स्मरण - हिन्दी की गीत परम्परा और देवेन्द्र कुमार के गीत

युवा लेखक। साहित्यक गतिविधियों में सक्रिय।


विश्व के सम्पूर्ण साहित्य की पैदाइश गीत काव्य के रूप में हुई है। बाद में अभिव्यक्ति की आवश्यकताओं के अनुसार नई विधाओं के अनुसन्धान होते रहे हैं फिर भी गीत काव्य की निरन्तरता में कमी नहीं आई।


हिन्दी में गीत काव्य की शुरूआत मैथिल कवि विद्यापति ने की। इस परम्परा को भक्त कवियों-सूर, तुलसी, कबीर और मीरा ने शीर्ष पर पहुँचाया और जब मैथिली शरण गुप्त की पीढ़ी ने बोलियों की जगह खड़ी बोली में काव्य रचना प्रारम्भ की तव पारम्परिक गीत धारा तीव्र गति से आगे बढ़ी और सही गीत (लिरिक) की रचना सम्भव हो सकी।


यह वह समय था जब देश अंग्रेजी सत्ता के विरूद्ध आन्दोलित था। जन-जन में अंग्रेजी सरकार को उखाड़ फेंकने की लहरें मचल रही थी। उस आवेश को निर्णायक संघर्ष तक पहुँचाने के लिए जनता को तैयार करने का काम माखनलाल चतुर्वेदी, बाल कृष्ण शर्मा, नवीन तथा रामधारी सिंह दिनकर आदि कवियों के गीत कर रहे थे। इन गीतों ने हिन्दी गीत परम्परा को अभूतपूर्व प्रतिष्ठा दिलाई।


लेकिन छायावाद के आते-आते कवियों के आग्रह बदल गए। देश काल की जगह व्यक्तिकता प्रधान हो गई। संयोग ही था कि भक्तिकाल की तरह इस दौर में भी चार महाकवियों-प्रसाद, पंत, निराला और महादेवी वर्मा ने गीत परम्परा को समृद्ध किया।


इसके बाद मूर्तता और मांसलता पर जोर देने वाले कवि बच्चन, नरेन्द्र शर्मा और अंचल आदि ने मंचों के माध्यम से गीतों की लोकप्रियता बढाई । वहीं कुछ कवियों ने मंच पर लोकप्रिय होने के लिए गीत लिखे जिससे गीतों की गरिमा को ठेस लगी। इस दौर में भी डॉ. शम्भू नाथ सिंह, गोपाल सिंह नेपाली, गिरधर गोपाल, नर्वदेश्वर उपाध्याय, गोपाल दास 'नीरज', भारत भूषण और वीरेन्द्र मिश्र ने गीतों की अस्मिता बचाए रखी।



तमाम प्रवृत्तियों और वादों के बाद प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना से प्रेरित रचनाकारों ने रूमानियत और कल्पना प्रवणता की जगह सामाजिक यथार्थ को रचना का विषय बनाया। ऐसे रचनाकारों में डॉ. राम विलास शर्मा, नागार्जुन, शील, केदारनाथ अग्रवाल, त्रिलोचन, शिव मंगल सिंह सुमन प्रमुख हैं।


हिन्दी गीतों की इस विशाल और गौरवशाली परम्परा में देवेन्द्र कुमार बंगाली का प्रादुर्भाव छठवें दशक के प्रारम्भ में हुआ। यह वह समय था जब अज्ञेय जैसे बड़े रचनाकार द्वारा गीतों को कविता मानने से इनकार किया गया था फिर भी देवेन्द्र कुमार ने अपनी बोली के कवियों के प्रभाव में गीत रचना को महत्व दिया। इस दिशा में देवेन्द्र कुमार को सर्वाधिक प्रभावित करने वाले कवियों में


‘पर्वत के पार से बुलाओ न पिया। पांच जोड़ बाँसुरी बजाओ न पिया'। या ‘मेरे घर के पीछे चन्दन है आओ जी, वन्दन है'। के कवि ठाकुर प्रसाद सिंह और ‘गाढे गए दिन बीत रे, बैला बाए से आंव आंव। के गीतकार डॉ. राम दरस मिश्र तथा ‘झर झर झर फूल झरे, निमिया की डाल के जैसे रूमाल के' के रचनाकार महेन्द्र शंकर अधीर और ‘आना जी बादल जरूर। धान उगेंगें कि प्राण उगेंगे-उगेंगे हमारे खेत में, आना जी बादल जरूर' एवम् ‘झरने लगे नीम के पत्ते, बढ़ने लगी उदासी मन की' के रचनाकार केदारनाथ सिंह प्रमुख हैं।


