स्मरण - यादों के कैनवास पर आज भी वैसे ही हैं नीलाभ दा

जन्म : सुल्तानपुर। सुल्तनपुर और इलाहाबाद विश्वविद्यालय से शिक्षा। इण्डिया न्यूज में सम्पादन से जुड़े रहे। सम्प्रति : आउटलुक में।


यही वह जगह है जिसकी वजह से मैं नीलाभ को दादा कहता था, दादा यानी बड़े भाई अब सवाल उठता है कि किसी स्थानविशेष का पता भर उनसे रिश्ता कैसे कायम करा सकता है? पर, वजह है; और वह है इस पते पर लकड़ी की कड़ियों, ईंट और खपरैल से बना बंगला; जिससे मैं करीव २ वर्ष (८२-८४) तक जुड़ा रहा। गो कि आज वह पुराना स्वरूप अस्तित्व में नहीं है। मग । मगर यादों के कैनवास पर वह आज भी हू-ब-हू रचा है। मेरा रिश्ता जडा तो था पूर्वमुखी बंगले के दाईं ओर बनी स्टडी में बैठने वाले महान् लेखक उपेंद्रनाथ अश्क से, जिन्हें मैं दिवंगत आलोचक डॉ. सत्यप्रकाश मिश्र द्वारा वहां पहुंचाए जाने के बाद से ही, माहौल देखकर ‘पापा जी' कहने लगा था। जाहिर है कि उनकी पत्नी कौशल्या जी स्वाभाविक तौर पर, उससे अधिक अपने स्नेहिल स्वभाव के नाते ‘मम्मी जी' और स्टडी से बंगले तक आनाजाना घरेलू हो जाने पर नीलाभ के बड़े (सौतेले) भाई उमेश, भाई साहब और उनकी पत्नी 'भाभी जी' हो गई। अलवत्ता; उनके दोनों बेटों के लिए मैं ‘चाचा जी' न बनकर ‘सतेन्द्र जी' ही रहा।


अब इन सबके बीच नीलाभ जी कहां थे? वे उन दिनों बी.वी.सी. के हिंदी प्रसारण सेवा में नौकरी के सिलसिले से लंदन में थे। पर, शायद ही कभी ऐसा हुआ हो कि दिन गुजर जाए और दौर-ए-जिक्र अफसाना-ए-नीलाभ के बगैर ही खत्म हो गया हो। पापा जी फोन पर उनसे जब शुरू में भी कभी हमारी वात कराते थे, तो यह बिलकुल नहीं लगता था कि हम कभी मिले नहीं हैं। इसकी एक वजह पापा जी की हमारे बारे में बीफ करने की अपनत्व भरी शैली थी और फिर नीलाभ जी के बेलौस अंदाज ने सोने पे सोहागा की तरह काम किया। इस अंदाज-ए-गुफ्तगू और खुलेपन ने उन्हें कब नीलाभ जी से नीलाभ दादा बना दिया समझ में ही नहीं आया। उनके व्यक्तित्व के बीहड़पन, बेखौफ़ खुराफातों और जिंदादिल जज्बात से परिचय तो पापा जी, कालिया जी, सत्य प्रकाश जी, सतीश जमाली जी, विद्याधर शुक्ल जी आदि ने अपनी सुचर्चाओं/कुचर्चाओं के जरिए पहले ही करा दिया था। रूबरू होने या कहें आमने-सामने मुठभेड़ का मौका उनकी लंदन से इलाहाबाद पूरी तरह वापसी (१९८४) हो जाने के बाद ही मिला। इस बीच मै इलाहाबाद छोड़ सुलतानपुर लौट चुका था, पर, आना- जाना कभी-कभार लगा रहता था और इसी आने-जाने में इक्का-दुक्का मुलाकातें भी हुई।


