दीनदयाल उपाध्याय विश्वविद्यालय, गोरखपुर के पूर्व प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष। कई कहानी संग्रह, एकांकी एवं आलोचना पर कई पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पुस्तकों का सम्पादन।
--------------------------------------
अदम गोंडवी के दो गजल-संग्रह प्रकाशित हैं-'धरती की सतह पर' और ‘समय से मुठभेड'। इन संग्रहों में अदम की गजलें और कुछ नज्में संकलित हैं। उल्लेखनीय है कि इन संग्रहों के प्रकाशन के पूर्व ही वे साहित्यिक दुनिया में एक लोकप्रिय शायर के रूप में छा गए थे। उनकी जबरदस्त लोकप्रियता का आधार थी उनकी जन-संबद्धता और जन-सरोकारों से जुड़ी हुई गजलगोई। दुष्यन्त कुमार के बाद वे अकेले ऐसे शायर के रूप में लोगों के सामने आए जिसने सच को बड़े खुले मन से स्वीकार किया और तेज स्वर में अपने समय की सामाजिक-राजनीतिक गतिविधियों की तीखी आलोचना की। लोग इस बात का बहुत रोना रोते हैं कि साहित्य के कद्रदान दुर्लभ होते जा रहे हैं, कोई कविता पढ़ना-सुनना नहीं चाहता है लेकिन अदम गोंडवी की लोकप्रियता इस शिकायत को पूरी तरह खारिज करती है। यदि रचना में दम है और वह जनता के सरोकारों से जुड़ी हुई है तो उसको सुनने और चाहने वालों की कमी नहीं हैं जिन लोगों ने अदम गोंडवी को मंचों से अपनी गजलें पढ़ते हुए देखा है, वे बताएंगे कि अदम गोंडवी किस तरह वाहवाही लूटते थे और किस तरह लोग उनके शेरों का कोरस बना लेते थे। जनान्दोलनों में अदम गोंडवी की गजलों के पोस्टर बनाए जाते थे और संस्कृतिकर्मी उनसे अपने आन्दोलनों में जोश भरते थे। वे वास्तव में धरती की सतह पर खड़े एक ऐसे शायर थे जिसने गजल जैसी कोमल विधा को संघर्ष की ठोस धरती प्रदान की और लिखा
भूख के एहसास को शेरो-सुखन तक ले चलो।
या अदब को मुफलिसों की अंजुमन तक ले चलो।।
जो गुजुल माशूक के जल्वों से वाकिफ़ हो चुकी।
अब उसे बेवा के माथे की शिकून तक ले चलो।।
वास्तव में अदम गोंडवी ने । उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहावास्तव में अदम गोंडवी ने गजल की जमीन और तेवर दोनों को बदल दिया। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा
जुल्फ़, अँगड़ाई, तबस्सुम, चाँद, आईना, गुलाब।
भुखमरी के मोर्चे पर ढल गया इनका शबाब ।।
उन्होंने गजल को ‘भुखमरी के मोर्चे पर लाकर खड़ा किया और लिखा
चार दिन फुटपाथ के साये में रहकर देखिए।
डूबना आसान है आँखों के सागर में जनाब।।
को यही नहीं ‘पेट के भूगोल में उलझे हुए आदमी' को अब ‘दिल की किताब पढने की फर्सत नहीं है
पेट के भूगोल में उलझा हुआ है आदमी।
इस अहद में किसको फुर्सत है पढ़े दिल की किताब ।।
