' आज-कल -आज कैसा है, गांधी का चम्पारण -अरविंद कुमार सिंह

                                                                         


                                      हिन्दी के प्रतिष्ठित लेखक और पत्रकार। जनसत्ता से अपना कैरियर आरम्भ कर अमर उजाला और हरिभूमि जैसे कई प्रतिष्ठित अखबारों से जुड़े रहे। सम्प्रति : राज्य सभा टीवी में वे संसदीय और कृषि संबंधी विषयों के प्रभारी। हिन्दी अकादमी, इफको हिन्दी सेवी सम्मान और भारत सरकार के शिक्षा पुरस्कार समेत कई पुरस्कारों से सम्मानित एवं कई पुस्तकों के लेखक।


                                                           -----------------------------------------------------------------


                चंपारण का इलाका हमारे जिले बस्ती से खास दूर नहीं है। इसका भूगोल भी करीब हमारे सा ही है। बस राज्य का फर्क है। चुनाव के दौरान यहां कुछ बड़े राजनेताओं के साथ गया भी, लेकिन मोतिहारी या बेतिया से ही लौट आया। चंपारण का देहाती इलाका करीब से कभी देखने का मौका नहीं मिला। लेकिन इस बार चंपारण सत्याग्रह की शताब्दी के मौके पर चंपारण को करीब से देखने और समझने की कोशिश के तहत उन सभी गांवों में पहुंचा, जहां कभी गांधीजी के पदचिह्न पड़े थे।


                चंपारण सत्याग्रह भारत में किसान जागरण का अनूठा अध्याय रहा है। इसी ने मोहन दास करमचंद गांधी को महात्मा गांधी बनाया। भारत में सत्याग्रह का यह पहला सफल प्रयोग था। चंपारण सत्याग्रह को दुनिया भर में ख्याति मिली। गांधीजी ने भी इस बात को स्वीकार किया कि चंपारण ने ही उनकी असली



           राजकुमार शुक्ल के परिवार के साथ लेखक



                                                                                     चम्पारण स्मारक


भारत से परिचित कराया। उन्होंने इस इलाके की ग्रामोद्धार की प्रयोगशाला बनाने की भी कोशिश की। चंपारण के सफल प्रयोग ने देश के तमाम इलाकों में किसान आंदोलनों को जन्म दिया। चंपारण के इतिहास से हमारे बुद्धिजीवी अच्छी तरह परिचित हैं। चंपारण पर तमाम स्रोतों से बहुत सा साहित्य भी उपलब्ध है। लेकिन हमने गांधीजी कीइस प्रयोगशाला के उन गांवों की पड़ताल का मन बनाया, जहां गांधीजी ने काम किया था। इसी के तहत पटना पहुंच कर गांधी संग्रहालय में काफी उपयोगी जानकारियां उसके सचिव रजी साहब से मिलीं।


                 पटना के गांधी संग्रहालय ने चंपारण सत्याग्रह पर । काफी सामग्री तैयार की है और उसके संग्रह में भी काफी कुछ देखने को है। संग्रहालय में हाल में गांधीजी की एक प्रतिमा का अनावरण भी हुआ है, जिसमें वे बिहार पहुंचने पर गुजराती पोशाक में नजर आ रहे हैं। पटना से हम एकदम सुबह चंपारण के लिए रवाना हुए। हमारा पहला पड़ाव था चंपारण सत्याग्रह के महानायक राजकुमार शुक्ल का गांव सतवरिया। पश्चिमी चंपारण जिले का गांव सतवरिया इन दिनों खास चर्चा में भी है। चंपारण शताब्दी पर देश के तमाम हिस्सों से लोग यहां पहुंच रहे हैं। राजकुमार शुक्ल ही निलहों से मुक्ति के लिए गांधी जी को चंपारण लाए थे। चंपारण की व्यथा को राष्ट्रीय नेताओं तक पहुंचाने और गांधीजी को लाने के लिए उनको काफी पापड़ बेलने पड़े थे। लेकिन यह देख कर मन खिन्न हो गया कि चंपारण शताब्दी पर भी इस गांव की किस्मत नहीं बदल पाई है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने चंपारण इलाके को लेकर काफी कुछ दावा किया है लेकिन करीब चार हजार की आबादी वाला शुक्लजी का यह गांव बुनियादी सुविधाओं से भी मोहताज है। गांव में घुसते ही टूटी फूटी बजबजाती सड़क, यहां की बदहाली का एक नजारा दिखा देती है। सतवरिया गांव में काफी गरीबी और अशिक्षा है और ७५ फीसदी से अधिक आबादी गरीबी रेखा के नीचे गुजर बसर कर रही है। यहां जिलाधिकारी से लेकर कई अफसरों का दौरा हो चुका है। जो भी बड़े अफसर, राजनेता या पत्रकार आते हैं, वे स्वर्गीय राजकुमार शुक्ल के नाती मणिभूषण राय से जरूर मिलते हैं और विकास के लिए तमाम आश्वासन भीदेते हैं। लेकिन अब तक योजनाएं कागजों से बाहर नहीं निकल पाई हैं।



