समय-संवेद्य - गाँधी का उच्च शिक्षा का स्वप्न - डॉ. क्षमा शंकर पाण्डेय

डॉ. क्षमा शंकर पाण्डेय - इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिन्दी विषय में स्नातकोत्तर उपाधि। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से पीएच.डी की उपाधि। फरवरी 1989 से जुलाई 1990 तक विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की शोध परियोजना। हिन्दी कथा साहित्य में प्रेरक शक्ति के रूप में राष्ट्रीय एकता के अंतर्गत इलाहाबाद विश्वविद्यालय हिन्दी विभाग में रिसर्च एसोसिएटअगस्त 1990 से जून 2015 तक प्रदेश के विभिन्न राजकीय महाविद्यालयों में हिन्दी विषय का अध्यापन, शोध एवं शोध निर्देशन करते हुए एसोसिएट प्रोफेसर के रूप में सेवानिवृत्त। कई पुस्तकें प्रकाशित।


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सशक्त, स्वावलंबी और अपनी निजताओं से लैस भारत का स्वप्न देखने वाले राष्ट्रपिता गांधी जी ने शिक्षा के सवाल पर गंभीरता से विचार किया था। उनके इस स्वप्न में बुनियादी शिक्षा, उच्च शिक्षा, स्त्री शिक्षा, प्रौढ़ शिक्षा और धार्मिक शिक्षा सभी सम्मिलित थे। गांधी जी की इस परिकल्पना में शारीरिक श्रम से विमुख करने वाली शिक्षा कदापि नहीं थी। श्रम का तिरस्कार उनकी दृष्टि में अपराध थावे अक्षर ज्ञान को महत्वपूर्ण मानते हुए भी विकास का एकमात्र कारण नहीं मानते थे। हरिजन सेवक में १५ मार्च १९३५ में उन्होंने लिखा कि, "इसमें शक नहीं कि अक्षर ज्ञान से जीवन का सौंदर्य बढ़ जाता है लेकिन यह बात गलत है कि उसके बिना मनुष्य का नैतिक, शारीरिक और आर्थिक विकास हो ही नहीं सकता।" वे अपने समय ही नहीं, भविष्य को भी देख रहे थे कि शिक्षा के वर्तमान स्वरूप में कलम पकड़ने वाले हाथ शारीरिक श्रम को उपेक्षा भरी दृष्टि से देखेंगे तभी शिक्षा के सवाल पर विचार करते हुए उन्होंने यंग इंडिया में १ सितम्बर १९२१ को लिखा था कि, “शिक्षा को निरी साहित्यिक बना देना तथा लड़कों और लड़कियों को उत्तर जीवन में हाथ के काम के अयोग्य बना देना गुनाह है। चूंकि हमारा अधिकांश समय अपनी रोजी कमाने में लगता है इसलिए हमारे बच्चों को बचपन से ही इस प्रकार के परिश्रम का गौरव सिखाना चाहिए। हमारे बालकों की पढ़ाई ऐसी नहीं होनी चाहिए, जिससे वे मेहनत का तिरस्कार करने लगें।" उद्योग कौशल सिखाने वाली शिक्षा आत्मनिर्भर और स्वाभिमान की पहली सीढ़ी है। इसी बीज के अनुरूप उन्होंने उच्च शिक्षा पर भी विचार किया।