यह बात सौ प्रतिशत सही है कि पेट (भूख) की समस्या से ग्रस्त व्यक्ति को दिल की उन बातों को समझने । की न फुर्सत होती है न चाह, जो बातें सुख-सुविधाओं की करवटों में सुनाई पड़ती हैं। ऐसी स्थिति को ही द्योतित करते हुए कहा गया था-'भूखे भजन न होहिं गोपाला। लै लेउ आपन कंठी माला,' कंठी माला जपना उनके लिए प्रिय कार्य हो सकता है जिनका पेट भरा है लेकिन जो भूख से तड़प रहा है, अभाव में छटपटा रहा है, उसे तो भोजन चाहिए। ऐसे लोगों के लिए तो अन्न ही ब्रह्म होता है। अदम गोंडवी ने इस यथार्थ को पहचाना था इसलिए उन्होंने शायरी को अपने समय के ज्वलंत प्रश्नों से जोड़ा और गज़ल को इश्क-हुस्न, आशिक-महबूबा के तंग दायरे से बाहर लाकर जिन्दगी के उस खुल मैदान में खड़ा कर दिया जहाँ तरह-तरह की समस्याएं थीं, जीने के लाले थे, अत्याचार-अनाचार, शोषण और अन्याय के दिल दहलाने वाले कारनामे थे। उन्होंने गजल की जमीन बदली और उसके मुलायम तेवर को सख्त एवं जुझारू बनाया। उन्होंने बहुत साफ शब्दों में वक्त के बदले हुए मेयार की बातें करने का आह्वान किया
नीलोफर, शबनम नहीं, अंगार की बातें करो।
वक्त के बदले हुए मेयार की बातें करो।।
१९३६ में प्रेमचन्द ने सौन्दर्य की कसौटी को बदलने की जरूरत बताई थी, अदम गोंडवी ने बीसवीं सदी के बीतते-बीतते उसी कसौटी को फिर से हमारे समय की बड़ी जरूरत के रूप में रेखांकित कर दिया। उन्होंने गुज़ल को ‘माशूक के जल्चों की जगह ‘बेवा के माथे की शिकन' की ओर उन्मुख कर दिया और जनता की बदहाली, गरीबी, भुखमरी से बावस्ता कर दिया। पहले गजलों में आँखों की कयामत थी, गोंडवी ने उसे पनीली आँखों से जोड़कर बगावत का स्वर ऊँचा कर दिया। उनकी बदली हुई काव्य चेतना और उसके नए तीखे अन्दाज को इस गजल में देखिए -
घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है।
बताओ कैसे लिख दें धूप फागुन की नशीली है।।
भटकती है हमारे गाँव में, गुँगी भिखारिन-सी।
ये सुब्है-फरवरी बीमार पत्नी से भी पीली है।
बगावत के कमल खिलते हैं दिल के सूखे दरिया में।
मैं जब भी देखता हूँ आँख बच्चों की पनीली है।।
सुलगते जिस्म की गर्मी का फिर एहसास हो कैसे।
मुहब्बत की कहानी अब जली माचिस की तीली है।
ये पंक्तियाँ जिन्दगी का वह रूप उपस्थित करती हैं। जो देश की बहुसंख्यक जनता के सामने एक बड़े प्रश्न चिह्न के रूप में हमेशा दहशतगर्द की तरह खड़ा रहता है। गोंडवी इसका सामना करते हैं और जो लोग इससे मुँह चुराकर जीने की कोशिश करते हैं, उनकी आलोचना करते । वे भुखमरी और लाचारी की जिन्दगी जीने वालों के सामने प्रेम कहानी न पढ़ सकते हैं, न जी सकते हैं क्योंकि वे भी उन्हीं के बीच के आदमी हैं, उन्हीं की तरह अभावों और मश्किलों से जझते और जीने की राह तलाशते हए। इसीलिए अदम गोंडवी उनके पक्ष में खड़े और संघर्ष हेतु उद्यत दिखाई पड़ते हैं जो मजलूम हैं, असहाय-असमर्थ और कड़ी मेहनत के बावजूद दो वक्त की रोटी से भी महरूम हैं। ‘जनता को हक है' नज्म में वे बहुत साफ शब्दों में कहते हैं कि 'जब किसान भुखमरी की धूप में जल रहे हों', 'लोगों को पीने का पानी न मिल रहा हो;, दूसरी तरफ चंद लोग हर तरह की मौज-मस्ती में हों, देश की अपनी जागीर समझते हों तो जनता को हक है हाथ में हथियार उठा ले।' अदम गोंडवी की यह जन पक्षधरता गुज़लों में इन्कलाब का स्वर बुलन्द करती हैं। वे लिखते हैं ;-