                                हजारीमल धर्मशाला बेतिया                                            पिपरा नील कोठी के ध्वंस


                सतवरिया में अधिकतर लोग खेती बाड़ी पर जिंदा हैं। गन्ना यहां के किसानों की लाइफलाइन है लेकिन किसानों को यहां देश में सबसे कम दाम मिलता है। यहां के किसान सारी फसलें न्यूनतम समर्थन मूल्य से नीचे बेचने को विवश हैं और यह इलाका कृषि संकट की ओर बढ़ रहा है। खेती बाड़ी पर ही निर्भर स्व.राजकुमार शुक्ल के नाती मणिभूषण राय बताते हैं कि यहां का किसान भयानक कर्ज की चपेट में है। राज्य सरकार इस तरफ न ध्यान दे रही है, न ही खेती को खास प्रोत्साहन है। सड़क से लेकर पानी और बिजली की ठीक व्यवस्था नहीं है। जिलाधिकारी से लेकर मुख्यमंत्री तक को गुहार लगाई गई है, फिर भी हालत में कोई सुधार नहीं आया है।


                बिहार में दलित और महादलित की राजनीति कुछ अधिक चली है। और सामाजिक न्याय का नारा भी काफी बुलंद हुआ है। लेकिन ग्रामीण दलित परिवारों की दयनीय दशा किसी से छिपती नहीं है। १० गुणे १० के कमरों में दस सदस्यों तक के परिवार रहते हैं। यहां लगे बिजली के तार इतने जर्जर हैं कि वे गिर रहे हैं और जानवर मर रहे हैं। यहां की दलित बस्ती में न तो सामुदायिक शौचालय है, न रहने लायक हालात । हैंडपंप में खराब पानी आता है। लिहाजा औरतों को लंबी दूरी से पीने के लिए साफ पानी लाना पड़ता है। कांति देवी कहती हैं कि बारिश के दिनों में । उनके घरों में पानी भर जाता है। दलितों के पास खेती बाड़ी नहीं है और वे कृषि मजदूर है। अगर खेती ही डगमगा रही है तो उन कृषि मजदूरों की दशा कैसे ठीक रह सकती है। जिनकी नियति रोज कमाना खाना बनी हुई है।


                सतवरिया गांव में शिक्षा की दशा भी खराब है। यहां लड़कियों के लिए एक से सातवीं तक एक स्कूल है, जो १९७२ में दान की जमीन पर बना था। लेकिन आज यह गिरासू हालत में है और बालिकाएं जिंदगी और मौत से जूझ कर पढ़ाई करती हैं। गुहार लगाने के बाद भी प्रशासन ने इसकी मरम्मत नहीं कराई। राजकुमार शुक्ल के परिवार की ओर से उनकी याद में एक डिग्री कालेज खोला गया था जो स्थानीय राजनीति की चपेट में उलझ कर तबाह हो गया।


                 अगर राजकुमार शुक्ल जैसे चंपारण के महानायक के गांव की यह दशा है तो बाकी इलाकों की स्थिति को सहज समझा जा सकता है। राजकुमार शुक्ल २३ अगस्त १८७५ को सतवरिया में ही जन्मे थे। २० मई १९२९ को लंबी बीमारी के बाद उनका निधन हुआ तो उनकी अंतिम यात्रा में डा. राजेंद्र प्रसाद से लेकर तमाम दिग्गज मौजूद थे। आजादी के बाद भारत सरकार ने उनके सम्मान में डाक टिकट जारी किया। बिहार सरकार ने चंपारण में उनकी यादों को सहेजने का कोई काम नहीं किया। उनके परिजनों ने राजकुमार शुक्ल स्मारक न्यास बनाया है लेकिन कमजोर माली हालत के नाते यह न्यास भी कुछ खास करने की । स्थिति नहीं बनी। यह जरूर है कि चंपारण सत्याग्रह की सबसे अहम गवाह राजकुमार शुक्ल की १९१७ की लिखी डायरी को परिवार ने सहेज कर रखा है। इसमें बहुत से अनछुए तथ्य कैथी में लिखे हैं।


