जन्म शताब्दी वर्ष पर विशेष -मुक्तिबोध की वैचारिकी और आज का समय - डॉ. जयप्रकाश धूमकेतु

जय प्रकाश धूमकेतु कवि और सम्पादक के रूप में हिन्दी दुनिया में जाने जाते हैं। उनके संपादन में अभिनव कदम के विशेषांकों ने साहित्य और विचार की दुनिया में हलचल मचाई है। राही मासूम रजा, मलायज, रशीद जहां, राहुल सांकृत्यायन, हूरिक हाब्सबाग और स्वामी सहजानंद पर केन्द्रित विशेषांक की भारीचर्चा हुई है।


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मुक्तिबोध हिन्दी साहित्य के कालजयी रचनाकार के रूप सर्वस्वीकार्य हैं। मराठी भाषा की छत्रछाया में पले-बढ़े मुक्तिबोध राजनन्दगाँव में आने के बाद हिन्दी साहित्य में गद्य और पद्य दोनों में अपनी कलम को आजमाया। कविता, कहानी, उपन्यास, निबन्ध और आलोचना में उनकी लेखकीय दिलचस्पी बनी रही। हिन्दी कविता में उनका सर्वाधिक योगदान माना गया। मुक्तिबोध की कलम जिस विधा में चलती उनकी वैचारिकी की ध्वनियाँ हर कहीं मौजूद रहती हैं। ‘विचार हो गए विचरण-सहचर' अपने विचार सहचर को मानते हुए मुक्तिबोध अपनी पूरी सृजन यात्रा को जीवन के अन्तिम समय तक जारी रखा 1


           'अंधेरे में मुक्तिबोध की सर्वाधिक चर्चित स्थापित कविता के रूप में पूरे साहित्य जगत में स्वीकार्य हो चुके है। यह पूरी कविता मुक्तिबोध की वैचारिक प्रतिबद्धता का प्रामाणिक दस्तावेज है। ‘अंधेरे में' का सृजन १९५७ से १९६२ का समय माना गया है। १९६४ में मुक्तिबोध का निधन हुआ और उसी वर्ष पहली बार कल्पना पत्रिका (हैदराबाद) में 'अंधेरे में : आशंका के दीप' नाम से प्रकाशित होकर हिन्दी पाठकों के समक्ष यह कविता आईबाद में ‘अंधेरे में' नाम से ही हिन्दी साहित्य की अमूल्य धरोहर के रूप इस कविता को जाना जाने लगा। इस कविता की सृजन यात्रा में ६ वर्ष की अवधि लगी हो, बार-बार लिखा गया हो, चार-चार ड्राफ्ट तैयार किए गए हों और उस कविता पर सर्वाधिक लिखा गया हो। उसकी महत्ता को भला कौन नहीं स्वीकार करेगा। वास्तव में मुक्तिबोध के समग्र काव्यात्मक अभिव्यक्ति का अनुभव और आकलन 'अंधेरे में कविता का बार-बार पाठ करते हुए किया जा सकता है। साहित्यक सर्जनात्मकता की आधार भूमि उनकी वैचारिकी ही है जो जनपक्षधरता की कायल है। वर्गीयचेतना का उद्घोष मुक्तिबोध के सृजन कर्म का मूलस्वर है जिससे गुजरते हुए मुक्तिबोध जनक्रान्ति का सपना देखते हैं। ‘छटपटा रही हैं शब्दों की लहरें और उन लहरों पर सवार मुक्तिबोध ‘अंधेरे में' जैसी कालजयी कविता की रचना करते हैं। पूरी कविता में अपने आप से टकराते हुए समाज की प्रतिगामी ताकतों से टकराते हैं। जिस समय में मुक्तिबोध इस कविता को लिख रहे थे वह समय आजादी के बाद नेहरू मॉडल का समय था। फिर नेहरू युग से मोहभंग का दौर आया। आजादी के बाद जो सपना देश की जनता देख रही थी वह सपना टूटता-विखरता नजर आने लगा। मुक्तिबोध ने अंधेरे में वह सब कह दिया जो उन्होंने महसूस किया। यहाँ तक कि भविष्य में आसन्न खतरे के प्रति आगाह भी कर दिया। चाहे वह जून १९७५ में लागू आपातकाल की स्थितियाँ हों या इक्कसवीं शदी के दूसरे दशक में वनती मनुष्य विरोधी परिस्थितियाँ, भारतीय लोकतन्त्र के ऊपर आसन्न खतरे की घंटी है।