स्वयं देवेन्द्र कुमार की अपनी मित्र मंडली के कवियों में राम सेवक श्रीवास्तव, भगवान सिंह, परमानन्द श्रीवास्तव, हरिहर सिंह, हृदय चौरसिया, ब्रजराज तिवारी, गिरधर करूण, महेश्वर तिवारी और जगदीश नारायण श्रीवास्तव का देवेन्द्र कुमार के निर्माण में विशेष योगदान था।


देवेन्द्र कुमार के गीतों में परम्परागत अच्छाइयां। प्रचुर मात्रा में मिलती हैं। उनमें विद्यापति का माधुर्य एवं पद लालित्य तो मिलता ही है संसार के सबसे बड़े गीतकार सूरदास के स्वर लय का संस्पर्श भी मिलता है। उनकी सबसे बड़ी ताकत है उनकी अपनी उपार्जित भाषा जो लोक संवेदना और लोक लय से भरी-पूरी है तथा सहज ही पाठक को वांध लेती है। उनकी संवेदनशील भाषा और कहने के ढंग के कारण उनके गीतों में जो सरसता और मिठास आ जाती है वह अन्यत्र प्रायः दुर्लभ है। उदाहरण के लिए ख्यात नाम गीतकार महेन्द्र शंकर अधीर और देवेन्द्र कुमार के अगहन की शाम' नामक गीत द्रष्टव्य हैं।


लगती है अगहन की शाम मनसायन


द्वार-द्वार जल रहे अलाव


सूरज की अन्तिम किरन संग लौटते


गए मुंह अंधेरे जो पांव।


दूर कहीं डफले पर बज रही लकड़ियाँ


डांग छितो छितों डांग डांग


गवने की कोई बारात चली आ रही,


गिने चुने चल रहे सवांग


धियवा की अखियां में कल के बा सपना


छूट जइहें बाबा कऽ गांव।


महेन्द्र शंकर अधीर के इस मनोरम चित्र के बाद देखे देवेन्द्र कुमार को


यह अगहन की शाम


सुबह-सुबह का सूर्य सिन्होरा


सेनुर ईगुर धाम।


सोलह डैनों वाली चिड़िया,


रंगा रंग फूलों की गुड़िया


कहीं बैठकर लिखती होगी, चीठी मेरे नाम।


इस उल्लास भरे दृश्यांकन में सोलह डैनों वाली गुड़िया का ‘चीठी' लिखना पाठक को उत्सुकता से भर देता है। ग्रामीण सहजता और भोलापन से देवेन्द्र कुमार के गीतों को एक अलग पहचान मिलती है। देखे-रूठो ना प्राण, पास में रहकर, झरती है चाँद किरन, झर झर झर।


सेनुर की नदी झील ईंगुर की


माथे तुम्हारे तुम सागर की


चूड़ी सी चढ़कर कलाई तक


टूटो न प्रांण, पास में रहकर।


इतना रंग, इतना राग किसी समकालीन कवि में मिलना मुश्किल है फिर भी उनकी कुछ पंक्तियों जैसे-


ऊब ने रची है कुछ अच्छी कविताएं


गांठ में समय हो, आ बैठो, सुनाएं


तारे अंधेरे के बच्चे चितकबरे ।


बोल दो हवा को कुछ और देर ठहरे।


या


यह उदासी


आ रही हो फूल वाली डाल से


ज्यों गन्ध वासी।


या


रात हुई गुंगी दिन बहरे


हम तुम कहां आके ठहरे।


को लेकर बंगाली जी के गीतों में निराशा की तलाश करना बेईमानी है। क्योंकि सही अर्थों में बंगाली जी जिजीविषा और ऊर्जा के कवि हैं। उन्हें पढ़कर या उनसे बात कर हारा थका आदमी भी ऊर्जावान महसूस करता था। उन्हें बतरस बहुत प्रिय था और बतकही में रोक टोक या किसी तरह का व्यवधान उन्हें कतई पसन्द नहीं था, देखें- ‘ठूठी शाखें पतियाने लगी, घेर घेर कर बतियाने लगी। ऐसे में कौन इन्हें टोके।'


