कहानी - हरसिंगार पहले भी था

जन्म : १५ जुलाई १९५५, बलिया जिले के पश्चिमी क्षेत्र रसड़ा के निकट गांव कटयां में। सभी प्रतिष्ठित तत्कालीन पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित। कहानी संग्रह प्रकाशित । राम सेवक श्रीवास्तव के साथ पत्रिका 'रचना' का प्रकाशन। निधन : ५ जुलाई २००९, गोरखपुर


‘सकुशल पहुँच गए। पहली ही पंक्ति पढ़ कर वह झल्ला उठा। सारे पत्र एक से होते हैं। जब भी कोई वहाँ से जाता है, पहुँचते ही लिखता है सकुशल आ गए। आप लोगों की याद बहुत आती है-पत्र लौटती डाक से। यह घर भी तो इतना मनहूस है कि कोई भी किराएदार साल भर से अधिक नहीं टिकता। हर बरस एक नया किराएदार आ जाता है। यह उतना ही जरूरी है जितना मकान की सालाना सफाई मरम्मत। लेकिन सफाई–मरम्मत तो इन मकानों की आठ सालों से नहीं हुई। शिकायत कीजिए तो चश्मे से बूढी बिल्ली की तरह घूरता हुआ सेठ कहता है- म्याहुँ तक्लीफ हो तो घर छोड़ दीजिए। कौन कहता है, आपको नरक भोगने को। यदि औचित्य-न्याय का प्रश्न उठाइए तो नाक पर से चश्मा हटाते हुए फिर कहता है म्याहुं-मुनीम जी, देखिये तो इनके नाम कितना किराया बाकी है? और इस म्याहु से लोग दुबक जाते हैं। क्योंकि सारे कमजोर लोग चूहा होते हैं।


वह पत्र आगे पढ़ने लगा। अन्त तक पहुँचते-पहुँचते उसे सिहरन महसूस हुई, समय बहुत भारी लगता हैं आपका यहां न होना बहुत खलता हैं। पिता जी, माता जी का स्नेह तथा लोगों का प्यार। आपकी नीता वाही।' उसे हल्का सा धक्का लगा। नी-ता-वा-ही। आंखे बन्द करते हुए बुदबुदाया, आपका न होना खलता है और लोगों का प्यार, आपकी वह बार-बार पढ़ता था। ‘आपकी' के आगे जो एक लम्बी सी लकीर खींची हुई थी, उसमें अपने मन के शब्द रख कर एक तरफ जहां उमंगित हो रहा था वहीं खीझ झुंझलाहट से मन भरता जा रहा था।


उन्हें विदा देने स्टेशन गया था। डिब्बे में बैठी श्रीमती वाही, श्रीमती तलवार, चावला, चट्ठा तथा श्रीमती धर से आंसू पोंछ-पोंछ कर बात कर रही थी। प्लेटफार्म पर खड़े वाही साहब लोगों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित कर रहे थे और नीता दूर तारों में उलझ कर फड़फड़ाते फटे पोस्टर को देख रही थी। उसकी दृष्टि में अजीव खोयापन था। उपस्थिति लोगों के अस्तित्व का जैसे उसे वोध भी नहीं था। वह अपलक कागज के टुकड़े को देखती जाती थी।


‘आप लोगों के रहने से एक जिन्दगी थी।' वाही साहब से हाथ मिलाते हुए उसने कहा। नीता अब उसकी ओर देख रही थी। उसकी ‘खोया' में करुणा झांकने लगी थी। उसने आंखें नीची कर ली। दृष्टि सरक कर फड़फड़ाते टुकड़े से जा उलझी। जब गाड़ी चलने लगी तो वह अचकचा गई। सारे लोगों को हाथ जोड जल्दी से खिड़की से बाहर सिर निकाला और भीगी नजर से छूटते प्लेटफार्म को देखा।


‘वीरेन जी', हाथ जोड़कर उसने कहा। उसके होंठ फरफर कांप रहे थे, आंखों से आंसू लटक रहे थे और करुण दृष्टि वीरेन्द्र को आंखों में चुभ रही थी। क्षणभर के लिए उसका मन उद्विग्न हो उठा। हाथ हिलाते हुए चिल्लायापहुंचते पत्र लिखिएगा वाही साहब।


