डॉ. परिचय दास -भोजपुरी-हिन्दी के द्विभाषी ११ से ऊपर कविता-संग्रह। हिन्दी अकादमी, दिल्ली शासन तथा मैथिली-भोजपुरी अकादमी, दिल्ली शासन के सचिव [प्रमुख कार्यकारी] रहे हैं। ‘परिछन' के सस्थापक संपादक तथा ‘इंद्रप्रस्थ भारती' के संपादक रहे हैं। भोजपुरी-हिन्दी में इनकी लिखित-सम्पादित पुस्तकों की संख्या २५ से ऊपर हैं।
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थारू, नेपाल और भारत के सीमावर्ती तराई क्षेत्र में पाई जाने वाली एक जनजाति है। नेपाल की सकल जनसंख्या का लगभग ६.६ प्रतिश्त लोग थारू हैं। भारत में बिहार के चम्पारण जिले में और उत्तर-प्रदेश के तराई क्षेत्रों तथा उत्तरांचल के नैनीताल और ऊधम सिंह नगर आदि में थारू पाए जाते हैं। जहाँ-जहाँ वे बसते हैं, वहाँ-वहाँ की भाषा इनकी भाषा हो जाती है, जैसे-भोजपुरी, अवधी, मैथिली आदि। यद्यपि नेपाल में इनकी भाषा को थारू भाषा कहते हैं। बीरगंज, नेपाल के इलाके में ज्यादातर भोजपुरी ही बोली जाती है। यद्यपि नेपाल में ये लोग अपनी स्थानिक अस्मिता व सम्मान चाहते रहे हैं। भाषाई एवं अस्मितागत प्रश्नों को बहुलता में ही देखा जाना चाहिए। थारुओं के शारीरिक लक्षण प्रजातीय मिश्रण के द्योतक हैं। इनमें मंगोलीय तत्वों की प्रधानता होते हुए भी अन्य भारतीयों से साम्य के लक्षण पाए जाते हैं। कुछ विद्वानों का विचार है कि थारू शब्द की उत्पत्ति तरु शब्द से हुई है, आखेट, मछली मारना, पशुपालन एवं कृषि इनके जीवनयापन के प्रमुख साधन हैं। टोकरी तथा रस्सी बुनना सहायक धंधों में हैं। इनकी शारीरिक रचना मंगोलॉयड प्रजाति से मिलती-जुलती है, जैसे तिरछे नेत्र, गाल की हड्डियाँ उभरी हुई, रंग भूरा-पीला, शरीर और चेहरे पर बहुत कम और सीधे बाल, मध्यम और सीधे आकार की नाक आदि। जबकि अन्य शारीरिक लक्षणों में ये नेपालियों से मिलते-जुलते हैं। वास्तविकता यह है कि थारूओं में मंगोलॉयड और भारतीय जातियाँ दोनों के ही मिश्रितशारीरिक लक्षण दृष्टिगोचर होते हैं। सांस्कृतिक सम्पर्को के फलस्वरूप थारू जाति के शारीरिक लक्षणों में पर्याप्त परिवर्तन हुए हैं। थारुओं का मुख्य भोजन चावल होता है, क्योंकि यही यहाँ अधिक पैदा किया जाता है। ये लोग चावल को भूनकर या उबालकर खाते हैं। मक्का की रोटी, मूली, गाजर की सब्जी भी खाई जाती हैमछली, दूध, दही तथा दाल भी खाई जाती है। शुष्क ऋतु में ज्वार, चना, मटर, आदि भी खाए जाते हैं। आलू तथा चावल के बने ‘जेंड' को बड़ी रुचि से खाते हैं। होली, दीपावली, जन्माष्टमी पर्वो को वे बड़े आनन्द -गान और शराब पीना आदि भी होता
थारू नृत्य
रहता हैमृत्यु होने पर परिवार के सदस्य शव को स्नान कराकर उस पर हल्दी का लेप कर उसे नए कपड़े पहना देते हैं। फिर श्मशान में ले जाकर लाश को आधा जला देते हैं, जबकि पहले उसे गाड़ देते थे।
थारू समुदाय के लोग पहले कच्चे मकानों में रहते थे, जो मिटटी की ईंट, बांस, खरिया, छप्पर आदि से बनाए जाते थे लेकिन समय बीतने के साथ ही थारू लोगों पर गैर जनजातीय प्रभाव पड़ना आरंभ हुआ और थारू लोगों ने भी आधुनिक शैली से बने पक्के मकानों में रहना आरंभ कर दिया। पहले बिहार में थारू लोगों को जनजाति के रूप में नहीं बल्कि पिछड़ी जाति में ही कानूनी स्थान मिला था। बिहार के पश्चिम चंपारण स्थित बगहा, रामनगर, गौनाहा, मैनाटांड़ प्रखंडों में थारू व अन्य आदिवासी बहुल लगभग २६० गांव हैं, जिनकी कुल आबादी लगभग पौने चार लाख है। इन इलाकों में रहने वाले ८० फीसदी लोग भूमिहीन हैं। थारू को आदिवासी घोषित करने के लिए लंबी लड़ाई लड़ी गई२००३ में सफलता मिली जब सरकार ने इन्हें एसटी का दर्जा दिया। लेकिन इस श्रेणी में आने के बावजद वे आजतक अधिकारों और सुविधाओं से वंचित हैं। यदि थारू लोगों का विकास किया जा सके तो उनकी समृद्ध लोक विरासत से भोजपुरी और भारतीय समाज को गति मिल सकती है। हरनाटांड़ में थारू कल्याण महासंघ के केंद्रीय अध्यक्ष श्री दीपनरायन प्रसाद जैसे गुणी लोग अव भी हैं जिनसे संघर्ष व प्रगति की प्रेरणा थारू जनों को मिलती है।