ऐसे में टोकना तो नहीं लेकिन देवेन्द्र कुमार को चुप्पा या कम बोलने वाला समझने वालों से, फिराक साहब के शब्दों में थोड़ा हेर फेर कर कहना है कि पहले बंगाली को देखा होता, अब तो बहुत कम बोले हैं' कम बोलने के पीछे वंचकों द्वारा निर्ममता से ठगे जाने की पीड़ा है। बंगाली जी की सहजता और उदारता का लाभ उठाकर एक ने तो रचनाओं के साथ-साथ उनकी पत्नी के गहनों तक पर हाथ साफ कर दिए।


ऐसे ही जन्तुओं के कारण बंगाली जी किसी के भी सामने मुँह खोलने से डरने लगे थे। अपनी पीड़ा, अपना दुख दर्द वे कुछ गिने चुने लोगों से ही कहते थे लेकिन उनकी रचनाओं में उनका हृदय पूरी तरह अभिव्यक्त हुआ है। अपनी आर्थिक और सामाजिक स्थिति के सम्बन्ध में उनका व्यक्तव्य देखें


दूर दूर तक फैली हुई जड़े हैं।


एक हमीं है जो उखड़े उखड़े हैं।


फटी बांह के कुर्ते की लम्बाई


नाप रहे हैं जब से हुए बड़े हैं।


या


भेदभाव सन्नाटा


ये साही का कांटा


सीने के घाव हुए सिलसिले अभाव के


बोझ रिरते सब, कन्धे के पांव के।


लेकिन अभावों के इस अटूट सिलसिलों से बचाव के लिए देवेन्द्र कुमार ने कोई समझौता नहीं किया। यहां तक कि रेल सेवा में तरक्की पाने के लिए सहकर्मी साहित्यकारों और सहृदय अधिकारियों के आग्रह के बावजूद जाति प्रमाण पत्र उन्होंने दाखिल नहीं किया और स्पष्ट कहा कि किसी जाति में पैदा होना कोई योग्यता नहीं है। योग्यता तो स्वयं अर्जित की जाती है।


इसका परिणाम यह हुआ कि जिस पद पर उनकी नियुक्ति हुई थी उस पद पर वे सेवा निवृत्त भी हो गए लेकिन जाति का प्रमाण पत्र उनकी व्यक्तिगत फाइल में नहीं जुड़ सका।


फिर भी जातीय दंश उन्हें बराबर सालता रहा। इस ग्रन्थि के कारण दो-दो बार वे गम्भीर रूप से विक्षिप्तता के शिकार हुए फिर भी अपराजेय जिजीविषा के कारण हर वार से सम्भल कर खड़े हो गए। और क्षणों के साथ बदल जाने वाले दोस्तों और छल कपट के बीच जीने की मजबूरी के बावजूद वे पस्त हिम्मत नहीं हुए बल्कि ललकारते रहे


हम को भी आता है।


भीड़ से गुजरना।


बंगाली जी राजनीतिक मौसम के तापमान से परिचित थे। सरकार की योजनाओं का अर्थ उनके लिए। स्पष्ट था। उन्हें सरकार की नीति और नीयत का कट अनुभव था इसलिए यह कहने में उन्हें तनिक भी हिचक नहीं थी


देख लिया बादल को जी के


अनडूबे पाट हम नदी के


कहां देवदार की भुजाएं, कहां मोह भंग समस्याएं।


अनफूले फूल हम सदी के।


या


अंधियारे की लम्बी खेती, रात चांद के अंडे सेती


मंझन मिया फंसे मंझने में


बादल उठे, कहीं सपने में।


या


वादे-वादे पन्ने सादे


सिर आंखों गुम नाम इरादे।


खुश नशीब तस्वीर बाद में


हम लकीर पहले।


आते-जाते राह बंटाते तुमसे पेड़ भले ।


या


यही समझ लो याद नहीं


कुछ दांतों का, कुछ जुबान का


अपना कोई स्वाद नहीं है।


जीने को जंगल की शर्ते खाने को पेड़ों के धोखे।


ऐसे तो हैं यार क्षणों के।


यह ध्यान देने योग्य है कि हर परिस्थिति में बंगाली का काव्य विवेक संतुलित रहता है। किसी की प्रशंसा में न तो बिगलित होते हैं और न विरोध में दुर्वचन बोलते हैं। लेकिन चुनौती तो वे हर व्यक्ति को दे सकते हैं जिसकी करनी से सच्चाई को आंच लगती हो। ऐसे आदमी की जरूरत कविता को है। इसलिए कविता के हित में है ऐसे रचनाकार की संभावनाओं को रेखांकित करना। ।


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