“अच्छा, अच्छा' भरे गले से वाही साहब कह रहे थे और नीता नि:शब्द मूर्ति सी अपलक देख रही थी। रह- रह कर उसकी आंखों के तीर टूट-टूट जा रहे थे।


गाड़ी चले जाने पर भी वह देर तक प्लेटफार्म पर खड़ा रहा। कोई स्पष्ट विचार उसके मस्तिष्क में नहीं उभर रहा था। आखिर इतनी देर तक क्यों रुका रहा?' अपने-आप से जैसे उसने प्रश्न किया। साथ छूटते समय आंसू तो आ ही जाते हैं- लोग तो अपने पेड़, पौधे, कुत्ते- बिल्लियों के लिए रोते हैं, फटे कैलेण्डरों और टूटे कप- प्यालों के लिए रोते हैं और तो और गली के मोड़ तथा दूर दिखते क्षितिज के लिए रोते हैं- वह तो उनका पड़ोसी के दु:ख-सुख में हिस्सा बंटाने वाला।


लेकिन यह क्या ठीक है कि कभी-कभी इतने सारे क्षण एक साथ आ जाते हैं कि आंखे बरबस भर आती हैं और तब पता लगाना कठिन होता है कि ये आंसू किसके लिए है? हो सकता है नीता के आंसू भी किसी अनजान । क्षण के लिए हों और उसमें उसका कोई हिस्सा न हो। वरना जिस मन में सपने पिघलकर पानी बन रहे हो वह एक शब्द भी नहीं कहता।।


घर पहुँचा तो पांच बज रहे थे। सूरज पेड़ों की फुनगियां पकड़कर नीचे उतर रहा था और लड़के धूल उठाकर फेंक रहे थे। दरवाजे पर परिचित ताला लटका हुआ था और हर सिंगार वैसे ही गुमसुम खड़ा था जैसे उन्हें अपेक्षा थी, अभी नीता आएगी। बाहर से लौटकर आती हुई मां पर बिगड़ेगी- मम्मी, कम से कम पांच बजे तो कहीं मत जाइए।' खड़े-खड़े मेरे पांच दुखने लगे हैं।' अरे पगली अभी तो गई थी। और कुंजी तो भोला के पास है क्यों नहीं मांग ली- ओ भोला, हे हे' करती माता जी पुकारेंगी।


‘में तो अन्दर ही था माता जी, इन्होंने आवाज नहीं दी।' कुंजी देते हुए भोला कहेगा और वह शरारत भरी नजर से उसे देखती हुई झटककर कुंजी ले लेगी। झटका कर ताला खोलेगी। किताव कापियां टेवुल पर पटकेगी। कुछ ही मिनट में कपड़े बदल कर गले में दुपट्टा लपेट बाहर आएगी और इस झुकी डाल को पकड़कर झकझोर देगी। देखते सड़क की वत्तियाँ मुस्कराने लगेंगी और यह उदास हरसिंगार पीले परिधान में झूम उठेगा।


कमरे में पहुँचते ही उसने पंखा चलाया फिर बत्ती जला दी। रोशनी से कुछ बेचैनी महसूस हुई और उसने बत्ती बुझा दी। आँखें बन्द किए कुछ सोचता रहा लेकिन कुछ मिनटों में ही देह तोड़ता खड़ा हो गया। सड़क की बत्तियाँ जल गई थीं लेकिन हरसिंगार वैसे ही उदास खड़ा था। न तो उसकी कोई टहनी हिल रही थी न उसके नीचे कोई छाया डोल रही थी। आस-पास की धरती आकाश में चुप्पी और उदासी भर रही थी और धीरे-धीरे उसके अपने आकाश की तरफ बढ़ती आ रही थी। उसने अपने को झटका दिया, हरसिंगार की डाल पकड़ कर झकझोरना चाहा लेकिन अचानक हाथ ढीले पड़ गए। शरीर में कम्पन होने लगा और हृदय धड़क उठा जैसे उसने कोई गुनाह कर दिया हो।


