आलेख - इलाहाबाद की साहित्यिक भूमि और बालकृष्ण भट्ट - अरुण रंजन

ग्राम+पोस्ट : कतिकनार, बक्सर(बिहार) हाई स्कूल : उच्च विद्यालय कतिकनार इंटरमीडिएट : कॉलेज ऑफ कॉमर्स, पटनास्नातक और परास्नातक : इलाहाबाद विश्वविद्यालय शोधार्थी : हिंदी विभाग, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय


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 परिवर्तन प्रकृति का नियम है और सच यह है कि जैसे-जैसे समय बदलता हैठीक वैसे ही जरूरतें बदलती जाती हैं। साहित्य और लेखन की विधा त्याग और निष्ठा से ज्यादा जीवनयापन का विषय बन गई हैसाहित्य में प्रेम और तपस्या के स्थान पर बाजार हावी हो गया है और इसके लिए कहीं से भी साहित्यकारों को दोषी नहीं ठहराया जा सकता है।


    इलाहाबाद की भूमि को प्रेरणा की भूमि कहा जाता है। गंगा-जमुनी तहजीब यहीं से बनी है। इलाहाबाद ऐसी नगरी है जहाँ कोई एक बार आ जाता है तो वह अपनी इलाहाबादियत कभी भूल नहीं पाता है और किसी-न-किसी माध्यम से यहीं का होकर रह जाता है। एक समय ऐसा भी था जब हिंदी के किसी भी साहित्यकार को अपनी साहित्यिक पहचान बनाने के लिए इलाहाबाद के साहित्यकारों की सहमति या दूसरे शब्दों में कहें तो इनका ठप्पा लगना जरुरी था। यह अनायास ही नहीं था अपितु इसी नगर को हिंदी भाषा के आन्दोलन की जननी कहा जाता है। इलाहाबाद ने साहित्य सृजन के कई युगों और धाराओं को आगे बढ़ाया है तथा आज भी यह प्रक्रिया निरंतर जारी है। हिंदी भाषा और साहित्य के सामने जब भी कोई संकट आता है तो पूरा साहित्य जगत् और देश की निगाहें बड़ी उम्मीद के साथ इलाहाबाद की तरफ ठहर जाती है। इस शहर से हमेशा किसी मजबूत जवाब की अपेक्षा रहती है। इस मिट्टी में हिंदी के महान् सर्जक जन्मे, पले-पढ़े एवं हिंदी को न केवल देश बल्कि विश्व पटल पर एक खास पहचान दिलाई।


    इलाहाबाद की मिट्टी ने निराला, पंत और महादेवी वर्मा जैसे कई सरस्वती को साधने वाले साधकों को अपनी गोद में जगह दी और इनके पूर्वजों के रूप में बालकृष्ण भट्ट जैसे निडर एवं साहसी रचनाकारों को आश्रय दिया, जिन्होंने इस नगर की यश एवं कीर्ति में चार चाँद लगा दिए। इलाहाबादी साहित्यकारों ने अपनी विधा, शैली एवं विचारों के माध्यम से दुनिया भर में अपनी छाप छोड़ीजब हम छायावाद की तरफ नज़र डालते हैं तो यह साफ पता चलता है कि छायावाद का पूरा-का-पूरा प्रयोग ही इलाहाबाद का था।


    गौरतलब है कि बालकृष्ण भट्ट और हिंदी प्रदीप का योगदान हिंदी साहित्य जगत में किसी से छुपा नहीं है लेकिन उस पूरे विवरण को न देकर यहाँ केवल इलाहाबाद से सम्बंधित कुछ विशिष्ट पहलुओं पर भट्ट जी के विचार उद्धत करना प्रासँगिक होगा। जिस समय बालकृष्ण भट्ट जी ने अपनी लेखनी की शुरुआत की थी वह समय भारतीय इतिहास में राजनीतिक रूप से बहुत उथल-पुथल से भरा हुआ था। देखा जाए तो १९वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में जब राष्ट्रीय आन्दोलन और औपनिवेशिक दासता के बीच भारतीय समाज लगातार संघर्ष कर रहा था तो ऐसे समय में हिंदी साहित्य जगत के जिन लोगों ने गंभीर चिंतन-मनन की शुरुआत की, उनमें भारतेंदु जी के साथ बालकृष्ण भट्ट सर्वाधिक महत्वपूर्ण नज़र आते हैं। सामान्यतः यह देखने को मिलता है कि बालकृष्ण भट्ट के साथ एक मुश्किल यह है कि भारतेंदुमंडल में होते हुए भी उनका व्यक्तित्व भारतेंदु-मंडल से कुछ भिन्न कोटि का था। भारतेंदुयुग की प्रतिभा मूलतः रचनात्मक कलात्मकता की थी, जबकि बालकृष्ण भट्ट की प्रतिभा मुख्यतः आलोचनात्मक थी। भट्ट जी की वैचारिक चेतना ठीक-ठीक न भारतेंदुयुग के अनुरूप थी और न ही द्विवेदीयुग के। इनके जीवन का प्रधानतः एक ही लक्ष्य था ‘गुलामी से मुक्ति और सांस्कृतिक जागरण का प्रयास' कविवचन सुधा से सरस्वती तक जातीय जागरण का प्रयास दिखाई पड़ता हैपरन्तु राजनीतिक जागरूकता का जोखिम भरा काम ‘हिंदी प्रदीप' के माध्यम से बालकृष्ण भट्ट जी ने किया।