                एटनबरो की ऐतिहासिक फिल्म गांधी में राजकुमार शुक्ल का खास चित्रण है। वे अपने दौर के एक संपन्न किसान थे। लेकिन निलहों के अत्याचारों ने उनको बागी बना दिया। अंग्रेजों ने उनकी जमीन जब्त कर ली और मुरली भरहवा के मकान को ध्वस्त कर उनको जेल भेज दिया। तभी से नील के धब्बों को सदा के लिए समाप्त किल्प लेकर शुक्लजी देश के कई हिस्सों में भटके। गांधीजी के आने के बाद चंपारण में एक नया अध्याय लिखा गया। यह सत्याग्रह सफल रहा और निलहों को भागना पड़ा। चंपारण सत्याग्रह के बाद भी शुक्लजी ने किसान जागरण जारी रखा। रोलट एक्ट और असहयोग आंदोलन में चंपारण अग्रणी भूमिका में रहा। अपनी मौत के पहले राजकुमार शुक्ल एक पखवारा साबरमती आश्रम में रहे थे और यह उनकी गांधीजी से आखिरी मुलाकात थी।


                  लेकिन जो चंपारण भारत में किसान क्रांति और जागरण का प्रतीक बना था, सौ साल बाद चिंताजनक मोड़ पर खड़ा दिख रहा है। सतवरिया गांव के मुखिया राज किशोर सिंह कहते हैं कि राजकुमार शुक्ल जी किसी पार्टी से जुड़े नहीं थे, इस कारण राजनीतिक दलों ने उन पर खास ध्यान नहीं दिया। उनकी मृत्यु महज ४२ वर्ष की उम्र में हो गई थी। धीरे-धीरे वे भुलाए जाते रहे। मुखिया बताते हैं कि पंचायत के पास पैसे की दिक्कत नहीं है। उसके खाते में २५- ३० लाख रुपया है। लेकिन राज्य सरकार ने हाथ बांध रखा है। उचित दिशा निर्देश के अभाव में कोई काम नहीं हो पा रहा है। भारत सरकार से जो पैसा पंचायतों को मिलता है, वह राज्य स्तर की नौकरशाही के चलते गांवों के विकास में । सलीके से लग नहीं पा रहा है।


                  पहले सतवरिया के पड़ोस की चनपट्टिया चीनी मील चालू थी तो किसानों की स्थिति थोडी बेहतर थी। वे किसान जिसके पास आधा एकड़ भी जमीन थी, उनके पास भी कुछ स्थायी आधार मिल जाता था। लेकिन मिल बंद हो गई और किसानों की दशा को कोई पूछने वाला नहीं है। चीनी मिल के पास काफी जमीनें हैं, जिनको राजनीतिक लोगों ने हथिया लिया है।


                   हालांकि गांवों की भीतरी सड़कों को छोड़ दें तो आम तौर पर चंपारण में एक से दूसरी जगह को जोड़ने वाली सड़कें अच्छी या कामचलाऊ हो गई हैं। १०० साल पहले यहां गांधीजी आए थे तो कहीं हाथी तो कहीं बैलगाड़ी और कहीं दूसरे साधनों से उन्होंने सफर किया था। नील की खेती खत्म हुई तभी से नरकटियागंज के आसपास के इलाके में गन्ने की खेती ने जोर पकड़ा। आज भी नरकटियागंज की चीनी मिल अच्छी चल रही है। लेकिन गन्ने का वाजिब दाम नहीं मिलने से चंपारण इलाके में एक नारा काफी पहले से चल पड़ा है- निलहे गए तो मिलहे आए।


                   सतवरिया से आगे पश्चिमी चंपारण में ही गांधीजी ने भितिहरवा आश्रम स्थापित किया। बेतिया से ६५ किमी दूर भितिहरवा किसी तीर्थ से कम नहीं है। नवंबर १९१७ को यहां एक पाठशाला और कुटिया बनाने में गांव वालों के साथ गांधीजी का भी श्रम लगा था। आश्रम बन कर तैयार हो गया तो निलहों ने उसमें आग लगा दी। इलाकाई किसानों ने इसे फिर से खड़ा कर दिया। यहां गांधी कुटीर से लेकर वह आटा चक्की भी सुरक्षित रखी है जिस पर कस्तूरबा गांधी गेहूं पीसती थीं। मेज और पाठशाला की घंटी के साथ कई दूसरे सामान भी सुरक्षित हैं। कतरे-कतरे में बा-बापू की यादों से भरे इस आश्रम के कायाकल्प का काम चंपारण सत्याग्रह की शताब्दी पर बिहार सरकार कर रही है। लेकिन इस इलाके में किसानों के चेहरे आज भी मुरझाए हुए हैं।


