही थी- जैसे जमीन से निकलते ही किसी पौधे की दो फाकें हो जाएँ। वहां नवीन सागर, रामप्रकाश, अवस्थी जी। मेरा बैठना अक्सर नवीन सागर के पास होता। मुझे देखते ही वह सुर्ती मलने लगता बड़ी बड़ी आाँखों वाला वह मोटा-तगडा, कोमलकांत, हँसते हुए चेहरे और ललछौंहे रंग से अपने झौव्वा भर केशों को रंगे हुए। उसके दुख बहुत बड़े थे, जिन्हें वह रोते हुए गाता था। न्यू मार्केट में ही एक बार उसने मुझे बियर पिलाई। मैं भटकता हुआ उसके पास पहुँचता और फिर आगे ‘सर' जी (आग्नेय) के दफ्तर। वहाँ सनातन 'रथ' और तना हुआ भटनागर। चाय। और फिर बाहर। तो मेरी भोपाल की दुनिया उतनी ही छोटी थी, जो मेरे पाँवों में समा सकती थी। जब मैं पहुँचा, तो मेरे वाले बंगले में हबीब तनवीर के ‘नया थियेटर' के कलाकार रहते थे। तनवीर साहब ने कहा कि वे हट जाएंगे। मैंने कहा कि कोई जल्दी नहीं है।' और मैं हरि भटनागर के यहाँ उठ आया। जब बँगला खाली हुआ तो उसके आगे के लॉन में जगह-जगह राख के ढेर थे। और बहादुर था- चमकती आँखों वाला, जिसे भोपाल का सारा बौद्धिक समाज जानता था।


          “निराला सृजन पीठ' पर ज्वायन करने के लिए १३ दिसम्बर, १९९६ को श्रीराम तिवारी का फोन आया। मेरे मुँह से तुरंत निकला कि 'कोई बेइज्जती नहीं होनी चाहिए।' श्रीराम ने आश्वस्त किया और मैंने १५ को गाड़ी पकड़ी। १६ को ज्वायन किया। निराला सृजनपीठ भारत भवन के अंतर्गत है। वहाँ जाने पर जो कथाएँ मुझे मालूम हुई, उसने म मेरा मन खट्टा कर दिया। मुझे बताया गया कि मेरे मित्र अशोक वाजपेयी ने मदन सोनी से कहकर मेरा भरसक विरोध किया, श्रीराम तिवारी ग्रुप (? ) मुझे ज्वायन कराने पर तुला हुआ था। मेरे पहले विनोद जी थे। दो साल रहे. दो उपन्यास लिखे। उसके पहले जब सागर में ‘मुक्तिबोध सृजनपीठ' पर रहे तो अपना पहला उपन्यास ‘नौकर की कमीज' लिखा। मुझे लिखा। मुझे अभी भी विश्वास है कि विनोद जी को कोई ‘सृजनपीठ' दे दी जाए, तो वे फिर एक-दो-तीन उपन्यास लिख डालेंगे। एक साल रहेंगे तो एक, दो साल, दो, तीन साल, तीन। यह उनका माद्दा है। विनोद जी कलम उठाने के बाद कभी नहीं सोचते। यह न सोचना' ही उनका अनहोना शिल्प और अनहोनी कथाएँ हैं। विनोद जी साहित्य और कला की व्यर्थताओं को बखूबी समझते हैं और इसीलिए इस तरह चुप रहते हैं। मैं कभी-कभी सोचता हूँ कि विनोद जी अपनी पत्नी से खाना किस तरह और किस भाषा में माँगते होंगे? एक बार मैंने उनसे हिन्दी साहित्य के बारे में कोई चर्चा चलाई, तो विनोद जी, चुपचाप थोड़ी देर सुनते रहे, फिर अपनी गुरू गंभीर आवाज में कहा, “मुझे हिन्दी साहित्य में कोई दिलचस्पी नहीं है, मेरे लिखे के बारे में कुछ कहना हो तो कहिए।' मैं उस आदमी को एकटक देखता रहा, जो साहित्य के नाम पर सिर्फ अपनी रचनाओं तक सीमित रहना चाहता है या है। ‘निराला सृजनपीठ' पर मेरे रहते विनोद जी सिर्फ एक बार आए। ‘साहित्य परिषद्' की किसी काव्य-गोष्ठी में आए थे तो ‘बहादुर' से मिलने आ गए। बहादुर को देखकर विनोद जी बहुत पसन्न हुए। इस प्रसन्नता को उन्होंने यह कहकर जाहिर किया कि ‘बहादुर पराँठे बहुत अच्छा बनाता है।' विनोद जी ने मुझे यह भी बताया कि वे किस सड़क से कहाँ तक टहलने जाते हैं। छोटी झील से होते हुए, ग्रन्थ एकेडमी के बगल से बाएं वाली सड़क पर आगे चढाई तक। विनोद जी ने एक ठंडी और नि:संवेदनीय आवाज में कहा, “इतना बहुत है।' विनोद जी ने यह भी कहा कि वे खुली जेल की ओर कभी नहीं जाते। मुझे नहीं समझ में आया कि उन्होंने यह बात क्यों कर की। बहरहाल, उस बार उनके चले जाने के बाद बहादुर ने मुझे बताया कि ‘विनोद जी (साहब) हमेशा काली चाय पीते थे'


        ‘उन्हें पसंद होगी', मैंने कहा।


        बहादुर मुस्कराता हुआ मेरी ओर देखता रहा।


        'क्यों?' मैंने अपनी बात की हाँ चाही।


         ‘दूध में पैसे लगते हैं। बहादुर ने कहा।


          मैं दंग।


         विनोद जी कितने संयमी।


         विनोद जी कितने संयमी। हैं। कतरब्योंत कितना। उनके पास कौन सा शौक होगा- मैंने सोचा। कपड़े-लत्ते के प्रति कितने उदासीन। मैंने उन्हें जब देखा, एक काले-भूरे पैंट और एक सफेद-घिसी कागज में। जाड़ों में एक काली सदरी और ज्यादा जाड़ा। हुआ, तो एक काले रंग का कोट । पुराना और न जाने कब का। एक बार साहित्य एकेडमी दिल्ली के खुले लान में वीरेन डंगवाल के लिए आयोजन था। गालिबन फरवरी का महीना था। ठंड खूब थी और विनोद जी अपने सनातन ड्रेस में थे- काला पेंट, सफेद कमीज और खुला कोट। गला बिल्कुल खुला था। अपने इतने नि:व्यसनी लेखक को तब मैंने एक मफलर उसके गले में पहनाया। विनोद जी संभवतः खुश हुए।


