गजल - महेश अश्क

 


देखते हो न शाम उदास-उदास


सुबह इससे जियादा थी बकवास


जिससे मिलिए वही कराता है


अपने होने का बार-बार एहसास


ऐ नदी तुझ तक आते-आते भी


मार देती है आदमी को प्यास


खेल है टूटना भरोसे का


रोज बनता-बिगड़ता है विश्वास


खूबसूरत वही है आफ़िस में


देख कर जिसको मुस्कुराए बॉस


फूल मत एक-दो किताबों पर


लोग पढ़के भी छीलते हैं घास


अश्क जी, अब पहुंच है हिकमत है


आजकल दिल कहां किसी के पास..