    उच्च शिक्षा के संदर्भ में उनके विचार उनके द्वारा संपादित पत्रों में १९२८ से लेकर १९४७ तक की अवधि में फैले हुए हैं। शिक्षा और शिक्षा व्यवस्था के क्षेत्र में स्वावलम्बन उनकी पहली शर्त थी। इसके अतिरिक्त शिक्षा प्रबंधन में राज्य का कम से कम हस्तक्षेप चाहते थे। आज कारपोरेट घरानों द्वारा ज्ञान को भी खरीद कर निजी बनाने का जो अभियान चलाया जा रहा है, वह बापू का काम्य नहीं था। हरिजन में ३१ जुलाई १९३७ को उन्होंने लिखा कि, "मैं कॉलेज की शिक्षा में कायापलट करके उसे राष्ट्रीय आवश्यकताओं के अनुकूल बनाऊँगा। यंत्रविद्या तथा अन्य इंजीनियरों के लिए डिग्रियाँ होंगी, उसके प्रशिक्षण का खर्च उद्योग ही देंगे। इस प्रकार टाटा वालों  से यह आशा की जाएगी कि वे राज्यों की देखरेख में इंजीनियरों को तालीम देने के लिए एक कॉलेज चलाएं। इसी तरह मिलों के संघ अपनी जरूरतों के स्नातकों को तालीम देने के लिए अपना कॉलेज चलाएंगे। इसी तरह आवश्यकता के अनुरूप तैयार होने वाले तकनीकी विशेषज्ञ बेरोजगार न होते और न ही पढ़ें फारसी बेचें तेल की स्थिति आती। अपने विचार को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने लिखा कि, “इसी तरह और उद्योगों के नाम लिए जा सकते हैं। वाणिज्य व्यवसाय वालों का अपना कॉलेज होगा। अब रह जाते हैं कला, औषधि और खेती। कई खानगी कला-कौशल आज भी स्वावलंबी है। इसलिए राज्य ऐसे कॉलेज चलाना बंद कर देगाडाक्टरी के कालेज प्रामाणिक अस्पताल के साथ जोड़ दिए जाएंगे। चूँकि ये धनवानों में लोकप्रिय हैं इसलिए उनसे आशा रखी जाती है कि वे स्वेच्छा से दान देकर डॉक्टरों के कॉलेज चलाएंगे और कृषि कॉलेज तो अपने नाम को सार्थक करने के लिए स्वावलंबी होने ही चाहिए। मुझे कुछ कृषि स्नातकों का दुखद अनुभव है। उनका ज्ञान ऊपरी होता है। उनमें व्यावहारिक अनुभव की कमी होती है परंतु यदि वे देश की जरूरतों के अनुसार चलने वाले और स्वावलंबी तालीम लें तो उन्हें उन्हें अपनी डिग्रियाँ लेने के बाद फिर अपने मालिकों के खर्च पर तजुर्बा हासिल नहीं करना पड़ेगा।" ध्यातव्य है कि बापू की दृष्टि एक ओर जहाँ शिक्षितों के पूर्ण समायोजन पर थी, वहीं दूसरी ओर वे राज्य की भारी- भरकम राशि पर शिक्षित-प्रशिक्षित लोगों के पेशा बदलने के प्रति सतर्क थे जैसी प्रवृत्ति इधर कुछ वर्षों से इंजीनियरिंग एवं मेडिकल की शिक्षा प्राप्त स्नातकों में देखी जा रही है। वे आधिकाधिक प्रशासनिक सेवाओं की ओर आकर्षित हैं।


    बापू के हर निर्माण के स्वप्न में स्वावलंबन केन्द्रीय था, फिर चाहे वह व्यक्ति निर्माण हो या समाज का। शिक्षा और शिक्षा व्यवस्था भी इसका अपवाद नहीं था। 'यंग इंडिया' में २ अगस्त १९२८ को लिखे अपने आलेख में शिक्षा के क्षेत्र में कैसे स्वावलंबन की उन्हें अपेक्षा थी, इसके बारे में लिखा। अपनी बात को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा कि, “यह सुझाव अक्सर दिया गया है कि यदि शिक्षा अनिवार्य करनी हो या शिक्षा-प्राप्ति की इच्छा रखने वाले सब लड़के-लड़कियों के लिए उसे सुलभ बनाना हो, तो हमारे स्कूल और कॉलेज पूरी नहीं तो करीब-करीब स्वावलंबी हो जाने चाहिए। दान, राजकीय सहायता अथवा विद्यार्थियों से ली जाने वाली फीस द्वारा भी उन्हें स्वावलम्बी बनाया जा सकता है, लेकिन यहाँ वैसा स्वावलंबन इष्ट नहीं है।" अपनी बात को स्पष्ट करते हुए आगे उन्होंने लिखा, “विद्यार्थियों को खुद कुछ ऐसा काम करना चाहिए, जिससे आर्थिक प्राप्ति हो और इस तरह स्कुल तथा कॉलेज स्वावलंबी बनें। औद्योगिक तालीम को अनिवार्य बना कर ही ऐसा किया जा सकता है। विद्यार्थियों को साहित्यिक तालीम के साथ-साथ औद्योगिक तालीम भी मिलनी चाहिए। इस आवश्यकता के सिवा और आजकल इस बात का महत्व आधिकाधिक स्वीकार किया जा रहा है। हमारे देश में तो औद्योगिक तालीम की आवश्यकता शिक्षा को स्वावलंबी बनाने के लिए भी है।" शिक्षा में श्रम का गौरव स्थापित करने के लक्ष्य को स्वावलंबन से जोड़ते हुए उन्होंने आगे लिखा कि, "लेकिन यह तभी हो सकता है जब हमारे विद्यार्थी श्रम का गौरव अनुभव करना सीखें और हाथ उद्योग के अज्ञान को अप्रतिष्ठा का चिह्न माना जाने लगे। अमेरिका में, जो दुनिया का सबसे धनी देश हैं और इसलिए जहाँ शिक्षा को स्वावलंबी बनाने की आवश्यकता कम से कम है, विद्यार्थी प्रायः अपनी पढ़ाई का पूरा अथवा आंशिक खर्च खुद कोई उद्योग कर के निकालते हैं। अगर अमेरिका अपने स्कूल और कॉलेज इस तरह चलाता है कि विद्यार्थी अपनी पढ़ाई का खर्च खुद निकाल लिया करें, तो हमारे स्कूलों और कॉलेजों में तो इस बात की आवश्यकता और अधिक मानी जानी चाहिए।" बापू ने जिस चीज की आवश्यकता १९२८ में महसूस की थी, आज की सुविधा भोगी, परजीवी पीढ़ी, जो छात्रवृत्तियों, सुविधाओं की आदी होती जा रही है को देखकर और ज्यादा महसूस हो रही है।