सौ में सत्तर आदमी फिलहाल जब नाशाद हैं।
दिल पे रख के हाथ कहिए देश क्या आजाद है।
कोठियों से मुल्क के मेयार को मत ऑकिए,
अस्ल हिन्दुस्तान तो फुटपाथ पर आबाद है।
अदम गोंडवी ‘अस्ल हिन्दुस्तान' अर्थात् सौ में सत्तर आदमी जो फुटपाथ पर जिन्दगी व्यतीत करते हैं, के साथ हैं और नई पीढ़ी के सोचने के लिए यह प्रस्ताव भी पेश करते हैं
करते हैंये नई पीढ़ी पै निर्भर है, वही जजमेंट दे।
फलसफा गाँधी के मौजूँ है कि नक्सलवाद।।
उन्होंने भले ही नई पीढ़ी के लिए यह निर्णय छोड़ दिया लेकिन खुद के लिए बगावत और क्रान्ति का रास्ता चुना। अपनी गजल के बारे में उनका कहना है- ‘बर्गे गुल की शक्ल में शमशीर है मेरी गजल ।'
वह फूल की पत्ती की शकल में तलवार है। हकीकत तो यह है कि वह अल्फाज़ के फूलों में इन्कलाब का शोला हैं उनके शब्द दहकते हुए अंगारे हैं, उनसे क्रान्ति और विद्रोह की चिनगारियाँ फूटती हैं, प्रतिरोध की लपट दहकती है।
स्पष्ट है कि अदम गोंडवी ने गुज़ल की अन्तर्वस्तु, भाषा और भंगिमा में क्रान्तिकारी परिवर्तन ला दिया और गजल को क्रान्ति, विद्रोह, बगावत के स्वर से भरकर उसे पौरूषमयी बना दिया और उसकी नाजुकी की विदाई कर दी। उसे जख्मे-दिल के मरहम की जगह हकपरस्त बनाकर रोष और जोश से भर दिया।
अदम गोंडवी एक साधारण जमींदार और किसान थे। नाम था रामनाथ सिंह, महन्त रघुनाथ दास ने उन्हें अदम गोंडवी साहित्यिक नाम दे दिया। अदम गोंडवी बहुत पढ़े-लिखे न थे। सामान्य शिक्षा प्राप्त की थी किन्तु जिन्दगी और समाज को बहुत करीब से जाना-समझा था। उन्होंने पढ़े-लिखे लोगों के संसर्ग से और सामाजिक-राजनीतिक गतिविधियों में सम्मिलित होकर जो व्यावहारिक ज्ञान अर्जित किया, वही उनकी रचनाशीलता का मुख्य आधार बना। वे राजनीतिक दलों से जुडे, वामपंथी पार्टियों विशेषतया कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े रहे, आन्दोलनों में भाग लेते रहे लेकिन समस्याओं और सचचाई को अपने ढंग से समझतेबूझते रहे। उनकी गजलों में देश-समाज का जो यथार्थ अंकित हे, वह उनका जाना-पहचाना और भोगा हुआ यथार्थ है, इसीलिए उसकी अभिव्यक्ति में न तो दुचित्तापन है, न अस्पष्टता। जो भी है स्पष्ट और बेलौस हैं; कोई काट-छाँट नहीं, कोई दुराव-छिपाव नहीं, किसी तरह का नमक-मिर्च भी नहीं। एक ठेठ किसान की धज वाले इस शायर की शायरी भी उसी की सज-धज जैसी हैं। श्याम अंकरम ने ‘कल के लिए' पत्रिका के अदम गोंडवी विशेषांक में अदम को याद करते हुए एक धटना का जिक्र किया हैं वे लिखते हैं- ‘अदम जी पहली बार फरवरी १९८१ में सार्वजनिक रूप से मंच पर आए। उनके गाँव के निकट परसपुर बाजार के उनके साहित्यिक युवा मित्र राजेन्द्र ‘यथार्थ' के प्रयास से गोंडा के लाल बहादुर शास्त्री महाविद्यालय में एक कार्यक्रम आयोजित किया गया- ‘अदम: एक परिचय'। महाविद्यालय के पी.जी. एसोसिएशन के अध्यक्ष राजेन्द्र 'यथार्थ' व महामंत्री कृष्णकांत धर के प्रयास से हिन्दी परिषद् के उद्घाटन के लिए अदम गोंडवी को बुलाया गया, तब उनकी कोई रचना कागज पर नहीं आई थी और उनके गंवई ताने-बाने को देखकर महाविद्यालय के तत्कालीन प्राचार्य ने उनके द्वारा उद्घाटन कराने से यह कहकर इनकार कर दिया कि ‘कम्युनिस्ट लोग पता नहीं कहाँ से एक रिक्शाचालक को उद्घाटन के लिए ले आए हैं। यह नहीं हो सकता। लेकिन छात्रों ने अदम से ही उद्घाटन कराया। अपने उद्घाटन वक्तव्य में उन्होंने अपना परिचय देते हुए कहा ;-