“आखिर इसमें डरने की क्या बात है? डाल ही तो पकड़ी थी? मान लो उस मकान का किरायादार न होकर इस मकान का होता तो यह हरसिंगार अपना होता और तब? लेकिन प्रश्न तो उस मकान या इस मकान का नहीं है। यह हरसिंगार तो पहले भी था और तब तो अक्सर इसकी टहनियाँ झकझोर देता था। लेकिन ..। लेकिन वेकिन कुछ नहीं। यह सब कमजोरी है। उदासी एक हृदय रोग है पता नहीं क्यों हमें भुलावे में जीते रहने में सुख मिलता है।


पूरे स्वर में रेडियो खुला हुआ था। कोई प्यारा सा गीत चल रहा था। वह मन को गीत की सीमा में बांध रहा था लेकिन मन था कि एक क्षण में ही शरारती बच्चे की तरह दूर छटक जाता था। वह बड़ा परेशान था। डांट भी नहीं सकता था। जाने क्या असर पड़ता मासूम के ऊपर। ‘लेकिन यह खिलवाड़ भी तो अच्छा नहीं'। उसने बचपन का एक टूटा खिलौना सामने रखा। वातावरण बदला और मन जैसे उलझ गया- 'बबुआ ऐसे नहीं देखते। आंखे बड़ी दगाबाज होती हैं। पलक मारते ही जादुई शीशा सामने रख देती हैं, कुछ का कुछ दिखाई पड़ने लगता है। सारी तस्वीरे उलटी हो जाती हैं, सीधी दीखती है तो सिर्फ दो आंखें ।' ‘हूं' कह मन ने झटक दिया, खिलौना छितरा गया और वह अकड़ कर खड़ा हो गया।


‘जो भी चाहो करो, स्वतंत्र हो। धूल से पाकेट भर लो, कोट में गुलाब लगा लो, ठिकरे जोड़कर महल बना लो या दर्जी को कतरने लाकर कपड़े की दुकान खोल लो लेकिन भाई, मुझे तो भूख लगी है।' विहंसते हुए वीरेन्द्र ने कहा- भोला खाना यहीं लाओ।' 'बाबू, नीता दी ने मेरी कापी पर अपना पता लिखा


'बाबू, नीता दी ने मेरी कापी पर अपना पता लिखा है। कहा है- “भोला तुम्हें चिट्ठी लिखने तो आ ही गई हैइस पते पर लिखना। डरना मत, मुझे ही मिलेगी, उसके सामने कापी बढ़ाते हुए भोला ने कहा।


‘हटाओ, क्या, नीता दी, नीता दी लगाए रहता है?' पानी का गिलास उठाते हुए वह झल्ला पड़ा। सहम कर भोला ने कापी पीछे कर ली और खाली गिलास लेकर चला। कापी अब भी पीछे ही थी। ज्यों ही उसने कमरे के बाहर पांच रखा, वीरेन्द्र बोला- लाओ देखें, तुम्हारी नीता दी का पता। अरे, यह तो अंग्रेजी में लिखा है। तु । कैसे लिखेगा?'


मैंने पूछा था तो नीता दी ने कहा किसी से लिखवा लेना और तुम्हारे बाबू तो हैं। इतना सारा लिखते फाड़ते हैं क्या तुम्हारा पता नहीं लिख देंगे?' कुछ डरते हुए भोला ने धीरे से कहा।


‘अच्छा,' कापी पलंग पर रखते हुए वीरेन्द्र ने कहा। हाथ पोंछ कर वह लेट गया। रेडियो चिल्ला रहा था और वह सोचे जा रहा था- पता तो वह हिन्दी में भी लिख सकती थी, आखिर अंग्रेजी में क्यों लिखा? इसमें डरने की बात कहाँ से आ गई? बाई बगल में कुछ चुनचुनाहट हुई और वह चित्त लेट गया।