नीलाभ दादा और मेरा संबंध मुलाकातों की संख्या का मोहताज नहीं था। वह बस छोटे भाई, बड़े भाई का था, उसका कोई एक खास आधार या अंदाज नहीं था। इलाहाबाद या दूसरी जगहों की फुटकर मुलाकातों । को छोड़ दें, तो दिल्ली में उनसे पहली मुलाकात वाणी प्रकाशन, २१, दरियागंज, नई दिल्ली की दूसरी मंजिल पर हुई ... और आखिरी राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की त्रैमासिक पत्रिका रंग प्रसंग' के संपादक की कुर्सी पर बैठे हुए। यहाँ अगर हम मीर-कबीरवादी इस शौकीन फकीर के ‘जो घर फेंके आपनो चले हमारे साथ' वाले विचारों पर चर्चा विद्वानों के लिए छोड़ भी दें तो उसकी मेज पर एक रोचक समाजवाद दिखाई पड़ता था ‘हर फ़िक्र को धुंए में उड़ाने' की शैली में वे, राजेन्द्र यादव और बीडीएन साही के व्यक्तित्व की पहचान रही पाइप/ सिगार, मुक्तिबोध और हवीव तनवीर के होठों से आखिरी दम तक न छूटने वाली आमआदमी की प्रतीक बीडी (यह मानबहादुर सिंह और अदम गोंडवी की भी याद दिलाती है) और कागज के रैपर में तम्बाकू रख रोल करके खुद से बनाई गई सिगरेट तीनों एक समान चाव से, चेहरे पर तदनुसार भाव लिए पीते थे। यह समाजवाद उनके पहनावे में भी वाबस्ता था। १५ जुलाई (शुक्रवार) २०१६ ही हमारी-उनकी सीधी मुलाकात की आखिरी तारीख होगी, इसकी पुष्टि २३ जुलाई की सुबह नीलाभ जी नहीं रहे' की सूचना ने कर दी। आज भी स्मृतियों में वह मुलाकात ऐसे दर्ज है, जैसे कल की बात हो। उस दिन मैं अभी प्रणाम करके स्वास्थ्य का हाल पूछ ही रहा था कि बोले, सतेन्द्र, बातें बाद में, पहले प्रकाश (प्रकाश झा रंगप्रसंग में दादा के तत्कालीन सहयोगी) से अपना चेक ले लो। दोबारा उनकी सीट के सामने बैठा तो वोले‘तबीयत ठीक नहीं है... तो आना नहीं चाहिए था, मैंने कहा...काम जो लिया है जिम्मे, उसे निपटाना तो है भाई, मुझे आधा-अधूरा करना पसंद नहीं है, सतेंद्र । सितंबर में मेरा कॉन्ट्रैक्ट पूरा हो रहा है,...न ये मेरा एक्सटेंशन करेंगे और न ही मैं अपनी ओर से कहूंगा। खैर; मेरे पास काम की कमी नहीं है...( शरीर व स्वांस के पूरी तरह साथ न देने के बावजूद) गुरूर से कहा; लेकिन खांसी ने वाक्य तोड़-फोड़ दिया। मैंने पानी का गिलास उठाकर देने की कोशिश की तो हाथ से बरज दिया और फूल कर कहा, मैं खुद कार चला कर आया हूं लेकिन साफ दिख रहा था कि उनका शारीरिक दम उनका साथ नहीं दे रहा है। हालाँकि इसी जगह करीब एक माह पूर्व दूरदर्शन से जुड़े अनिल शर्मा द्वारा मौजूदा सियासी हालात पर तंज करता किसी पाकिस्तानी शायर का एक शेर सुनाए जाने पर हमें एक मस्त कलंदर-सा अट्टहास बिखेरता २५ साल पुराना नीलाभ दिखा था। शेर वाकई कुछ इस तरह था कि आप भी सुन/पढ़ कर 'वाह' कहे बिना नहीं रह सकेंगे। ‘कुर्सी है, तुम्हारा ये जनाजा तो नहीं है; कुछ कर नहीं सकते, तो उतर क्यों नहीं जाते' ... लेकिन इस समय वे ठीक से बोल भी नहीं पा रहे थे।