    रामविलास शर्मा ने हिंदी प्रदीप' एवं भट्ट जी के बारे में कहा है- 'बालकृष्ण भट्ट का ३३ वर्षों तक हिंदी प्रदीप' चलाना एक ऐतिहासिक घटना है। धुन और लगन का इससे बड़ा उदाहारण हिंदी सहित्य के इतिहास में दूसरा नहीं हैउनके पास कार्तिक प्रसाद खत्री के साधन न थे, न वह भारतेंदु की भांति सोने के पालने में झुलाए गए थे, जो समाज उन्हें हाथों-हाथ लेता। वह एक साधारण परिवार में उत्पन्न हुए थे और कुछ दिनों के लिए प्रयाग के एक कॉलेज में संस्कृत के अध्यापक रहे थे।' (बालकृष्ण भट्ट रचनावली-भाग १, संपादक-समीर कुमार पाठक, पृष्ठ-२४)


    भट्ट जी अपने स्वभाव से गरम दल के समर्थक थे। इससे सम्बंधित एक वाकिया है। जब बालगंगाधर तिलक को ६ वर्ष की सजा सुनाई गई तब पूरे देश में क्रोध एवं विक्षोभ की आग धधक उठी। इसी विरोध को जताने के लिए इलाहाबाद के बलुआ घाट पर एक सभा हुई, जिसके संयोजक पंडित सुन्दरलाल थे और सभापति बालकृष्ण भट्ट।



पंडित सुन्दरलाल ने इलाहाबाद की उस सभा के सम्बन्ध में अपने एक पत्र में बहुत मार्मिक वर्णन किया है - ‘जहाँ तक याद पड़ता है सन् १९०८ की बात है, खुदीराम बोस को फांसी हो चुकी थी, पर खुदीराम बोस का नाम खुले तौर पर उस जमाने में कौन ले सकता था?... तिलक के नाम से सभा की हिम्मत रखने वाले इलाहाबाद में हम कुछ लड़के थे, बड़े नेताओं में कोई इस काम में आगे आने को तैयार न था। तिलक को सजा मिलने पर अपना दुःख प्रकट करने के लिए बलुआ घाट पर सभा रखी गई। मैंने अपने नाम से सभा का नोटिस निकाला, पंडित बालकृष्ण भट्ट सभा के सभापति थे, उन दिनों वह कायस्थ पाठशाला में प्रोफेसर थे; सभा में मुश्किल से दो दर्जन आदमी रहे होंगे। उनमें भी पुलिस और सी.आई.डी. के थे।... सभापति की हैसियत से बालकृष्ण भट्ट खड़े हुए और अपनी आदत के अनुसार वह इलाहाबादी बोली में ही बोले, ‘का तिलक-तिलक करत हौ। हमको तिलक का कौनो दुख नाहीं बा। तिलक का कौन दुखअपने देश के लिए गए हैं फिर आय जइहैंहमको दुख उन लोगन का है, जो कभी हमसे आकर ना मिलिहैं। जो बिना खिले ही मुरझा गए। हमको दुख खुदीराम बोस का है ...।' (बालकृष्ण भट्ट रचनावली-भाग १, संपादक-समीर कुमार पाठक, पृष्ठ-३१, ३२)


   उपर्युक्त विवरण से भट्ट जी के गरम दल से जुड़ाव के साथ-साथ निडरता एवं साहसीपन का शानदार परिचय मिलता है।


    भट्ट जी शिक्षा के माध्यम से लोगों को जगाना चाहते थे। उनका मानना था कि मध्यम वर्ग के लोगों को शिक्षित करके ही देश का उपकार किया जा सकता है। एक समय जब फ़ीस में अचानक ज्यादा वृद्धि हो गई, इसी पर भट्ट जी लिखते हैं - ‘फ़ीस डेउढी दूनी लिखते हैं - ‘फ़ीस डेउढी दूनी करने से परिणाम यह हुआ कि न केवल म्योर्स सेन्ट्रल कालेज में पढ़ने वालों की संख्या बहुत ही कम हो गई वरन सुनने में आता है पश्चिमोतर और अवध के सब सर्कारी कालेज में विद्यार्थी घट गए- मसल ‘जोई रोगी भावा सोई वैदा बतावा' जो बात मंजूर थी कि तालीम यहाँ की घटै वही हुई और वही लोग पढ़ लिख सकै जो संपन्न और धनी हैं।' ('हिंदी प्रदीप', जुलाई-अगस्त, सन् १८९६, पृष्ट-४)