ये खुद की लाश कंधों पे उठाए हैं,
ऐ शहर के बाशिदों हम गाँव से आए हैं।
सुर्ख है मेरे खून की जिन लॉन के फूलों में
उस तल्ख हकीकत को क्यूँ आप छिपाए हैं।
अदम गोंडवी का यह आत्म परिचय तथाकथित शहरियों और सुख-सुविधाभोगियों के गाल पर एक तगड़ा तमाचा है। यह अदम की उस समझ का भी आख्यान है जो यह जानती है कि बड़ी-बड़ी अट्टालिकाएँ और खूबसूरत लॉन किनकी मेहनत से बने हैं और देश में उनकी क्या हालत है। अमीरी और गरीबी की खाई को वे अच्छी तरह पहचानते थे; किसी सैद्धान्तिक की तरह नहीं, जिन्दगी के वास्तविक किरदार की तरह। वे राजनीतिक शोशेबाजी और पूँजीवादी हिकमतों की पोल खोलने में कभी पीछे नहीं रहे बल्कि लोगों को बड़ी बेबाकी से हकीकत की पहचान कराते रहे-
तुम्हारी फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है।
मगर ये आँकड़े झूठे हैं, ये दावा किताबी है।
उधर जम्हूरियत की ढोल पीटे जा रहे हैं वो।
उधर पर्दे के पीछे बर्बरीयत है, नवाबी है।।
लगी है होड़-सी देखो अमीरी औ गरीबी में।
ये पूँजीवाद के ढाँचे की बुनियादी खराबी है।।
तुम्हारी मेज की चाँदी, तुम्हारा जाम सोने का।
जहाँ जुम्मन के घर में आज भी फूटी रकाबी है।।
वे इस सच से वाकिफत थे कि सेठों के चेलों के चलते अर्थात् पूँजीपतियों के वर्चस्व के रहते किसानों का भला कभी नहीं होगा-
जब तक रहेंगे सेठों के चेले जमात में।
तब तक खुशी नसीब न होगी किसान को।।
पूँजीवादी व्यवस्था शोषण-आधारित व्यवस्था है। इसमें किसान-मजदूर किंवा मेहनतकश जनता कभी न तो अपना हक पा सकती है, न सुख। यह व्यवस्था कुत्तों के वास्ते तो बँगले बनाएगी, लेकिन श्रमिक मकान के लिए तरसेंगे-
बँगले बनेंगे पालतू कुत्तों के वास्ते।
हम - आप तरसते ही रहेंगे मकान को।।
अदम गोंडवी ऐसे शायर हैं जिनके सपने जमीन से बाबस्ता हैं और जिनके हाथ में कलम और कुदाल दोनों है। वे स्वीकार करते हैं कि उनकी गजल जिन्दगी का अनुवाद है-
जामो-मीना कीन्दगी की तर्जुमानी है ग़ज़ल ।।
यह जिन्दगी की ही हकीकत है कि महबूबा के चेहरे का चित्र बनाते समय अक्सर रोटी का अक्स उभर आता। है-
तखय्युल में तेरे चेहरे का खाका खींचने बैठे
बड़ी हैरत है मुझको रोटी का अक्स उभर आए।
कितनी बड़ी और कितनी हार्दिक कामना है यह। जिसने गरीबी देखी है, जिसने उसे झेला है, वही इस तरह की कामना कर सकता है। मीर तकी मीर ने भी गरीबी देखी थी, तभी वे लिख सके थे-
शाम ही से बुझा-बुझा सा रहता है।
दिल हुआ है चिराग मुफलिस का।।
यह दीगर बात है कि मीर को बुझा हुआ दिल मुफलिस के चिराग जैसा लगता है, पर मुफलिसी का बोध तो घना है ही। जिन्होंने भी गरीबी देखी है, झेली है, वे समझ सकते हैं कि गरीब का चिराग किस तरह जलता है।