                    इस इलाके में किसानों की बदहाली की एक वजह बाढ़ और नदी का कटाव भी है। १९८५ से किसान सरकार के पास गुहार लगा रहे है लेकिन कोई बात नहीं बनी। भितिहरवा आश्रम से लगा श्रीरामपुर गांव और आसपास का इलाका अच्छी खेती के लिए मशहूर रहा है। जमीन भी उपजाऊ है और नहरें भी हैं लेकिन वाजिब दाम न मिलने के कारण किसानों का संकट लगातार बढ़ता जा रहा है। सरकारी समर्थन की कमी और बढ़ती लागत ने छोटे किसानों का संकट और बढ़ा दिया है।


                    चंपारण नेपाल और उत्तर प्रदेश की सीमा से लगा है। चंपा के वनों के चलते इसे चंपारण नाम मिला। इस इलाके का गौरवशाली इतिहास रहा है। इसका संबंध रामायण के रचयिता महर्षि वाल्मीकि से रहा है। यहीं पांडवों ने राजा विराट के यहां बनवास के दिन भी काटे। कभी लिच्छवियों के विख्यात गणतंत्र का हिस्सा रहे इस अंचल में एक से बिखरी एक प्राचीन धरोहरें बिखरी पड़ी हैं। चंपारण की धरती को धान का नैहर भी 



                                                             नील का पौधा


 कहा जाता है। एक से एक बेहतरीन धान की प्रजातियां यहां हैं। यहीं से १९७४ में जेपी आंदोलन की शुरूआत हुई और शराबबंदी आंदोलन की भी। लेकिन आज चंपारण की पहचान गांधी के चंपारण के रूप में होती है। चंपारण में कदम कदम पर महात्मा गांधी की यादें बिखरी हैं। चंपारण में गांधीजी ने शिक्षा से लेकर ग्रामोद्धार की तमाम योजनाओं का खाका तैयार किया। अपने जीवन काल में वो कभी चंपारण को नहीं भूले और न चंपारण ने गांधी को। चंपारण की शताब्दी पर गांधीजी की यादों को नए सिरे से सहेजने की कोशिशें जारी हैं। लेकिन ग्रामीण समाज अभी भी तमाम चुनौतियों से जूझ रहा है।  


                        भितिहरवा के पास ही बड़निहार गांव के विजय पांडेय एक प्रगतिशील किसान हैं और उनका पूरे इलाके में काफी नाम है। शुगरफी आलू उत्पादन कर उन्होंने ऐसा नाम कमाया कि उनको आम बोलचाल में आलू पांडेय नाम से जाना जाता है। दूसरे किसान जब डेढ़ रुपए किलो आलू बेचते हैं तो विजय पांडेय १० रुपए किलो में बेचते हैं। विजय पांडेय के पास ४० एकड़ भूमि है, जो कभी बंजर हुआ करती थी। इस जमीन में से तीस एकड़ में उन्होंने एग्रो फारेस्ट्री की नर्सरी लगा रखी है। उनसे हर साल पांच लाख से अधिक पौधे बिहार और पश्चिम बंगाल सरकार खरीदती है। कृषि विविधीकरण पर जोर देने के साथ उन्होंने ६० देसी गाएं भी पाल रखी है। गोबर गैस से बिजली मिलती है और मीथेन गैस से उनका ट्रैक्टर और कार चलती है। यह सारा काम वे उस हरिनगर इलाके में कर रहे हैं जहां ९० फीसदी इलाके में गन्ने की खेती करके भी किसान बेहाल हैं।


                        किसानों को वाजिब दाम नही मिलता जबकि बिचौलिए भरपूर फायदा उठा रहे हैं। न एमएसपी पर ढंग की खरीद है न बाजार हस्तक्षेप योजना। सारे किसान बाजार के भरोसे है, महंगे दर पर सामान खरीदना और अपना उत्पाद सस्ते में बेचना किसानो की नियति हो गई है। किसान के पास खेती करने की मजबूरी है, लेकिन नई पीढी को खेती से लगाव नहीं दिख रहा है। किसान कर्ज के बोझ से दबे हुए हैं और भारी पैमाने पर पलायन हो रहा है।