           माक्र्सवादी विचार सरणी के प्रति चट्टानी प्रतिबद्धता जीवन के अन्तिम समय तक बनी रही। ‘विचारों की फिरकी, सिर में घूमती हैं। जनता की मुक्ति का रास्ता जनक्रान्ति से ही निकल सकता है। जिसका सपना सजोए मुक्तिबोध जीवन पर्यन्त चलते रहे। कभी किसी मोड़ पर समझौता नहीं किया। बार-बार सामन्ती और साम्रज्यवादी खूखार चेहरे से टकराना उनकी नियति थी। वैज्ञानिक दृष्टि, सधन संवेदना, प्रेम-करुणा, मनुष्यता के प्रति सचेत प्रतिबद्धता मुक्तिबोध के व्यक्तित्व का अनिवार्य हिस्सा था। उनकी परम अभिव्यक्ति वैचारिकी को केन्द्र में रख कर प्रस्फुटित होती है। मुक्तिबोध कहीं पर भी अपने काव्यात्मक विवेक को ओझल नहीं होने देते-शहर देश व राजनीतिक स्थिति और परिवेश/प्रत्येक मानकीय स्वानुभूत आदर्श/विवेक प्रक्रिया क्रियागत परणति !! वक्त जरूरत पर-‘विवेक का रन्दा'। तीखा रन्दा जो विवेक का चलता है उसके पीछे की गतिकी-'उनका अनुभव, वेदना, विवेक निष्कर्ष के/ मेरे ही अपने यहाँ पड़े हुए हैं। तभी उनकी आँखों में बिजली के फूल खिलते हैं जिसे अपनी आँखों में सहेज कर अपने समय से दो-दो हाथ कर लेने के लिए आतुर हैं। मुक्तिबोध जीवन राग और आग के कवि हैं।


         संवेदनात्मक ज्ञान और ज्ञानात्मक संवेदना की परिधि पर मुक्तिबोध की सृजन यात्रा अबाध गति से चलती रही जिसका केन्द्र बना रहा मार्क्सवादी दर्शन। जीवन और समाज, ज्ञान और संवेदना मुक्तिबोध की जीवन दृष्टि व साहित्यिक दृष्टि से कभी ओझल न हो सके। वे काव्यमूल्य के साथ-साथ जीवन-मूल्य को परखते हुए आगे बढ़ते हैं। मुक्तिबोध की सबसे अधिक शिकायत मध्यम वर्ग से है जिस वर्ग में वे अपने आप को शामिल करते हैं? अंधेरे में कविता के भीतर का जो द्वन्द है खुद मुक्तिबोध के भीतर का द्वन्द है तभी तो- ‘प्रत्यक्ष में खड़ा हूँ। खुद के सामने'। भीतर और बाहर का मुक्तिबोध अपने आप से सवाल करता हैजो पूरे मध्यमवर्गीय समाज का भी सवाल है-'ओ मेरे आदर्शवादी मन/ओ मेरे सिद्धान्तवादी मन/अब तक क्या किया? जीवन क्या जिया!! उदरंभरि वन आनात्म वन गए भूतों की शादी में कनात से तन गए। किसी व्याभिचारी के बन गए बिस्तर/ बहुत-बहुत ज्यादा लिया/दिया-बहुत कम/मर गया देश, अरे जीवित रह गए तुम!!''


      मुक्तिबोध का यह प्रश्न उस पूरे मध्यम वर्ग से हैऔर खुद अपने आपसे भी- ‘बाहरी दुनिया में/उतनी ही तेजी से भीतरी दुनिया में चल रहा हैद्वन्द्व कि/फिक्र से फिक्र लगी हुई है। यह फिक्र उनकी वेदना को उनकी थरथराहट में बदल देती है-वेदना भयानक थरथरा रही हैयह सब जो कुछ भी सत्य से सत्ता के युद्ध रंग है मुक्तिबोध हमेशा सत्य के साथ खड़े रहे-'हायहाय'! मैंने उन्हें देख लिया नंगा/ इसकी मुझे और सजा मिलेगी।'' आर-पार देखने की कूवत सिर्फ मुक्तिबोध जैसे दुरदष्टि रखने वालों में होती हैसत्ता के शीर्ष पर बैठे सर्वशक्तिमान को नंगा देख पाने और कह पाने का साहस मुक्तिबोध करते हैं। उनकी सूक्ष्म दृष्टि तरंग दूर तक देखने में सक्षम है। उनकी आँखों में बिजली के फूल जो खिलते हैं- ‘तोड़ने होंगे गढ़ और मठ' को संकल्प शक्ति के साथ आगे बढ़ने वाला जब किसी सत्ता व्यवस्था के विरूद्ध चुनौती बन कर खड़ा होता हैं तभी तो- 'मैं आततायी सत्ता के सम्मुख' जैसी पक्तियाँ फूटती हैं। गढ़ और मठ से टकराकर मनुष्य विरोधी शक्तियों से समाज को मुक्ति दिलाना चाहती हैं। मुक्तिबोध की वैचारिक प्रतिबद्धता उन्हें तथा उनके द्वारा सृजित साहित्य को कालजयी बनाती है।