थारू समाज में महिलाएं विशेष समादृत हैं। पश्चिमी चम्पारण के बगहा के हरना टाँड में महिलाएं संगीत की विशेष पारखी हैं। आप किसी परिवार में जाएँ, वे संगीत के किसी-न-किसी माध्यम से जुड़ी हैं। ऐसा मैंने भारत के किसी हिस्से में नहीं देखा जो इन महिलाओं में कलाप्रियता है। सच पूछिए तो सरकार तथा कला माध्यमों का ध्यान इस तरफ जाना चाहिए। इन्हें कला का विशेष प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए।
वन-अधिकार का कानून बना, लेकिन थारुओं, उरांव और अन्य वनवासियों को ही इससे वंचित कर दिया गया। जिसके लिए कानून बना उसे ही इसका लाभ नहीं मिल रहा है। उन्हें जलावन की लकड़ी नहीं लाने दी जाती है। वनों से लघु उपज व जड़ी-बूटी तक लाने पर रोक है। थारुओं की समूची जनसंख्या पर तो सहमति नहीं है परन्तु कुल ४० लाख थारू जरूर होंगे।
थारुओं के अधिकारों की रक्षा होनी चाहिए तथा उनके लिए रोजगार का सृजन भीकेवल उनके हुनर को ही लें तो ग्रामीण जीवन के हर कला उन्हें आती है। यद्यपि इस समाज में शिक्षक, डॉक्टर, प्रोफेसर, अधिकारी आदि सब हो रहे हैं फिर भी ज्यादा संख्या परेशान है। वन की उपज को संरक्षित करने तथा उसमें उनको लगाने से बढ़ोतरी हो सकती है। परम्परा तथा आधुनिकता दोनों का संतुलन जरूरी है। जड़ों से जुड़े रहते हुए उन्हें सृजनशील आधुनिकता की तरफ ले जाना चाहिए। यद्यपि वे जा भीरहे हैं। नदियों से सोना निकालने का काम थारू लोगकिया करते थे। वे घुटने हर पानी में खड़े होकर मिटटी का ढेर लगा देते थे। नदी की धारा बालू को बहा देती थी। जो कुछ मिटटी बच जाती थी उस से मिट्टी के बराबर सोना निकल आता था। इस कला पर आज ध्यान देने की जरुरत है।
बिहार से बाहर विभिन्न जगहों पर जीविका के लिए जाते रहे हैं जैसे अभी के जो आंकड़े हैं उसके अनुसार बिहार से ५००० से ज्यादा लोग गुजरात जाकर नौकरी कर रहे हैं। यदि उन्हें यहीं रोजगार मिल जाए तो बाहर जाकर प्रवासन की आवश्यकता ही न रहे। यद्यपि आज कुछ थारू पुरुषों-महिलाओं ने हाथों के हुनर को आत्मनिर्भरता का जरिया बना लिया है। उन्होंने दरी, कारपेट, पावदान, फाइल कवर आदि बनाना शुरू कियाहै, फिर भी वह ऊँट के मुंह में जीरा जैसा है। आज थरुहट में कम से कम १०-१२ आवासीय विद्यालय, स्तरीय डिग्री कॉलेज, पॉलिटेक्निक, आई.टी.आई आदि चाहिए, जिससे रोजगार की संभावना बढे। थरुहट विकास प्राधिकरण बनाना चाहिए। इस जनजाति क्षेत्र को इस तरह से विकसित करें कि जमीनी संस्कृति बनी थारू युवती
रहने के साथ नए रास्ते खुलें। थारू क्षेत्र की भोजपुरी को बचाना भी जरूरी है। यह क्षेत्र बिहार का एक मात्र व्याघ्र सुरक्षित क्षेत्र है। यह वन्य सम्पदा से परिपूर्ण है। यह लकड़ी के साथ-साथ औषधि से भी भरा क्षेत्र हैयह उत्तर में नेपाल के चितवन वन्य क्षेत्र से लगा हुआ है। इसमें हिरन, बारहसिंगा, भालू, लंगूर, बाघ, चीता, जंगली सूअर, बन्दर आदि तथा भांति-भांति की चिड़ियाँ, साँपों आदि का भी सुरक्षित निवास स्थान है। बहुत खूबूरत पर्यटन स्थल के रूप में बिहार के थरुहट को विकसित किया जा सकता हैयहाँ प्रकृति की आभा विराजती है। यदि थारू जनों के संगीत व कला को अकादमियां, दूरदर्शन, एनजीओ, आकाशवाणी तथा अन्य संस्थाएं संरक्षित करें तो यह एक बड़ी उपलब्धि होगी। मेरा व्यक्तिगत मत हैकि जो भोजपुरी धुनें चम्पारण के थारू जनों के पास हैं, वे सामान्य भोजपुरी समाजों में नहीं मिल सकतीं। मैंने स्वयं उनके बीच कार्य किया है।
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