    गांधी जी शिक्षा के क्षेत्र में फीस माफी आदि का बहुत समर्थन नहीं करते थे। वे दान या कृपा से प्राप्त शिक्षा को भिक्षा तुल्य ही मानते थे। उनका मानना था कि ऐसे माध्यमों से प्राप्त शिक्षा द्वारा व्यक्तित्व का पूर्ण विकास नहीं होता। १९२८ वाले अपने आलेख में उन्होंने लिखा था कि, "हम गरीब विद्यार्थियों को फीस की माफी आदि की सुविधा दें, उससे क्या यह ज्यादा अच्छा नहीं होगा कि हम उनके लिए ऐसा कोई काम दें जिसे करके वे अपना खर्च खुद निकाल लें। भारतीय युवकों के मन में यह वहम भर कर कि अपनी जीविका अथवा पढ़ाई का खर्च कमाने के लिए हाथ पावों की मेहनत करना भद्रोचित नहीं है। हम उनका अपार अहित करते हैं। यह अहित नैतिक भी है और भौतिक भी है तथा भौतिक की अपेक्षा नैतिक ज्यादा है। फीस आदि की माफी धर्मबुद्धि रखने वाले विद्यार्थियों के मन पर आजीवन बोझ की तरह पड़ी रहती है और ऐसा होना भी चाहिए। अपने उत्तर जीवन में कोई इस बात का स्मरण कराना पसंद नहीं करता कि उसे अपनी शिक्षा के लिए दान का आधार लेना पड़ा थालेकिन यदि उसने अपनी शिक्षा के लिए परिश्रम पूर्वक उद्योग किया हो और इस तरह अपनी पढ़ाई का खर्च निकालने के साथ-साथ अपनी बुद्धि शरीर और आत्मा का विकास भी सिद्ध किया हो तो ऐसा कोन है जो अपने उन दिनों को गर्व से याद न करेगा?" कहने की आवश्यकता नहीं कि खंडित व्यक्तित्व गढ़ने वाली शिक्षा व्यवस्था के बरक्स यह विचार ज्यादा अनुकरणीय था।


    'हरिजन' के २ अक्टूबर १९३७ के अंक में भावी विश्वविद्यालयों के स्वरूप पर विचार करते हुए गांधी जी ने लिखा कि, "राज्य के विश्वविद्यालय खालिस परीक्षा लेने वाली संस्थाएं रहें और वे अपना खर्च परीक्षा शुल्क से ही निकाल लिया करें। विश्वविद्यालय शिक्षा के सारे तंत्र की देखरेख रखेंगे और शिक्षा के विभिन्न विभागों के पाठ्यक्रम तैयार कर उन्हें मंजूरी देंगे। कोई खानगी स्कूल अपने-अपने विश्वविद्यालयों से पूर्व स्वीकृति लिए बिना नहीं चलाए जाने चाहिए। विश्वविद्यालय की स्वीकृति पत्र प्रमाणित योग्यता वाले और अप्रामाणिक व्यक्तियों को किसी भी संस्था को उदारतापूर्वक दिए जाने चाहिए और हमेशा यह समझ कर चलाया जाएगा कि विश्वविद्यालयों का राज्य पर कोई खर्च नहीं पड़ेगा। उन्हें सिर्फ एक केन्द्रीय शिक्षा विभाग का ही खर्च उठाना होगा।" ऐसे विश्वविद्यालय जो आत्मनिर्भर हों, और ज्ञान निर्देशन के केन्द्र हों, बापू का सपना था। शिक्षा के क्षेत्र में राज्य का कम से कम हस्तक्षेप बापू की स्वराज परियोजना का अंग था।