        मनुष्यता के ऊपर मड़राते संकट की ठीक-ठीक पहचान मुक्तिबोध करते हैं। अपने आप को ही नहीं बल्कि आने वाले समय के आसन्न खतरों की तस्वीरें उनके राडार पर थीं। मौजूदा समय में घट रही घटनाओं का चित्र ‘अंधेरे में' कविता में देखा जा रहा है। १९६४ में जो त्रासद स्वप्न रात के अंधेरे में था। वह आज दिन के उजाले में यथार्थ वन कर दिखाई दे रहा है। आज के समय की जटिलता का आभास मुक्तिबोध का हो चुका था। अपने समय के संकट से टकराना मुक्तिबोध की नियति थी- 'हमारे पास सिर्फ एक चीज है/ईमान का डंडा/ बुद्धि का बल्लम/अभय की गैती/हृदय की तगारी-तसला हैनए-नए बनाने के लिए भवन/आत्मा के/मनुष्य के'। 


        निर्मम और क्रूर होते समय को मुक्तिबोध मनुष्यता पर हमले के रूप में देखते हैं। और इस खतरे का मूल कारण मध्यमवर्ग के भीतर चल रही विचलन और फिसलन की प्रक्रिया है, दिन के उजाले में उसका चेहरा कुछ और है और रात के अंधेरे में कुछ है। मध्यमवर्ग के चरित्र का यह दोमुंहापन ही जनक्रान्ति के रास्ते में सबसे बड़ी बाधा हैं। मुक्तिबोध अपने आप को उसी मध्यमवर्ग का हिस्सा मानते हैं। और अपने भीतर के ‘ओरांग उटांग' को भी पहचानते हैं- ‘भागता में दम छोड़ घूम गया कई मोंड बन्दूक धाँय-धाँय'। दम छोड़ कर भागना और कई-कई मोंड पर घूम जाना मध्यमवर्ग की नियति हैं जो जनक्रान्ति के मार्ग को अवरूद्ध करती है। सारी जनविरोधी परिस्थितियों के वावजूद मुक्तिबोध- ‘खड्डू के अंधेरे में मैं पड़ा रहूँगा/ पीड़ाएँ समेटे' अपने विवेक के महान् विक्षोभ को सुरक्षित रखते हुए- ‘सत-चित- वेदना जल उठी दही और फिर उनके विचार हो गये विचरण-सहचर'वह जो विचार है उस विचार को जीवन पर्यन्त सहचर बना कर लक्ष्योन्मुख जनक्रान्ति की दिशा में आगे बढ़ते रहना है दृढ़ इच्छाशक्ति रखने वाले मुक्तिबोध के बूते का ही यह सफरनामा हो सकता है। ‘तिलिस्म खोह में गिरफ्तार- वह रहस्यमय व्यक्ति' कौन है जिसके- ‘हृदय में रिस रहे ज्ञान का तनाव' है जो किसी खड़ी पाई की सूली पर टांग दिया गया हैं?