उस दिन को सुबह धुली-धुली थी। रात देर तक जगने पर भी वीरेन्द्र बहुत हल्का अनुभव कर रहा था। अंग-अंग में ताजगी और नई स्फूर्ति थी। वातावरण बहुत ही प्रीति कर था। वह नंगे पांव लॉन की हरी दूबों पर टहलने लगा। उसकी दृष्टि जब हर सिंगार के फूलों से टकराई तो चकित हो उठा- हर सिंगार की टहनी धीरेधीरे कांप रही थी और एक उन्मत सी लड़की उसे पकड़े खड़ी थी। जव उसकी दृष्टि वीरेन्द्र से मिली तो वह जैसे सहम गई और गर्दन झुगाए धीरे-धीरे अन्दर चली गई।


‘कहिये, वीरेन्द्र जी।' वह खड़ा-खड़ा सोच ही रहा। था कि वाही साहब का स्वर आया। वह असमंजस में पड़ गया। ‘नमस्कार, वाही साहव' जनता से आए क्या?' झिझक तोड़ते हुए उसने कहा।


‘हां भाई, नमस्कार करो, नीता'। यही वीरेन्द्र जी है।' वाही साहब ने मुस्कराते हुए कहा।


‘नमस्कार।' हाथ जोड़ते हुए नीता ने कहा। उसके होंठ देर तक फरफराते रहे और उनमें हरसिंगार की हंसी झांकती रहे।


सुबह-सुबह नीता दरवाजे पर झाड़ लगाती थी, उसे देखकर वीरेन्द्र को लगा कि लड़कियों के हर काम में एक छन्द होता है- एक लय होती है। खासकर जब वे झाडू लगाती हैं तो गीत बजने लगता है।


शाम को नीता की कुर्सी लॉन में लगने लगी। वह ऐसे कोण जहाँ से वीरेन्द्र की हर मुद्रा साफ-साफ पढ़ी जा सकती थी।


वीरेन्द्र अपने मकान की तरफ अपना रुख करके बैठता था। जब कभी गर्दन मोड़ता था कि नीता की मुलायम दृष्टि से उसे छू जाती थी और उसके शरीर में गुदगुदी होने लगती थी। नीता जब कुछ बोलती थी, वह बेचैन हो उठता था। कुछ भी बोलने के पहले मुस्कराना, नीता के लिए जरूरी था और वात कह लेने के बाद कुछ देर तक खिलखिलाना। उसका हर शब्द मुस्कान की कई पत्तों से लिपटा रहता था।


जब कभी वह भोला को पुकारती थी, वीरेन्द्र के कानों में देर तक शहनाई गुंजती रहती थी। कोई बात कहने के बाद वह नन्हीं बच्ची सी टुकुर-टुकुर देखने । लगती थी और उसकी पुतलियाँ रह-रहकर चल्हवा मछली सी उलट-उलट जाती थी।


‘इतने बड़े मकान में अकेले भूत भी नहीं रह सकता।भोला, तुम्हारे बाबू कैसे रहते हैं?' एक आंगन में नल पर हाथ धोते हुए उसने भोला से पूछा। भोला मुस्कराता हुआ कुछ कहने जा रहा था कि वह बोल पड़ी-लाओ बाबा, देखे क्या लिखा है। बाहर लाओ। वरना तुम्हारे बाबू आ जाएंगे। बड़ा डर लगता है, उनसे।''


पर्दे के सरकने की आवाज से वह पीछे मुड़ी। दरवाजे पर वीरेन्द्र खड़ा दिखा। वह घबरा गई। छोटे-छोटे डग भरती तेजी से वह बाहर निकलने लगी, वीरेन्द्र ने उसे । रोकना चाहा लेकिन वह कुछ कह नहीं सका। सिर्फ बुत सा देखता रहा। उसका सिर भन्ना उठा और वह औंधे मुंह चारपाई पर पड़ गया।


बड़ी देर बाद बाहर निकला। लॉन में कुर्सियाँ लगी हुई थीं। नीता की कुर्सी खाली थी। उसने सोचा अन्दर किसी काम से गई होगी, अभी आएगी। काफी देर हो गई। वह बाहर नहीं आई और वाही दम्पती कुर्सियां अन्दर रखने लगे।


