रोशनी की तलाश में


वक्त भाग रहा है तेज़ रफ्तार से। पहले से भी तेज रफ्तार से और हम सब कुछ भूल कर उसकी गति पकड़ने में लगे हुए हैं। हमें आसपास कुछ भी दिखाई नहीं पड़ रहा है या फिर हम देखना ही नहीं चाहते क्योंकि हमें डर है कि इस चक्र में वक्त से पीछे न चले जाएं। सृजन सरोकार इस दौड़ में साँस की गुजारिश है। गुजारिश है इस बात की, बहुत कुछ है आस-पास जो घट रहा हैं और हम उससे प्रभावित होने के बावजूद उसमें शामिल नहीं हैं उसे महसूस करें। सृजन सरोकार इस दौड़ के समानान्तर एक नई लकीर खींचने की कोशिश है जिसमें खुद, को आस-पास को और अपने बहुत पीछे छोड़ गए तत्त्वों को निहारने की गुंजाइश हो। हम जैसे हैं, वैसा क्यों है और क्या हमें वैसा होना चाहिए जैसे सवाल पूछने के लिए हमें फुरसत की ज़रूरत नहीं है। उसमें जीने की ज़रूरत है। आज का वक्त इस बात की इजाज़त ही नहीं देता कि दुनिया में जो कुछ सुन्दर है, उसे भी निहारा जाए और उसे विद्रूप होने से रोका जाए। हमारे ऐसे सवाल बेमानी हैं क्योंकि हम जो कुछ भी हासिल करने के लिए दौड़ में शामिल हैं, उसमें इस सौंदर्य का कोई अस्तित्व ही नहीं है। हम यह भूल जाते हैं कि इसी सौंदर्य ने, जो कला है, संस्कृति है और जो साहित्य है, हमारी पीढ़ियों को सुघड़ बनाया है और शऊर भी दिया है। इसी में सत्य है और शिव भी। लेकिन, हमने तो ऐसा लबादा ओढ़ रखा है जो जीने के तरीके को भुला कर दौड़ में शामिल होने की माँग करता है। यह लबादा उस तथाकथित धर्म का लबादा है जिसमें हिंसा है और असत्य भी। हमने जीने का शऊर देने वाले साहित्य, कला और संस्कृति को सिरफिरों का फितूर करार दे दिया है और हिंसा को अपनी ताकत समझ किसी आभासी दुनिया की सत्ता का जरिया बना रहे हैं।


हम गाँधी की अहिंसा को अशक्त की मजबूरी मान कर चलते हैं पर वास्तविकता यह है कि गाँधी की अहिंसा ही हमारी ताक़त है और जो भी सत्य होगा उसे साबित करने के लिए हिंसा की आवश्यकता ही नहीं होगी क्योंकि हम बनावटी सोच और कृत्रिम और स्वार्थी सिद्वांतों की गिरफ्त में हैं, इसलिए हम असहिष्णु और हिंसक हो गए हैं। जिस देश में, गाँधी जैसा महात्मा रहा हो और स्वच्छता तथा रौशनी का पर्व दीपावली हो, वैसे देश में हम अँधेरे की चाह में क्यों दौड़ रहे हैं। कहीं हम किसी साजिश के शिकार तो नहीं हैं। हम ज़िन्दगी छीनने की प्रकिया में शामिल होना बहादुरी समझते हैं और इस बात की गुंजाइश ही नहीं छोड़ना चाहते कि सही सोच के लिए भी कोई जमीन तैयार हो सके। हम अपने अपने अँधेरे को पालपोस रहे हैं और उस पर तुर्रा यह कि हमारे अँधेरे को पालने वाला रास्ता ही सही है और तुम जो रोशनी की बात करते हो, हमें भटकाने की साजिश कर रहे हो। सच्चाई यह है कि अँधेरा रोशनी पर काबिज हो रहा है। रोशनी जो खो गई है उसकी हमें तलाश करनी होगी। लक्ष्य बड़ा है लेकिन संकल्प तो ले ही सकते हैं कि हम रोशनी की तलाश में दीप बनें, भले ही यह दीप मशाल का रूप ले ले।