अदम की गजलों में मुफलिसी की व्यथा कई तरह से व्यक्त हुई हैं। कभी उसमें यथार्थ का तल्ख एहसास है, कभी बगावत का तीव्र स्वर। आजादी की लड़ाई के वक्त रामराज का सपना भी था, आजादी तो आई लेकिन रामराज केवल विधायक-निवास में आया-
काजू भुन हैं प्लेट में, व्हिस्की गिलास में।
उतरा है रामराज विधायक-निवास में।।
पक्के समाजवादी हैं तस्कर हों या डकैत।
कितना असर है खादी के उजले लिबास में।।
यह हमारे जनतंत्र की सच्ची तस्वीर है। जिन्होंने लड़ाइयाँ लड़ीं, आत्माहुतियाँ दीं, वे तो आजादी नहीं देख सके लेकिन अब जो देश की तस्वीर सँवारने में लगे हैं, रात-दिन खेतों-खलिहानों, कल-कारखानों, मिलों और खदानों में हाड़तोड़ मेहनत कर रहे हैं, वे फाकाकशी कर रहे हैं और राजनीति के धंधेबाज ‘स्कॉच की बोतलों के साथ शाम बिता रहे हैं-
है इधर फाकाकशी से रात का कटना मुहाल।
रस्क करती है उधर स्कॉच की बोतल में शाम।।
ऐसे में अदम तेज स्वर में कहते हैं
बम उगाएंगे 'अदम' देहकान गन्दुम के एवज।
आप पहुँचा दें हुकूमत तक हमारा ये पयाम।।।
अर्थात् सरकार को यह बता दिया जाए कि अब देहकान लोग (किसान) गंदुम (गेहूँ) की जगह बम पैदा करेंगे। यह वही चेतावनी है जो हमारे क्रांतिकारियों ने अंग्रेजी सत्ता के बहरेपन को बम धमाकों के माध्यम से दी थी। आखिर बेइंसाफी और कुव्यवस्था की हद होती है। और जब कोई स्थिति उसके पार जाती है तब इस तरह का जनरोष पैदा ही होता है। अदम यह भी याद दिलाते हैं कि बम और बगावत की जो बात वे कर रहे हैं, वह केवल एक उफान या आवेश नहीं है। वह बहुत सुचिन्तित निर्णय है। ये यह सब पूरे होशो-हवास में कह रहे हैं-
जनता के पास एक ही चारा है, बगावत।
ये बात कह रहा हूँ मैं होशो-हवास में ।।
गलतियों हिन्दू-मुस्लिम यह भी नहीं हैं। वह लड़ाई है और इतिहास-बोध जो इतिहास यह प्रश्न गौर अदम ने गरीबों, शोषितों, पीडितों और वंचितों के दु:ख-दर्द को बहुत करीब से देखा-समझा था और उनकी बदहाली के जिम्मेदारों को भी ठीक-ठाक पहचाना था। उनका मानना था कि सेठों, साहूकारों, पूँजीपतियों और नेताओं ने ही देश की दुर्दशा की है। अपने तो सब मजे में हैं, आलीशान महलों में रह रहे हैं, मौज-मस्ती कर रहे हैं और मेहनतकश जनता में त्राहि-त्राहि मची है। इसीलिए अदम ने जनता को बगावत का अधिकार दिया और बताया कि हक के लिए लड़ना हर तरह से जायज है। इसी के साथ अदम ने मण्डल-कमण्डल की हकीकतों को भी उजागर किया और लिखा -
हिन्दू या मुस्लिम के एहसासात को मत छेड़िए।
अपनी कुर्सी के लिए ज़ज्बात को मत छेड़िए।।
छेड़िए एक जंग मिल-जुलकर गरीबी के खिलाफ।
दोस्त मेरे! मज़हबी नग्मात को मत छेड़िए।।
अदम को यह समझ है कि बाबर की गलतियों के लिए जुम्मन का घर न जलाया जाए लेकिन हिन्दू-मुस्लिम की लड़ाई लड़ने वाले इसे नहीं समझते। वे यह भी नहीं समझते कि जिस इतिहास को लेकर वे लड़ रहे हैं। वह तो राजाओं-नवाबों और बादशाहों की आपसी लड़ाई है और उससे कुछ होने वाला है। तात्पर्य यह कि जो इतिहास-बोध अदम के पास है, वह उन लोगों के पास नहीं है जो इतिहास के नाम पर लड़ते और लड़ाते हैं। अदम का यह प्रश्न गौर करने लायक है -