       भोपाल के उन दिनों की बहुत सारी यादें हैं।


       नवीन सागर का चेहरा नजर से हटता ही नहीं।


       उनका रोना, जब हम ईदगाह पर पिम्मी के घर पर पीरहे थे और सत्येन कुमार लड़ पड़ा। उसने नवीन को बहुत सारा सुनाया। तब हम उसके गढ़े वाले ड्राइंग रूम से बाहर निकल आए थे और सड़क पर खड़े थे। नवीन अपने स्कूटर की मूठ पकड़े था और कुछ नहीं बोल रहा था। हमारे साथ चिकना-चुपड़ा मंजूर एहतेशाम भी खड़ा था और जब उसने देखा कि सत्येन को चढ़ गई है और वह बकने पर उतरने ही वाला है, तो मंजूर चुपके से खिसक लिया। स्कूटर की दूसरी मूठ सत्येन ने पकड़ ली और वह नवीन सागर को पता नहीं क्या-क्या सुनाने लगा। मुझे मालूम था कि हिन्दी ग्रन्थ एकेडमी के निर्माण और उस इमारत को खड़ी करने का श्रेय भी पिम्मी (प्रमिला वर्मा-पुत्री-मेरे आदरणीय गुरू स्व. श्री धीरेन्द्र वमो) को ही जाता था। शायद सत्येन से कहकर नवीन को वहाँ नौकरी मिली होगी। उस डाँटडपट, गलौज और उलहने में अपमान की सड़ी हुई दुर्गध थी। वहाँ बूंदा-बाँदी हो रही थी। मंजूर सडक सटक गया था और हम तीनों भग रहे थे। नवीन सारी गालियाँ खाता हुआ चुपचाप खड़ा था। बीच में एकाध बार उसने अपने बचाव की रिरियाती कोशिश की, तो सत्येन ने कस के डॉट दिया। वह इतने जोर से गर्जा कि पिम्मी, जो दरवाजे पर खड़ी थीं, भागकर अंदर चली गईं। पिम्मी सत्येन से तीस बरस बड़ी थीं और रिटायर हो गईं, तब उन्होंने सत्येन से शादी की। क्योंकि? यह समझना भय पैदा करता है। सत्येन का कोई प्रेस था और वह जब भी अकेले में मिलता, तो अपनी ठकुरेती पर छाती ठोंक-ठोंक कर गरब करता। जब भी वह छाती ठोंकता, नीचे उसका भारी-भरकम पेट हिलता नजर आता। उसके पास जीप थी, कार थी लेकिन हमेशा वह प्रेस एक दुपहिये पर जाता। वह छोटी झील की अक्सर निकलता, जहाँ से होकर मैं टहलने जाया करता। शाम होती और वह प्रेस से लौटता होता। उसके गुरूर और उसकी नफरत भरी आँखों से मुझे दो-चार मिनट को भी  बोरियत होती, लेकिन मैं कुछ नहीं कर सकता था। उसकी फटफटिया स्टार्टिंग पोजिशन में रहती और अपनी भड़ास निकाल कर वह चल देता। 


        उस रात, जब हम बूंदाबाँदी में खड़े थे और सत्येन अपनी भड़ास निकाल रहा था, मंजूर खिसक गया था और रात के बारह बज रहे थे, और मैं इंतजार कर रहा था कि कब पिंड छूटे, अचानक सत्येन मुड़ा और घर के अंदर चला गया। नवीन का स्कूटर मुफ्त था, बारिश तेज हो गई थी। लैम्पपोस्टों की रोशनी पर बारिश झालरें बन रही थी, जब नवीन ने स्कूटर स्टार्ट किया। हम ईदगाह की सबसे ज्यादा (शायद) ऊँचाई पर थे और हमें झील के उस पार, इस पुराने शहर से नए भोपाल में उतरते हुए, फिर बड़ी झील का पुल पार करते हुए जाना था। मैंने अपने दोनों पैर दोनों ओर कर लिए और नवीन के चौड़े कंधों को पकड़ लिया। नवीन अपमान से अहक-अहक कर रोता और बड़बड़ाता चल रहा था। रहा था। धुंआधार बारिश थी और धुंआधार । र रोना। वह एक सलीके का लेखक था जो एक मामूली-सी नौकरी में था और उसे एक विशालकाय गैंडे ने अपमानित किया था। रात के एक बज रहे होंगे। मैं उसको चुप करा रहा था कि वह रोना बंद कर दे और वह पुरपेंच गलियों गलियों से नीचे और नीचे उतरता चला जा रहा था। दोनों ओर के मकान सन्नाटे में थे। सड़क पर एक कुत्ता भी नहीं था। मैं डर रहा था कि कहीं स्कूटर फिसल न जाए और सुबह किसी गली के मोड़ पर हम दो लोग घायल बेहोश या कराहते हुए पड़े हों। तब लोग निकलेंगे और यही मशहूर होगा कि दोनों डट के पिए हुए थे। लेकिन नवीन पूरे आत्मविश्वासके साथ। नीचे उतर आया। झील की पुलिया पार करने के बाद उसका झींकना और रोना बंद हो गया। पीछे बैठे हुए जब मैंने उसकी आँखें पोंछने की कोशिश की, उसने मुझे टकर देखा। बारिश निकल गई थी और उस ठंडी रात में सुफेद बादल आसमान में चहलकदमी कर रहे थे। नवीन ने मुझे प्रोफेसर्स कॉलनी में उतारा और आगे बढ़ गया।


        हमने इस घटना की चर्चा कभी नहीं की। नवीन को पीना मना था। उसका दिल कमजोर था। उसे ऑपरेशन कराना जरूरी था और पास घर चलाने लायक पैसे भी नहीं होते थे। जब हमलोग एकेडमी में बैठे होते, तो अक्सर वह किसी ऐसी संस्था का जिक्र करता जो उसके जैसे गरीब लोगों के हार्ट का ऑपरेशन मुफ्त करती थी। नवीन कहता था कि वह उन लोगों के संपर्क में है।


        फिर मैं इस्तीफा देकर इलाहाबाद लौट आया।


        और न जाने कब और कैसे और दिन-रात के बीच किस घड़ी वह मर गया।


         यहाँ नवीन अदावल नामक एक सज्जन हैं- महादेवी जी की छोटी बहन श्यामाजी के पुत्र। मेरी ही तरह बूढ़े और रिटायर्ड हैं। दिल के मरीज हैं। हमारी यूनिवर्सिटी के संस्कृत विभाग के प्रो. डॉ. बाबूराम सक्सेना के लड़के हैं। बाबूराम सक्सेना महादेवी जी के बहनोई हुए। जिन दिनों में महादेवी जी पर अपनी किताब लिख रहा था, हँढते-ढूंढते नवीन अदावल के । पास पहुँचा। भले आदमी हैं। आजकल रोज काफी हाउस आते हैं। जब भी जाता हूँ, अपने कुछ दोस्तों के साथ बैठे दिख जाते हैं। एक दिन मैंने पूछा, ‘पिम्मी कहाँ हैं?'