     भट्ट जी आधुनिक शिक्षा पद्धति के साथ-साथ अंग्रेजी माध्यम एवं तकनीकी शिक्षा के प्रबल समर्थक थे। जब इलाहाबाद विश्वविद्यालय की स्थापना को लेकर बैठक हो रही थी तो भट्ट जी ने अपना सुझाव प्रस्ताव सरकार के पास भेजा था- 'अब हमारी प्रार्थना लायल साहब से यह है कि यहाँ यूनिवरसिटी हो तो उस ढंग की न हो जैसे पंजाब में हुई है और अंग्रेजों तथा (western culture) पश्चिम के विद्वानों की बुधि का सर्वस्व जो standard उन्मापक शिक्षा प्रणाली है वह किसी तरह पर घटाई न जाए- निसंदेह संस्कृत, फारसी, अरबी का समुचित उत्साह देना किसी को अप्रिय न होगा किन्तु वह उत्साह यदि अंग्रेजी शिक्षा को घटा कर देना मंजूर हो तो ऐसा उत्साह प्रदान गवर्नमेंट सिकोरे बैठी रहे हमें यूनिवरसिटी नहींचाहिए हमारा जो कुछ स्टैण्डर्ड है वही बना रहे।' ('हिंदी प्रदीप', मई, सन् १८८६, पृष्ठ-११)


    इस वर्ष २०१८-१९ में जिस तरह व्यापक पैमाने पर अर्धकुंभ मेले का आयोजन किया जा रहा है, उस पर भट्ट जी के आज से लगभग शताब्दी वर्ष पूर्व के चिंताजनक विचार ध्यान देने योग्य है। भट्ट जी ने कुंभ मेला एवं माघ मेला में व्याप्त गड़बड़ी को ध्यान में रखते हुए अपनी तीव्र प्रतिक्रिया दी और जनता का ध्यान उस ओर आकर्षित किया- 'अधकुंभी होने से अब की साल माघ मेला की विशेष धूम है। नगाड़े सा चूतर वाले हुरदंगे नागे बैरागड़े और उदासियों के झुंड के झुंड अभी ही से इक्ठे हो रहे हैं और जुड़बुडी महाजन तथा दुर्भिक्ष और टैक्स के बोझ से दबी और कुचली प्रजा का धन लूट-२ नित्य माल चबाना और कलोंले करना उनकी फकीरी और बैराग योग का सारांश है।' ('हिंदी प्रदीप', अक्टूबर, सन् १८८७, पृष्ठ-४९, ५०) भट्ट जी की व्यवस्था के प्रति यह चिंता जायज और अनुकूल थीउन्होंने धार्मिक प्रयोजनों में हो रहे लूटपाट को बड़ी पैनी नज़र है से देखा और उनके प्रति अपनी वैचारिक प्रतिरोध को दर्ज किया। इस तरह उन्होंने इलाहाबाद की संस्कृति में प्रतिरोध के बीज बोए जिसका विराट स्वरूप इस शहर की सांस्कृतिक विरासत में दिखाई पड़ता है।


    अंत में यहीं कहना श्रेष्ठ होगा कि बदलाव और वैश्वीकरण के इस दौर में सृजन का कार्य तो कम नहीं हुआ बल्कि इसने कहीं-न-कहीं व्यावसायिक रूप धारण कर लिया है। फिर भी आज के साहित्यकार काफी उम्दा और बेहतरीन साहित्य सृजन में संलग्न हैं। साहित्य के तीर्थ इलाहाबाद की आबोहवा में सम्पूर्ण अतीत का गीत गूंजता है। धर्मवीर भारती की ‘गुनाहों का देवता' यहीं रची गई, तो रामकुमार वर्मा, अमरकांत, भैरवप्रसाद गुप्त और दूधनाथ सिंह प्रभृति साहित्यकारों ने इलाहाबाद की भूमि से जुड़कर ही अपने रचनात्मक जीवन को आकार दियानिराला की ‘वह तोड़ती पत्थर', महादेवी के गीत और पन्त की प्रकृति आज भी लोगों के जुबान पर जिंदा है।


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सहायक ग्रन्थः


१. बालकृष्ण भट्ट रचनावली : संपादक- समीर कुमार पाठक, अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स


२. भारतेंदुयुग और हिंदी भाषा की विकास परंपरा : रामविलास शर्मा, राजकमल प्रकाशन


३. 'हिंदी प्रदीप' पत्रिका के अंक (मई १८८६, अक्टूबर १८८७, जुलाई-अगस्त १८९६)


                                                                                                                                                        सम्पर्क : मो.नं. : 9565708701