                       आजादी के बाद चंपारण की तस्वीर बदली लेकिनकृषि भूमि सुधार नहीं हो पाया। अरसे से घाटे की खेती कर रहे छोटे और मझोले किसान फिलहाल गहरी पीड़ा से गुजर रहे हैं। हालांकि पश्चिमी चंपारण के इस इलाके को ग्रीनरी आफ बिहार कहा जाता है और यहां तीन फसलें होती हैं। गन्ना यहां की लाइफ लाइन है और बिहार की सबसे ज्यादा चीनी मिलें यहीं हैं। लेकिन हल बैल से खेती कर रहे छोटे किसान हों या ट्रैक्टर और आधुनिक उपकरणों से लैस बड़े किसान सभी परेशान हैं, जलवायु परिवर्तन का असर भी यहां दिखने लगा है। हालांकि कृषि अनुसंधान प्रयासों से गेहूं की उत्पादकता ३१ कुंतल प्रति हेक्टेयर तक पहुंच गई है जबकि धान २७ कुंतल तक। गन्ना तो ६०० से ७०० कुंतल तक पैदा हो रहा है और कुछ किसान तो एक हजार कुंतल तक पैदा करते हैं। फिर भी कृषि अर्थव्यवस्था हिचकोले खा रही है तो इसकी वजह यही है कि खेती की लागत बढ़ रही है



            भितिहरवा आश्रम                                                                       नरकटियागंज चीनी मिल


और किसान की आमदनी घट रही है।


                  चंपारण ने ही महात्मा गांधी को जन नायक बनाया, यह बात वे कभी नहीं भूले। ग्रामीण विकास में उनकी कोशिशें जारी रही। गांधीजी की आखिरी चंपारण यात्रा १९३९ में हुई और तभी वृंदावन आश्रम स्थापित हुआ। १०५ साल के चिरकुट राउत ने उसी दौरान महात्मा गांधी को बहुत करीब से देखा था। लेकिन आज इनके जीवन की गाड़ी मुश्किल से कट रही है। सितंबर २०१६ के बाद बुढ़ापा पेंशन नहीं मिली है और बार- बार बैंक के चक्कर काट कर वे थक जाते हैं। चंपारण में बुजुर्गों की पेंशन और गरीबों की तमाम योजनाओं का यही हाल है। जो गांव कभी भारत में ग्रामोद्धार और बुनियादी शिक्षा का अहम केंद्र था वहां आज अराजकता का आलम है।


                 वृंदावन में गांधी सेवा संघ का पांचवां अधिवेशन मई, १९३९ में हुआ। गांधीजी के साथ सरदार पटेल, खान अब्दुल गफ्फार खान और डा. राजेंद्र प्रसाद जैसी तमाम हस्तियां यहां आठ दिन रहीं। स्वतंत्रता सेनानी प्रजापति मिश्र की कोशिशों से १०३ बीघा जमीन पर आश्रम और बुनियादी स्कूल खुला। आश्रम से सटा और भूदान की जमीन पर बसाया गया डेढ़ हजार की आबादी का गांव आज संकट में है। पहले ग्रामोद्योगों से जीवन की गाड़ी खिंच जाती थी। लेकिन अब काफी युवा पलायन कर गए हैं। कई लोग बटाई पर खेती करते हैं। भूदान की जमीन भी झगड़े में पड़ गई है और १४ लोगों पर खेत से फसल लूटने का फर्जी मुकदमा कायम है।


                  महात्मा गांधी १६ अप्रैल १९१७ को चंपारण के जिस चंद्रहिया गांव पहुंचे थे, वहां की तस्वीर भी बहुत अच्छी नहीं दिखती। यहीं गांधीजी को चंपारण से चले जाने का सरकारी आदेश मिला था। छह हजार की आबादी वाले इस गांव से मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने मोतिहारी तक आठ किमी लंबी पदयात्रा निकाली। उसी दौरान गांव की सड़क भी बनी। इस गांव को केंद्रीय कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह ने गोद ले रखा है। कई योजनाएं आकार ले रही हैं और तमाम कृषि वैज्ञानिक भी गांव में पहुंच रहे हैं। चंद्रहिया में गांधी स्मारक की शक्ल भी बदल गई है। चंद्रहिया गांव में स्टेट बैंक, डाकघर और तमाम सुविधाएं हैं। प्राइमरी स्कूल के साथ लड़कियों के लिए कस्तूरबा विद्यालय भी है। लेकिन २५ फीसदी दलित घोर गरीबी में दिन बिता रही हैं। शराबबंदी ने जरूर गांव पर अच्छा असर डाला है लेकिन सफाई अभियान के तमाम दावों के बावजूद अधिकतर महिलाएं खुले में शौच को विवश है।