दस बजे तक वह अपनी लान में बैठा नीता के निकलने की प्रतीक्षा करता रहा। उसे कुछ घबराहट सी हुई- नीता ने कहीं कुछ कहा तो नहीं? यही क्या कम अपराध है कि कोई लड़की शर्म से गड़ी जाए और बेहया की तरह रास्ते में खड़े रहे। जब वह अन्दर आंगन में थी तो उसे या तो बाहर की कोठरी में चला जाना चाहिए था या थोड़ा और हटकर कायदे से खड़ा हो जाना चाहिए थाउसे दो दिन पहले की बातें स्मरण हो आईं


‘जाने कैसे-कैसे लोग आते हैं? नीता की सहेलियां आती जाती हैं तो छींटाकशी करते हैं। बेमतलब की भद्दीभद्दी बातें करते है। झल्लाकर माता जी ने वाहो साहब से कहा था और बात को खत्म करते हुए वाही साहब ने जवाब दिया था- अरे भाई उमर हैं सभी ऐसा करते हैं। लेकिन वीरेन्द्र के होते किसी बात की फिक्र नहीं करनी चाहिए।'


वह परेशान था- क्या उत्तर दे? मान लो उत्तर देने की नौबत ही न आए तो भी क्या सोचेंगे वे लोग? कैसा लगता होगा वह नीता की नजर में? अब क्या वह उसी तरह भोला को बुला सकेगी? काफी रात तक वह सोचता रहा।


दिन चढे वह बाहर निकला। नीता लॉन में धीरेधीरे टहल रही थी। उसका चेहरा उतरा हुआ था। वह बेहद थकी हुई कमजोर लग रही थी। वीरेन्द्र उलटे पांव अन्दर लौट गया। वह घबराया हुआ था। जल्दी से कपड़े बदलकर बाहर निकल गया। दो पहर तक इधर-उधर भटकता रहा। लगभग दो बजे घर लौटा। उसके दिल की धड़कन काफी तेज थी। तभी उसकी नजर वाही साहब के घर पर पड़ी। नीता बरामदे में भोला को पढ़ा रही थी। उसकी आवाज़ा थकी हुई थी। वह चुपचाप घर में चला गया।


'शायद आज शाम को कुछ हो। चारपाई पर लेटते हुए उसने सोचा। तभी भोला अन्दर आ गया। ‘घर खुला छोड़कर, कहाँ थे, भोला।'


‘नीता दीदी के यहाँ।' डरे हुए भोला ने कहा। वीरेन्द्र उससे कुछ और पूछना चाहता था लेकिन पूछ नहीं सका।


सांझ हई। लान में कर्सियां लग गई। वीरेन्द्र भी अपने मित्रों के साथ बाहर बैठा। तरह-तरह की बातें शुरू थी लेकिन उसका मन परेशान था।


वाही दम्पती किसी मसले पर जैसे विचार-विमर्श कर रहे थे। नीता अपनी पुरानी जगह पर बैठी तकिये के गिलाफ पर कुछ काढ़ रही थी। बड़ी संजिदगी थी उसके बैठने में। यह संजिदगी गम्भीरता वीरेन्द्र के लिए परेशानी बनी थी। मित्रों के चले जाने पर उसे लगा कि वाही साहब उसे पुकारेंगे।


कई शाम धुन्ध और संशय में बीत गई लेकिन उसकी आंशका अघटित रही। एक बात जरूर हुई थी कि नीता उसे देखने में झंपने लगी थी। भोला को बुलाने के लिए उससे न कह कर स्वयं सीधे बुलाने लगी। वीरेन्द्र को बुरा लगता था लेकिन कुछ कह नहीं पाता था। खोज में भोला को पुकारता था- तुम्हें नीता बुला रही है।'


एक दिन कालेज से लौटने पर ढेर सारे फूल मेज । पर रखे मिले।


‘भोला, ये फूल कहां से आए ?'