वे जितने कड़क थे, उतने ही भावुक। इन दिनों जब भी हम उनसे मिलने जाते, ‘कहीं कुछ जुगाड़ हुआ' या तुम्हारा जो पैसा फलां जगह अटका था, मिला कि नहीं एक बार जरूर पूछते, फिर अपने यहां रुके पैसे (रंगप्रसंग-४६ में मेरे द्वारा विभिन्न सहयोग' के अंतर्गत किए गए कार्य का पारिश्रमिक) के बहाने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के सिस्टम को कोसते और उसी वक्त यह भी कह डालते कि ‘देखो सतेन्द्र इस समय देश (समाज और संस्कृति भी) पर जो विचारधारा काबिज है, उसमें मेरा आगे तो होना नहीं है, इसलिए मैंने खुद सितंबर २०१६ तक अपना कार्यकाल पूरा कर ‘नमस्ते' करने का मन बना लिया है फिर अचानक एक दिन बोले, अरे भई, अव तो वांट भी निकाल रहे हैं, ये पिछले तीनसाढे तीन महीनों में उनका मेरे प्रति ‘प्यार' और 'झाड़' दोनों देख लिया था रंगप्रसंग स्टाफ ने जहाँ शुरू में आने पर ‘ये सतेन्द्र प्रकाश हैं, मेरे छोटे भाई जैसे हैं, मेरे पिता उपेन्द्रनाथ अश्क के साथ काम कर चुके, उनके प्रिय रहे हैं,' आदि-इत्यादि से स्नेह और अपनत्व की वर्षा की थी वहीं एक दिन पहुंचते ही- ‘आइये ! सत्येन्द्र प्रकाश स तरह शब्दों को चबा-चबा कर मेरा स्वागत किया तो मैं डर गया। वही हुआ जिसकी आदतन उम्मीद थी आव देखा ना ताव, स्टाफ के सामने ही मेरा भद्रा उतार लिया, ‘का हो, भइयू हमरे बाप तोहैं का सिखाइन हैं' हुआ यह कि एक जगह नुक्ता छूट गया था, और तजुर्बा की जगह ‘तजरुबा' लिखने जैसे उनके आग्रहों को भी मैंने नज़रंदाज करने की गुस्ताखी की थी दरअसल, नीलाभ दादा पंजाबी, हिंदी, उर्दू, बांग्ला, अंग्रेजी आदि के साथ ही अवधी भी बड़े ही ठेठपन से बोलते थे। गुस्से पर काबू बिलकुल नहीं कर पाते थे, फिर चाहे उस लपेटे में आखिरी (मौजूदा) पत्नी भूमिका हों, जो कि अक्सर आ ही जाती थीं, या ऑफिस की महिला अनुचर या खुद ही क्यों न आ जाएं, ऐसी-तैसी कर देते थे। दरअसल, चाहे वह उनका शक (जैसा कि दादा के खिलंदड़ेपन की वजह से स्वाभाविक भी था) हो, या अतिरिक्त प्यार; नाराजगी के वनवास से वापस आने के बाद भूमिका जी ने ‘निगरानी' कड़ी कर दी थी ‘अन्यान्य' के साथ ही इस अति गहन निगरानी के पीछे की एक खास वजह शायद दादा की अस्वस्थता भी थी।



२००८ या ०९ की बात है। यह सनकर कि नीलाभ जी वाणी प्रकाशन में नौकरी कर रहे हैं, मैं हैरान था, क्या परिस्थितियां इतनी खराब हो गई हैं?... हालाँकि यह पता था कि पत्नी व परिवार से बिछड़ गए हैं। इलाहाबाद के मकान का अपना हिस्सा बेच दिया है और अकेले पड़ गए हैं। जब मैं इस चौडे माथे, घुमावदार काली-सफेद दाढ़ी से भरे चेहरे वाले निराला शैली के व्यक्तित्व से कुंभ में बिछडे भाई की तरह दिल्ली में पहली बार मिला और पावों की तरफ हाथ बढ़ाया तो उसने पकड़कर गले से लगा लिया। पोशाक में संभवत काली कमीज और जींस के साथ गर्दन पर उनके देसी ठाठ को उजागर करता गमछा सजा हुआ था, जिसने आखिरी वक्त तक उनका साथ नहीं छोड़ा। इसी मुलाकात में उन्होंने मुझे अपनी पहली आलोचना पुस्तक (संभवतः) ‘पूरा घर कविता है-हिंदी कविता का परिदृश्य' पढ़ने के लिए दिया था, तभी मा-बदौलत को पता चला था कि नीलाभ आदमी और कवि ही नहीं, आलोचक भी कुछ अलग तरह के हैं। जिन्होंने यह पुस्तक पढ़ी होगी, मुझसे अवश्य सहमत होंगे। वे कवि-आलोचक के बारे में कहते हैं, ‘एक कवि जब आलोचनात्मक या समीक्षात्मक लेख लिखता है तो वह सामान्य आलोचना धर्म से विलकुल अलग भूमिका में उपस्थित होता है।...बिलकुल अलग वह एक कारीगर की आंख से अपने सहकर्मियों के कृतित्व को देखता है।...लगभग उसी तरह जैसे कोई बढ़ई या कुम्हार दूसरे बढ़ई या कुम्हार द्वारा बनाए गए सामान को देखे और उसकी खूबियों या खामियों का जायजा लेते हुए मन ही मन यह अंदाजा करे कि अगर उसने इस चीज को बनाया होता तो वह कैसे बनाता। इसी समय बातचीत में पता चला था कि नौकरी वाली बात एक ‘अर्ध सत्य' है। वास्तव में उनके वहां बैठने की वजह खास तौर से ‘अश्क ग्रंथावली' के निर्दोष प्रकाशन/संपादन से जुडी हुई थी। मुझे बुलाने की वजह भी वही थी। दादा चाहते थे कि उसका पूफ में ही देखें। यह शायद पापा जी (उपेन्द्र नाथ अश्क) के निर्देशन में मेरे उनके यहां काम करने की वजह से रहा हो।