          जो पता चला, वह यह था- ‘सत्येन के मरने के बाद पिम्मी उस घर में रहीं-अकेले। (यह बता दें कि धीरेंद्र और बाबूराम जी समधी थे) फिर उन्होंने वह घर बेच दिया। बड़े भैया (धीरेंद्र जी के बड़े लड़के) के पास दिल्ली रहीं। फिर मर गईं। अचानक सब मर गए। तब में काफी हाउस आने लगा हूँ। समय काटना है। वह घर भी बिक गया।' नवीन अदावल चुप। और फिर हँसने लगे।


          ‘बड़े भैया?' मैंने पूछा


           *अकेले रहते हैं।'


            ‘साथ में ?'


            ‘नौकर-चाकर।'


              ‘उम्र?'


             ‘यही कोई ८७-८८।'


              मैं चुप हो गया।


               भोपाल के संदर्भ में यह सब पूछने का क्या अर्थ था।


              कल भोपाल जाने के लिए घर से निकला। सुधीर साथ था। सारा दिन उधेड़-बुन में रहा। टिकट कंफर्म। मय सरो-सामान स्टेशन पहुँचा। पहुँचकर सुधीर से बोला, ‘लौट चलो, नहीं जाना है।' फिर लौट आए। डर लगा। जी उखड़ गया। पिछले चार-पाँच दिनों से पूरा गालिब उलटता-पुलटता रहा। कुछ बातें थीं, जो कहनी थीं। बातें उलटता-पुलटता रहा। कुछ तो बहुत सी है। फिर लगा-वही । अपने पिए हुए को उगलना। जमाने की कोशिश। शो-बाजी। क्या पहनना, कैसे अपने को प्रजेंट . * करना, लोगों को प्रभावित करना, खुश होना। बस। इतनी घनघोर निराशा हुई अपने से, अपने पढ़े- लिखे से, इस बुद्धि व्यवसाय से। कोफ्त हुई। तब स्टेशन से लौट आया। झूठ बोला कि जाम में फँस गया था। सुधीर से भी झूठ बुलवाया। फिर राकेश का फोन आ गया। उसको आंत्रशोथ है। एम्स में जाँच हुई । धारोधार रो रहा था। सांत्वना बेकार थी। दिल टूटा, मन टूटा। चुपचाप पड़ रहा। रात को नींद नहीं आई, उसका रोना याद आता रहा। अंधेरे में अँधेरा। जीवन जैसा है, उसको उसी तरह लो। क्या हो सकता है। सुधीर कहता है, यह सब मायामोह है।'


                                     आलम गुबार-ए-वहशत-ए-मजनूं है ।


                                                      सरबसर


२१.११.२०१२


             लगभग आधा दिन सुधीर रहा, फिर फैजाबाद गया। बस में था, तो बात हुई। फिर धर्मेन्द्र आया अपनी मोटरसाइकिल उठाने। सुधीर के जाने के बाद घर ठीक किया। दोनों ओर की चादरें और तकियों के खोल बदले। अनीता वाली चद्दर बहुत अच्छी है। बिल्कुल नई-नई बिछी। अपने बेड पर भी एक दूसरी नई चादर बिछाई । डस्टिंग की। लेकिन धूल कहाँ जाती है। वो क्या शेर है। मिर्जा साहब का .... मजनू की वहशत ने इतनी धूल उडाई है कि लैला को देखना मुश्किल। शायद ऐसा ही कुछ भाव-सार है। बिल्कुल इतना स्थूल नहीं जैसा मैं लिख रहा हूं। गालिब कोई बात ऐसे थोड़े ही लिखेंगे। क्या हैं और यहाँ दर्ज करूं। अच्छा हूँढता हूँ। मिल गया ....