               चीनी मिल यूनियन के महामंत्री नरेश कुमार श्रीवास्तव और संयुक्त मंत्री सूरज बैठा के आत्मदाह ने सबको सन्न कर दिया। इस मिल से २५ हजार गन्ना किसान और ६५० मजदूरों का भाग्य जुड़ा रहा है। इस मिल पर किसानों का १४ करोड़ ४१ लाख और मजदूरों का ४३ करोड़ रुपए बकाया है। इस चीनी मिल के दायरे वाले किसानों को अब अपना गन्ना ६५ किमी से १०० किमी दूरी पर ले जाना पड़ता है। चंपारण सत्याग्रह की शताब्दी के आरंभ में ही मोतिहारी परिवहन लागत बढ़ी है, जबकि गन्ने का दाम किसानों को यूपी से भी कम मिलता है।


                पूर्वी चंपारण में बड़हरवा लखनसेन गांव में गांधीजी ने सौ साल पहले भारत का अपना पहला बुनियादी विद्यालय खोला था। उसके परिसर में गांधी प्रतिमा और शिलालेख के अलावा काफी टूटे फूटे सामान उस दौर की याद दिलाते हैं। गांव को गांधी सर्किट से जोड़ा गया है और तमाम अफसर और नेता भी आते रहते हैं। यहां की अशिक्षा और गंदगी से द्रवित होकर गांधीजी ने ये पहल की थी और मुंबई के इंजीनियर बबन गोखले, उनकी पत्नी और गांधीजी के बेटे देवदास गांधी यहां शिक्षक रहे। चंपारण सत्याग्रह शताब्दी के मौके पर २६ लाख खर्च कर स्कूल को नई शक्ल दी जा रही है। लेकिन गांधीजी जिस शिक्षा प्रणाली को जमीन पर उतारना चाहते थे वो अब गायब है। स्कूल में एक हजार बच्चों पर छह शिक्षक है।


                बड़हरवा लखनसेन गांव पंचायत की आबादी आठ हजार है और यहां के ९५ फीसदी लोग खेती पर निर्भर हैं। गांव का भव्य पंचायत सचिवालय भवन और अस्पताल बेकार पड़ा है। बनने के बाद भीतर कुरसी मेज या फर्नीचर नहीं जुट पाया और तभी से ये ताले में बंद हैं। गांव को पर्यटक स्थल बनाने के इरादे से गेस्ट हाउस भी बना जो बेकार पड़ा है। कुछ उत्साही ग्रामीणों ने गांधी स्मारक सह ग्राम विकास समिति बना कर कुछ नई पहल की है। साफ- सफाई दिखती है। लेकिन किसानों की स्थिति बेहतर नहीं है।


                मधुबनी खादी ग्रामोद्योग भी बुरी दशा में है। कभी इस इलाके में १० हजार महिलाओं के चरखों की गूंज सुनाई पड़ती थी। काफी ग्रामीणों को रोजगार मिला था। लेकिन आज इसके विशाल परिसर में सन्नाटा पसरा है। इमारतों पर झाड झंखाड़ उग आए हैं। गांधीजी यहां १७ जनवरी १९१८ को आए। लेकिन खादी और ग्रामोद्योग का जाल उनके प्रिय मथुरा दास पुरुषोत्तम ने १९३४ के भूकंप के बाद फैलाया। यहां २०० बुनकर काम करते थे और कोल्हू से लेकर तमाम गतिविधियां चलती थीं। पर १९८१ के बाद धीरे धीरे यह तबाह होता रहा। मधुबनी खादी आश्रम के पास अभी भी १७ एकड़ जमीन है। यहां की बेजोड़ मूंगा खादी कभी दूर दूर तक मशहूर थी। स्कूल से लेकर आश्रम में गौशाला तक चलती थी। ये कभी पूर्वी चंपारण का गौरव था। इसका सारा आधार मौ पूंजी की दरकार है। कई बार माम मधुबनी आश्रम की रौनक लौटाने का दावा हुआ। लेकिन चंपारण शताब्दी पर भी सब कुछ बेहाल है।