आदतन अड़ियल और स्वभाव से नारियल इस शख्सियत ने ससुराल से बिगड़े संबंधों को लेकर हो रहे पछतावे का साझा मुझसे और स्टाफ से भी किया था लेकिन अब जब वह लम्बा ‘माफीनामा' फेसबुक पर चर्चा-ए-आम हो चुका है तो उसका उल्लेख में यहाँ जरूरी नहीं समझता। इस अनुज को पूरा विश्वास है कि मन से तो वे आखिरी दम तक नहीं हारे होंगे, लेकिन पिछले दिनों की उनकी हरकतें उनके भीतर की भावुकता को उजागर कर रही थीं। ऐसा लग रहा था कि चीजे जल्दी-जल्दी समेट लेना चाहते हैं। अपने अक्खड़-फक्कडपन के नाते, सही या गलत मुद्दे पर जिस किसी को जाने-अनजाने दर्द दिया हो, उन सबसे पैचअप कर लेना चाहते हैं।


इलाहाबाद में रह रहे परिजन और लंदन में बसे पुत्र से एक डेढ़ दशक से अलग रहे नीलाभ दा ने हाल ही में एक दिन बताया कि उन्होंने अपने भतीजे सेतू (घर का नाम, जो इस समय नीलाभ प्रकाशन देखता है) को भी अपनी तीन-चार किताबें दे दीं कि, 'बेटा छाप लो और कमाओ-खाओ।' इसी तरह एक दिन एनएसडी से मंडी हाउस मेट्रो की ओर चहलकदमी के दौरान एक उछ्वास छोड़ते हुए कहा था, 'मेरा बेटा तो... सतेन्द्र मुझे देखना भी नहीं पसंद करता, लेकिन एक बार पोते से मिलकर बाबा (दादा) कहलाने का सुख पाना चाहता हूं।' बातें और भी हैं, हो सकती हैं, लेकिन अंत में इतना ही कहना चाहूंगा कि भारतीय व विश्व साहित्य, नाटक, फिल्म, धारावाहिक, संगीत आदि क्षेत्रों में मजबूत दखल रखने वाले इस सशक्त अनुवादक ने अरुंधति राय के ‘गाँड ऑफ स्मॉल थिंग्स' को हिंदी में मामूली चीजों का देवता' का रूप न दिया होता तो शायद उसे इतनी व्याप्ति नहीं मिल पाती। इसकी पुष्टि उनके निधन (२३ जुलाई २०१६) के दिन दलित सरोकार के वरिष्ठ पत्रकार प्रसून लतांत ने भी की। अपने जीवन की अंतिम भूमिका को चुप-चाप अदा कर निकल गए नीलाभ दा अब शरीर से चाहे भले न दिखें लेकिन अपनी कारस्तानियों, शैतानियों, लेखन शैली की रवानियों और नेकनामियों-बदनामियों, समर्थकों, परिजनों, वैचारिक दोस्तों-दुश्मनों के बीच सदियों तक मौजूद रहेंगे। हां, अलवत्ता यदि आत्मा का अस्तित्व है तो वह इस चिंता में भटकती रहेगी कि वे गालिब पर अपना बहुप्रतीक्षित, बहखंडीय ग्रंथ पूरा नहीं कर सके। एक छोटी चिंता और वे अपने साथ ले कर गये हैं। वह थी महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय से प्रकाशित और करीब-करीब आउट ऑफ प्रिंट हो चुकी ‘मौखिक साहित्य का इतिहास' के नये संस्करण की। दादा की स्मति को शत-शत प्रणाम ! नाराज न हों, इसलिए कॉमरेड को लाल सलाम !!... और कुछ दिनों से कागज पर उतरने को बेताब यह शेर लगता है, इसी अप्रत्याशित घड़ी के इंतजार में था


‘बिखरे अशआर और अपनों की बददुआएं / होंगी मेरी वसीयत मेरे चले जाने के बाद...'


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