                  आलम गुबार-ए-वहशत-ए-मजनू है सरबसर


                   कब तक खयाल-ए-तुर्द-ए-लैला करे कोई


                   अब बस, मन नहीं लग रहा।


                                       भीतर तक छेदती कामतानाथ की आँखें


२५.११.२०१२


          किताब मेले के संबंध में देवराज अरोडा आए। उन्होंने खबर दी- ‘कामतानाथ बीमार हैं, पेट का कैंसर पता चला है। पीजीआई में दिखाया, पता हैं। पीजीआई में चला। अब ‘राम मनोहर लोहिया' अस्पताल में इलाज चल रहा है। राम मनोहर लोहिया अस्पताल तो जानता  राम मनोहर लोहिया अस्पताल तो दिल्ली में है। मैं यही जानता था। अब पता चला, गोमतीनगर, लखनऊ में भी है। पेट में है तो कहाँ होगा- मैंने सोचना शुरू किया? आँतों में, खाने की नली में? कहाँ? छोड़ो, कहीं भी होगा। मुझे लगा अब कामतानाथ की बारी है। मौत ने दरवाजे पर दस्तक दे दी। हम सभी के। किसी के दरवाजे पर निश्चित, किसी के अनिश्चित। यह पीने का प्रताप है, मैंने सोचा। कामतानाथ बहुत पीते थे। फिर छोड़ दिया। फिर क्या कर रहे थे ?कमलेश्वर के शिष्य थे कहानी में। एक मोटा उपन्यास भी लिखा था, जिसे एक लाइन में नामवरजी ने खारिज कर दिया था। इतिहासकार उपन्यास नहीं होता - नामवर जी ने कहा था। जबकि कामतानाथ प्रगतिशील लेखक संघ में थे, संभवतः पार्टी मेम्बर (सीपीआई) भी  थे। ट्रेड यूनियनिस्ट थे। रिजर्व बैंक में थे। हलवासिया में बैंक है। हिन्दी संस्थान के सामने। लखनऊ जाता था, तो बैंक में उनसे मिलने अक्सर जाता था। कामतानाथ से मिलकर अच्छा लगता था। मोटे-तगडे, बड़ी-बड़ी आँखों वाले, चेहरा भारी-भरकम, दिल बहुत नर्म-नर्म। सीधे- सादे और कहानी को यथार्थ से बाहर कभी न ले जाने वाले-एक ऐसे कथाकार, जिनके गद्य में कोई उत्तेजना नहीं होती थी। एक सम पर रहने वाले, ऐसा थिर पानी जिसमें कोई लहर न हो, जहाँ हवा की कोई झिरझिरी न हो, जहाँ सब कुछ शांत और अचमत्कारिक हो। कामतानाथ सिर्फ वर्णन करते थे। फिर हम सबकी तरह वे भी बूढे हो गए। जैसे बूढ़े रहते हैं, वैसे वे भी रहते होंगे-यही सोचता था। लखनऊ जाने पर फिर भेंट नहीं होती थी लेकिन पृष्ठभूमि में (मेरी स्मृति । की पृष्ठभूमि में) कामतानाथ की सतत उपस्थिति थी। मुझे लगता था, मोटे ऊन का स्वेटर पहने, पेट निकाले, भारी-भरकम चेहरे में जड़ी अपनी गोल-गोल आँखों से मेरे पीछे खडे, हाथ में गिलास थामे वे लगातार घूर रहे हैं। एक बार उधर कहीं बहुत दूर, एक कंजड़ रेल लाइन के पार, जो लखनऊ के बराबर नई उच्च-मध्यवर्गीय बस्ती बन गई थी, उधर ही कहीं, जिधर मेरी बेटी की ससुराल थी- उधर ही कामतानाथ के घर भी एक बार गया था। किसके साथ गया था, याद नहीं। बैठा होऊंगा। चाय-वाय पी होगी। और कुछ बातें भी हुई हैं। गी। कामतानाथ के बारे में सब कुछ धूमिल है, धुआँ-धुआँ सा है। उनकी कोई रचना मुझे याद नहीं-कुछ भी नहीं। बस, बड़ा-सा डौल, शांत लेकिन आपको भीतर तक छेदती आँखें और एक उदासी-नामालूम सी। इससे ज्यादा मैं कुछ नहीं जानता।।


       हाँ, कामतानाथ के साथ पियक्कड़ी पर बैठने की एक याद है। राजेश तब जिंदा था। कहीं किसी धुआँ सी सड़क पर स्कूटर से शराब की बोतलें लेने हम लोग गए। किसके स्कूटर के पीछे में बैठा था? कौन-कौन थे? फिर श्रीलाल जी के घर पर जमावड़ा हुआ। पूरे कमरे में फर्श से तकरीबन पाँच-छह इंच ऊपर उठा हुआ एक वर्गाकार- विशाल तख़त था, जो चारों ओर दीवार और अपने बीच गलियारे छोड़ता हुआ फैला था। उसी पर गोलाई में बैठक जमी। एक ओर के गलियारे में दीवार से सटी हुई तीनचार कुर्सियाँ (या एक बड़ा वाला सोफा) थीं। उन्हीं में से एक पर कामतानाथ विराजमान थे। कामतानाथ हमेशा 'नीट' पीते थे, पानी या सोडा मिलाना कफ्र था। मैं गोलाई में तखत के किनारे पर बैठा था। जब दौर चला तो मुझे भी 'पेग' बनाकर दिया गया। थोड़ी देर तक गिलास वैसे ही पड़ा रहा। फिर किसी ने हाँक लगाई, ‘पियो यार ।' मैंने एक चुस्की ली, फिर सबकी आँख बचाकर पूरा गिलास तखत और फर्श के सँकरे-अँधेरे खालीपन में ढरका दिया। फिर, खाली गिलास लिए बैठा रहाखाली गिलास लिए बैठा रहायह दिखाते हुए कि मैंने अपना पेग खत्म कर लिया है। फिर दूसरा-तीसरा-चौथा। सब वैसे ही ढरकाता गया तखत के नीचे। मैं नहीं जानता था कि कामतानाथ मेरी यह हरकत भाँप रहे हैं। एक बार हमारी आँखें मिली, तो उनकी आँखों में हल्की चिढ़ थी। जाहिर था कि मेरी हरकत उन्हें बेजा लगी। शराब जियाँ हो रही थी और वे देख रहे थे। भाई, नहीं पीना है तो मत पियो, नीचे लुढ़का क्यों रहे हो? लेकिन उनके अलावा, शायद मेरी इस हरकत पर किसी की भी नजर नहीं थी। श्रीलालजी सुरूर में थे और बाकी सबको भी चढ़ गई थी। लेकिन रियल पियक्कड़ कामतानाथ की नजरों में यह नुकसान था, मेरी कायरता थी, बच निकलने का रास्ता था, अति थी। महफिल जब उठी तो कामतानाथ ने श्रीलाल जी की पत्नी को जोर की आवाज दी, 'भाभी जीईई।'


              वे बाहर निकलकर आईं।


            ‘‘कल सुबह यह तखत हटवाकर फर्श धुलवा लिजिएगा।' कामतानाथ ने कहा।


            सबने समझा, कामतानाथ को चढ़ गई है, लेकिन यह कहते हुए कामतानाथ मुझे घूर रहे थे। सच केवल मैं और कामतानाथ ही समझ रहे थे।


           बाहर निकलकर मैं किसके साथ, कहाँ गया-याद नहीं।


            सब कुछ धुआँ है। ठंड है। कामतानाथ अस्पताल में होंगे। लखनऊ के दोस्तों के पीछे एक सन्नाटा है। किसी ने यह खबर नहीं दी। आसन्न संकट की खबर कोई क्यों दें? सब दवाओं और लिहाफ या चादरों या स्वेटरों में होंगे और ‘गृह कारज' में हलकान परेशान होंगे। तो चलो।


             यह सब यादें नहीं हैं-मरन को जोड-जोड देखना है। एक तरफ जोड़ता हूं तो दूसर तरफ से कुछ चिथड़े उचड़ जाते हैं। किधर से सिऊँ कि सब कुछ चिकना और । बराबर दिखे।