  हरिजन सेवक में ९ जुलाई १९३८ के अंक में उन्होंने उच्च शिक्षा को लेकर कुछ महत्वपूर्ण बातें लिखीं। उन्होंने स्पष्ट लिखा कि, "विश्वविद्यालयों को स्वावलम्बी जरूर बनाना चाहिए। राज्य को समान्यतः उन्हीं लोगों को शिक्षा देनी चाहिए जिनकी सेवाओं की उसे आवश्यकता हो। शिक्षा की अन्य सब शाखाओं के लिए उसे निजी प्रयत्न को ही प्रोत्साहन देना चाहिए। शिक्षा का माध्यम तो एकदम और हर हालात में बदल दिया जाना चाहिए और प्रान्तीय भाषाओं कोउनका उचित स्थान मिलना चाहिए। आज प्रतिदिन पैसे की जो भयंकर बरबादी बढ़ती जा रही है, उसकी बजाय तो उच्च शिक्षा के क्षेत्र में कुछ समय के लिए मैं अव्यवस्था को भी अधिक पसंद करूंगा।" इस वक्तव्य की सबसे महत्वपूर्ण बात शिक्षा के माध्यम की थी। आज भी भाषा सीखने में जाया होने वाले श्रम, शक्ति और धन की मात्रा बढी ही है। अपनी भाषा में शिक्षा उपलब्ध कराने का दायित्व जिन्हें उठाना चाहिए था, वे इस विचार को अप्रासंगिक मान चुके हैं और फलतः औपनिवेशक ढाँचा भाषा और मानसिकता का वर्चस्व उच्च शिक्षा के क्षेत्र में बरकरार है। 


    इसी आलेख में आगे उन्होंने अपने सपने की बात की और लिखा कि, “मैं उच्च शिक्षा का विरोधी नहीं हूँ। लेकिन उस शिक्षा का मैं जरूर विरोधी हूँ जो कि आज इस देश में दी जा रही है। मेरी योजना में आज से अधिक संख्या में और अधिक अच्छे पुस्तकालय होंगे। अधिक संख्या में और अधिक प्रयोगशालाएँ होंगी। मेरी योजना में हमारे पास ऐसे रसायन शास्त्रियों, इंजीनियरों तथा अन्य विषयों के विशेषज्ञों की एक बड़ी फौज होगी जो राष्ट्र के सच्चे सेवक होंगेवे उस जनता की दिनोंदिन बढ़ने वाली विविध प्रकार की आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकेंगे, जो अपने अधिकारों तथा आवश्यकताओं के बारे में अधिकाधिक जाग्रत बनती जा रही है। ये सब विशेषज्ञ अंग्रेजी भाषा नहीं बोलेंगे बल्कि लोगों की भाषा बोलेंगे। वे लोग जो ज्ञान प्राप्त करेंगे, वह सब लोगों की सामूहिक संपत्ति होगी और उसका खर्च समान रुप से न्यायपूर्वक बाँटा जाएगा।"


    शिक्षा केंद्रों के रूप में राज्य द्वारा विश्वविद्यालयों की स्थापना गांधी का सपना नहीं था। हरिजन में २ नवम्बर १९४७ को उन्होंने लिखा कि, "मेरी राय में विश्वविद्यालयों की स्थापना के लिए रुपया जुटाना लोकतांत्रिक राज्य का काम नहीं है। लोगों को उनकी जरुरत होगी तो वे आवश्यक पैसा खुद जुटा लेंगे। इस प्रकार स्थापित विश्वविद्यालय देश के भूषण होंगे। जहाँ शासन विदेशियों के हाथ में होता है, वहाँ लोगों को जो कुछ मिलता है, वह सब ऊपर से आता है और इस प्रकार अधिकाधिक पराधीन हो जाते हैं। जहाँ उसका आधार जनता की इच्छा पर होता है और इसलिए व्यापक होता है, वहाँ हर चीजें नीचे से उठती हैं और इसलिए टिकती हैं। वह दिखने में भी अच्छी होती है और लोगों को शक्ति देती हैं। ऐसी लोकतांत्रिक योजना में विद्या-प्रचार में लगाया हुआ रुपया लोगों को दसगुना लाभ पहुंचाता है, जैसे अच्छी जमीन में बोया हुआ बीज बढ़िया फसल देता है। विदेशी प्रभुता के अधीन कायम किए गए विश्वविद्यालय उल्टी दिशा में चले हैंशायद दूसरा कोई परिणाम हो भी नहीं सकता था। इसलिए जब तक भारतवर्ष अपनी नव प्राप्त सवतंत्रता को पचा न लें तब तक विश्वविद्यालय कायम करने के बारे में हर दृष्टि से सावधान रहना चाहिए।" इस पूरे वक्तव्य के मूल में एक ओर जहाँ देश को अधिकाधिक स्वावलंबी बनाने का स्वप्न था, वहीं दूसरी ओर शिक्षा को राज्य के नियंत्रण और प्रबंधन से मुक्त रखने की कामना थी। संभवतः बापू सत्ता के चरित्र को बखूबी समझ रहे थे।


                                                सम्पर्क : 100 सराय तकी, निकट सरोज विद्याशंकर इण्टर कालेज, झूसी, प्रयागराज-211019, उत्तर प्रदेश