                   चंपारण पर हमेशा देश की निगाह रही। पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने उस दौर के तमाम दस्तावेजों को संकलित और संरक्षित कराया। १९५० में डाक्टर राम मनोहर लोहिया के नेतृत्व में एक कमेटी ने चंपारण में किसानों की दशा की पड़ताल कर बहुत अहम सुझाव दिए। कमेटी ने जमीनों की लूट और बंदरबांट में ताकतवर लोगों, चीनी मिलों और राजनेता के शामिल होने को उजागर किया। आज भी पश्चिमी चंपारण में साढ़े आठ हजार और पूर्वी चंपारण में ढाई हजार से अधिक परिवार बेघर हैं। फूस की झोपड़ी और नाम के मकान वाले तो बड़ी तादाद में हैं। भूमि सुधार आधे अधूरे मन से हुआ। भले यहां से रोजगार को पलायन जारी है लेकिन अधिकारियों के लिए चंपारण अभयारण्य सा है। ऐसा रुतबा दूसरे जिलों में नहीं।


                   सरकार चंपारण सत्याग्रह के उन १५ जगहों को सहेजने में लगी है, जो गांधीजी से करीब से जुड़ी रही हैं। इनको विकसित कर गांधी सर्किट से जोड़ा जा रहा है। लेकिन गांधीजी के स्मारकों पर सेवा दे रहे सेवकों की दशा ठीक नहीं है। गांधीजी के पहले विद्यालय का मसला हो या चंद्रहिया का, सब जगह एक सा हाल है। सेवक न्यूनतम वेतन को भी मोहताज हैं। चंद्रहिया के केयरटेकर कृष्णा राय १५०० रुपए में गुजारा कर रहे हैं।


                   चंपारण सत्याग्रह के दौरान की तमाम धरोहरें नष्ट हो रही हैं। बेतिया की हजारीमल धर्मशाला तो सबसे खस्ताहाल है, जहां गांधीजी दो महीने रहे थे। १८९२ में सेठ हजारीमल झुनझुनवाला ने इसे बनवाया था। मोतिहारी के पास पिपरा नील कोठी के ध्वंस आज भी कायम हैं। ये चंपारण में फैली ७० नील कोठियों में एक थी। गांधीजी यहां पर निलहों से संवाद करने गए थे। यहां अब एसएसबी का कैप है ,जिसने स्मारक को सहेज कर रखा है।


                   अंग्रेजी राज में १० जून १८६६ को चंपारण नया अंग्रेजी राज में १० जून १८६६ को चंपारण नया जिला बना था। आजादी के बाद तिरहुत मंडल में शामिल चंपारण १९७१ में दो जिलों में विभाजित हो कर पूर्वी और पश्चिमी चंपारण बन गया। पूर्वी चंपारण का मुख्यालय मोतिहारी है जबकि पश्चिमी चंपारण का बेतिया। पश्चिमी चंपारण ५२२९ वर्ग किमी में फैला है और आबादी है करीब ४० लाख। १८ ब्लाक और १४८३ गांवों वाले इस जिले में काफी बदलाव के बाद भी खेती बाड़ी ही आजीविका का मुख्य साधन है। बिहार के वन क्षेत्र का सबसे बड़ा हिस्सा यहीं है और इकलौता वाल्मीकि राष्ट्रीय उद्यान भी। गंडक यहां की जीवनरेखा है। चंपारण के दोनों जिलों में कई समानताएं है। पूर्वी चंपारण पश्चिमी चंपारण से आकार में छोटा है लेकिन आबादी ५० लाख से अधिक है। जिला मुख्यालय मोतिहारी है और इसके तहत १३४४ गांव आते हैं। भारत के कृषि और किसान कल्याण मंत्री राधा मोहन सिंह यहीं से सांसद हैं। उनके प्रयासों से कई केंद्रीय कृषि संस्थाओं की स्थापना हुई लेकिन किसानों की बेहाली नहींसमाप्त हुई।


                    सदियों से खेती बाड़ी में अग्रणी रहा चंपारण १८५७ की क्रांति के कुछ सालों के बाद निलहों का अड्डा बन गया। कर्ज में डूबे बेतिया राज से जमीनें ठेके पर लेकर अंग्रेज यहां के राजा से बन बैठे। कई निलहों को अंग्रेजों ने । । ऑनरेरी मजिस्ट्रेट बना कर उनके हाथ में बेशुमार ताकत दे दी। कुछ ही सालों में यह इलाका नील की खेती का प्रमुख केंद्र बनता गया। तमाम नील कारखाने स्थापित हुए। धीरेधीरे निलहों ने पूरे इलाक पर कब्जा कर लिया। वे किसानों पर भारी अत्याचार करते थे। पिपरा कोठी जैसी तमाम कोठियों के ध्वंस आज भी इनकी कहानी को बयां करते हैं।