             कोई कला नहीं है मौत, जो बार-बार झपट्टा मारती है।


             और उन लोगों को जिनको जीना ही चाहिए।


              सिर्फ इसलिए कि वक्त कम है।


              आमीन


                                             चाल मेरी मंद होती आ रही


२७.११.२०१२


            बहुत दिनों बाद नामवर जी से भेंट (१६.११.२०१२) हुई। शायद छह-आठ महीने बाद या शायद इससे भी ज्यादा। 'गालिब' वाले कार्यक्रम में भोपाल जाना था, नहीं गया। लालच यही था कि नामवर जी से भेंट होगी। वह अध्यक्ष थे, मुझे (शायद और लोगों को भी) बोलना था। मन का विषय था, उनके भी-मेरे भी। बहरहाल वो यहाँ आए। रामविलास जी वाले कार्यक्रम में। उद्घाटन किया और आशा के विपरीत बहुत अच्छा बोले। और देर तक बोले। और खड़े होकर बोले। ८५ बरस के हैं। लेकिन इस बार उन्हें देखकर दुःख हुआ। दुबले हो गए हैं- क्षीणकाय ... और धीरे-धीरे चलते हैं। पाँव थोड़ा-थोड़ा उठाते हैं और छोटे-छोटे कदम रखते हैं। लेकिन सहारा लेना या कोई हाथ पकड़े, इसकी मनाही है। सिर के उजले केश पहले से थोड़े कम हो गए हैं और धूमिल हैं। वहाँ तलघर में कार्यक्रम था, सीढियाँ चिकनी थीं लेकिन बिना किसी सहारे के उतरे-धीमे-धीमे लेकिन सतर्क। पाँव छूने को बढ़ा तो गले से लगा लिया। अगर यह औपचारिकता है, तो भी भली है। शांत चित्त। वही खादी की सदरी थी और बिना कालर का कुर्ता। लेकिन गर्दन दुबली और थोड़ी-थोड़ी झुर्रियों वाली। चेहरे पर सनातन हँसी और भोजपुरी टोन से भरपूर‘आवअअ-आवअअ।' फिर मंच पर गए, उद्घाटन किया और लगभग ५० मिनट। इसके पहले अभी-अभी जो दिल्ली यूनिवर्सिटी में रामविलास जी पर गोष्ठी हुई थी, उसका भी उद्घाटन किया था। 'आलोचना' में बतौर सम्पादक उनका एक अग्रलेख ‘इतिहास की शवसाधना' छपा था कभी। उसे लेकर (संभवतः) वहाँ दुष्ट अजय तिवारी और ‘विचारक' रविभूषण ने शायद कुछ कहा होगा। उनके कहे हुए पर नामवर जी क्षुब्ध थे, ऐसा तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन यहाँ के उद्घाटन भाषण के प्रारम्भ में ही उन्होंने कहा, 'रामविलास जी के बहुत से अंधभक्त भी हैं। लेकिन यहाँ के उद्घाटन का यह लॉचिंग ! पैड था। वहाँ के आरोपों का जवाब उन्होंने यहाँ दिया और बात बन गई । बल्कि इसीलिए इतनी देर और इतना अच्छा बोले भी। नामवर जी ने कहा, 'मेरा कहना है। (रामविलास जी के लिए) 'वेद' , से चलेंगे तो 'लोक' तक नहीं खत्म पहुँच पाएंगे।' उन्होंने विस्तार से बताया कि कैसे रामविलास जी वर्तमान से भटककर इतिहास में चले जाते हैं। ऐतिहासिक संदर्भो की ओर चले जाते हैं, जबकि वे इतिहासकार नहीं हैं। फिर भी नामवर जी ने उन्हें राहुल-वासुदेव शरण अग्रवाल-रामविलास शर्मा की पंक्ति बनाई । यह भी कहा कि इनमें वासुदेवशरण जी कम्यूनिस्ट नहीं थे। यह कहते हुए उन्होंने प्रकारांतर से संकेत दिया कि विद्वत्ता में मार्क्सवाद या गैर-मार्क्सवाद की कोटिया को खारिज हो जाने देना चाहिए। लेकिन मेरे विचार से यह बात बहसतलब है। खारिज वहाँ कर देना चाहिए, जहाँ एक गैर मार्क्सवादी साहित्य, विचार और संस्कृति को क्षति पहुँचाता हो और वासुदेव शरण जी क्षति पहुँचाने का काम नहीं करते। इसलिए रामविलास जी के पीछे की यह 'लाइन' ठीक-ठाक है। बहरहाल नामवर जी ने यह भी कहा कि रामविलास जी की मार्क्सवाद में अनन्य आस्था थी। और यह भी कि उनके पूरे लेखन में १. साधना, २. श्रम और  ३. वैज्ञानिक दृष्टि (मार्क्सवाद) है। और साथ में यह भी कि फिर भी उनको क्रिटिकली भी देखना चाहिए।' यह क्रिटिकली देखने का मतलब है कि रामविलास जी का अंधभक्त नहीं होना चाहिए और रामविलास जी हमेशा वेद से लोक की ओर पहुँचने का जो आग्रह या गलती करते हैं, उसी का परिणाम है कि वे लोक तक कभी नहीं पहुँच पाते। नामवरजी ने इस बात को इस तरह नहीं कहा, एक पंक्ति में कहा और संकेत भर किया। मार्क्सवादी होने के बावजूद वेद और इतिहास में रामविलास जी के बार-बार के भटकाव को लक्ष्य करते हुए ही 'आलोचना' में उन्होंने वह अग्रलेख (इतिहास क शव-साधना) लिखा था। इसमें विद्वान और रियल विचारक और वाद-विवाद-संवाद' के महारथी नामवर जी की अपने ज्येष्ठ ‘कलीग' के प्रति एक खीझ भी व्यक्त हुई थी। इस खीझ खीझ भी व्यक्त हुई थी। इस खीझ को ही अंधभक्तों ने यह समझ लिया कि नामवर जी रामविलास जी को एक प्रतिभासम्पन्न बड़ा आलेचक नहीं मानते और उनको नीचा दिखा रहे हैं, जबकि नामवर सिंह की इस खीझ की मारल साक्टटा का समझना चाहिए। अगर रामविलास जी को अनेक लोगों पर कठोर प्रहार करने का अधिकर है, तो नामवर सिंह के इस अधिकार का अपहरण क्यों करना चाहिए? एक बार बहुत पहले उनका (नामवर जी का) लिखना बंद कर देने पर और रामविलास जी के निरंतर लिखते रहने का मैंने जिक्र (सवाल नहीं किया, तो उन्होंने खीझकर कहा था कि 'भाई मैं रामविलास जी की तरह नहीं लिख सकता।' इसमें मुझे एक झिड्की भी थी। ‘रामविलास जी की तरह न लिखने' का क्या अर्थ है? नामवर जी ने इसका उत्तर कल यों दिया। रामविलास जी के बारे में बोलते हुए उन्होंने किसी एक वर्ष का नाम लिया। उन्होंने कहा कि ‘रामविलास जी का हाथ (फलाँ सन्) काँपता था। अतः उनके ३० वर्षों का सारा लेखन बोलकर लिखाया हुआ। है।' इसका क्या अर्थ लेंगे? यानी कि उनके लेखन में जमकर मेहनत, काट-कूट, फेरबदल (रियल श्रम) और तराश और सघनता नहीं है। जैसे कि कोई नदी अगर बहुत फैली हुई हो तो उथली हो जाएगी। उसका पाट जितना चौड़ा होगा, गहराई कम होती जाएगी। यानी रामविलास जी का पेटा (रिवरबेड) चौड़ा है लेकिन उथला और सूखा भी है। इसमें चमकती हुई रेत भी है। दूसरी परंपरा की खोज' के जो अध्याय इधर-उधर पत्रिकाओं में छपे, बाद में नामवर सिंह ने उसमें बहुत परिवर्तन-परिवर्धन किया है। इस संकेत के सहारे से ‘रामविलास जी द्वारा बोलकर लिखाने' और 'उनकी तरह न लिखने' के नामवर सिंह के संकल्प को समझना चाहिए। जब किताब आई और पत्रिका में छपे अध्यायों को मिलाकर मैंने देखा, तो पूरी किताब अलग दिखी। रामविलास जी में समेटने (बहुत कुछ) की आपाधापी लगती है, नामवर सिंह में छाँटने और संक्षिप्त रखने का प्रयत्न । ‘कविता के नए प्रतिमान' को छोड़कर उनका शेष सारा आलोचना कर्म संक्षिप्तता का आदर्श है। इस मामले में नामवर सिंह ही (उल्टे) ऋग्वैदिक ऋषियों या इस मामले में नामवर सिंह ही सूत्रकार भारतीय आलोचकोंदार्शनिकों का स्मरण दिलाते हैं। फिर भी कल उनका तर्जे, बयाँसधा हुआ था। संस्मरणात्मक ढंग से शुरू करके उन्होंने फारमूलेशन्स को अग्र-गति दी। फिर उन्होंने आक्षेपों का उत्तर दिया। अंधभक्तों की चुटकी लेते । हुए ही वे लोक-वेद के द्वैत की ओर अग्रसर हुए। उनके कहने में यह भी था यानी इस दुखद सत्य की ओर भी इशारा था कि अनंत की ओर भी इशारा था कि अनंत समय नहीं है आपके (यानी किसी के भी) पास। अतः चुन लो कि किधर से शुरू करोगे। अगर वेद की ओर से शुरू किया और लोक तक पहुँचने के पहले ही थक गए, चुक गए, खत्म हो गए तो? तो क्या होगा? अतः जो ज्यादा जरूरी हो, वहीं से उसी से शुरू करो, उसी पर पहले हाथ लगाओ, उसे पहले कर डालो। रामविलास जी ने वेद को चुनकर और लोक तक न पहुँचकर गलती की। यही इतिहास की शवसाधना है।