गर चन्द तवारीखी तहरीर बदल दोगे।
क्या इससे कौम की तुम तकदीर बदल दोगे।।
जो अक्स उभरता है रसखान की नज्मों में।
क्या कृष्ण की वो मौहक तस्वीर बदल दोगे।।
इसी तरह जाति-पाँति के भेदभाव की भी वे कटु आलोचना करते हैं और उच्च जातीय होते भी अन्त्यज कोरी-पासी के पक्ष में खड़े होते हैं। कितनी मार्मिक है यह गजल -
अन्त्यज-कौरी-पासी हैं हम।
क्यूँ कर भारतवासी हैं हम।।
अपने को क्यूँ वेद में खोजें।
क्या दर्पन विश्वासी हैं हम।।
छाया भी छूना गर्हित है।
ऐसे सत्यानाशी हैं। हम।।
धर्म के ठेकेदार बताएं।
किस ग्रह के अधिवासी हैं हम।।
कितना हृदय-भेदी और तल्ख सवाल है? क्या धर्म के ठेकेदार इस पर सोचते हैं? सोचते हैं, सब सोचते हैं। लेकिन व्यावहारिक नहीं हो पाते हैं। राजनीति ने सबकी मति हर ली है और राजनीति पूँजीपतियों के कब्जे में है, इसलिए अदम फिर कहते हैं -
बाबर की गलतियों के लिए जुम्मन का घर न
जलाया जाए लेकिन हिन्दू-मुस्लिम की लड़ाई
लड़ने वाले इसे नहीं समझते। वे यह भी नहीं
समझते कि जिस इतिहास को लेकर वे लड़ रहे
हैं। वह तो राजाओं-नवाबों और बादशाहों की
आपसी लड़ाई है और उससे कुछ होने वाला है।
--------------------------
जब सियासत हो गई है, पूँजीपतियों की रखैल।
आम जनता को बगावत का खुला अधिकार है।।
दरअसल अदम गोंडवी उन सब मसलों और समस्याओं पर अपनी बेबाक राय जाहिर करते हैं जो जनता को बुरी तरह परेशान करती है। सत्ता, व्यवस्था, धर्म, राजनीति, शिक्षा आदि सभी से जुड़ी समस्याएं और संकीर्णताएद्द उनकी आलोचना के केन्द्र में हैं। अदम गोंडवी गजलों में अपने समय और समाज की, धर्म और राजनीति की, अमीर और गरीब की जिन्दगी की आलोचनात्मक निगाह से देखते हैं और जरूरत भर कभी सीधे-सीधे, कभी तीक्ष्ण व्यंग्य बाणों से प्रहार करते हैं। उनकी भाषा कमान की तरह तनी हुई और शैली बाण की तरह चुभती हुई होती है। वे नेताओं, प्रशासकों, पूँजीपतियों और दलालों की कटु आलोचना करते हैं और मानते हैं कि इन्हीं के चलते देश की आम जनता बदहाल और परेशान है। हकीकत यह हैजितने हरामखोर थे कुर्बो जवार में -
जितने हरामखोर थे कुर्बो जवार में।
परधान बन के आ गए अगली कतार में ।।
दीवार फाँदने में यूँ जिनका रिकार्ड था।
वे चौधरी बने हैं उमर के उतार में।।
इन्हीं पंक्तियों में देश का सारा यथार्थ निचुड़ कर समा गया हैं। जो जहाँ है, लूट रहा हैं कोई व्यवस्था के नाम पर, कोई सेवा के नाम पर, कोई धर्म के नाम पर, कोई देश, संस्कृति और मजहब के नाम पर। कहना पड़ता है-
हर शाख पे उल्लू बैठे हैं, अंजामे गुलिस्तां क्या होगा?
अदम की शायरी हमारे समय की सच्ची आलोचना है, साथ ही उसमें एक समझदार सलाह भी मौजूद है, बशर्ते हम उसे कबूल आचरण में ले आएँ।
उत्तर डी-55, सूरजकुण्ड कालोनी, गोरखपुर-273015 -उत्तर प्रदेश