       निस्तब्ध नगर के मध्यरात्रि के अंधेरे में सुनसान प्रोसेशन में जो लोग शामिल हैं वे लोग कौन है? दूर बैंड देश दल की दवी हुई ध्वनियाँ किसकी है?- ‘उदास-उदास ध्वनि तरंगे गंभीर दीर्घ लहरियाँ!! बैंडदल और उनके पीछे काले-काले बलवान घोड़ों का जत्था दिखता है। घना व डरावना अवचेतन ही/जूलूस में चलता है। यह क्या शोभा यात्रा/किसी मृत्युदल की अजीब' !! मुक्तिबोध प्रोसेशन में बैंडदल के साथ-साथ चलने वाली भीड़ और लोगों के चेहरों को पहचानते हैं- ' शायद, मैने उन्हें पहले-कहीं तो भी देखा था1


       लगता है उसमें कई प्रतिष्ठित पत्रकार/इसी नगर के!! बडे-बडे नाम अरे, कैसे शामिल हो गए इस बैंड दल में !! उनके पीछे चल रहा/संगीन-नोकों का चमकता जंगल/ चल रही पद चाप, तालवद्ध दीर्घ-पाँत/टैंक दल, मोर्टार, अर्टिलरी, सन्नध/धीरे-धीरे बढ़ रहा जुलूस भयावना'।


       मृत्यु दल की इस शोभायात्रा और जुलूस की भयावहता को शिद्दत से महसूस करते हैं मुक्तिबोध-चेहरे का आधा भाग सिन्दूरी-गेरूआ' किसी मृत्युदल की इस शोभायात्रा में काले-काले घोडों पर खाकी मिलिट्री ड्रेस में कर्नल, ब्रिगेडियर, जरनल, मार्शल, सेनापति, सेनाध्यक्ष सभी शामिल हैं। साथ ही साथ आलोचक, विचारक, कविगण, मंत्री, उद्योगपति, विद्वान् सभी इन चेहरों को मुक्तिबोध पहचानते हैं। इस भयावह स्थिति में‘सब सोये हुए हैं लेकिन मुक्तिबोध जाग रहे हैं, कबीर की तरह। जुलूस के एक-एक चेहरे को कैद कर रखा है, मुक्तिबोध ने अपने कैमरे में। आशंका उनको भी हैकि मुझे कोई देख रहा है-'आधी रात अंधेरे में उसने/देख लिया हमको/व जान गया वह सब/मार डालो, उसको खत्म करो एक दम !!' मुक्तिबोध की “अंधेरे में : आशंका के दीप' का पहलीबार प्रकाशन १९६४ में हुआ और उसी वर्ष उनका निधन भी। जून १९७५ में इन्दिरा गांधी ने देश में आपातकाल लागू किया। देश में आपातकाल जैसी स्थितियों का आभास मुक्तिबोध को था। हिटलर के फासीवादी चेहरे की परिणती और उसके परिणाम से भी अवगत थे। आपातकाल भारतीय समाज में फासिज्म के आने का संकेत था। और इक्कीसवीं सदी का दूसरा दशक उसकी अदृश्य परणति । वस समय का प्रवाह और तकनीक के बढ़ते संजाल ने उसके तौर-तरीके तथा औजारों को रूपान्तरित कर दिया हैं।


      चारो तरफ हाहाकार मचा हैं-कहीं आग लग गई, कहीं गोली चल गई' बावजूद इसके सभी चुप हैं-'सब चुप, साहित्यकार चुप और कवि जन निर्वाक/चिन्तक, शिल्पकार, नर्तक चुप हैंउनके खयाल से यह सब गप हैंमात्र किंवदन्ती'। साथ-साथ-‘बौद्धिक वर्ग हैं क्रीतदास/किराये के विचारों के उद्धास/बड़े-बड़े चेहरे पर स्याहियाँ पुत गई/नपुंसक श्रद्धा/सड़क के नीचे गटर में छुप गई।


       मुक्तिबोध जिस जनक्रान्ति का स्वप्नलोक बुन रहे थे और जिनको अपने सपनों को साझीदार समझ रहे थे वे सब के सब चेहरे मध्यरात्रि के जुलूस में कतारबद्ध हो कदमताल कर रहे थे- ‘रक्तपायी वर्ग से नाभिनालबद्ध ये सब लोग/नपुंसक भोग-शिरा जालों में उलझे' । मुक्तिबोध मध्यमवर्गीय दो मुंहापन की जटिल स्थिति के बाद भी विचारों की उर्जा के साथ अंधेरे से लड़ने और उसे मिटाने के लिए पूरे आत्मविश्वास और संकल्पशक्ति के साथ खड़े हैं-कौन सी शिरा में कौन सी धधक/कौन सी रग में कौन सी फुरफुरी/कहाँ है पश्यत कैमरा जिसमें/ तथ्यों के जीवनदृश्य उतरते हैंकहाँ-कहाँ सच्चे सपनों के आशय/कहाँ-कहाँ क्षोभक-स्फोट सामान'।