          भोजन करते वक्त नामवर जी ने एक और सूत्र फेंका, जिसे वह मंच से कहना चाहते थे, लेकिन ऐन मौके पर बिसर गए। वह चमकता हुआ वाक्य मैंने तब तुरंत नोट कर लिया-वहीं खाना-वाना छोड़कर, जूठे हाथ से मैंने कलम पकड़ी। वह वाक्य यों है- ‘रामविलास जी वकील बहुत अच्छे थे लेकिन जज संदिग्ध थे (हैं)।'


          हमारे ‘सेशन' में वे आगे ही बैठे रहे। जैसे थके हुए, निरुद्विग्न, समाधिस्थ। उन्हें लगा होगा कि उनकी तीसरी पीढ़ी कितने निर्द्वद्व भाव से कितना अच्छा बोल रही है। एक (प्रभाकर सिंह) को उन्होंने नियुक्त किया। एक को (वैभव सिंह) बाहर (हिंदू कॉलेज से) किया (करवाया)-पल्लव के लिए, जो उनका या उनके भाई का चाटुकार है, जिसने काशीनाथ सिंह पर किसी पत्रिका का कोई अंक निकाला। अपने वर्चस्व को अंत तक कायम रखो, चाहे जैसे हो- पिटे हुए, सताए हुए, धोखा खाए हुए, संघर्ष के भीतर से रास्ता तलाशकर यहाँ तक पहुँचने वाले नामवर सिंह के जीवन का यह मूल मंत्र है। फिर भी उन्हें इतना विरक्त, शांत और वृद्ध-जर्जर देखकर मुझे एक का यह मूल मंत्र है। फिर भी उन्हें और वृद्ध-जर्जर देखकर मुझे एक अजाने परिताप ने घेर लिया। इस से आदमी को समय ने और लम्बी । छूट क्यों नहीं दी? मैं उन्हें तना हुआ, एक अधेड़ युवा, एक मत्त योद्धा, एक षड्यंत्रकारी विजेता के रूप में ही देखना चाहता थाचाहे हम सब विदा ले लें, यह आदमी अनंत तक तना रहे-बस यही। बस यही। लेकिन वहाँ तो कुछ और ही था। मैं इस उधेड़- बुन और एक आध्यात्मिक अजाने संताप से कुछ यों घिर गया-वहाँ। मंच पर बैठे-बैठे कि मेरे दिमाग । से सब कुछ निकल गया कि मुझे अपने प्वाइंट्स कैसे और किस तरह सुलझाकर रखने हैं। जब मैं माइक पर गया तो जर्जर, नि:शांत, नैश छवि सामने बैठी हुई थी। मैं सब कुछ भूल गया। मैंने सँभलने की बहुत कोशिश की लेकिन मैं हवा और शून्य में कुछ बड़बड़ा रहा था। कई बार मेरी आवाज कुछ इस तरह टूटकर बिखरी, जैसे मैं दमे का मरीज हूँ। मैं रोना चाहता था लेकिन मुझसे अपेक्षा की जा रही थी कि मैं जमा-जमाकर बोलू। और मुझे बार-बार निराला की वह पंक्ति याद आ रही थी, मेरे भीतर पूँज रही थी -


          चाल मेरी मंद होती आ रही


          हट रहा मेला।


          अपने लिए नहीं, नामवर के लिए।  


            वे दीर्घायु हों और हमारे जाने के बाद भी रहें .....