                       एक दौर तक नील अंग्रेजों के लिए चाय से अधिक फायदेमंद थी। ईस्ट इंडिया कंपनी तो शुरुआत से ही इसके कारोबार में लग गई थी। बाद में बंगाल में जमदारियां खरीद कर नील की खेती शुरू कराई गई। ब्रिटेन की औद्योगिक क्रांति के चलते नील की खेती को और विस्तार मिला। पहले बंगाल फिर बिहार नील की खेती का प्रमुख क्षेत्र बना। बंगाल में नील किसानों के शोषण पर दीनबंधु मित्रा ने १८६० में 'नील दर्पण' नाटक लिखा जिससे काफी हलचल पैदा हुई। बात लंदन तक पहुंची जिस कारण बंगाल में नील किसानों का शोषण रुक गया लेकिन इसका विस्तार चंपारण में हो गया। चंपारण की जमीन नील के लिएकाफी माकूल थी और उच्च स्तरीय नील पैदा होती थी। इस कारण १८९२ तक चंपारण में नील के २१ कारखाने खुल गए और करीब ९६ हजार एकड़ भूमि पर नील की खेती होने लगी।


                        हालांकि चंपारण में नील की खेती पर कारोबारी उतार-चढ़ाव और कृत्रिम नील के इजाद का असर भी पड़ा। लेकिन इससे किसानों का शोषण पहले से अधिक बढ़ गया। तिनकठिया प्रथा के साथ निलहे किसानों से पचास से अधिक अवैध टैक्स वसूलते। पेड़ काटने, झोंपड़ी बनाने, रस्सी बुनने के साथ रामनवमी और फगुआ पर भी अंग्रेजों के लठैत गैरकानूनी टैक्स वसूलते थे। इसी नाते किसानों और निलहों के बीच काफी लंबे संघर्षों का दौर चला। गंडक में काफी पानी बहा लेकिन अंग्रेज लगातार जीतते रहे।


                        गांधीजी जब १५ अप्रैल १९१७ को मोतिहारी पहुंचे तो उनको व्यापक समर्थन मिला। दो माह में ही अपने साथियो के साथ गांधीजी ने २९०० गांवों के करीब १३ हजार किसानों से सीधा संवाद कायम कर लिया था। गांधीजी यहां की बोली बानी से वाकिफ नहीं थे न नील की खेती की बारीकियों को जानते थे, फिर भी यहां की जमीनी हकीकत समझने में उनको देर नहीं लगी। उन्होंने यहां के किसानों को नया रास्ता दिखाने के लिए भीषण गर्मी में पूरे इलाके की धूल फांकी। इस नाते दो महीनों में ही चमत्कार दिखने लगा।


                         भाषणबाजी और अखबारबाजी से परहेज करते हुए बहुत शांति और सादगी से जो सत्याग्रह शुरू हुआ उसमें न कहीं लाठी-गोली चली न कोई जेल गया। करीब दस महीने तक उनका पूरा अभियान चला जिसमें महज २२०० रुपए खर्च हुए। लेकिन इसके लिए गांधीजी ने चंपारण इलाके से कोई चंदा नहीं लिया गया था। इसी सत्याग्रह से देश के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद से लेकर कई दिग्गज नेता पैदा हुए। इन सबके सामूहिक प्रयासों ने अंग्रेजों को हिला दिया। उसका ऐसा दबाव बना कि सरकार को १० जून १९१७ को चंपारण एग्रेरियन जांच समिति बनानी पड़ी। गांधीजी भी इसके सदस्य बनाए गए। इसकी पहली बैठक मोतिहारी में जिला परिषद के जिस भवन में हुई वे मेज एक धरोहर के रूप में सहेजी हुई है। जांच समिति ने सारी शिकायतें सही पायीं। नवम्बर, १९१७ में विधान परिषद् में चंपारण एग्रेरियन बिल पारित हो गया और १ मई १९१८ से चंपारण के किसानों को शोषण से मुक्ति मिल गयी। आतंक और लूट का पर्याय निलहों को मन मार कर विदा होना पड़ा और किसानों ने आजादी की सांस ली। तभी से चंपारण सत्याग्रह लोक जीवन में गीतों में बसा कायम है। गांधीजी जब भारत में अइलें,


                                                                                गांधीजी जब भारत में अइलें,


                                                                                 पहिले इंहवा सत्याग्रह कईलें।


                                                                                  लीलहा देखी भाग पराईल,


                                                                                   तब से ना चंपारण आइल।