‘नीता दी, ने दिए हैं।' भोला ने खुशी में कहा, ‘कहती थीं, फूल से नींद अच्छी आती है।'


वीरेन्द्र ने एक फूल उठा लिया- मीठी सुगन्ध से उसका मन भर गया- झूठ-मूठ में ही व्यर्थ की बात को तूल दे कर महीनों से परेशान रहा। प्रसन्नचित वह दरवाजे । पर आया। नीता मेहदी की झाड़ियों के पास खड़ा था। उसके मुंह से बरबस निकल पड़ा- नीता। और धड़कते । दिल से उसकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा करने लगा।


नीता मेंहदी की पत्तियाँ दांत से कुचती हुई हरसिंगार के पास आ गई और प्रश्न भरी दृष्टि से उसे देखा। वरेन्द्र सकपका गया। जो कुछ कहना चाहता था वह दिमाग से सरक गया और जल्दी में बोल पड़ा- पेपर कैसे हो रहे हैं।


‘न विशेष अच्छे, न बुरे।' नीता का छोटा सा उत्तर था जिससे दोनों खामोश हो गए।


‘तुमने बुरा तो नहीं माना, नीता....।' लगभग हकलाते हुए वीरेन्द्र ने कहा और नीता बिना कोई प्रतिक्रिया व्यक्त किए मेंहदी की झाड़ियों के पास जाकर गुम सुम सिर झुकाए खड़ी हो गई। वीरेन्द्र झल्लाहट में अपने कमरे में चला गया।


वह प्रयत्न करने लगा कि नीता को न देखें। जब वह बाहर होती थी- वीरेन्द्र अपने कमरे में बन्द रहता था। जब कभी वह बाहर होता था और नीता भी बाहर आ जाती थी - तब वह पुस्तक में आँखे धंसा लेता था। अधिक समय वह घर से बाहर रहने लगा। शाम को अक्सर नौ वजे दस बजे लौटता था। लेकिन जव हरसिंगार की तरफ दृष्टि जाती थी तो नीता को टेबुल लैम्प के सामने झुकी देखकर उसके मन में टीस उठती थी।


तीन-चार दिनों से नीता की निगाहें उसे गीली नज़र आ रही थी। उसके चेहरे पर अजीब सी उदासी दिखती थी।


“भोला, तुम्हारी नीता दी क्यों उदास रहती है?' उसने भेला से पूछा।


“परसों नीता दी लखनऊ चली जाएंगी। अब लोग वहीं रहेंगे।' रूआंसे स्वर में भोला कहता गया, नीता भी पूछ रही थी- भोला, तुम्हारे बाबू आज कल उदास क्यों रहते हैं?'


‘तुमने क्या बताया?' बेचैनी में वीरेन्द्र ने पूछा। ये अदा में नहीं जानता।' भोला का चेहरा कम उतर गया था।


‘तुम क्या, कोई नहीं जानता। मुझे उत्तर नहीं, सिर्फ प्रश्न मिलते रहे हैं।' सोचते-सोचते वह बड़बड़ा उठा और पत्र को मोड़कर एक तरफ रख दिया। थोड़ी देर बाद पुनः पत्र को उठा लिया और कई बार पढ़ी गई पंक्तियो पर नजर दौड़ाने लगा। उसके समने तांगे पर बैठती नीता का पीड़ा भरा चेहरा उभर आया और उसकी नस नस दुख उठी। भारी मन से उसने भोला को पुकारा- भोला, तुम्हारी नीता दी का पत्र आया है। तुम्हें प्यार लिखा है। जाते समय और क्या-क्या कहा था, तुम्हारी नीता दी ने?'


पत्र को देखकर भोला की आंखे चमक रही थी। उसने मुस्कुराते हुए कहा- कहती थी- भोला, यह हरसिंगार पहले भी था और हम नहीं रहेंगे तो भी रहेगा। लेकिन यह जान लो, हम जहां भी रहेंगे-वहां यह भी रहेगा। हम तुम्हें और तुम्हारे हरसिंगार को वहां से देखते रहेंगे। बड़ी वैसी थी नीता दी ‘वह खिलखिला पड़ाकहती थी - देखना तुम्हारे बाबू बड़े भोले हैं- कहीं कोई .......।' वह खिलखिलाते हुए हंस पड़ा।


वीरेन्द्र उसकी भीगती पलकों में चमकती पुतलियां को देख रहा था और उसके मन में कोई बात बुरी तरह चुभ रही थी ----- पत्र लौटती डाक से।।