            बने रहें।


                                                 खतरनाक है हमारा सन्नाटा


सुबह / १७.५.२०१३


            सुबह देर से उठता हूं। हमेशा की आदत है। कोशिश करके दो-चार दिन जल्दी उठा और टहलने गया। स्वास्थ्य बनाने के फेर में लोग सुबह को भी एक हड़बड़ी में बदल देते है। मैं फिर अपने पुराने ढर्रे पर आ गया हूं। आराम से उठो, अपनी चाय बनाओ, चुपचाप पियो, फिर सोचो कि आगे दिन भर क्या करना है, या कछ नहीं करना है। नौकरों को किसी बात के लिए नहीं कहता। डेढ़ महीने हो गए थे चादरें-गिलाफे और तौलिये बदले, जबकि दस दिनों पर आदेश है। एक ही बिस्तर का उपयोग है, वह भी मेरे हिस्से से गंदा नहीं हुआ था। घर पर तो महीने भर या उससे भी ज्यादा में चादरें नहीं बदलता। धूल-मिट्टी, गरीबी, बेचारगी, निहत्थेपन में पल-बढ़ कर आगे बढ़ गया। आराम की अवस्था में पहुंचा। अत. आसपास गंदगी भी है. मैला-कुचैलापन भी है तो बुरा नहीं लगता। साफ रहना चाहिए लेकिन उसको फैशन, मोटो, अधिकार और गुरूरपन नहीं बनने देना चाहिए। हमारे समाज में कहां इतना साफसुथरापन है। ९० प्रतिशत लोग मैले कुचैलेपन में जिन्दगी बसर करते हैं। चेहरे बेरौनक, धुंआ-धुंआ, उदासीन और लाचार हैं। उसमें ‘नागार्जुन सराय' का यह सफाई अभियान खटकटता है, बाकी जनता का अपमान लगता है। हमारे नहाने और पीने के लिए, पौधों की सिंचाई के लिए प्रतिमाह ५-६ लाख रुपये का पानी खरीदा जाता है। भारत सरकार ने हमारे आराम और यूनिवर्सिटी के विकास के लिए लगभग १ अरब रुपये प्रतिवर्ष स्वीकृत किया है। एक वर्गारित अदबी दुनिया बनाने के लिए जनता के टैक्स की इतनी लंबी चौड़ी बर्बादी - यह एक नए किस्म के निरर्थक बौद्धिक संसार का निर्माण है, जिस पर घिन छूटती है। फिर भी उन अपाहिज बौद्धिकों में एक मैं भी हूं जो यहां बातें, बड़ी-बड़ी बातें इतनी बेहयाई से कर रहा हूं। दूसरों को उनके अधिकारों से वंचित करके, उनको मिलने वाली छोटी-छोटी सुविधाओं से वंचित करके मैं और मेरे जैसे सारे लोग जरूरत से ज्यादा सुविधाएं अपने लिए बटोरते हैं और ‘आदरणीय-फादरणीय' कहलाते और समझे जाते हैं। फिर भी, इस पछतावे और आत्म-स्वीकृति के बाद भी अगर मुझसे पूछा जाए कि क्या तुम इन सुविधाओं के बगैर यहां रहना पसन्द करोगे, तो मैं अस्वीकार कर दूंगा। मैं इतना बड़ा तो हिप्पोक्रेट हूं। फिर भी अपने दूसरे मित्रों की अपेक्षा में कुछ अधिक उदार हूं। मुझे शर्म और संकोच का अहसास है, उन्हें तो वह भी नहीं। वे तो इस तरह छाती ठोककर, चादरें बदलने, सफाई करने नैपकिन बदलने की मांग करते हैं कि आश्चर्य होता है। मैं कम-से-कम उनसे तो कुछ ज्यादा ही ठीक-ठाक हूं। यहां आराम से बैठे-बैठे वे दूसरी आरामदायक जगहों के लिए कुलाबे भिड़ाते रहते हैं। चूंकि हमारे ही निष्क्रिय और खाऊ वर्ग के लोग हमारे ऊपर भी बैठे हैं, अतः इस नए भारतीय, भ्रष्ट मध्यवर्ग का एक भीतरी साम्राज्य है जो बुजुर्ग पूंजीवादी शासकवर्गों के साथ ही चलता है। हम वो दीमक हैं जो समाज को इस धरती के भीतर-भीतर हजारों किलोमीटर की यात्रा सन्नाटा-खींचे, चुपचाप करने में सिद्ध और समर्थ हैं, और जहां भी खानेचबाने का जुगाड़ दिखता है, वहां धरती फोड़कर निकल आती हैं। हमारा सन्नाटा, हमारी यात्राएं, हमारे बेहया मंसूबे खतरनाक हैं। किस पेड़ को, कहां प्रकट होकर हम खाचबा कर खत्म कर देंगे और पुनः गुम हो जाएंगे, इसका हिसाब-किताब करना कठिन है। मैं ‘नागार्जुन सराय' के दो कमरों के जिस ‘स्यूट' में रहता हूं, इसमें चौबीसों घंटे बिजली, ए.सी., पानी, नौकर, सफाई-सब कुछ रहता है। बाहर विदर्भ जल रहा होगा, लेकिन भीतर, बाहर के ४८ डिग्री तापमान को धता बताते हुए मैं चादर या कंबल ओढ़कर लेटता हूँ। कमरे के अंदर यह सविधा है कि उसका तापमान जितना नीचे आप गिराना चाहें, गिरा लें। और आराम से लेटे-सोएं, विचार करें, बिम्ब गहें, किसी कथा या कविता को आगे बढाएं, या न बढ़ाएं, लेकिन आपने जीवन भर जो जप-तप किया है, आपका यह अधिकार बनता है कि अब आप कष्ट न उठाएं। मैं बताऊं, इतना सुख आराम, इतनी निश्चितता, इतना नाकारापन, इतनी कामचोरी, इतनी विस्मृति का अवकाष तो मुझे बचपन में कभी नहीं मिला था। इसके लिए मुझे कृतज्ञ होना चाहिए। जहां जीवन के अंत में भारतीय बूढे एक डरावने सन्नाटे और कुरूचिपूर्ण विपत्ति में छोड़ दिए जाते हैं, वहां हमारे जीवन को सुख सुविधाओं से लाद दिया गया है। सुबह से ही कुछ इस तरह विचलित-अविचलित हूँ मैं, कि अपनी यह डायरी खोलकर बैठ गया और अपनी कुढ़न निकालने लगा। क्या में नैतिक बनने के अतिरिक्त कोशिश में लगा हूं।