       ‘पत्ते न खड़के, सेना ने घेर ली है सड़कें। किसी जनक्रान्ति के निमित यह मार्शल ला है। जनक्रान्ति के सपनों का अगुआ कौन हैं। जिसकी तलाश में व्यवस्था ने अपनी सारी ताकत झोक दी हैं। शीश की हड्डियों को तोड़ने से लेकर लोहे की कील ठोकने तक। मार्शल ला द्वारा सारी दमनकारी मनुष्य विरोधी कार्यवाहियों के वावजूद- ‘मेरी ही विक्षोम-मणियों के लिए वे/मेरे ही विवेक रत्नों को लेकर/बढ़ रहे हैंलोग अंधेरे में सोत्साह'।


       मुक्तिबोध सव कुछ अंधेरे में तलाशते हैं। मशाल को हवा के थपड़ों ने वुझा दिया हैं। पर आँखों में बिजली के फूल खिलते हैं। और बिजली के फूल उगाने की कोशिश जारी हैंलाल-लाल लोहे की पट्टी आत्मा के चक्के पर चढाई जा रही है। अंधेरे के विरूद्ध संघर्ष जारी हैं। राम की शक्तिपूजा में निराला ने भी अंधकार और मशाल के बीच द्वन्द्व को महसूस किया हैं-'है आत्मनिशा, उगलता गगन धन अंधकार/ खो रहा दिशा का ज्ञान स्तब्ध है पवन चार/ अप्रतिहत गरज रहा पीछे अंबुधि विशाल/भूधर ज्यों घ्यान मग्न, केवल जलती मशाल'। निराला की शक्ति की अभिव्यक्ति हैं जलती मशाल घने अन्धकार के बीच। अंधेरे और मशाल निराला और मुक्तिबोध दोनों के यहाँ मौजूद हैंपरन्तु मुक्तिबोध के यहाँ जो मध्यरात्रि का जुलूस हैं और उस जुलूस में जो चेहरे शामिल हैं, उन चेहरो के विरूद्ध अभिव्यक्ति के खतरे उठाने का साहस हैं। वही उन्हें परम अभिव्यक्ति अनिवार और आत्मसंभवा बनाता है।


       अंधेरे में की शुरूआत और अन्त दोनों छोर पर व्यक्त यथार्थ और अभिव्यन्जना पर दृष्टि रखते हुए मुक्तिबोध की वैचारिकी की पड़ताल की जानी चाहिए‘जिन्दगी के/कमरों में अंधेरे/लगातार हैं चक्कर/कोई एक लगातार/आहट पैरों की देती सुनाई/बार-बार/वह नहीं दिखता/किन्तु वह रहा घूम। तिलिस्मी खोह में गिरफ्तार कोई एक भीत पार आती हुई पास से/ गगन अन्धकार घ्वनि सा/ अस्तित्व जगाता/ अनिवार कोई एक और मेरे हृदय की धकधक/पूछती वह कौन सुनाई जो देता पर नही देता दिखाई।


         आखिर वह रहस्यमयी व्यक्ति कौन है? जो लाललाल कुहरे के सामने रक्तलोक स्नात पुरुष एक। यह पुरुष पूरी कविता में कई मोड़ पर आता हैं। मुक्तिबोध को आगाह करता हुआ। हृदय को बिजली के झटके देता हुआ। अंधेरे में कविता के अन्त में मुक्तिबोध स्वयं उपस्थित होते हैं- ‘इसलिए मैं हर गली में/और हर सड़क पर/झांक-झांक देखता हूँ हर चेहरा/प्रत्येक गतिविधि/ प्रत्येक चरित्र/ व हर एक आत्मा का इतिहास/ हर एक देश व राजनीतिक परिस्थिति/प्रत्येक मानवीय स्वानुभूत आदर्श/विवेक प्रक्रिया, क्रियागत परिणाम/ खोजता हूँ पठार......पहाड़......समुन्दर। जहाँ मिल सके मुझे। मेरी वह खोई हुई/परम अभिव्यक्ति अनिवार। आत्मसंभव'। सम्पर्क : २२३, प्रकाश निकुंज-निजामुद्दीनपुरा,


                                                                                                                                                                 सम्पर्क : २२३, प्रकाश निकुंज-निजामुद्दीनपुरा,


                                                                                                                                                                        मऊनाथ भंजन, जनपद- मऊ, उत्तर प्रदेश


                                                                                                                                                                                           मोबाईल नं.: ९४१५२४६७५५