           मैं उस लड़की से, जो धुआंधार सिन्धी बोल रही थी, कहना चाहता हूं कि मैं तुम्हारा प्रेमी हो सकता हूं लेकिन उसके लिए अब उम्र नहीं बची। अतः मैं तुम्हारा पितामह हूं। मेरी चिन्ता करना तुम्हारा कर्तव्य है। तीन चार महीनों बाद हम विलग हो जाएंगे। फिर में चला जाउंगा और मर जाऊंगा।


            फिर हम कभी नहीं मिलेंगे ये सब क्या है कि समय संभ्रांत बीतता चला जा रहा है।


                                                                 मुकद्दमा


१८.५.२०१३


            शाहजहांपुर वाले मुकद्दमे को लेकर तनाव में हूं। हाईकोर्ट (इलाहाबाद) में उसे रूकवाने के लिए कमल कृष्ण राय से कह आया था। कल ‘लिस्ट' में था। क्या हुआ, इसका पता लगाना मुश्किल हो रहा है। अभी सुधीर का फोन आ गया। कमल से बात हो गई। उनका फोन डिस्चार्ज हो गया था। (लेकिन सवाल यह है कि लैंड लाइन तो डिस्चार्ज नहीं हुआ था) बहरहाल सेक्शन ४८२ के अंतर्गत 'रिट दाखिल हुई है कि शाहजहांपुर की 'प्रोस्सीडिंग्स' को खारिज किया जाए। कृष्णानंद ने बताया  कि ४८२ के तहत हुआ है तो कोर्ट नं. ४१ में होगा। रमेश सिन्हा जज हैं।


 


                  अपने प्रिय शिष्य सुधीर सिंह (बाएं) के साथ दूधनाथ सिंह


कृष्णानंद उनकी बहुत तारीफ कर रहे थे। आज शाहजहांपुर में तारीख हैं और अभी तक कोई सम्मन (इलाहाबाद के पते पर) नहीं मिला। ‘मानहानि' और ‘कॉपीराइट' क्रिमिनल के अंदर आते हैं। तो यह सारी बातें बहुत झंझटिया हैं। सुधीर कह रहा था कि अच्छा होगा, जेल चले जाएंगे तो एक नया अनुभव होगा। सुधीर हंस रहा था। कुछ भी लिखना पढ़ना और मन की बातें खोलना मुश्किल है। कहां है लिखने और सोचने की आजादी? जो कहानी। लिख रहा हूं उसमें एक संवाद है: ‘दिल्ली में सब चोर हैं।' तुरंत ख्याल आया कि इस पर तो कोई भी एक मुकद्दमा । ठोंक देगा-मानहानि का। मैंने तुरंत सोचा, इस संवाद को यों कर देना चाहिए: ‘यहां तो सब चोर हैं। लेकिन संदर्भ से तो यहां' का अर्थ भी दिल्ली ही होगा। फिर लिखे की आजादी कहां है। मार्कण्डेय जी की एक प्रसिद्ध कविता का शीर्षक ही है: ‘चोर कब नहीं कहना चाहिए। आज जब फंसे हैं तो इसका अर्थ समझ में आ रहा है। तो फिर क्या दिल्ली को 'चोर' कहना कोई गाली हुई । पता नहींमार्कण्डेय जी की कविता में क्या था लेकिन दुख जो यह है कि 'चोर' को चोर कहने पर भी कोई आप पर केस कर देगा, और फिर आप भुगतिए। अतः जबान बंद रखो- यही लिखने और बोलने की आजादी है। जबकि सरेआम लोग कहते रहते हैं कि दिल्ली में सब चोर हैं।' यही सच का मुहावरा बना हुआ है। लेकिन इसे कहानी में लिखने की इजाजत नहीं है। बहरहाल, अभी तो निश्चितता नहीं है। सुधीर मुझे रिलैक्स करने की कोशिश कर रहा था। शाहजहांपुर में तारीख मिल जाएगी। वे ‘सम्मन' दबबा लेंगे। वे कोर्ट को झूठ ही कहेंगे कि लेने से इनकार किया। वे कोई भी जाल फरेब मंजूर हुआ तो शाहजहांपुर कर सकते हैं। अगर 'रिट' नहीं मंजूर हुआ तो शाहजहांपुर काट म हाजिर होना पड़ेगा। पङगा हो। यही सब बात है। इससे लिखना पढ़ना या शांत-चित्त होकर जीवन के बारे में सोचना कहां संभव है। सुधीर समझता है, लेकिन मुझे बहला रहा था। मैं बहलाने की चीज तो नहीं हूं, अपने आप हो रहा है। क्या वे सब मेरे बारे में सोचते हैं?


                                                            मुकद्दमा


२४.५.२०१३


इलाहाबाद  हाईकोर्ट ने आज शाहजहांपुर वाले केस को अनिश्चितकालीन समय के लिए ‘स्टे' कर दिया। सुधीर का एस.एम.एस. था। फिर अनिल सिद्धार्थ का फोन आया। उसे सुधीर ने ही बताया था। जब सुधीर का एस.एम.एस. आ रहा था, मैं निर्मल से बात कर रहा था। कल के.के. पांडे को फोन किया तो पता चला, मुहल्ले में धड़ाधड़ तीन चोरियां हुईं। जिस घर के फाटक पर बाहर ताला लटका रहता है, चोर तोड़ देते हैं। घर की चिन्ता तो लगी ही रहती है। बच्चों की भी। इधर खासकर पुपू की। चूहादौड़ में किस तरह फंस गया है मेरा बच्चा। इस समाज पर गुस्सा आता है जहां नियम कायदे से चलने वालों की कोई कद्र नहीं चलो, जैसा भी है। अभी तो मुकद्दमे से राहत मिलने की खबर से खुशी है।